Saturday, September 21, 2019

पतिव्रता सुलोचना

*पतिव्रता सुलोचना*

सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री और लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी थी, लक्ष्मण के साथ हुए एक भयंकर युद्ध में मेघनाद का वध हुआ; उसके कटे हुए शीश को भगवान श्रीराम के शिविर में लाया गया था।

अपने पति की मृत्यु का समाचार पाकर सुलोचना ने अपने ससुर रावण से राम के पास जाकर पति का शीश लाने की प्रार्थना की, किंतु रावण इसके लिए तैयार नहीं हुआ।

उसने सुलोचना से कहा कि वह स्वयं राम के पास जाकर मेघनाद का शीश ले आये, क्योंकि राम पुरुषोत्तम हैं; इसीलिए उनके पास जाने में तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं करना चाहिए।

*मेघनाद का वध*

रावण के महा पराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाद) का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर लक्ष्मण जिस समय युद्ध भूमि में जाने के लिये प्रस्तुत हुए, तब राम उनसे कहते हैं *..*..

*लक्ष्मण, रण में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावण-पुत्र मेघनाद का वध कर दोगे, इसमें मुझे कोर्इ संदेह नहीं है; परन्तु एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे, क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है; ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और हमें युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी, लक्ष्मण अपनी सेना लेकर चल पड़े।*

समरभूमि में उन्होंने वैसा ही किया, युद्ध में अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया; हनुमान उस मस्तक को रघुनंदन के पास ले आये।

*कटी भुजा द्वारा सुलोचना को प्रमाण*

मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुर्इ उसकी पत्नी सुलोचना के पास जाकर गिरी, सुलोचना चकित हो गयी; दूसरे ही क्षण अत्यन्त दु:ख से कातर होकर विलाप करने लगी; पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यक्ति की हो; ऐसी दशा में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष मुझे लगेगा।

निर्णय करने के लिये उसने भुजा से कहा- *यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृतान्त लिख दें; भुजा को उपस्थित दासी ने लेखनी पकड़ा दी।

लेखिनी ने लिख दिया- *प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है, युद्ध भूमि में श्रीराम के भार्इ लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ; लक्ष्मण ने कर्इ वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है।*

वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है, संग्राम में उनके साथ मेरी एक नहीं चली, अन्त में उन्हीं के बाणों से विद्छेद होने से मेरा प्राणान्त हो गया; मेरा शीश श्रीराम के पास है।

सुलोचना की रावण से प्रार्थना
पति की भुजा-लिखित पंक्तियां पढ़ते ही सुलोचना व्याकुल हो गयी, पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावण ने आकर कहा- *शोक न कर पुत्री, प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर लोट जाऐंगे*; मैं रक्त की नदियां बहा दूंगा।

करुण चीत्कार करती हुर्इ सुलोचना बोली- *पर इससे मेरा क्या लाभ होगा, पिताजी!* सहस्त्रों नहीं करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के आभाव की पूर्ति नहीं कर सकेंगे।

सुलोचना ने निश्चय किया कि *मुझे अब सती हो जाना चाहिए;* किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था, फिर वह कैसे सती होती? जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा *..*..

तब रावण ने उत्तर दिया- *हे देवी! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो, जिस समाज में बालब्रह्मचारी हनुमान, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण तथा एक पत्निव्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए; मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।*

पति के शीश की प्राप्ति
सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही श्रीराम खड़े हो गये और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आये और बोले- *देवी, तुम्हारे पति विश्व के अन्यतम योद्धा और पराक्रमी थे, उनमें बहुत-से सदगुण थे; किंतु विधि की लिखी को कौन बदल सकता है* आज तुम्हें इस तरह देखकर मेरे मन में पीड़ा हो रही है।

सुलोचना भगवान की स्तुति करने लगी, श्रीराम ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा- *हे देवी, मुझे लज्जित न करो, पतिव्रता की महिमा अपार है; उसकी शक्ति की तुलना नहीं है* मैं जानता हूँ कि तुम परम सती हो, तुम्हारे सतित्व से तो विश्व भी थर्राता है।

अपने स्वयं यहाँ आने का कारण बताओ, बताओ कि मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ?

सुलोचना ने अंश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली- *हे राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहाँ पर आर्इ हूँ*, श्रीराम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मंगवाया और सुलोचना को दे दिया।

पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया, उसकी आंखें बड़े जोरों से बरसने लगीं; रोते-रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा- *हे सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना की मेघनाथ का वध मैंने किया है, मेघनाद को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी; यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था*। आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखने वाली उनकी अनन्य उपासिका हूँ; पर मेरे पति देव पतिव्रता नारी का अपहरण करने वाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिये युद्ध में उतरे थे, इसी से मेरे जीवन धन परलोक सिधारे।

*सुग्रीव की जिज्ञासा*

सभी योद्धा सुलोचना को राम शिविर में देखकर चकित थे, वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि सुलोचना को यह कैसे पता चला कि उसके पति का शीश भगवान राम के पास है, जिज्ञासा शान्त करने के लिये सुग्रीव ने पूछ ही लिया कि यह बात उन्हें कैसे ज्ञात हुर्इ कि मेघनाद का शीश श्रीराम के शिविर में है।

सुलोचना ने स्पष्टता से बता दिया- *मेरे पति की भुजा युद्ध भूमि से उड़ती हुर्इ मेरे पास चली गयी थी, उसी ने लिखकर मुझे बता दिया*; व्यंग्य भरे शब्दों में सुग्रीव बोल उठे- *निष्प्राण भुजा यदि लिख सकती है फिर तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है।*

श्रीराम ने कहा- *व्यर्थ बातें मत करो मित्र* पतिव्रता के महाम्तय को तुम नहीं जानते, यदि वह चाहे तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है।

*महान पतिव्रता स्त्री*

श्रीराम की मुखकृति देखकर सुलोचना उनके भावों को समझ गयी, उसने कहा- *यदि मैं मन, वचन और कर्म से पति को देवता मानती हूँ, तो मेरे पति का यह निर्जीव मस्तक हंस उठे।*

सुलोचना की बात पूरी भी नहीं हुर्इ थी कि कटा हुआ मस्तक जोरों से हंसने लगा, यह देखकर सभी दंग रह गये; *सभी ने पतिव्रता सुलोचना को प्रणाम किया* सभी पतिव्रता की महिमा से परिचित हो गये थे।

चलते समय सुलोचना ने श्रीराम से प्रार्थना की- *भगवन, आज मेरे पति की अन्त्येष्टि क्रिया है और मैं उनकी सहचरी उनसे मिलने जा रही हूँ, अत: आज युद्ध बंद रहे; श्रीराम ने सुलोचना की प्रार्थना स्वीकार कर ली।

सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गर्इ, लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी, *पति का शीश गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई।*

                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Thursday, September 19, 2019

आज का संदेश


*प्रातः नमन*

कुटिल, स्वार्थी एवं असभ्य व्यवहार वाले
व्यक्ति के पास चाहे कितनी ही विद्या और
सम्पत्ति क्यों न हों, किन्तु वह *उस दूध के*
*समान* गन्दा व प्रदूषित है, *जो गन्दे पात्र*
*में रखा होने से दूषित हो जाता है ..*!!
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

शबरी जाति की भिलनी का नाम था श्रमणा

शबरी जाति की भीलनी का नाम था श्रमणा

बाल्यकाल से ही वह भगवान श्रीराम की अनन्य भक्त थी उसे जब भी समय मिलता, वह भगवान की सेवा−पूजा करती; घर वालों को उसका व्यवहार अच्छा नहीं लगता, बड़ी होने पर श्रमणा का विवाह हो गया पर अफ़सोस, उसके मन के अनुरूप कुछ भी नहीं मिला, उसका पति भी उसके मन के अनुसार नहीं था यहाँ के लोग अत्यन्त अनाचारी−दुराचारी थे।

हर समय लूट−मार तथा हत्या के काम में लिप्त रहते श्रमणा का उनसे अक्सर झगड़ा होता रहता था इस गन्दे माहौल में श्रमणा जैसी सात्विक स्त्री का रहना बड़ा कष्टकर हो गया था; वह इस वातावरण से निकल भागना चाहती थी वह किसके पास जाकर आश्रय के लिए शरण मांगे *.*. यह भी एक समस्या थी, आख़िर काफ़ी सोच−विचार के बाद उसने मतंग ऋषि के आश्रम में रहने का निश्चय किया।

एक दिन मौका पाकर वह मतंग ऋषि के आश्रम में पहुंची, अछूत होने के कारण वह आश्रम के अंदर प्रवेश करने का साहस नहीं जुटा सकी और वहीं दरवाज़े के पास गठरी−सी बनी बैठ गई; क़ाफी देर बाद उस स्थान पर मतंग ऋषि आए *श्रमणा को देखकर चौंक पड़े* श्रमणा से आने का कारण पूछा उसने बहुत ही नम्र स्वर में अपने आने का कारण बताया; मतंग ऋषि सोच में पड़ गए, काफ़ी देर बाद उन्होंने श्रमणा को अपने आश्रम में रहने की अनुमति प्रदान कर दी *.*. श्रमणा अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से शीघ्र ही आश्रमवासियों की प्रिय बन गई इस बीच जब उसके पति को पता चला कि वह मतंग ऋषि के आश्रम में रह रही है तो वह आग−बबूला हो गया; श्रमणा को आश्रम से उठा लाने के लिए वह अपने कुछ हथियारबंद साथियों को लेकर चल पड़ा मतंग ऋषि को इसके बारे में पता चल गया, श्रमणा दोबारा उस वातावरण में नहीं जाना चाहती थी उसने करुण दृष्टि से ऋषि की ओर देखा; ऋषि ने फौरन उसके चारों ओर अग्नि पैदा कर दी जैसे ही उसका पति आगे बढ़ा, उस आग को देखकर डर गया और वहां से भाग खड़ा हुआ *.*. इस घटना के बाद उसने फिर कभी श्रमणा की तरफ क़दम नहीं बढ़ाया, दिन गुजरते रहे भगवान श्रीराम सीता की खोज में मतंग ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे *मतंग ने उन्हें पहचान लिया* उन्होंने दोनों भाइयों का यथायोग्य सत्कार किया *.*. श्रमणा को बुलाकर कहा, *श्रमणा! जिस राम की तुम बचपन से सेवा−पूजा करती आ रही थीं, वही राम आज साक्षात तुम्हारे सामने खड़े हैं मन भरकर इनकी सेवा कर लो।* श्रमणा भागकर कंद−मूल लेने गई कुछ क्षण बाद वह लौटी, कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी कंद−मूलों को उसने श्री भगवान के अर्पण कर दिया, पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी कहीं बेर ख़राब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था; उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया, अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी *श्रीराम उसकी सरलता पर मुग्ध थे* उन्होंने बड़े प्रेम से जूठे बेर खाए श्रीराम की कृपा से श्रमणा का उद्धार हो गया वह स्वर्ग गई।

*यही श्रमणा 'रामायण' में शबरी के नाम से प्रसिद्ध हुई।*

बोलो सियावर रामचन्द्र की जय
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                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Wednesday, September 18, 2019

आज का सुविचार

🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹

   *आप अकेले बोल तो सकते है;*
                   *परन्तु...*
       *बातचीत नहीं कर सकते ।*
  *आप अकेले आनन्दित हो सकते है*
                    *परन्तु...*
       *उत्सव नहीं मना सकते।*
   *अकेले  आप मुस्करा तो सकते है*
                    *परन्तु...*
      *हर्षोल्लास नहीं मना सकते.*
           *हम सब एक दूसरे*
           *के बिना कुछ नहीं हैं;*
    *यही रिश्तों की खूबसूरती है...!!!!!!"""!!!!!!*
🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌿🌹🌹🌿
  *प्यारी-सी सुबह का प्यारा-सा प्रणाम*
             *🙏🏻😊सुप्रभात😊🙏🏻*

आज का संदेश

🙏 🙏 🙏 🙏 🙏
🍃 *यदि हर कोई आप से खुश है*
   *तो ये निश्चित है कि आपने जीवन*
      *में बहुत से समझौते किये हैं...*
                     *और*
          *यदि आप सबसे खुश हैं*
   *तो ये निश्चित है कि आपने लोगों*
          *की बहुत सी ग़लतियों*
        *को नज़रअंदाज़ किया है।*        
🍇🍒 🌻 *सुप्रभात* 🌻🍇🍒                                      🌷 *आपका दिन शुभ एवं मंगलमय हो*

Tuesday, September 17, 2019

१८ सितंबर, जन्म दिवस, उत्कृष्ट लेखक, भैया जी सहस्त्रबुद्धे

18 सितम्बर/ *जन्म-दिवस*

उत्कृष्ट लेखक *भैया जी सहस्रबुद्धे*

प्रभावी वक्ता, उत्कृष्ट लेखक, कुशल संगठक, व्यवहार में विनम्रता व मिठास के धनी प्रभाकर गजानन सहस्रबुद्धे का जन्म खण्डवा (मध्य प्रदेश) में 18 सितम्बर, 1917 को हुआ था उनके पिताजी वहाँ अधिवक्ता थे; वैसे यह परिवार मूलतः ग्राम टिटवी (जलगाँव, मध्य प्रदेश) का निवासी था, भैया जी जब नौ वर्ष के ही थे, तब उनकी माताजी का देहान्त हो गया; इस कारण तीनों भाई-बहिनों का पालन बदल बदलकर किसी सम्बन्धी के यहाँ होता रहा, मैट्रिक तक की शिक्षा इन्दौर में पूर्ण कर वे अपनी बुआ के पास नागपुर आ गये और वहीं 1935 में संघ के स्वयंसेवक बने।

1940 में उन्होंने मराठी में एम.ए. और फिर वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की, कुछ समय उन्होंने नागपुर के जोशी विद्यालय में अध्यापन भी किया, भैया जी का संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के घर आना-जाना होता रहता था; 1942 में बाबा साहब आप्टे की प्रेरणा से भैया जी प्रचारक बन गये। प्रारम्भ में वे उत्तर प्रदेश के देवरिया, आजमगढ़, जौनपुर, गाजीपुर आदि में जिला व विभाग प्रचारक और फिर ग्वालियर नगर व विभाग प्रचारक रहे।

1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा, तो उन्हें लखनऊ केन्द्र बनाकर सहप्रान्त प्रचारक के नाते कार्य करने को कहा गया; उस समय भूमिगत रहकर भैया जी ने सभी गतिविधियों का संचालन किया, इन्हीं दिनों कांग्रेसी उपद्रवियों ने उनके घर में आग लगा दी; कुछ भले लोगों के सहयोग से उनके पिताजी जीवित बच गये, अन्यथा षड्यन्त्र तो उन्हें भी जलाकर मारने का था।

प्रतिबन्ध हटने पर 1950 में वे मध्यभारत प्रान्त प्रचारक बनाये गये, 1952 में घरेलू स्थिति अत्यन्त बिगड़ने पर श्री गुरुजी की अनुमति से वे घर लौट आये, उन्होंने अब गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर इन्दौर में वकालत प्रारम्भ की; 1954 तक इन्दौर में रहकर वे खामगाँव (बुलढाणा, महाराष्ट्र) के एक विद्यालय में प्राध्यापक हो गये, इस दौरान उन्होंने सदा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दायित्व लेकर काम किया, 1975 में देश में आपातकाल लगने पर वे नागपुर जेल में बन्द रहे; वहाँ से आकर उन्होंने नौकरी से अवकाश ले लिया और पूरा समय अध्ययन और लेखन में लगा दिया।

भैया जी से जब कोई उनसे सहस्रबुद्धे गोत्र की चर्चा करता, तो वे कहते कि हमारे पूर्वजों में कोई अति बुद्धिमान व्यक्ति हुआ होगा; पर मैं तो सामान्य बुद्धि का व्यक्ति हूँ; 1981 में वे संघ शिक्षा वर्ग (तृतीय वर्ष) के सर्वाधिकारी थे, वर्ग के पूरे 30 दिन वे दोनों समय संघस्थान पर सदा समय से पहले ही पहुँचते रहे; भैया जी अपने भाषण से श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर देते थे तथ्य, तर्क और सही जगह पर सही उदाहरण देना उनकी विशेषता थी।

भैया जी एक सिद्धहस्त लेखक भी थे, संघ कार्य के साथ-साथ उन्होंने पर्याप्त लेखन भी किया; उन्होेंने बच्चों से लेकर वृद्धों तक के लिए मराठी में 125 पुस्तकों की रचना की, इनमें *जीवन मूल्य* बहुत लोकप्रिय हुई, उनकी अनेक पुस्तकों का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ; लखनऊ के लोकहित प्रकाशन ने उनकी 25 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की हैं, उन्होंने प्रख्यात इतिहासकार हरिभाऊ वाकणकर के साथ वैदिक सरस्वती नदी के शोध पर कार्य किया और फिर एक पुस्तक भी लिखी।

माँ सरस्वती के इस विनम्र साधक का देहान्त यवतमाल (वर्धा, महाराष्ट्र) में 14 मई, 2007 को 90 वर्ष की सुदीर्घ आयु में हुआ।
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                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
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१८ सितंबर , बलिदान दिवस, गोभक्तों का अनुपम बलिदान

18 सितम्बर/ *बलिदान-दिवस*

*गोभक्तों का अनुपम बलिदान*

स्वतन्त्रता से पूर्व देश में अनेक स्थानों पर मुसलमान खुलेआम गोहत्या करते थे, इससे हिन्दू भड़क जाते थे और दोनों समुदाय आपस में लड़ने लगते थे; अंग्रेज तो यही चाहते थे इसलिए वे गोहत्या को प्रश्रय देते थे।

1918 में ग्राम कटारपुर (हरिद्वार) के मुसलमानों ने बकरीद पर सार्वजनिक रूप से गोहत्या की घोषणा की मायापुरी क्षेत्र में कभी ऐसा नहीं हुआ था, अतः हिन्दुओं ने ज्वालापुर थाने पर शिकायत की; पर वहां के थानेदार मसीउल्लाह तथा अंग्रेज प्रशासन की शह पर ही यह हो रहा था। हरिद्वार में शिवदयाल सिंह थानेदार थे, उन्होंने हिन्दुओं को हर प्रकार से सहयोग देने का वचन दिया अतः हिन्दुओं ने घोषणा कर दी कि चाहे जो हो; पर गोहत्या नहीं होने देंगे।

17 सितम्बर, 1918 को बकरीद थी, हिन्दुओं के विरोध के कारण उस दिन तो कुछ नहीं हुआ; पर अगले दिन मुसलमानों ने पांच गायों का जुलूस निकालकर उन्हें पेड़ से बांध दिया। वे *नारा ए तकबीर, अल्लाहो अकबर* जैसे भड़कीले नारे लगा रहे थे, दूसरी ओर हनुमान मंदिर के महंत रामपुरी जी महाराज के नेतृत्व में सैकड़ों हिन्दू युवक भी अस्त्र-शस्त्रों के साथ सन्नद्ध थे; उन्होंने *जयकारा वीर बजंरगी, हर हर महादेव* कहकर धावा बोला और सब गाय छुड़ा लीं; लगभग 30 मुसलमान मारे गये। बाकी सिर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए, इस मुठभेड़ में अनेक हिन्दू भी हताहत हुए, महंत रामपुरी जी के शरीर पर चाकुओं के 48 घाव लगे; अतः वे भी बच नहीं सके।

पुलिस और प्रशासन को जैसे ही मुसलमानों के वध का पता लगा, तो वह सक्रिय हो उठा; हिन्दुओं के घरों में घुसकर लोगों को पीटा गया, महिलाओं का अपमान किया गया; 172 लोगों को थाने में बन्द कर दिया गया। जेल का डर दिखाकर कई लोगों से भारी रिश्वत ली गयी, गुरुकुल महाविद्यालय के कुछ छात्र भी इसमें फंसा दिये गये फिर भी हिन्दुओं का मनोबल नहीं टूटा।

कुछ दिन बाद अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था; गुरुकुल महाविद्यालय के प्राचार्य आचार्य नरदेव शास्त्री *वेदतीर्थ* ने वहां जाकर गांधी जी को सारी बात बतायी; पर गांधी जी किसी भी तरह मुसलमानों के विरोध में जाने को तैयार नहीं थे अतः वे शान्त रहे; पर महामना मदनमोहन मालवीय जी परम गोभक्त थे। उनका हृदय पीड़ा से भर उठा, उन्होंने इन निर्दोष गोभक्तों पर चलने वाले मुकदमे में अपनी पूरी शक्ति लगा दी।

इसके बावजूद आठ अगस्त, 1919 को न्यायालय द्वारा घोषित निर्णय में चार गोभक्तों को फांसी और थानेदार शिवदयाल सिंह सहित 135 लोगों को काले पानी की सजा दी गयी। इनमें सभी जाति, वर्ग और अवस्था के लोग थे। जो लोग अन्दमान भेजे गये, उनमें से कई भारी उत्पीड़न सहते हुए वहीं मर गये। महानिर्वाणी अखाड़ा, कनखल के महंत रामगिरि जी भी प्रमुख अभियुक्तों में थे; पर वे घटना के बाद गायब हो गये और कभी पुलिस के हाथ नहीं आये, पुलिस के आतंक से डरकर अधिकांश हिन्दुओं ने गांव छोड़ दिया; अतः अगले आठ वर्ष तक कटारपुर के खेतों में कोई फसल नहीं बोई गयी।

आठ फरवरी, 1920 को उदासीन अखाड़ा, कनखल के महंत ब्रह्मदास (45 वर्ष) तथा चौधरी जानकीदास (60 वर्ष) को प्रयाग में; डा. पूर्णप्रसाद (32 वर्ष) को लखनऊ एवं मुक्खा सिंह चौहान (22 वर्ष) को वाराणसी जेल में फांसी दी गयी; चारों वीर *गोमाता की जय* कहकर फांसी पर झूल गये। प्रयाग वालों ने इन गोभक्तों के सम्मान में उस दिन हड़ताल रखी, इस घटना से गोरक्षा के प्रति हिन्दुओं में भारी जागृति आयी। महान गोभक्त लाला हरदेव सहाय ने प्रतिवर्ष आठ फरवरी को कटारपुर में *गोभक्त बलिदान दिवस* मनाने की प्रथा शुरू की; वहां स्थित पेड़ और स्मारक आज भी उन वीरों की याद दिलाता है।

(गोसम्पदा अप्रेल, 2012/ कटारपुर से प्रकाशित स्मारिका)
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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...