Monday, May 11, 2020

कभी इकरार कर बैठे . . . . . . . . गीत


   कभी इकरार कर बैठे, कभी इन्कार कर बैठे
   कभी इकरार कर बैठे, कभी इन्कार कर बैठे
   जो गुस्ताख़ी न करनी थी, वही हर बार कर बैठे
   कभी इकरार कर बैठे, कभी इन्कार कर बैठे

   खिलौना दिल हमारा था जो एक दिन टूटना ही था
   फसाना ही ये ऐसा था जो एक दिन भूलना ही था
   कभी इज़हार कर बैठे, कभी ऐतवार कर बैठे
   जो गुस्ताख़ी न करनी थी वही हर बार कर बैठे
   कभी इकरार कर बैठे, कभी इन्कार कर बैठे
    
    हमें गर ये पता होता बहारें फिर न आयेंगी
    मौहब्बत की हंसीं घडि़याँ कभी इतना रुलायेंगी
    कभी इस पार जा बैठे, कभी उस पार जा बैठे
    जो गुस्ताख़ी न करनी थी वही हर बार कर बैठे
    कभी इकरार कर बैठे, कभी इन्कार कर बैठे

    कभी रुख़सार को चूमा, कभी तेरे हाथ को चूमा
    है चूमा तुझको जितना, नहीं किसी और को चूमा
    कभी ये दिल गंवा बैठे, कभी ये जां लुटा बैठे
    जो गुस्ताख़ी न करनी थी वही हर बार कर बैठे
    कभी इकरार कर बैठे, कभी इन्कार कर बैठे

    बड़ा रंगीन नज़ारा था, वो था बरसात का मौसम
    लबों से लब थे टकराते, अज़ब दिलदार का आलम
    कभी भूगोल पढ़ बैठे, कभी इतिहास लिख बैठे
    जो गुस्ताख़ी न करनी थी, वही हर बार कर बैठे
    कभी इकरार कर बैठे, कभी इन्कार कर बैठे

          ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

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