Wednesday, May 6, 2020

माटी(मुक्तक)


माटी जननी जगत की,करना इसे प्रणाम,
माटी के कोखी हुए,कृष्ण और श्री राम।
माटी के आधार पर,मुक्तक रचना नित्य,
सृजन विवेकी जन करें,हरि के सुंदर धाम।

महिमा माटी की बड़ी,जीवन हुआ ललाम,
माटी के आधार पर,सृजित तीर्थ हैं धाम।
उपजे फिर उनन्त बने,रचना विविध प्रकार,
माटी के ही गर्भ में,फिर पाये विश्राम।

माटी रचना रुचिर है,लोचन लालच नित्य,
कविर्मनीषी लिख रहे,मंगलमय साहित्य।
धरती के हर छंद में,केवल माटी जान,
माटी को करता नमन, किरणों से आदित्य।

माटी और कुम्हार का, शास्वत है सम्बंध,
निज सिंहासन बैठ कर,रचता नित्य प्रबंध।
मायामय मूरख हृदय,सदा रहे अनभिज्ञ,
निज लोचन रहते हुए,फिर भी जैसे अंध।

चर्म देह जिसको कहें,माटी का ही जान,
आकर्षण में दृग बँधे,ज्ञान कहें अज्ञान।
पंडित-ज्ञानी-संत सब,फँसे मृत्तिका जाल,
माटी से माटी मिले,यही पतन-उत्थान।

जल से जल जाकर मिले,मिले तेज से तेज,
यह सिद्धान्त अपेल है,राखें इसे सहेज।
खेमेश्वर मत चौंकिए,देख यहाँ का खेल,
पतन और उत्थान का,यह माटी ही सेज।

         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

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