Monday, August 19, 2019

एक गोत्र में शादी क्यों वर्जित है

*एक गोत्र में शादी क्यों वर्जित है ??*

पिता का गोत्र पुत्री को प्राप्त नही होता। अब एक बात ध्यान दें की स्त्री में गुणसूत्र xx होते है और पुरुष में xy होते है। इनकी सन्तति में माना की पुत्र हुआ (xy गुणसूत्र) इस पुत्र में y गुणसूत्र पिता से ही आया यह तो निश्चित ही है क्यू की माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही !
और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) यह गुण सूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आते है।

1) xx गुणसूत्र ;- *xx गुणसूत्र अर्थात पुत्री* xx गुणसूत्र के जोड़े में एक x गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा x गुणसूत्र माता से आता है। तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे Crossover कहा जाता है।

2) xy गुणसूत्र;- *xy गुणसूत्र अर्थात पुत्र* पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्यू की माता में y गुणसूत्र है ही नही। और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारन पूर्ण Crossover नही होता केवल ५% तक ही होता है । और ९५% y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही रहता है।

तो महत्त्वपूर्ण y गुणसूत्र हुआ। क्यू की y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत है की यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है। बस इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गौत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों/लाखों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था।

*वैदिक गोत्र प्रणाली और y गुणसूत्र।*  Y Chromosome and the Vedic Gotra System
अब तक हम यह समझ चुके है की वैदिक गोत्र प्रणाली य गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है।

उदहारण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विधमान y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल है। चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नही होता यही कारन है की विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है।

वैदिक/ हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारन यह है की एक ही गोत्र से होने के कारन वह पुरुष व् स्त्री भाई बहिन कहलाये क्यू की उनका पूर्वज एक ही है। परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नही ?
की जिन स्त्री व् पुरुष ने एक दुसरे को कभी देखा तक नही और दोनों अलग अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे, तो वे भाई बहिन हो गये ??

इसका एक मुख्य कारन एक ही गोत्र होने के कारन गुणसूत्रों में समानता का भी है। आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों का साथ उत्पन्न होगी।

ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था।
इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके, इसलिये विवाह से पहले *कन्यादान* कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है, यही कारण था कि विधवा विवाह भी स्वीकार्य नहीं था। क्योंकि, कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है।

इसीलिये, कुंडली मिलान के समय वैधव्य पर खास ध्यान दिया जाता और मांगलिक कन्या होने से ज्यादा सावधानी बरती जाती है। आत्मज़् या आत्मजा का सन्धिविच्छेद तो कीजिये।
आत्म+ज या आत्म+जा।  आत्म=मैं, ज या जा =जन्मा या जन्मी। यानी जो मैं ही जन्मा या जन्मी हूँ।
यदि पुत्र है तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलन है। यदि पुत्री है तो 50% पिता और 50% माता का सम्मिलन है। फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई तो वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा, फिर यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा, इस तरह से सातवीं पीढ़ी मेंपुत्री जन्म में यह % घटकर 1% रह जायेगा।

अर्थात, एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है, और यही है सात जन्मों का साथ। लेकिन, जब पुत्र होता है तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है, और यही क्रम अनवरत चलता रहता है, जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं, अर्थात यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है।
इसीलिये, अपने ही अंश को पित्तर जन्मों जन्म तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रधेय भाव रखते हुए आशीर्वाद आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं, और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है, और सन्तानों की उन्नति के लिये समर्पित होने का सम्बल देती है।

एक बात और, माता पिता यदि कन्यादान करते हैं, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं, बल्कि इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुल धात्री बनने के लिये, उसे गोत्र मुक्त होना चाहिये। डीएनए मुक्त हो नहीं सकती क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही, इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है, गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है। तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को करप्ट नहीं करेगी, वर्णसंकर नहीं करेगी, क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये *रज्* का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है। यही कारण है कि हर विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है।
यह रजदान भी कन्यादान की तरह उत्तम दान है जो पति को किया जाता है।
*यह सुचिता अन्य किसी सभ्यता में दृश्य ही नहीं है।*

                           प्रस्तुति
               *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
               राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
              धार्मिक प्रवक्ता - ओज कवि
             प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
      अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
        ८१२००३२८३४-/-७८२९६५७०५७
          

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Sunday, August 18, 2019

श्री कृष्ण चरित्र

मथुरा मात देवकी जाये गोकुल यशुमति पुत्र कहावें!
धर्महेत अवतार धराये गोपी गोपबाल सब मिल गावें!!
दैत्य बकासुर को धर मारा काली नाग नाथ कर डारा!
अपने कर पर गिरवर धारा कंसराज के वध कर डारा!!
जमुनातट पर धेनु चराई वृंदावन में रास रचाई!
द्वारानगरी जाय बसाई मित्र सुदामा महल रचाई!!
बनके अर्जुन के रथवाही कौरव सेना नाश कराई !
यदुकुल परभास खपाई प्रभुजी पुनि बैकुंठ सिधाई!!

           पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी
         धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
        मुंगेली छत्तीसगढ़ - भारतवर्ष
    7828657057-8120032834

महासती रूपकंवर माता

19 अगस्त/जन्म-दिवस

महासती रूपकंवर माता

पिछले कुछ समय से सती के बारे में भ्रामक धारणा बन गयी है। लोग अपने पति के शव के साथ जलने वाली नारी को ही सती कहने लगे हैं, जबकि सत्य यह है कि इस प्रकार देहत्याग की परम्परा राजस्थान में तब पड़ी, जब विदेशी और विधर्मी मुगलों से युद्ध में बड़ी संख्या में हिन्दू सैनिक मारे जाते थे। उनकी पत्नियाँ शत्रुओं द्वारा भ्रष्ट होने के भय से अपनी देहत्याग देती थीं; यह परम्परा वैदिक नहीं है और समय के साथ ही समाप्त हो गयी।

सच तो यह है कि जो नारी मन, वचन और कर्म से अपने पति, परिवार, समाज और धर्म पर दृढ़ रहे, उसे ही सती का स्थान दिया जाता था। इसीलिए भारतीय धर्मग्रन्थों में सती सीता, सावित्री आदि की चर्चा होती रही है। वीरभूमि राजस्थान में ऐसी ही एक महासती रूपकँवर हुई हैं। उनका जन्म जोधपुर जिले के रावणियाँ गाँव में 19 अगस्त, 1903 (श्रीकृष्ण जन्माष्टमी) को हुआ था। उनकी स्मृति में अब वह गाँव ‘रूपनगर’ कहलाता है।

रूपकँवर के पिता श्री लालसिंह तथा माता श्रीमती जड़ाव कँवर थीं। बचपन से ही उसकी रुचि धर्म एवं पूजा पाठ के प्रति बहुत थी। रूपकँवर के ताऊ श्री चन्द्रसिंह घर के बाहर बने शिवलिंग की पूजा में अपना अधिकांश समय बिताते थे। उनका प्रभाव रूपकँवर पर पड़ा। उन्हें वह अपना प्रथम गुरु मानती थीं। 10 मई, 1919 को रूपकँवर का विवाह बालागाँव निवासी जुझारसिंह से हुआ; पर केवल 15 दिन बाद ही वह विधवा हो गयी।

लेकिन रूपकँवर ने धैर्य नहीं खोया। उन्होंने पूरा जीवन विधवा की भाँति बिताने का निश्चय किया। वह भूमि पर सोती तथा एक समय भोजन करती थीं। घरेलू काम के बाद शेष समय वह भजन में बिताने लगीं। 15 फरवरी, 1942 को उन्हें कुछ विशेष आध्यात्मिक अनुभूति हुई। लोगों ने देखा कि उनकी वाणी से चमत्कार होने लगे हैं। उन्होंने गाँव के चम्पालाल व्यापारी के पुत्र गजराज तथा महन्त दर्शन राम जी को मृत्यु के बाद भी जिला दिया।

यह देखकर लोग उन्हें जीवित सती माता मानकर ‘बापजी’ कहने लगे। वे अधिकांश समय मौन रहतीं। उन्होंने सन्त गुलाबदास जी महाराज से दीक्षा ली और श्वेत वस्त्र धारण कर लिये। उन्होंने आहार लेना बन्द कर दिया। लोगों ने उनकी खूब परीक्षा ली; पर वे पवहारी बाबा की तरह बिना खाये पिये केवल हवा के सहारे ही जीवनयापन करती रहीं। उन्होंने दो बार तीर्थयात्रा भी की।

मान्यता यह है कि उन्हें भगवान शंकर ने दर्शन दिये थे। जिस स्थान पर उन्हें दर्शन हुए, वहाँ उन्होंने शिवमन्दिर बनवाया और 18 जनवरी, 1948 को उसमें मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की। उन्होंने एक अखण्ड ज्योति की स्थापना की, जो आज तक जल रही है। उसकी विशेषता यह है कि बन्द आले में जलने के बावजूद वहाँ काजल एकत्र नहीं होता। वे कभी पैसे को छूती नहीं थी, उनका कहना था कि इससे उन्हें बिच्छू के डंक जैसा अनुभव होता है।

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद इनके भक्त थे। उनके आग्रह पर वे सात दिन राष्ट्रपति भवन में रहीं। भोपालगढ़ में गोशाला के उद्घाटन में हवन के लिए उन्होंने एक बछिया को दुह कर दूध निकाला। वह बछिया अगले 14 साल तक प्रतिदिन एक लोटा दूध देती रही। ऐसी महासती माता रूपकँवर ने पहले से ही निर्धारित एवं घोषित दिन 16 नवम्बर, 1986 (कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी, विक्रमी संवत् 2043) को महासमाधि ले ली।
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                 "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
                धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
              प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
        अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
         अं. यु. हिं.वा.गौ रक्षा दल - छत्तीसगढ़
          ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Saturday, August 17, 2019

भोरमदेव मंदिर पर कुछ विचार

#भोरमदेव_मंदिर जिसे छत्तीसगढ़ का #खजुराहो भी कहा जाता है, वैसे इनके बारे में आप सभी परिचित हैं लेकिन मैं आप लोगों को कुछ और जानकारी उपलब्ध करा रहा हूं, यहां तीन मंदिर है
१.- #छेरकी_मंदिर/महल
२.- #मण्डवा_महल/मंदिर
३.- #भोरमदेव_मंदिर
यहां तीनों मंदिर लगभग #५००० वर्ष पहले की #वास्तुकला व #शिल्पकला का एक अनूठा उदाहरण है अद्भुत नक्काशीदार मंदिर है.!

१:- छेरकी महल:- एक किदवंती के अनुसार यह मंदिर एक सामान्य प्राचीन काल की मंदिर है जिसका बाहरी द्वार व बरामदा टुट चुका है यह भी शिव मंदिर हुआ करता था यहां अत्याचारी मुस्लिम शासक (नाम लेना भी उचित नहीं है) जब मण्डला में शासन करता था तब तुड़वा दिया था फिर उसमें बकरी को बांध दिया था, तब से इसे छेरकी महल/मंदिर के नाम से जाना जाता है।
२:- मण्डवा महल:- चुंकि यह तीनों व आसपास सैकड़ों मंदिरों का निर्माण फणिनागवंशी सामंत राजा भोरमदेव ने अलग अलग उद्देश्यों से शिव मंदिर बनवाया था ऐसा मानना है परंतु अगर तीनों मंदिर का मुआयना किया जाए तो तीनों एक ही उद्देश्य व संदेश देने के लिए बनाया गया था, इस मंदिर को लोग विश्व का एकमात्र मानव यौन क्रीड़ा के अलग-अलग हिस्सों के बारे में दूसरे राजाओं को लुभाकर भ्रमित करने के लिए बनाया गया था इस तरह से प्रचारित किया गया है, जबकि यह वही झुठला दिया जाता है, ऐसा कुछ नहीं है..
३:- भोरमदेव महादेव मंदिर:- महाराज भोरमदेव जी द्वारा निर्मित होने के कारण उनके नाम से जाना जाने वाला शिव मंदिर, मण्डवा महल अकेला ऐसा मंदिर है कहना इस भोरमदेव मंदिर में ही झूठा साबित हो जाता है, मण्डवा महल में केवल मानव यौन क्रीड़ा के बारे में प्रर्दशित किया गया है, परंतु इस बड़े मंदिर में भी मानव यौन क्रीड़ा का चित्र बनाया गया है सिर्फ इतना ही नहीं घोड़ा,शेर,हाथी और कई जीव-जंतु जो राजघराने से संबंधित हुआ करते थे, सभी की यौन क्रीड़ा पुरे बाहरी दिवारों पर बनी हुई है ,उस समय की जीवनशैली के विभिन्न हिस्सों जन्म से मृत्यु तक के सभी कर्त्तव्यों से संबंधित चित्र उकेरे गए हैं,  लेकिन इससे आप पहले इसलिए परिचित नहीं थे क्योंकि इस संबंध में सिर्फ मण्डवा महल को आगे ला दिया गया था, जबकि यहां तो बहुत से चित्र हैं आप जाते हैं तो केवल दूर से गौर करते हैं और सीधे अंदर के भीतरी भाग की नक्काशी का मजा लेते हैं और वापस आकर घर ...सिर्फ मंदिर के द्वार व शिवलिंग तक पहुंचने के लिए सात सीढ़ी (नीचे की ओर- ऐसा भी कहीं और नहीं है) उतरते हैं थोड़ा आजू-बाजू , ऊपर-नीचे बनावट की भव्यता को वाव क्या बनाया था यार उस जमाने के लोगों ने कहकर आ जाते हैं, जबकि ,दो हजार से भी अधिक बाहरी दिवारो पर उकेरे गए चित्र को गौर करते ही नहीं है, अगले बार जाना तो नीचे तीनों तरफ के दरवाजों व चारों तरफ के दिवारों पर अलग अलग जानवरों के भी यौन क्रीड़ा का दर्शन जरूर करें..यह एक बहुत बड़ा संदेश है मुझे याद नहीं आ रहा परंतु लिंग पुराण में वह श्लोक वर्णित है जिस पर इसके बारे में उल्लेख है व महत्व का वर्णन किया गया है, जिसका अर्थ है, कोई भी योनि में सिर्फ यौन क्रीड़ा एक ऐसी माया है जिसमें फसने के बाद उबरना बमुश्किल है, आप जब सभी प्रकार योन क्रीड़ाओं से संतुष्ट हो जाएं तब ईश्वर के शरण में जाएं, (पहले भी ईश्वर के शरण में जाने के लिए गृहस्थ त्याग कर सन्यास धारण किया जाता था) और जब आपका मन पुनः इस ओर न आएं तो आप मंदिर में प्रवेश करें व सात विशेष मार्ग को इन सात नीचे की ओर सीढ़ियों को उतरें जिसे सातो लोकों को पार कर शिव लोक धाम पहुंचना बताया गया है तब आपको भोलेनाथ की शिवलिंग रूप का दर्शन होगा...और आपको इस मोह-माया से मुक्ति मिल जाएगी..!
परंतु आज के पाश्च्यत सभ्यता में डुबे लोग इनका असली महत्ता नहीं जान पाते हैं, सच भी यही है कि जो माया है वह हमारी जीवन है, और जो माया से परे है वही ईश्वर है,और ईश्वर के शरण में सभी योनियों को भुगतने वाले हर जीव के लिए स्थान होता है,और जो भी जीव इस यौन माया को भुगत कर ईश्वर के शरण में आते हैं उनके लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है..!
कुछ लोग यहां तरीकों का अवलोकन करने आते हैं तो कुछ सिर्फ समय गंवाने परंतु यदि कोई सभी तरीके के सुख भोग चुके होते हैं या इसका अपने जीवन से त्याग कर देते हैं और बचे हुए जीवन में सिर्फ परोपकार की भावना लिए व्यतित करते हैं तो उन्हें ईश्वर की शरणागति प्राप्त होती है, परंतु हम तुच्छ बुद्धि के मानव अपने आविष्कारों पर अहम कर इस संदेश को समझने के बजाय हम इसका उपहास करते फिरते हैं... जबकि इस माया ने कई ईंद्रों से उनका सिंहासन छीन लिया था यह हम सब जानते हैं, जिस तरह हमें कुछ रूपयों के लिए दिन भर मेहनत करनी पड़ती है उसी तरह ईश्वर की कृपा जो कि अनमोल है उसे पाने के लिए बहुत से त्याग व मेहनत करनी पड़ती है,जब हम अपने सभी इच्छाएं पूरी तरह अपने वश में कर यौन माया से मुक्त हो जाते हैं तो ईश्वर हमें स्वयं ही अपने शरण में ले लेते हैं....
और लिखूं तो महीनों बीत जाए सिर्फ इस पुरातन काल के इस मंदिर का यह संदेश समझ लेना व अपने जीवन में उतार लेना ही इस मंदिर बनवाने वाले के उद्देश्य को पूरा करने में हमारी सहभागिता है समझा जा सकता है।
हर हर महादेव
आपका अपना
          *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
     अं.यु.हिं.वा. गौ रक्षा दल-छत्तीसगढ़
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मंदिर दर्शन व प्रार्थना

हम लोग हवेली में या मंदिर में दर्शन करने जाते हैं। दर्शन करने के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी पर या ओटले  पर थोड़ी देर बैठते हैं।  इस परंपरा का कारण क्या है ?
अभी तो लोग वहां बैठकर अपने घर की, व्यापार की,  राजनीति की चर्चा करते हैं। परंतु यह परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है।

वास्तव में वहां मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर के और एक श्लोक बोलना चाहिए। यह श्लोक हम भूल गए हैं। इस श्लोक को सुने और याद करें। और आने वाली पीढ़ी को भी इसे बता कर जाएं।
श्लोक इस प्रकार है

अनायासेन मरणम, बिना दैन्येन  जीवनम।
देहान्ते  तव सानिध्यम, देहिमे  परमेश्वरम।।

जब हम मंदिर में दर्शन करने जाएं तो खुली आंखों से ठाकुर जी का दर्शन करें। कुछ लोग वहां नेत्र बंद करके खड़े रहते हैं। आंखें बंद क्यों करना। हम तो दर्शन करने आए हैं। ठाकुर जी के स्वरूप का, श्री चरणों का मुखारविंद का, श्रंगार का संपूर्ण आनंद लें। आंखों में भर लें इस स्वरूप को । दर्शन करें और दर्शन करने के बाद जब बाहर आकर बैठें तब नेत्र बंद करके , जो दर्शन किए हैं, उस स्वरूप का ध्यान करें ।मंदिर में नैत्र  नहीं बंद करना, बाहर आने के बाद पैड़ी पर बैठकर जब ठाकुर जी का ध्यान करें तब नेत्र बंद करें, और अगर ठाकुर जी का स्वरूप ध्यान में नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं।

यह प्रार्थना है याचना नहीं है। याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है, घर , व्यापार , नौकरी , पुत्र पुत्री, दुकान , सांसारिक सुख या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है, वह याचना है। वह भीख है।

हम प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना का विशेष अर्थ है।
प्र अर्थात विशिष्ट, श्रेष्ठ ।अर्थना अर्थात निवेदन ।ठाकुर जी से प्रार्थना करें ,और प्रार्थना क्या करना है , यह श्लोक बोलना है ।

श्लोक का अर्थ है

"अनायासेना मरणम"    अर्थात बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो, बीमार होकर बिस्तर पर पड़े पड़े ,कष्ट उठाकर मृत्यु नहीं  चाहिए  ।चलते चलते ही  श्री जी शरण हो जाएं।

" बिना दैन्येन  जीवनम "   अर्थात परवशता का जीवन न हो।  किसी के सहारे न रहना पड़े ,।जैसे लकवा हो जाता है ,और व्यक्ति पर आश्रित हो जाता है ।वैसे परवश, बेबस न  हों।  ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख मांगे जीवन बसर हो सके।

" देहान्ते  तव  सानिध्यम "   अर्थात जब मृत्यु हो तब ठाकुर जी सन्मुख खड़े हो। जब प्राण तन से निकले , आप सामने खड़े हों।  जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर जी उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए । उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।

यह प्रार्थना करें। गाड़ी, लाड़ी, लड़का, लड़की पति, पत्नी, घर , धन  यह मांगना नहीं। यह तो ठाकुर जी आपकी पात्रता के हिसाब से खुद आपको दे देते हैं। तो दर्शन करने के बाद बाहर बैठकर यह प्रार्थना अवश्य पढ़ें।

                    जय श्री कृष्ण
  
            *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
            राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
  🚩 *प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता* 🚩
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
   धार्मिक प्रवक्ता-साहित्यकार-ओज कवि
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Friday, August 16, 2019

संदेश आज की

*सामने हो मंजिल तो कदम ना मोड़ना*

*जो दिल में हो वो खवाब ना तोडना*

*हर कदम पर मिलेगी कामयाबी आपको*

*सिर्फ सितारे छूने के लिए कभी जमी ना छोड़ना ।*

       *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
        ओज-व्यंग्य कवि-लेखक
            मुंगेली - छत्तीसगढ़
    ७८२८६५७०५७-८१२००३२८३४

Wednesday, August 14, 2019

१५ अगस्त २०१९

🇮🇳🇮🇳आजादी पर्व के इस क्षण में,
सहसा कुछ प्रश्न उभरते हैँ !
कुछ ही उत्तरित ढेर अनुत्तरित,
सौ -सौ बार मचलते हैं....

लहराता तिरंगा खुद प्रश्न पूछता?
नही सुहाता बहुतों का स्पर्श मुझे..
रस्सियों को छूना हिमाकत लगता है मुझे,
ध्वजारोहक के हाथों का संसर्ग क्यों मुझे अखरते हैं...

वतनपरस्ती का नामोनिशान नहीं
देश की खातिर अरमान नही |...
निहायत दोगले ,मन के काले,
मतलबपरस्ती की बस डोरे डाले
अन्तस् बेधे भाले  सा लगते हैं....

बहा लहू  कतरा-कतरा,जिस्म की बोटी-बोटी हुई
वतन की खातिर खाक मिल गए
मयस्सर न जिन्हें कफ़न हुई,
उन बेटों के वास्ते नयन दिन- रात तरसते हैं....
माँ भारती के वे लाल आज भी, दूर सरहदों में रहते हैं....
कोफ्त है ,रंज है मुझे,
गिला भी है,
शिकवा और शिकायत भी.
जो न कर सके खुद की निगहबानी
वे पहरेदार कहाँ से लगते हैं ?

हाँ आज स्वाधीनता दिवस है!
मना लेना गीत,संगीत,नृत्य से ये पर्व.

पर एक बार...सिर्फ एक बार
मुझे गौर से देख लेना...
ये तीन रंग कैसे बनते है?

मैने तो महसूस कर लिया है
महसूस भी ये कर लेना तुम!

शहीदों के तन पर कफ़न बन 
जब ये तिरंगे सजते हैं?
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

         *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
          ओज-व्यंग्य कवि-लेखक
              मुंगेली - छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-७८२८६५७०५७

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...