Friday, March 6, 2020

आज का संदेश

🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴

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                                *परमपिता परमात्मा के द्वारा बनाई गई यह सृष्टि निरंतर गतिमान है , समय चक्र निरंतर चलता रहता है | जोी कल था वह आज नहीं है , जो आज है वह कल नहीं रहेगा समस्त कालखंड को तीन भागों में विभक्त किया गया है जिसे हमारे विद्वानों ने भूतकाल , वर्तमानकाल एवं भविष्यकाल कहा है | जो बीत गया वह भूतकाल हो गया , जो चल रहा है वह वर्तमान है और आने वाला भविष्यकाल कहा जाता है | मनुष्य को सदैव वर्तमान में जीवन जीना चाहिए कल हम क्या थे ? आने वाले कल में है क्या होंगे ? इसके विषय में बहुत ज्यादा विचार ना करके हम आज क्या है इस पर विचार करना ही बुद्धिमत्ता कही जाती है | शायद इसीलिए हमारे महापुरुषों ने लिखा है कि :-- "गतम् शोको न कर्तव्यो , भविष्यं नैव चिन्तयेत् ! वर्तमानेषु  कार्येषु वर्तयन्ति विचक्षण: !!" अर्थात जो व्यतीत हो गया उसके विषय में शोक नहीं करना चाहिए जो भविष्य में आने वाला है उसके बारे में चिंता नहीं करना चाहिए वर्तमान में विचरण करते हुए जीवन को सुंदर से सुंदर बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए | वर्तमान क्या है ? इस पर विचार करना परम आवश्यक है |  इस समय हम जो कर रहे हैं देख रहे हैं या जिस क्षण का उपयोग कर रहे हैं वहीं वर्तमान है | भूत ,  भविष्य , वर्तमान तीनों में से वर्तमान ही हमारे पास रहता है इसलिए प्रत्येक मनुष्य को वर्तमान के प्रत्येक क्षण का उपयोग बहुत ही सावधानी पूर्वक करना चाहिए | क्योंकि इसी वर्तमान के क्षण में शाश्वत छिपा है , जिसमें विराट का दर्शन होता है | समय का प्रवाह अखंड एवं शाश्वत है , इसमें निरंतरता है | वर्तमान के क्षणों को निरर्थक मानकर महत्वहीन समझने की भूल नहीं करनी चाहिए , क्योंकि यही द्वार है  जीवन में प्रवेश करने का | जो जीवन को जानता है ,  इसके उद्देश्य एवं लक्ष्य को भी समझता है , उसे वर्तमान के क्षणों में ही गहरे - गहन अवगाहन करने से परम की उपलब्धि होती है |  यह सब कुछ निर्भर करता है वर्तमान के क्षणों एवं पलों के सदुपयोग एवं उनके सुनियोजन से | क्षण- क्षण से ही जीवन बनता है , इस सत्य की समझ से ही जीवन का रहस्य अनावृत होता है | वर्तमान को छोड़ भविष्य की योजना बनाना एक दिवास्वप्न के समान है और ऐसे ही वर्तमान को छोड़कर अतीत में ही उलझे रहना एक बिडंबना के समान है ,  परंतु जो वर्तमान को पहचान कर उसके प्रति सजग रहते हैं वे एक ऐसे जीवन को प्राप्त कर लेते हैं, जिसका प्रत्येक क्षण मूल्यवान बन जाता है |*

*आज के आधुनिक युग में मनुष्य पहले की अपेक्षा शिक्षित तो हुआ है परंतु विवेकवान भी हो गया है यह कहना थोड़ा कठिन है , क्योंकि आज प्राय: यह देखने को मिल रहा है कि लोग भविष्य की योजनाओं में डूबे रहते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि उनका वर्तमान पल पल उनके हाथ से निकलता चला जाता है | कुछ लोग अपने बीते हुए भूतकाल की सुनहरी यादों में खोए रहते हैं जिससे वह वर्तमान में कुछ भी नहीं कर पाते | भविष्य की योजनाएं बनाना अच्छी बात है परंतु भविष्य की योजनाएं बनाते समय वर्तमान को गंवा देना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती |  मेरा मानना है कि जो वर्तमान के क्षणों को भली-भांति समुचित तरीके से प्रयोग करता है उसका भविष्य चमकने लगता है और भविष्य की योजनाएं बनाते रहे मात्र से कुछ भी नहीं होने वाला है , क्योंकि भविष्य की योजनाओं को सफल करने के लिए मनुष्य को वर्तमान में कर्म करना पड़ेगा | वर्तमान समय का समुचित प्रयोग किए बिना भविष्य कभी भी उज्जवल नहीं हो सकता है | यदि  सकारात्मकता से देखा जाय तो सत्य यह है कि जो जीवन का सत्य पाना चाहता है उसे वर्तमान क्षण में जीने की कला आनी चाहिए | जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी क्षण को व्यर्थ न जाने दिया जाय और हर क्षण शुभकर्म करते रहा जाय | बूँद- बूँद से सागर बनता है और क्षण-क्षण से जीवन और इस बूँद को जो पहचान लेता है वह जीवन को पा लेता है | बीता हुआ भूतकाल कभी वापस नहीं आ सकता और आने वाला भविष्य काल समय से पहले नहीं आ सकता परंतु वर्तमान अपने हाथ में ही जो चाहिए जैसा चाहे वर्तमान का प्रयोग किया जा सकता है इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को वर्तमान में जीवन जीना चाहिए |*

*वर्तमान के क्षणों का उपयोग प्रत्येक मनुष्य को बहुत ही सावधानी से करना चाहिए क्योंकि  भविष्य का महल वर्तमान की मजबूत नींव पर ही खड़ा होता है |*  

     🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना-----*🙏🏻🙏🏻🌹

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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Tuesday, March 3, 2020

॥ आनन्दोल्लास के पर्व होलिकोत्सव का महत्व॥

 
॥ आनन्दोल्लास के पर्व होलिकोत्सव का महत्व॥
वसन्त पञ्चमी के आते ही प्रकृति में एक नवीन परिवर्तन आने लगता है। दिन छोटे हो जाते हैं। जाड़ा कम होने लगता है। उधर पतझड़ शुरू हो जाता है। माघ की पूर्णिमा पर होली का डंडा रोप दिया जाता है [होलाष्टक प्रारम्भ होने पर भी शाखा रोपी जाती है]। होली के पर्व के स्वागत हेतु आम्रमञ्जरियों पर भ्रमरावलियां मँडराने लगती हैं। वृक्षों में कहीं-कहीं नवीन पत्तों के दर्शन होने लगते हैं। प्रकृति में एक नयी मादकता का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार होली पर्व के आते ही एक नवीन रौनक, नवीन उत्साह एवं उमंग की लहर दिखाई देने लगती है। होली जहाँ एक ओर एक सामाजिक एवं धार्मिक त्यौहार है, वहीं यह रंगों का त्यौहार भी है। बालक,वृद्ध, नर-नारी-सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं। इस देशव्यापी त्योहार में वर्ण अथवा जाति भेद का कोई स्थान नहीं।
भविष्यपुराण के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन सब लोगों को अभयदान देना चाहिये, जिससे सम्पूर्ण प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे। बालक गाँव के बाहर से लकडी-कंडे लाकर ढेर लगायें। उसमें होलिका का पूर्ण सामग्री सहित विधिवत् पूजन करें। फिर उसमें आग लगाकर होलिका-दहन करें। पूजा के समय यह मंत्र पढ़ा जाता है-
असृक्याभयसंत्रस्तै: कृता त्वं होलि बालिशै:।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव॥
मान्यता है कि ऐसा करने से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं ।
इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञपर्व भी कहा जाता है। खेत से नवीन अन्न लाकर उसका यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परंपरा भी है। उस अन्न को होला कहते हैं। इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। कर्म- मीमांसा एवं पुराणों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि होलिका - महोत्सव का आरम्भिक नाम 'होलाका' था। महर्षि जैमिनि कृत 'कर्म-मीमांसा-शास्त्र' में 'होलाकाधिकरण' नामक स्वतंत्र कर्मकाण्ड का वर्णन है। होलिका-पूर्णिमा को 'हुताशनी' कहा गया है । 'लिङ्ग - पुराण' में फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा गया है और इसे बाल - क्रीड़ाओं से पूर्ण एवं लोगों को ऐश्वर्य देनेवाली बताया गया है। होलिकोत्सव मनाने के सम्बन्थ में अनेक मत प्रचलित हैं। यहाँ कुछ प्रमुख मतों का उल्लेख किया गया है-
( १ ) ऐसी मान्यता है कि इस पर्व का सम्बन्ध 'काम-दहन' से है। हमारे हिन्दू धर्म की मान्यता है कि इसी दिन भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था। तभी से इस त्यौहार का प्रचलन हुआ।
( २ ) फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त आठ दिन होलाष्टक मनाया जाता है। भारत के कई प्रदेशों में होलाष्टक शुरू होने पर पेड़ की शाखा काटकर उसमें रंग-बिरंगे कपड़ों के टुकड़े बांधते हैं। इस शाखा को जमीन पर गाड़ देते हैं। सभी लोग इसके नीचे होलिकोत्सव मनाते हैं।
( ३ ) यह त्यौहार हिरण्यकशिपु की बहन की स्मृति में भी मनाया जाता है। कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु की होलिका नामक बहन वरदान के प्रभाव से अग्नि-स्नान करने पर भी जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि-स्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद तो जल जाएगा पर होलिका बच निकलेगी। हिरण्यकशिपु की बहन ने प्रह्लाद को लेकर अग्निस्नान किया जिसमें होलिका तो जल गयी किन्तु प्रह्लाद श्रीहरि की कृपा से जीवित बच गये। तभी से इस त्यौहार को मनाने की प्रथा चल पड़ी।
( ४ ) इस दिन आम्रमञ्जरी व चन्दन को मिलाकर खाने का भी बड़ा माहात्म्य है। कहते हैं जो लोग फाल्गुन पूर्णिमा के दिन एकाग्र चित्त से हिंडोले में झूलते हुए श्रीगोविन्द पुरुषोत्तम के दर्शन करते हैं, वे निश्चय ही वैकुण्ठलोक में वास करते हैं।
( ५ ) भविष्योत्तर पुराण में इस उत्सव के सम्बन्ध में यह कथा दी गई है-
कथा
महाराज युधिष्ठिर ने जब भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गांव एवं नगर में उत्सव क्यों होता है? प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ा-मय हो जाते हैं और 'होलाका' जलाते हैं? 'होलाका' में किस देवता की पूजा होती है? किसने इस उत्सव का प्रचार किया? इसमें क्या-क्या कर्मानुष्ठान होते हैं? तब भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु की एक कथा कही।
राजा रघु के पास जाकर लोग यह कहने लगे कि 'ढुण्ढा' नामक एक राक्षसी बच्चों को दिन - रात डराया करती है और बच्चे उसके उत्पीड़न से सूख जाते हैं। राजा द्वारा पूछने पर उनके पुरोहित ने बताया कि वह मालिन की पुत्री एक राक्षसी है। उसे भगवान शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि मार नहीं सकते और न ही वह अस्त्र-शस्त्र या जाड़ा, गर्मी या वर्षा से मर सकती है । केवल क्रीड़ा-युक्त बच्चों से वह भयभीत हो सकती है । पुरोहित ने यह भी बताया कि 'फाल्गुन की पूर्णिमा' को शीतऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग समुदायों में एकत्रित होकर हँसें एवं आनन्द मनाएँ। बच्चे लकडियों के टुकडे, घास आदि एकत्रित करें तथा बड़े लोग रक्षोघ्न-मन्त्रों के उच्चारण सहित उसमें आग लगाएं । प्रज्वलित अग्नि-देव का सभी लोग तालियाँ बजाकर स्वागत कर प्रदक्षिणा करें, हँसें और अपनी-अपनी भाषा में सर्वथा मुक्त होकर उच्च-स्वर से गायन, अट्टहास, कीडा करें । इस प्रकार के 'होलिका' अर्थात् 'सर्व दुष्टापह होम' से वह 'ढुण्ढा' राक्षसी भयभीत होकर मर जाएगी ।
जब चक्रवर्ती राजा ने 'सर्व दुष्टापह होम' का विधिवत अनुष्ठान किया तो "ढुण्ढा" राक्षसी मर गई और वह दिन "होलाका ज्वलन" या होलिका दहन नाम से प्रसिद्ध हो गया । दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिका - भस्म को प्रणाम करना चाहिए। इस होम से सम्पूर्ण समुदाय रोगमुक्त होकर आनन्द से रहता है।
पुराणों में 'ढुण्ढा' राक्षसी के अन्य नाम भी मिलते है । यथा- शीतोष्णा, असृक्या, सन्धिजा, अरुकूण्ठा, होलाका/होलिका आदि। इन नामों के अर्थों का विवेचन करने पर तथा पौराणिक कथानकों के मन्तव्यों पर ध्यान देने से 'ढुण्ढा' राक्षसी के तात्विक स्वरूप का बोध होता है । 'ढुण्ढा' शब्द, ठुण्ठ या 'ठूँठ' शब्द का अपभ्रंश है । जिस प्रकार कोई वृक्ष मधुरसात्मक प्राण-रस से वंचित होकर शुष्क हो केवल 'ठूँठ' जैसा ही रह जाता है, ठीक उसी प्रकार 'ढुण्ढा' राक्षसी के प्रकोप से बालकों का शरीर सूख कर केवल 'ठूंठ' जैसा रह जाता है।
दूसरे शब्दों में शिशिर और वसन्त की सन्धि - रूपा ऋतु एक ओर स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से सौम्य बालकों के लिए पीड़ादायक होती है, तो दूसरी ओर सम्वत्सराग्नि के क्षीण होने के कारण सम्पूर्ण समुदाय को काम-मोह-अज्ञान रूपी जड़ता से आबद्ध कर देती है। इससे बचने के लिए ही हमारे ऋषियों ने रंग-वर्षण और राग-रागिनी-मय होली गायन के पावन उत्सव के रूप में सर्व-दुष्टापह अग्नि प्रज्ज्वलन का विधान हमें दिया है। आवश्यकता है कि आज हम उक्त मन्तव्यों को पुन: समझकर पूर्णतः निरोग बनते हुए नवीन संवत्सराग्नि को धारण करें।
होली आनन्दोल्लास का पर्व है । लेकिन इसमें जहाँ एक ओर उत्साह-उमङ्ग की लहरें हैं, तो वहीं दूसरी ओर कुछ बुराइयाँ भी आ गयी हैं । कुछ लोग इस अवसर पर अबीर, गुलाल के स्थान पर कीचड़, मिट्टी, कष्ट से छूटने वाले-त्वचा पर दुष्प्रभाव छोड़ने वाले रसायन-काँच मिले हुए रंग प्रयोग कर देते हैं; शराब आदि पीकर फूहड़पना कर अपशब्द बोलते हैं। जिससे मित्रता के स्थान पर शत्रुता का जन्म होता है। अश्लील व गंदे हँसी-मजाक सबके हृदय को चोट पहुंचाते हैं। अतः इन सबका त्याग करना चाहिए। होली नामक प्रेम का संदेश देने वाला यह पर्व एक वैदिक सोमयज्ञ है। होलिकोत्सव में वैरभाव का दहन करके प्रेमभाव का प्रसार किया जाता है। होली प्रेम, सम्मिलन, मित्रता एवं एकता का पर्व है। इस दिन द्वेषभाव भूलकर सबसे प्रेम और भाईचारे से मिलना चाहिये। एकता, सद्भावना एवं सोल्लास का परिचय देना चाहिये। यही इस पर्व का मूल उदेश्य एवं संदेश है। आप सभी को होली की हार्दिक अग्रिम शुभकामनायें तथा भगवान को हमारा बारंबार प्रणाम..॥

                  आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

होरी कैसे गली में खेले अब हमार री

होरी कैसे गलिन में खेले कान्हा अब हमार री।।टेक।।

बिन मौसम जो बदरा बरसें ओले पड़े हजार री।
गेहूं चना सरसों फूल झरैगें बाचैं न तो तुँआर री।।होरी.

बच्चें बुढ़े मिलकर खेलते,खेलते गांव की नाररी।
भर-भर रंग परस्पर छोड़ते,हो गए सब बिमार री।। होरी.

लाल गुलाल अबीर उड़ाते,केसर छुटते फुवार री।
भूषण बदन सब भीनते,उछाव न बिन आधार री।। होरी.

हाथ हिलाय अब सिर धुनैं,फसलों को बुखार री।
खेमेश्वर रंग कैसे बिसायें, कैसे मनाएं त्योहार री।।होरी.

              ©पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी ®
                   ओज-व्यंग्य कवि
                  मुंगेली - छत्तीसगढ़
     7828657057 - 8120032834

Thursday, February 20, 2020

शिवजी की पंचवक्त्र पूजा


शिवजी की पंचवक्त्र पूजा 

 हिन्दू सनातन धर्मका सबसे बड़ा पर्व उत्सव मतलब महाशिवरात्रि। इस महारात्रि के मध्य समय ( रात्रि के 12 बजे ) वो ही ये समय है जब निराकार शिव से पांच तत्व ओर तत्व देवताओ का प्रागट्य हुवा। इसलिए ही महाशिवरात्रि के जागरण का महत्व है । दिनभर शिबलिंग पर अभिषेक पूजा और हर प्रहर की पूजा के बाद रात्रि के तीसरे प्रहर ( मध्यरात्र ) के समय शिबलिंग पर जानकार विद्वान ब्राह्मणों , उपासको ,शंकराचार्यो सहित दंडी स्वामी ओर श्री महाराज जैसे महापुरुषों द्वारा पंचवक्त्र पूजा की जाती है। 

    गुरु गणपति की पूजा करके शिबलिंग पर दुग्ध,दंहि, घी,मधु,शक्कर ,गन्ने का रस , श्रीफल जल,गंगाजल,आमरस, द्राक्षसव,बिगैरे उत्तम द्रव्यों का अभिषेक किया जाता है । शिव लिंग के पूर्वमुख पर केसर तिलक करके भगवान सूर्य नारायण की पूजा तत्पुरुषाय नमः के स्वरूप की जाती है । शिवलिंग के पश्चिम मुख पर ॐ सद्योजात देवतायें नमः स्वरूप महागणपति (आदि ब्रह्मा)की रक्त चंदन का तिलक करक ेपूजा की जाती है। शिवलिंग के उत्तरमुख पर हल्दीचंदन का तिलक करके ॐ वामदेवाय नमः से भगवान विष्णु नारायण की पूजा की जाती है । शिबलिंग के दक्षिणमुख पर भस्म चंदन जा तिलक करके श्री अघोरेश्वर शक्ति स्वरूप की पूजा की जाती है। शिवलिंग के उर्ध्व(ऊपर)मुख पर सफेद चंदन का तिलक करके श्री ईशानाय नमः से भगवान सदाशिव की पूजा की जाती है। इस पाचो मुख की पूजा के मंत्र,मुद्रा,नैवेद्य,धूप,स्तोत्र ये तंत्र मार्ग है इसलिए गोपनीय रखा जाता है पर कोई साधक आपको ये पूजा करवा सकता है। रात्रि के इस समय शिव दर्शन करना ,जप जाप मंत्र माला करना सर श्रेष्ठ है। महाशिवरात्रि का उपवास करे ,शिवपूजा करे ,शिवमंत्र का जाप करे और संभव हो तो रात्रि का जागरण कर मध्य रात्रि को शिव दर्शन और मंत्र जाप अबश्य करे।

ऐसे तो ये पोस्ट पहले भी दे चुके है ,किन्तु कल महाशिवरात्र पर्व है इसलिए भाविक भक्तो के मार्गदर्शन केलिए फिरसे आज रख रहे है।

 ब्रह्म का मूल स्वरूप 

    निराकार ब्रह्म शिव का मूल स्वरूप प्रकाश पूंझ है और उनका नाद है ॐ कार.. एक से अनेक रूप की कल्पना मात्र से पाँच तत्व भूमि,जल,वायु,अग्नि ओर आकाश तत्व प्रकट हुवे ओर उन पांचो तत्व के देव भूमि से - (सद्योजात) महागणपति , वायु से - (वामदेव) नारायण , अग्नि से - (तत्पुरुष) सूर्यदेव , जल से - (अघोरेश्वर) शक्ति और आकाश से - (ईशान) महादेव प्रकट हुवे ओर इन पंचदेवों ने 14 ब्रह्मांड रचाया..इन सभी ब्रह्म शक्तिओ से अंशरूप अनेक देवी ,देवता ,वीर,भैरव,योगिनी,जति, सती,राम,कृष्ण,ऋषियादी अवतारों समय समय पर प्रकट होते रहते है..
     सतयुग के सप्तर्षि ओर सनकादिक मुनिओ ने प्रकाश पुंज ज्योत स्वरूप शिव जी जहाँ प्रकट हुवे वहां ज्योत आकार शिवलिंग की स्थापना की ..ज्योत स्वरूप है इसलिए ज्योतिर्लिंग कहते है ..हरेक देवी देवता ,वीर ,भैरव सभी शिव का ही अंश है इसलिए उन सभी की पूजा शिवलिंग में ही कि जाति है..द्वापर युग के बाद मूर्ति पूजा प्रथा शुरू हुई और अनेक देवी देवताओ की मूर्ति स्थापना होने लगी और धीरे धीरे हिन्दू सनातन धर्म की प्रकृति और प्रकृति के तत्व देवता स्वरूप की पूजा और जानकारी लुप्त होती गई..आज ब्रह्मविद्या के उपासक या उच्च कोटि के साधक साधु संत के अलावा शिवलिंग के विषयमे ज्ञान ही नही है..

   विश्व के किसी भी मंदिर में शिवलिंग की पूजा करो ब्रह्मांड के हरेक देवी देवताओ की पूजा अपनेआप हो जाती है.शंकराचार्य परंपरा और उच्च कोटि के साधु संत उपासक आज भी शिवजी का पंचवक्त्र पूजन करते है..

किसी भी मंदिरमे शिवलिंग का पूर्व दिशा का मुख सूर्यदेव है ,उन्हें तत्पुरुष भी कहते है.पश्चिम दिशाका मुख महागणपति है उन्हें सद्योजात कहते है.उत्तर दिशाका मुख नारायण है उन्हें वामदेव कहते है.दक्षिण दिशाका मुख भगवती है उन्हें अघोरेश्वर कहते है और उर्ध्व मुख महादेव है उन्हें इशानरूप कहते है.इस तरह शिवलिंग की पूजा से पाँच तत्व देवता और उन्ही के अंश रूप तमाम देवी ,देवता,वीर,भैरव,योगनी,जति,सती संसार के तमाम देवी देवता की पूजा हो जाती है.

  शिवालय एक यंत्र है .विद्धवान सोमपुरा ,विद्धवान ब्राह्मण , उच्चकोटि के साधु संत के मार्ग दर्शन से बने शिवालय स्वयम ही फलदायी दिव्य धाम बन जाते है

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
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महाशिवरात्रि के शुभावसर पर पढ़े माता पार्वती ओर भूतभावन भोलेनाथ के विवाह की कथा 21-02-2020


महाशिवरात्रि के शुभावसर पर पढ़े माता पार्वती ओर भूतभावन भोलेनाथ के विवाह की कथा 21-02-2020
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तुलसीदास जी कहते हैं शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।

यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं। कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥

सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मंगल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं॥ सभी अपना अपना श्रृंगार कर रहे हैं लेकिन भगवान शिव का श्रृंगार अब तक किसी ने नही किया है। 

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥  कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥

शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे।
जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया॥
शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी।

भोले नाथ का उबटन किया गया है। लेकिन हल्दी से नहीं, जले हुए मुर्दों की राख से। क्योंकि भोले नाथ को मुर्दों से भी प्यार है। एक बार भोले बाबा निकल रहे थे किसी की शव यात्रा जा रही थी। लोग कहते हुए जा रहे थे राम नाम सत्य है।

भोले नाथ ने सुना की ये सब राम का नाम लेते हुए जा रहे हैं। ये सभी मेरी ही पक्ष के लोग हैं। क्योंकि मुझे राम नाम से प्यार है। लेकिन जैसे ही लोगों ने उस मुर्दे को जलाया तो लोगों ने राम नाम सत्य कहना बंद कर दिया। और सभी वहां से चले गए।

भोले नाथ ने कहा अरे! इन सबने राम नाम सत्य कहना बंद कर दिया इनसे अच्छा तो ये मुर्दा है जिसने राम नाम सुनकर यहाँ राम नाम की समाधी लगा दी। मुझे तो इनकी चिता से और इनकी भस्म से ही प्रेम है। इसलिए मैं इनकी भस्म को अपने शरीर पर धारण करूँगा।

एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी॥

 विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बारात में चले। तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा- सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो॥ हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए॥
 
महादेवजी (यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया॥ शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे॥
 
शिवजी की बारात कैसी है जरा देखिये- कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है॥ कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने?

 बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।
भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंग से बोलते हैं॥ जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है।
 
आप सोचे रहे होंगे की भोले नाथ इन बहुत प्रेत को लेकर क्यों जा रह हैं इसके पीछे भी एक कथा है।

जिस समय भगवान राम का विवाह हो रहा था उस समय सभी विवाह में पधारे थे। सभी देवता, सभी गन्धर्व इत्यादि। भोले नाथ भी विवाह में दर्शन करने के लिए जा रहे थे। तभी भोले बाबा ने देखा की कुछ लोग मार्ग में बैठकर रो रहे हैं। शिव कृपा के धाम हैं और करुणा करने वाले हैं। भोले नाथ ने उनसे पूछा की तुम क्यों रो रहे हो? आज तो मेरे राम का विवाह हो रहा है। आप रो रहे हो। रामजी के विवाह में नहीं चल रहे?

वो बोले- हमे कौन लेकर जायेगा? हम अमंगल हैं, हम अपशगुन हैं। दुनिया के घर में कोई भी शुभ कार्य हो तो हमे कोई नहीं बुलाता है।
भोले नाथा का ह्रदय करुणा से भर गया- तुरंत बोल पड़े की कोई बात नहीं राम विवाह में मत जाना तुम, पर मेरे विवाह में तुम्हे पूरी छूट होगी। तुम सारे अमंगल-अपशगुन आ जाना। इसलिए आज सभी मौज मस्ती से शिव विवाह में झूमते हुए जा रहे हैं।
 
बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले॥ देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि) डरकर भाग चले॥

क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं॥ दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीवित बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर यही बात कही।

शिव का चंद्रशेखर रूप,,,,पार्वती की माता मैना के भीतर अहंकार था। आज भोले नाथ इस अहंकार को नष्ट करना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने भगवान विष्णु और ब्रह्माजी से कहा- आप दोनों मेरी आज्ञा से अलग-अलग गिरिराज के द्वार पर पहुँचिये। शिवजी की आज्ञा मानकर भगवान विष्णु सबसे पहले हिमवान के द्वार पर पधारे हैं। 
 
मैना (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियाँ उत्तम मंगलगीत गाने लगीं॥ सुंदर हाथों में सोने का थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। जब मैना ने विष्णु के अलोकिक रूप को देखा तो प्रसन्न होकर नारद जी से पूछा है- नारद! क्या ये ही मेरी शिवा के शिव हैं?

नारदजी बोले- नहीं, ये तो भगवान श्री हरि हैं। पार्वती के पति तो और भी अलोकिक हैं। उनकी शोभा का वर्णन नहीं हो सकता है। इस प्रकार एक एक देवता आ रहे हैं, मैना उनका परिचय पूछती हैं और नारद जी उनको शिव का सेवक बताते हैं।
 
फिर उसी समय भगवान शिव अपने शिवगणों के साथ पधारे हैं। सभी विचित्र वेश-भूषा धारण किये हुए हैं। कुछ के मुख ही नहीं है और कुछ के मुख ही मुख हैं। उनके बीच में भगवान शिव अपने नाग के साथ पधारे हैं।

अब भोले बाबा से द्वार पर शगुन माँगा गया है। भोले बाबा बोले की भैया, शगुन क्या होता है?
किसी ने कहा की आप अपनी कोई प्रिय वस्तु को दान में दीजिये। भोले बाबा ने अपने गले से सर्प उतारा और उस स्त्री के हाथ में रख दिया जो शगुन मांग रही थी। वहीँ मूर्छित हो गई। इसके बाद जब महादेवजी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया॥ बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। कुछ डर के मारे कन्या पक्ष (मैना जी) वाले मूर्छित हो गए हैं।
 
जब मैना जी को होश आया है तो रोते हुए कहा-चाहे कुछ भी हो जाये मैं इस भेष में अपनी बेटी का विवाह शिव से नहीं करूंगी। उन्होंने पार्वती से कहा-  मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूँगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद पड़ूँगी। चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाए, पर जीते जी मैं इस बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी।

नारद जी को भी बहुत सुनाया है। मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिए तप किया॥ सचमुच उनके न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है, वे सबसे उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे का घर उजाड़ने वाले हैं। उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा को क्या जाने॥
 
ये सब सुनकर पार्वती अपनी माँ से बोली- हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी! पार्वतीजी के ऐसे विनय भरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं।

फिर ऐसा कहकर पार्वती शिव के पास गई। और उन्होंने निवेदन किया है हे भोले नाथ! मुझे सभी रूप और सभी वेश में स्वीकार हो। लेकिन प्रत्येक माता पिता की इच्छा होती है की उनका दामाद सुंदर हो। तभी वहां विष्णु जी आ जाते हैं। और कहते है- पार्वती जी! आप चिंता मत कीजिये।

 आज जो भोले बाबा का रूप बनेगा उसे देखकर सभी दंग रह जायेंगे। आप ये ज़िम्मेदारी मुझ पर छोड़िये। अब भगवान विष्णु ने भगवान शिव का सुंदर श्रृंगार किया है। और सुंदर वस्त्र पहनाये हैं। करोड़ों कामदेव को लज्जित करने वाला रूप बनाया है भोले बाबा का। भोले बाबा के इस रूप को आज भगवान विष्णु ने चंद्रशेखर नाम दिया है। बोलिए चंद्रशेखर शिव जी की जय!!
 
इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्त ऋषियों को साथ लेकर अपने घर गए॥ तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात जगज्जनी भवानी है॥ पहले ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुंदर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शंकरजी से ही ब्याही गई थीं।

एक बार मोहवश इन्होने शंकर जी का कहना नहीं माना। और भगवान राम की परीक्षा ली। भगवान शिव ने इनका त्याग कर दिया और इन्होने अपनी देह का त्याग कर दिया। फिर इन्होने आपके घर पार्वती के रूप में जन्म लिया है।

 ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजी की प्रिया (अर्द्धांगिनी) हैं। और आप ये भी चिंता ना करो की भोले बाबा का रूप ऐसा है ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजी की प्रिया (अर्द्धांगिनी) हैं। आप देखना भोले बाबा के नए रूप को। जिसे भगवान हरि ने स्वयं अपने हाथो से सजाया है। तब नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया॥

तब मैना और हिमवान आनंद में मग्न हो गए। और जैसे ही भगवान शिव के दिव्य चंद्रशेखर रूप का दर्शन किया है। मैंने मैया तो देखते ही रह गई। उन्होंने अपने दामाद की शोभा देखि और आरती उतारकर घर में चली गई।
 
शिव पार्वती विवाह,,,,,नगर में मंगल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्ण के कलश सजाए। जिस घर में स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँ की ज्योनार (भोजन सामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है?

 हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बारातियों, विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को बुलवाया॥ भोजन (करने वालों) की बहुत सी पंगतें बैठीं। चतुर रसोइए परोसने लगे। स्त्रियों की मंडलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ देने लगीं॥ और व्यंग्य भरे वचन सुनाने लगीं।

 देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिए भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजन कर चुकने पर सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिए गए। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए।

फिर मुनियों ने लौटकर हिमवान्‌ को लगन (लग्न पत्रिका) सुनाई और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा॥
वेदिका पर एक अत्यन्त सुंदर दिव्य सिंहासन था। ब्राह्मणों को सिर नवाकर और हृदय में अपने स्वामी श्री रघुनाथजी का स्मरण करके शिवजी उस सिंहासन पर बैठ गए।
 
फिर मुनीश्वरों ने पार्वतीजी को बुलाया। सखियाँ श्रृंगार करके उन्हें ले आईं। पार्वतीजी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया। भवानीजी सुंदरता की सीमा हैं। करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती॥

सुंदरता और शोभा की खान माता भवानी मंडप के बीच में, जहाँ शिवजी थे, वहाँ गईं। वे संकोच के मारे पति (शिवजी) के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मन रूपी भौंरा तो वहीं (रसपान कर रहा) था।
 
मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने गणेशजी का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की संतान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?)

पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिवजी को समर्पण किया॥ जब महेश्वर (शिवजी) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब (इन्द्रादि) सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जय-जयकार करने लगे॥ अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्राह्माण्ड में आनंद भर गया॥
 
बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा- हे शंकर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर) वे शिवजी के चरणकमल पकड़कर रह गए। तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया।

फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैनाजी ने शिवजी के चरण कमल पकड़े (और कहा- नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु। छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥

हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए॥

शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी- -हे पार्वती! तू सदाशिवजी के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया॥
 
पार्वतीजी माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए। हिमवान्‌ अत्यन्त प्रेम से शिवजी को पहुँचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत तरह से उन्हें संतोष कराकर विदा किया॥

पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की॥

जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए। (तुलसीदासजी कहते हैं कि) पार्वतीजी और शिवजी जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता॥

शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया॥ तब छ: मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है॥

तुलसीदास जी कहते हैं शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।

 यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं। कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥


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                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

महाशिवरात्रि का पावन पर्व


महाशिवरात्रि का पावन पर्व 

देवों के देव भगवान् भोलेनाथ के भक्तों के लियें महाशिवरात्रि का व्रत विशेष महत्व रखता हैं। यह ध्यात्मिक महापर्व तीनों लोकों के मालिक भगवान् शिवजी का सबसे बड़ा त्योहार है, कहते हैं महाशिवरात्रि ऐसा दिन होता है जब भगवान् शंकरजी स्वयं माता पार्वतीजी के साथ पृथ्वी पर होते हैं, जहाँ उनके जितने शिवलिंग हैं।

देवों के देव भगवान् भोलेनाथ के भक्तों के लिये महाशिवरात्रि का व्रत विशेष महत्व रखता हैं, ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान शंकरजी एवम् माँ पार्वतीजी का विवाह सम्पन्न हुआ था, और इसी दिन प्रथम शिवलिंग का प्राकट्य हुआ था, इसके अलावा ये भी मान्यता है की महाशिवरात्रि के दिन भगवान् शिवजी ने कालकूट नामक विष को अपने कंठ में रख लिया था, जो समुद्र मंथन के समय बाहर से निकला था।

इस महाशिवरात्रि के व्रत रखने से भगवान भोले नाथ शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं, उपवासक की मनोकामना पूरी करते हैं, इस व्रत को सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे, युवा, वृ्द्धों के द्वारा किया जा सकता हैं, महाव्रत को विधिपूर्वक रखने पर और शिवपूजन, शिव कथा, शिव स्तोत्रों का पाठ व "उँ नम: शिवाय" का पाठ करते हुए रात्रि जागरण करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त होता हैं।

व्रत के दूसरे दिन यानी चतुर्दशी को यथाशक्ति वस्त्र-क्षीर सहित भोजन, दक्षिणादि प्रदान करके भगवान् शिवजी को संतुष्ट किया जाता हैं, इस व्रत के विषय में यह मान्यता है कि इस व्रत को जो शिव-भक्त करता है, उसे सभी भोगों की प्राप्ति के बाद, मोक्ष की प्राप्ति होती है, यह व्रत सभी पापों का क्षय करने वाला है, एवम् इस व्रत को लगातार चौदह वर्षो तक करने के बाद विधि-विधान के अनुसार इसका उद्धापन करना शुभ माना गया है।

पहला व्रत करते समय इस व्रत का संकल्प करना चाहियें, सम्वत, नाम, मास, पक्ष, तिथि-नक्षत्र, अपने नाम व गोत्रादि का उच्चारण करते हुए संकल्प के साथ महाशिवरात्रि का व्रत करना चाहिये, महाशिवरात्री के व्रत का संकल्प करने के लिये हाथ में जल, चावल, पुष्प आदि सामग्री लेकर शिवलिंग पर छोड दी जाती है।

उपवास की पूजन सामग्री में पंचामृ्त (गंगाजल, दुध, दही, घी, शहद), सुगंधित फूल, शुद्ध वस्त्र, बिल्व पत्र, धूप, दीप, नैवेध, चंदन का लेप, ऋतुफल तथा नारियल का उपयोग करना चाहिये, महाशिवरात्री व्रत को रखने वालों को उपवास के पूरे दिन, भगवान भोले नाथ का ध्यान करना चाहियें, प्रात: स्नान करने के बाद भस्म का तिलक कर रुद्राक्ष की माला धारण की जाती है।

ईशान कोण दिशा की ओर मुख कर शिवजी का पूजन धूप, पुष्पादि व अन्य पूजन सामग्री से पूजन करना चाहियें, इस व्रत के रात्रि में चारों पहर में पूजन किया जाता है. प्रत्येक पहर की पूजा में "उँ नम: शिवाय" व " शिवाय नम:" का जाप करते रहना चाहियें, अगर शिव मंदिर में यह जाप करना संभव न हों, तो घर की पूर्व दिशा में, किसी शान्त स्थान पर बैठकर इस मंत्र का जाप किया जा सकता हैं।

चारों पहर में किये जाने वाले इन मंत्र जापों से विशेष पुन्य प्राप्त होता है, इसके अतिरिक्त उपावस की अवधि में रुद्राभिषेक करने से भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्न होते है, महाशिव रात्रि के दिन शिव अभिषेक करने के लिये सबसे पहले एक मिट्टी का बर्तन लेकर उसमें पानी भरकर, पानी में बेलपत्र, आक धतूरे के पुष्प, चावल  डालकर शिवलिंग को अर्पित किये जाते है। 

व्रत के दिन शिवपुराण का पाठ सुनना चाहिए और मन में असात्विक विचारों को आने से रोकना चाहियें, शिवरात्रि के अगले दिन यानी चतुर्दशी को सवेरे जौ, तिल, खीर और बेलपत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है, महाशिवरात्री के दिन शिवभक्त का जमावडा शिव मंदिरों में विशेष रुप से देखने को मिलता है, भगवान् भोलेनाथ अत्यधिक प्रसन्न होते है।

जब उनका पूजन बेल- पत्र धतुरा का फल एवम् पंचामृत चढाते हुयें पूजन किया जाता है, व्रत करने और पूजन के साथ जब रात्रि जागरण भी किया जाये, तो यह व्रत और अधिक शुभ फल देता है. इस दिन भगवान् शिवजी की शादी हुयीं थी, इसलिये रात्रि में शिव की बारात निकाली जाती है, सभी वर्गों के लोग इस व्रत को कर पुन्य प्राप्त कर सकते हैं।

एक बार एक गाँव में कोई शिकारी रहता था, पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था, वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका, क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया. संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा. चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी. संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और उसे ऋणमुक्त कर दिया। 

अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था, शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा, बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था, शिकारी को उसका पता न चला, पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं।

इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और रात्रि में एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची, शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची तब मृगी बोली- मैं गर्भिणी हूँ, शीघ्र ही प्रसव करूँगी, तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे जो ठीक नहीं है? मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना, शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गयी।

शिकार को खोकर उसका माथा ठनका, वह चिंता में पड़ गया. रात्रि का अगला पहर बीत रहा था, तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली, शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था, उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगायी, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली- हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी. इस समय मुझे मत मारो, शिकारी हँसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं।

इससे पहले भी मैं अपना शिकार खो चुका हूँ. मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे, उत्तर में मृगी ने फिर कहा, 'जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ, हे पारधी! मेरा विश्वास करो, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गयी और उसने उस मृगी को भी जाने दिया, शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था, पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया, शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा, शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला- हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों और छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो।

ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े, मैं उन मृगियों का पति हूँ, यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो, मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा, मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया, उसने सारी बातें उस मृग को सुना दी, तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी।

अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो, मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ, उपवास, रात्रि जागरण और शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से, तथा जितनी बार बैल वृक्ष पर हिलने से जलपात्र से जल निकल कर शिवलिंग पर चढ़ने के कारण शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल और पवित्र हो गया, उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था, धनुष और बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गये।

भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया, वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा, थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई, उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गयीं।

उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया, देव लोक से समस्त देवता भी इस घटना को देख रहे थें, घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की, तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुयें।

जिस प्रकार शिकारी और मृग परिवार को मोक्ष देकर कल्याण किया, उसी प्रकार भगवान् भोलेनाथ आप सभी भाई-बहनों के ताप-संताप हर कर शिव-भक्तों का कल्याण करें, जो अमृत पीते हैं उन्हें देव कहते हैं, और जो विष को पीते हैं उन्हें देवों के देव महादेव कहते हैं, भगवान् भोलेनाथ आपकी सारी मनोकामनायें पूर्ण करें।

                     आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

महाशिवरात्रि पर केसे करे शिव पूजा कल


महाशिवरात्रि पर केसे करे शिव पूजा कल 
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सामान्य मंत्रो से सम्पूर्ण शिवपूजन प्रकार और पद्धति
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शिवपूजन में ध्यान रखने जैसे कुछ खास बाते 
(१)👉 स्नान कर के ही पूजा में बेठे
(२)👉 साफ सुथरा वस्त्र धारण कर ( हो शके तो शिलाई बिना का तो बहोत अच्छा )
(३)👉 आसन एक दम स्वच्छ चाहिए ( दर्भासन हो तो उत्तम )
(४)👉 पूर्व या उत्तर दिशा में मुह कर के ही पूजा करे
(५)👉 बिल्व पत्र पर जो चिकनाहट वाला भाग होता हे वाही शिवलिंग पर चढ़ाये ( कृपया खंडित बिल्व पत्र मत चढ़ाये )
(६)👉 संपूर्ण परिक्रमा कभी भी मत करे ( जहा से जल पसार हो रहा हे वहा से वापस आ जाये )
(७)👉 पूजन में चंपा के पुष्प का प्रयोग ना करे
(८)👉 बिल्व पत्र के उपरांत आक के फुल, धतुरा पुष्प या नील कमल का प्रयोग अवश्य कर शकते हे
(९)👉 शिव प्रसाद का कभी भी इंकार मत करे ( ये सब के लिए पवित्र हे )

  पूजन सामग्री 
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शिव की मूर्ति या शिवलिंगम, अबीर- गुलाल, चन्दन ( सफ़ेद ) अगरबत्ती धुप ( गुग्गुल ) बिलिपत्र बिल्व फल, तुलसी, दूर्वा, चावल, पुष्प, फल,मिठाई, पान-सुपारी,जनेऊ, पंचामृत, आसन, कलश, दीपक, शंख, घंट, आरती यह सब चीजो का होना आवश्यक है।

पूजन विधि 
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जो इंसान भगवन शंकर का पूजन करना चाहता हे उसे प्रातः कल जल्दी उठकर प्रातः कर्म पुरे करने के बाद पूर्व दिशा या इशान कोने की और अपना मुख रख कर .. प्रथम आचमन करना चाहिए बाद में खुद के ललाट पर तिलक करना चाहिए बाद में निन्म मंत्र बोल कर शिखा बांधनी चाहिए

शिखा मंत्र👉  ह्रीं उर्ध्वकेशी विरुपाक्षी मस्शोणित भक्षणे। तिष्ठ देवी शिखा मध्ये चामुंडे ह्य पराजिते।।

आचमन मंत्र
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ॐ केशवाय नमः / ॐ नारायणाय नमः / ॐ माधवाय नमः 
तीनो बार पानी हाथ में लेकर पीना चाहिए और बाद में ॐ गोविन्दाय नमः बोल हाथ धो लेने चाहिए बाद में बाये हाथ में पानी ले कर दाये हाथ से पानी .. अपने मुह, कर्ण, आँख, नाक, नाभि, ह्रदय और मस्तक पर लगाना चाहिए और बाद में ह्रीं नमो भगवते वासुदेवाय बोल कर खुद के चारो और पानी के छीटे डालने चाहिए
ह्रीं नमो नारायणाय बोल कर प्राणायाम करना चाहिए

स्वयं एवं सामग्री पवित्रीकरण
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'ॐ अपवित्र: पवित्रो व सर्वावस्था गतोपी व।
 य: स्मरेत पूंडरीकाक्षम सह: बाह्याभ्यांतर सूचि।।

( बोल कर शरीर एवं पूजन सामग्री पर जल का छिड़काव करे - शुद्धिकरण के लिए )

न्यास👉  निचे दिए गए मंत्र बोल कर बाजु में लिखे गए अंग पर अपना दाया हाथ का स्पर्श करे।
ह्रीं नं पादाभ्याम नमः / ( दोनों पाव पर ),
ह्रीं मों जानुभ्याम नमः / ( दोनों जंघा पर )
ह्रीं भं कटीभ्याम नमः / ( दोनों कमर पर )
ह्रीं गं नाभ्ये नमः / ( नाभि पर )
ह्रीं वं ह्रदयाय नमः / ( ह्रदय पर )
ह्रीं ते बाहुभ्याम नमः / ( दोनों कंधे पर )
ह्रीं वां कंठाय नमः / ( गले पर )
ह्रीं सुं मुखाय नमः / ( मुख पर )
ह्रीं दें नेत्राभ्याम नमः / ( दोनों नेत्रों पर )
ह्रीं वां ललाटाय नमः / ( ललाट पर )
ह्रीं यां मुध्र्ने नमः / ( मस्तक पर )
ह्रीं नमो भगवते वासुदेवाय नमः / ( पुरे शरीर पर )
तत्पश्चात भगवन शंकर की पूजा करे

(पूजन विधि निन्म प्रकार से हे )
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तिलक मन्त्र👉   स्वस्ति तेस्तु द्विपदेभ्यश्वतुष्पदेभ्य एवच / स्वस्त्यस्त्व पादकेभ्य श्री सर्वेभ्यः स्वस्ति सर्वदा //

नमस्कार मंत्र👉 हाथ मे अक्षत पुष्प लेकर निम्न मंत्र बोलकर नमस्कार करें।
 श्री गणेशाय नमः 
 इष्ट देवताभ्यो नमः 
 कुल देवताभ्यो नमः 
 ग्राम देवताभ्यो नमः 
 स्थान देवताभ्यो नमः 
 सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः 
 गुरुवे नमः  
 मातृ पितरेभ्यो नमः
ॐ शांति शांति शांति

गणपति स्मरण 
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 सुमुखश्चैकदंतश्च कपिलो गज कर्णक  लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायक।।
धुम्र्केतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः  द्वाद्शैतानी नामानी यः पठेच्छुनुयादापी।।
विध्याराम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमेस्त्था। संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते।।
शुक्लाम्बर्धरम देवं शशिवर्ण चतुर्भुजम। प्रसन्न वदनं ध्यायेत्सर्व विघ्नोपशाताये।।
वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटि सम प्रभु। निर्विघम कुरु में देव सर्वकार्येशु सर्वदा।।

संकल्प👉 
(दाहिने हाथ में जल अक्षत और द्रव्य लेकर निम्न संकल्प मंत्र बोले :)
'ऊँ विष्णु र्विष्णुर्विष्णु : श्रीमद् भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्त्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेत वाराह कल्पै वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरत खंडे आर्यावर्तान्तर्गतैकदेशे ---*--- नगरे ---**--- ग्रामे वा बौद्धावतारे विजय नाम संवत्सरे श्री सूर्ये दक्षिणायने वर्षा ऋतौ महामाँगल्यप्रद मासोत्तमे शुभ भाद्रप्रद मासे शुक्ल पक्षे चतुर्थ्याम्‌ तिथौ भृगुवासरे हस्त नक्षत्रे शुभ योगे गर करणे तुला राशि स्थिते चन्द्रे सिंह राशि स्थिते सूर्य वृष राशि स्थिते देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु च यथा यथा राशि स्थान स्थितेषु सत्सु एवं ग्रह गुणगण विशेषण विशिष्टायाँ चतुर्थ्याम्‌ शुभ पुण्य तिथौ -- +-- गौत्रः --++-- अमुक शर्मा, वर्मा, गुप्ता, दासो ऽहं मम आत्मनः श्रीमन्‌ महागणपति प्रीत्यर्थम्‌ यथालब्धोपचारैस्तदीयं पूजनं करिष्ये।''
इसके पश्चात्‌ हाथ का जल किसी पात्र में छोड़ देवें।

नोट👉  ---*--- यहाँ पर अपने नगर का नाम बोलें ---**--- यहाँ पर अपने ग्राम का नाम बोलें ---+--- यहाँ पर अपना कुल गौत्र बोलें ---++--- यहाँ पर अपना नाम बोलकर शर्मा/ वर्मा/ गुप्ता आदि बोलें

द्विग्रक्षण - मंत्र👉  यादातर संस्थितम भूतं स्थानमाश्रित्य सर्वात:/ स्थानं त्यक्त्वा तुं तत्सर्व यत्रस्थं तत्र गछतु //
यह मंत्र बोल कर चावालको अपनी चारो और डाले।

वरुण पूजन👉  
अपाम्पताये वरुणाय नमः। 
सक्लोप्चारार्थे गंधाक्षत पुष्पह: समपुज्यामी।
यह बोल कर कलश के जल में चन्दन - पुष्प डाले और कलश में से थोडा जल हाथ में ले कर निन्म मंत्र बोल कर पूजन सामग्री और खुद पर वो जल के छीटे डाले

दीप पूजन👉 दिपस्त्वं देवरूपश्च कर्मसाक्षी जयप्रद:। 
साज्यश्च वर्तिसंयुक्तं दीपज्योती जमोस्तुते।।
( बोल कर दीप पर चन्दन और पुष्प अर्पण करे )

शंख पूजन👉   लक्ष्मीसहोदरस्त्वंतु विष्णुना विधृत: करे। निर्मितः सर्वदेवेश्च पांचजन्य नमोस्तुते।।
( बोल कर शंख पर चन्दन और पुष्प चढ़ाये )

घंट पूजन👉 देवानं प्रीतये नित्यं संरक्षासां च विनाशने।
 घंट्नादम प्रकुवर्ती ततः घंटा प्रपुज्यत।।
( बोल कर घंट नाद करे और उस पर चन्दन और पुष्प चढ़ाये )

ध्यान मंत्र👉  ध्यायामि दैवतं श्रेष्ठं नित्यं धर्म्यार्थप्राप्तये। 
धर्मार्थ काम मोक्षानाम साधनं ते नमो नमः।।
( बोल कर भगवान शंकर का ध्यान करे )

आहवान मंत्र👉   आगच्छ देवेश तेजोराशे जगत्पतये।
पूजां माया कृतां देव गृहाण सुरसतम।।
( बोल कर भगवन शिव को आह्वाहन करने की भावना करे )

आसन मंत्र👉   सर्वकश्ठंयामदिव्यम नानारत्नसमन्वितम। कर्त्स्वरसमायुक्तामासनम प्रतिगृह्यताम।।
( बोल कर शिवजी कोई आसन अर्पण करे )

खाध्य प्रक्षालन👉 उष्णोदकम निर्मलं च सर्व सौगंध संयुत। 
पद्प्रक्षलानार्थय दत्तं ते प्रतिगुह्यतम।।
( बोल कर शिवजी के पैरो को पखालने हे )

अर्ध्य मंत्र👉  जलं पुष्पं फलं पत्रं दक्षिणा सहितं तथा। गंधाक्षत युतं दिव्ये अर्ध्य दास्ये प्रसिदामे।।
( बोल कर जल पुष्प फल पात्र का अर्ध्य देना चाहिए )

पंचामृत स्नान👉 पायो दाढ़ी धृतम चैव शर्करा मधुसंयुतम। पंचामृतं मयानीतं गृहाण परमेश्वर।।
( बोल कर पंचामृत से स्नान करावे )

स्नान मंत्र👉 गंगा रेवा तथा क्षिप्रा पयोष्नी सहितास्त्था। स्नानार्थ ते प्रसिद परमेश्वर।।
(बोल कर भगवन शंकर को स्वच्छ जल से स्नान कराये और चन्दन पुष्प चढ़ाये )

संकल्प मन्त्र👉 अनेन स्पन्चामृत पुर्वरदोनोने आराध्य देवता: प्रियत्नाम। ( तत पश्यात शिवजी कोई चढ़ा हुवा पुष्प ले कर अपनी आख से स्पर्श कराकर उत्तर दिशा की और फेक दे ,बाद में हाथ को धो कर फिर से चन्दन पुष्प चढ़ाये )

अभिषेक मंत्र👉  सहस्त्राक्षी शतधारम रुषिभी: पावनं कृत। तेन त्वा मभिशिचामी पवामान्य : पुनन्तु में।।
( बोल कर जल शंख में भर कर शिवलिंगम पर अभिषेक करे ) बाद में शिवलिंग या प्रतिमा को स्वच्छ जल से स्नान कराकर उनको साफ कर के उनके स्थान पर विराजमान करवाए

वस्त्र मंत्र👉 सोवर्ण तन्तुभिर्युकतम रजतं वस्त्र्मुत्तमम। परित्य ददामि ते देवे प्रसिद गुह्यतम।।
( बोल कर वस्त्र अर्पण करने की भावना करे )

जनेऊ मन्त्र👉  नवभिस्तन्तुभिर्युकतम त्रिगुणं देवतामयम। उपवीतं प्रदास्यामि गृह्यताम परमेश्वर।।
( बोल कर जनेऊ अर्पण करने की भावना करे )

चन्दन मंत्र👉 मलयाचम संभूतं देवदारु समन्वितम। विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रति गृह्यताम।।
( बोल कर शिवजी को चन्दन का लेप करे )

अक्षत मंत्र👉 अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कंकुमुकदी सुशोभित। 
माया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वर।। 
(बोल चावल चढ़ाये )

पुष्प मंत्र👉 नाना सुगंधी पुष्पानी रुतुकलोदभवानी च। मायानितानी प्रीत्यर्थ तदेव प्रसिद में।।
( बोल कर शिवजी को विविध पुष्पों की माला अर्पण करे )

बिल्वपत्र मन्त्र👉  त्रिदलं त्रिगुणा कारम त्रिनेत्र च त्र्ययुधाम। 
त्रिजन्म पाप संहारमेकं बिल्वं शिवार्पणं।।
( बोल कर बिल्वपत्र अर्पण करे )

दूर्वा मन्त्र👉  दुर्वकुरण सुहरीतन अमृतान मंगलप्रदान।
आतितामस्तव पूजार्थं प्रसिद परमेश्वर शंकर :।।
( बोल करे दूर्वा दल अर्पण करे )

सौभाग्य द्रव्य👉  हरिद्राम सिंदूर चैव कुमकुमें समन्वितम।
सौभागयारोग्य प्रीत्यर्थं गृहाण परमेश्वर शंकर :।।
( बोल कर अबिल गुलाल चढ़ाये और होश्के तो अलंकर और आभूषण शिवजी को अर्पण करे )

धुप मन्त्र👉 वनस्पति रसोत्पन्न सुगंधें समन्वित :।
देव प्रितिकारो नित्यं धूपों यं प्रति गृह्यताम।।
( बोल कर सुगन्धित धुप करे )

दीप मन्त्र👉  त्वं ज्योति : सर्व देवानं तेजसं तेज उत्तम :.।
आत्म ज्योति: परम धाम दीपो यं प्रति गृह्यताम।।
( बोल कर भगवन शंकर के सामने दीप प्रज्वलित करे )

नैवेध्य मन्त्र👉  नैवेध्यम गृह्यताम देव भक्तिर्मेह्यचलां कुरु।
इप्सितम च वरं देहि पर च पराम गतिम्।।
( बोल कर नैवेध्य चढ़ाये )

भोजन (नैवेद्य मिष्ठान मंत्र) 👉
ॐ प्राणाय स्वाहा.
ॐ अपानाय स्वाहा.
ॐ समानाय स्वाहा
ॐ उदानाय स्वाहा.
ॐ समानाय स्वाहा 
( बोल कर भोजन कराये )

नैवेध्यांते हस्तप्रक्षालानं मुख्प्रक्षालानं आरामनियम च समर्पयामि 

निम्न ५ मंत्र से भोजन करवाए और ३ बार जल अर्पण करें और बाद में देव को चन्दन चढ़ाये।

मुखवास मंत्र👉 एलालवंग संयुक्त पुत्रिफल समन्वितम। 
नागवल्ली दलम दिव्यं देवेश प्रति गुह्याताम।। 
( बोल कर पान सोपारी अर्पण करे )

दक्षिणा मंत्र👉 ह्रीं हेमं वा राजतं वापी पुष्पं वा पत्रमेव च।
दक्षिणाम देवदेवेश गृहाण परमेश्वर शंकर।।
( बोल कर अपनी शक्ति अनुसार दक्षिणा अर्पण करे )

आरती मंत्र👉 सर्व मंगल मंगल्यम देवानं प्रितिदयकम।
निराजन महम कुर्वे प्रसिद परमेश्वर।। ( बोल कर एक बार आरती करे )
बाद में आरती की चारो और जल की धरा करे और आरती पर पुष्प चढ़ाये सभी को आरती दे और खुद भी आरती ले कर हाथ धो ले।

पुष्पांजलि मंत्र👉 पुष्पांजलि प्रदास्यामि मंत्राक्षर समन्विताम।
तेन त्वं देवदेवेश प्रसिद परमेश्वर।।
( बोल कर पुष्पांजलि अर्पण करे )

प्रदक्षिणा👉 यानी पापानि में देव जन्मान्तर कृतानि च।
तानी सर्वाणी नश्यन्तु प्रदिक्षिने पदे पदे।।
( बोल कर प्रदिक्षिना करे )
बाद में शिवजी के कोई भी मंत्र स्तोत्र या शिव शहस्त्र नाम स्तोत्र का पाठ करे अवश्य शिव कृपा प्राप्त होगी।

पूजा में हुई अशुद्धि के लिये निम्न स्त्रोत्र पाठ से क्षमा याचना करें।

।।देव्पराधक्षमापनस्तोत्रम्।।

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथा:।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्व चिदपि कुमाता न भवति

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहव: सन्ति सरला:
परं तेषां मध्ये विरलतरलोहं तव सुत:।
मदीयोऽयं त्याग: समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्व चिदपि कुमाता न भवति

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्व चिदपि कुमाता न भवति

परित्यक्ता देवा विविधविधिसेवाकुलतया
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरित चिरं कोटिकनकै:।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जन: को जानीते जननि जपनीयं 

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपति:।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्

न मोक्षस्याकाड्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुन:।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपत:

नाराधितासि विधिना विविधोपचारै:
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभि:।
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव

आपत्सु मग्न: स्मरणं त्वदीयं
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथा:
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति

जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि।
अपराधपरम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम्

मत्सम: पातकी नास्ति पापन्घी त्वत्समा न हि।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु/

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                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...