किसकी चली तूलिका ऐसी,खुले सृजन के द्वार ।।
नदी किनारे नैन झुकाये,बैठी अल्हड़ नार ।।
नख से शिख तक मादकता की,जैसे गगरी भरी हुई,
या फिर मूक संगमरमर की,कोई प्रतिमा धरी हुई,
ऐसे उठे विचार हॄदय में,जैसे लाखों ज्वार उठे,
लाखों कामदेव हो विचलित,एक साथ ललकार उठे,
कितनों के तप भंग हुए हैं,देख इसे करतार ।।(1)
नदी किनारे नैन झुकाये,,,,,
अगल बगल दो घड़े धरे हैं,इक कर पीत वसन है,
और एक कर उपल देह पर,मानों करता उबटन है,
श्वेत धवल साड़ी पर निखरे,दो नीले रंग किनारे,
ज्यों गंगा के अगल बगल में,कालिंदी के दो धारे,
कंगन बाजूबन्द पायलें,और गले में हार ।।(2)
नदी किनारे नैन झुकाये,,,,,
चित्र देखकर ऐसा लगता,बोल पड़ेगी अभी अभी,
हृदयातल में दबी भावना,खोल पड़ेगी अभी अभी,
प्रिय की गहन सोच में डूबी,नार नवेली पनघट पर,
जरा न विचलित होती रमणी,सरिता जल की आहट पर,
काली काली केश राशि पर,अनुपम जूड़ा मार ।।(3)
नदी किनारे नैन झुकाये,,,,,
देख रहे हैं अम्बर पथ से,बादल यह रूप निराला,
मानों उन्हें निमंत्रण देती,आज धरा से मधुशाला,
जिसनें देखा उसनें माना,रीतिकाल प्रत्यक्ष खड़ा,
हर एक सृजनकर्ता अपनीं,कविता रचनें हेतु अड़ा,
गोरे गोर गाल लाल यूँ,जैसे पके अनार ।।(4)
नदी किनारे नैन झुकाये,,,,,
इस चित्रकार की अनुपम कृति,नें मंत्र मुग्ध कर डाला,
सारी काम कलाओं को बस,एक कलश में भर डाला,
सोच रहा हूँ कहाँ समेंटूँ,इस नीरवता के क्षण को,
धन्य कहूँ उस पाहन को या,धन्य कहूँ उस रज कण को,
मनसिज से मिलने आया,पनघट पर शृंगार ।।(5)
नदी किनारे नैन झुकाये,,,,,
©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
8120032834/7828657057