Tuesday, March 17, 2020

मांसाहार पर लेख


मेरा तीन वर्ष पूर्व लिखा यह लेख आज के कोरोनावायरस जैसे इसी प्रकरण की एक आहट के संदर्भ मे था ।

*मांसाहार की आस्था - मानव अस्तित्व पर वास्तविक संकट*

 *विश्व की प्रत्येक सभ्यता एवं संस्कृति में मांसाहार हजारों वर्षों से चली आ रही सतत प्रक्रिया है* । विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यताएं समाप्त हो चुकी हैं जिनमें मिस्र, मेसोपोटामिया, बेबिलोनिया, सुमेरिया, दजला एवं फरात तथा माया सभ्यता मुख्य रूप से स्थान रखती हैं । इन सभ्यताओं में मांसाहार के अनेक स्पष्ट उदाहरण देखने को मिलते हैं, लेकिन यह विचारणीय तथ्य है कि मानव जाति की मांसाहारी प्रवृत्ति तो आज भी सतत अस्तित्व में हैं लेकिन मांसाहार पर पोषित होने वाली ये सभ्यताएं तो आज अस्तित्व में नहीं है । इन सभ्यताओं के अंत के पीछे मांसाहार एक सबसे बड़ा कारण रहा है भले ही मेरे इस विचार को पूर्वाग्रह से ग्रसित माना जाए या कोई आस्तिक अथवा मांसाहार एवं बलि प्रथा को अपनी आस्था से जोड़ने वाला अपने प्रति मेरे लेख को दुर्भावना से ग्रसित समझे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, अपितु अंतर इस बात से पड़ता है कि हम सभी सभ्यताओं के समाप्त होने के पीछे मांसाहार एक कारण हो सकता है इसका विश्लेषण अवश्य करें ।

 *वर्तमान में विश्व में भारत की आर्य एवं अन्य भारत उपमहाद्वीप की जातियां जो वैदिक संस्कृति का नवोन्मेष हैं भी अस्तित्व में है और सबसे प्राचीन सभ्यता होने का गर्वित करने वाला अलंकरण अपने साथ सुरक्षित कर रखे हुए हैं* । भारत की वैदिक संस्कृति भी कई उदाहरणों में मांसाहार करने वाली समझी जाती है जिसका उदाहरण प्रारंभिक वैदिक एवं उत्तरवैदिक तथा वेदांगों में और उपनिषदों में कहीं नहीं देखने को मिलता । केवल कुछ एक मुट्ठी भर वामपंथी इतिहासकार ही अपनी दुर्भावना गस्त विचारण के कारण वैदिक सभ्यता के स्थापकों को भी मांसाहारी बताती रही है जिसका साक्ष्य उपलब्ध नहीं है ।

 *भारत में मांसाहार पर स्वैच्छिक प्रतिबंध भारतीय युग प्रणाली के प्रमुख त्रेता युग में या उससे भी पूर्व सतयुग के प्रारंभ में स्थापित किया हुआ समझा जाना चाहिए* । _इसका उदाहरण विदेह राजऋषि जनक की राजसभा में बुलाई गई धर्म संसद में सबसे पहले देखने को मिला जिसका उदाहरण विभिन्न उपनिषदों में भी है।_ इस प्रकरण में यह कहा गया है कि मानव सभ्यता एवं संस्कृति को मांसाहार से न केवल स्थाई अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो सकता है अपितु अनेक महामारियां उत्पन्न हो सकती है, और भविष्य में कभी भी मांसाहार से कोई ऐसी महामारी उत्पन्न हो सकती है जिससे मानव समाज का इस पृथ्वी से अस्तित्व समाप्त हो सकता है, साथ ही ऋषि गण तथा सतयुग एवं त्रेता युग के अनुसंधानकर्ताओं ने यह विचार स्पष्ट रुप से अंगीकार किया था कि विभिन्न तरह के अनुसंधान कार्यों, शोधन कार्यों, वैज्ञानिक अन्वेषण तथा आध्यात्मिक क्रियाकलापों को संपन्न करने में मांसाहार से उत्पन्न होने वाले तामसी गुण, आलस्य, अकर्मण्यता, स्फूर्ति का विनाश तथा बौद्धिक रुप से मानव की तेजस्विता का कुंठित होना पाया गया, इसीलिए मांसाहार को तत्समय त्याज्य घोषित किया गया । लेकिन अनेक शताब्दियों तक मांसाहार को बहुत अधिक घृणित भारतीय सभ्यता द्वारा मानने के पश्चात भी विश्व के अनेक भागों में मांसाहार प्रचलित रहा है, यहां तक कि भारत में भी सभी जातियां एवं समुदाय तथा वर्णों के लोग भारत के मनीषियों द्वारा स्थापित मांसाहार से दूर रहने की व्यवस्था को भूलकर पुनः मांसाहार में लगे हैं तथा मानव अस्तित्व पर जो मांसाहार के कारण किसी महामारी के उत्पन्न होने से संकट आ सकता है उसके लिए स्वयं को उत्तरदाई बनाने पर तुले हुए हैं ।

 *प्रायः निकट वर्तमान में अनेक मांसाहार से उत्पन्न होने वाली महामारियों को देखा एवं अनुभव किया गया है जिनको देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि अगर कोई महामारी मांसाहारियों के मांसाहार करने की आदत के कारण प्रसारित होकर इस तरह से मानव सभ्यता एवं संस्कृति को अपनी चपेट में ले ले की आधुनिकतम चिकित्सा पद्धति मे अनेक असाध्य बीमारियों के तरह ही वह महामारी भी असाध्य ही रहे और कोई उपाय खोजने से पहले ही मानव सभ्यता एवं संस्कृति समाप्त हो जाए तो क्या होगा* । मांसाहारियों को होने वाले विभिन्न प्रकार की महामारियाँ छोटे रुप में इस युग में भी देखने को मिली हैं जिनमें एंथ्रेक्स, चिकन पॉक्स, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू, कैंसर, जीका वायरस आदि कुछ प्रमुख उदाहरण है । सोचिए अगर इनमें से कोई भी एक इस सीमा तक असाध्य हो जाए की उसका संपूर्ण मानव जाति में विस्तार हो जाए यहां तक कि शाकाहारियों में भी और कोई भी उपाय इस पर प्रतिबंध लगाने का खोजने से पहले ही पृथ्वी ग्रह के सभी मनुष्य इस में से किसी भी एक बीमारी के चपेट में आ जाएं तो क्या होगा अर्थात मानव अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, यह कोई बताने वाली बात नहीं है केवल समझने वाली बात है और जिसको मानव को अपने अस्तित्व से जोड़ते हुए समझना आवश्यक है ।

 *जहां तक आस्था एवं विश्वास से जुड़े परंपराओं के पालन करने की बात है तो यह कोई छुपा हुआ रहस्य नहीं है की अनेक परंपराएं मनुष्य की तत्कालिक आवश्यकता एवं लाभ के लिए धर्म एवं आस्था के साथ उनके पूर्वजों ने जोड़ दिए, उन्ही में से ईद भी एक तत्कालिक आवश्यकता के अनुरूप पशु वध को आस्था के साथ जोड़ने वाली धार्मिक क्रिया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । मैं समस्त मुस्लिम जगत के समूह एक प्रश्न रखना चाहता हूं* ??? कि अगर अल्लाह निर्विकार, निराकार, एवं निर्विकल्प है तब जबकि वह भोजन करने, जल का पान करने से भी परे है, तब भी कुर्बानी जैसा शब्द उसी निर्विकार, निराकार एवं निर्विकल्प अल्लाह के लिए किया जाना है हास्यास्पद कृत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । भला जो मानव की तरह अस्तित्व में ही नहीं है निर्विकार है उसको पशुओं की कुर्बानी से क्या प्रयोजन है । दोनों बातें अर्थात कुर्बानी एवं अल्लाह के निर्विकार एवं निराकार होने के तथ्य एक दूसरे के प्रति पूर्णतया विरोधाभासी है और सहज मानवीय विचार एवं वैज्ञानिक तथ्यों पर खरे नहीं उतरते । अर्थात जिसका उपयोग करने का अंग नहीं है जो निराकार एवं निर्विकार है वह आप की कुर्बानी स्वीकार करने के लिए भी उपस्थित नहीं है ।

 *ईद पर कुर्बानी के संदर्भ में प्राचीन अरब क्षेत्र की भौगोलिक एवं पर्यावरण की स्थिति को ठीक से समझना आवश्यक है* । वास्तव में अधिकांश अरब प्रायद्वीप का क्षेत्र जो आज मुस्लिम पंथ का गढ़ है तथा मानवीय अस्तित्व के संकट और संघर्ष से गुजर रहा है एक विस्तृत रेगिस्तान में परिवर्तित हो चुका है । यह प्रक्रिया धीरे-धीरे लेकिन हजारों वर्षों में सम्पन्न हुई है । प्रारंभ के वर्षों में उन क्षेत्रों में बड़े स्तर पर कृषि किए जाने के उदाहरण मिलते हैं तथा वहां वन्य क्षेत्र रहे हैं लेकिन आज वहां ना तो विस्तृत मात्रा में खेती की जा सकती है और ना ही वन क्षेत्र बचे हैं उसका कारण वहां की भौगोलिक एवं पर्यावरण तंत्र को सुरक्षित ना रख पाना रहा हैब  अरब क्षेत्रों की भूमि के नीचे अत्यधिक पेट्रोलियम पदार्थों एवं गैस और ज्वलनशील तैलीय तरल का पाए जाना वहां पर प्राचीनकाल में समस्त भूभाग पर भयंकर वन्य क्षेत्रों के अस्तित्व का उदाहरण है । क्योंकि वृक्ष ही हजारों वर्षों की प्रक्रिया के बाद भूमि के नीचे दबकर अंततः कोयला एवं पेट्रोलियम पदार्थों के रूप में परिवर्तित होते हैं । लेकिन आज अरब क्षेत्र में हरियाली नाम की कोई चीज नहीं है, इस पर्यावरण की विनाश लीला के बाद मनुष्य को जब अपना अस्तित्व संकट में दिखाई पड़ा तब अरब क्षेत्र के मुस्लिमों के पूर्वजों ने जो बचे खुचे जानवर थे उन पर गुजारे के लिए मांसाहार एवं बलि की प्रथा को, कुर्बानी की प्रथा को आस्था से एवं धर्म से जोड़ते हुए अवश्यक बना दिया और मांसाहार की प्रक्रिया बच्चों से लेकर वृद्ध एवं महिलाओं में चल निकली जिसको अज्ञानतावश आज भी मनुष्य आस्था से जोड़े हुए हैं । मुस्लिमो के अतिरिक्त अन्य धर्मों समुदायों के लोग जो भी मांसाहार करते हैं उनके पीछे तो यह आस्था का प्रश्न भी नही है बस स्वाद के लिए मांसाहार करके अपने ही बौद्धिक उन्नयन पर कुठाराघात करते हैं । आस्था एवं परंपरा के नाम पर पशुवद्ध मुस्लिमों के ही धर्म एवं कुरान में दिए गए तथ्यों के विपरीत एक कृत्य है । अरब क्षेत्र के समस्त मुस्लिम देशों में हरियाली को विशेष महत्व दिया गया है, अब हरियाली तो वहां बची नहीं इसीलिए हरे रंग को धर्म से जोड़ दिया गया, उसके पीछे निश्चित रूप से दूरदर्शी मुस्लिम आध्यात्मिक व्यक्तियों द्वारा यह स्थापित करने का प्रयास किया कि इस पृथ्वी के अस्तित्व के लिए हरियाली अत्यधिक आवश्यक है, अतः हरे रंग से प्रेम करो एवं वृक्षों को लगाओ । लेकिन मुस्लिम मौलवियों ने मुल्लाओं ने पर्यावरण की सुरक्षा का जो संदेश उनके पूर्वजों के द्वारा दिया गया हरे रंग को ग्रहण करवाकर, उसको तो अपने मन मस्तिष्क में नहीं उतारा उलटे अपने घर, दीवारें तथा कपड़े अवश्य ही हरे रंग के पहनने का प्रचलन शुरू किया, यह तब हुआ जब की वास्तविक संदेश को उन्होंने प्रचलन में नहीं लिया और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए वृक्षों के रोपण की ओर ध्यान नहीं दिया । अब हरे रंग से तो प्राण वायु (ऑक्सीजन) निकलेगी नही, वो तो वृक्ष से निकलेगी वह आप लगाते नही । समस्त विश्व में समस्त मुस्लिम समुदाय के हर एक वर्ग द्वारा हरे रंग का ध्वज एवं कपड़े तथा घरों एवं दीवारों में रंग रोगन लगाया तो जाता है लेकिन वृक्षारोपण का जो वास्तविक संदेश है वही उनके द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता । अपितु सबसे अधिक विश्व के सभी हिस्सों में वृक्षों को अगर कोई नुकसान पहुंचाता है तो लकड़ी के कारोबारी मुस्लिम ही इस कार्य में संलग्न है । उनकी इस तरह की कार्य विधियां भविष्य में विश्व के अनेक स्थानों में भी अरब क्षेत्र जैसी स्थिति पैदा कर सकती है जो कि हरियाली के समाप्त होने का कारण सिद्ध होंगे । मुस्लिम धर्म के पूर्वजों द्वारा जो बलिदान एवं कुर्बानी की प्रथा शुरू की गई थी उसको ही ईद पर ईश्वर के प्रति कुर्बानी के रूप में जोड़ दिया गया और वह विश्व के प्रत्येक हिस्से में अनियंत्रित एवं अव्यवस्थित रुप में आज देखने को मिलती है । करोड़ों पशु विश्व के विभिन्न हिस्से में कत्ल किए जाते हैं जिससे निकलने वाला रक्त और उनके सड़े हुए, बचे हुए मांस से उठने वाली दुर्गंध इस पृथ्वी के संपूर्ण वायुमंडल को दूषित करती हैं, बीमारियों को जन्म देती है जल एवं मिट्टी को भी विभिन्न हानिकारक तत्वों से भरकर हानि पहुंचाती है । एक ओर जहां मांसाहार से विभिन्न प्रकार की महामारियां उत्पन्न हो रही है दूसरी ओर कुर्बानी जैसे अनावश्यक प्रथाओं से पृथ्वी का पर्यावरण एवं वायुमंडल धीरे-धीरे मनुष्य के रहने लायक कठिन होता जा रहा है । अब क्योंकि विश्व में शाकाहार द्वारा भी अपने अस्तित्व को बचाए रखा जा सकता है, अनेक वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा पर्याप्त मात्रा में दालें, सब्जियां एवं अनाज उत्पन्न किया जा सकता है, इसीलिए मुस्लिम जीव जगत को तथा सभी मांसाहारी हिंदू, मुस्लिम, सिख इसाई को यह समझना होगा कि मानव अस्तित्व की सुरक्षा के लिए और इस ग्रह के पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र को बचाए रखने के लिए उन्हें मांसाहार छोड़ देना चाहिए । ईद पर कुर्बानी एवं मांसाहार किसी भी प्रकार से आस्था एवं धर्म से जुड़ा नहीं है और ना ही उनकी कुर्बानी निर्विकार एवं निराकार अल्लाह द्वारा स्वीकार की जा सकती है । अनेक सभ्यताओं में मानव अस्तित्व के हित में अनेक त्याज्य परंपराओं को छोड़ दिया है तथा मानव हित में मांसाहारियों को भी अपना मांसाहार छोड़कर, जनसंख्या पर नियंत्रण लगाकर शाकाहार की ओर लौटना चाहिए तथा वैदिक संस्कृति एवं सभ्यता और उपनिषदों में दिए गए भारतीय संदेश को ग्रहण करके एक स्वस्थ, स्वच्छ तथा उन्नत बौद्धिक मानवीय समाज के विकास में योगदान देना चाहिए । 
 *ईद पर विश्व भर के मुस्लिमों को मेरा आज यही संदेश है* ।

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

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