Wednesday, December 25, 2019

आज का संदेश


जिस प्रकार वृक्ष हर रोज़ फूल-फल देता रहता है; कोई तोड़ भी लें, कुचल भी दें, तो नया सृजन करता रहता है *.*. जो चला गया उसकी परवाह नहीं करता, ठीक उसी प्रकार हमें अपने जीने के तरीके में बदलाव लाकर अनवरत नए निर्माण में अपनी ऊर्जा लगानी होगी और खुशनुमां माहौल में रहने का प्रयास करना होगा *…*..

*खोना-पाना* अपने जीवन का अमिट हिस्सा है, हमें इसे स्वीकार कर अपनी ज़िन्दगी में सहजता के रंग भरते रहना चाहिए तभी *अपनी साँसे महकती रहेंगी …*!!

🙏🏻🙏🏻🙏🏻  *सुप्रभात*  🙏🏻🙏🏻🙏🏻

वन्देमातरम् *…*.. *भारत माता की जय*
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Tuesday, December 24, 2019

आज का संदेश


*संसार में बहुत से लोग पुरुषार्थ करते हैं, कुछ लोगों को यहीं इसी जीवन में अनेक पुरस्कार तथा धन सम्मान आदि मिल जाता है, परंतु बहुत लोगों को इस जीवन में कोई पुरस्कार सम्मान आदि नहीं मिलता, लोग उनके गुणों का मूल्य उनके जीवित रहते हुए नहीं समझ पाते .*. *ऐसे लोग भी निराश न होवें* !!

*ईश्वर न्यायकारी है, वह तो सदा न्याय करता है और आगे भी करेगा* !!

*यदि किसी को इस जीवन में उसकी योग्यता के अनुसार उचित धन सम्मान आदि नहीं मिला, तो …*..

*मृत्यु के पश्चात ईश्वर अगले जन्म में उसको न्याय पूर्वक उसके सब शुभ कर्मों का उत्तम फल अवश्य देगा और संसार के लोग भी उसकी मृत्यु के बाद उसके बहुत गीत गाएंगे …*..

*संसार में ऐसी ही परंपरा देखी जाती है, कि जीते जी लोग किसी के गुणों का मूल्य ठीक से नहीं समझ पाते, उसकी मृत्यु के बाद जब उसकी कमी समाज को खटकती है, तब उसका सही मूल्य समझ में आता है, तब समाज के लोग उसे बहुत सम्मान आदि देते हैं, और उसके बहुत गीत गाते हैं …*..

*परंतु तब यह इतना उपयोगी नहीं होता, अधिक अच्छा तो यही है कि '''जीते जी व्यक्ति का उत्साह बढ़ाने के लिए समाज के लोग उसे सम्मानित करें''' जिससे वह उत्साहित होकर देश धर्म की और अधिक सेवा कर सके …*!!

*जय श्रीकृष्ण* भारत माता की जय
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

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             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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Monday, December 23, 2019

स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती (मुंशीराम विज) *बलिदान दिवस*




*स्वामी श्रद्धानन्द जी* शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी

स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती (मुंशीराम विज) *बलिदान दिवस*

22 फरवरी 1856 : *23 दिसम्बर 1926*

भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे, जिन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया, वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त सन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था।

उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की और हिन्दू समाज व भारत को संगठित करने तथा 1920 के दशक में शुद्धि आन्दोलन चलाने में महती भूमिका अदा की।

*जीवन परिचय*

स्वामी श्रद्धानन्द (मुंशीराम विज) का जन्म 2 फरवरी सन् 1856 (फाल्गुन कृष्ण त्र्योदशी, विक्रम संवत् 1913) को पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में  एक खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता, श्री नानकचन्द विज, ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे, उनके बचपन का नाम वृहस्पति विज और मुंशीराम विज था, किन्तु मुन्शीराम सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ।

*पिता का स्थानान्तरण*

अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। लाहौर और जालंधर उनके मुख्य कार्यस्थल रहे, एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे; पुलिस अधिकारी नानकचन्द विज अपने पुत्र मुंशीराम विज को साथ लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का प्रवचन सुनने पहुँचे, युवावस्था तक मुंशीराम विज ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे; लेकिन स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम विज को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया।

वे एक सफल वकील बने तथा काफी नाम और प्रसिद्धि प्राप्त की, आर्य समाज में वे बहुत ही सक्रिय रहते थे।

उनका विवाह श्रीमती शिवा देवी के साथ हुआ था, जब आप 35 वर्ष के थे तभी शिवा देवी स्वर्ग सिधारीं; उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं। सन् 1917 में उन्होने सन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए।

गुरुकुल की स्थापना संपादित करें

अपने आरम्भिक जीवनकाल में स्वामी श्रद्धानन्द

सन् 1901 में मुंशीराम विज ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान *गुरुकुल* की स्थापना की, हरिद्वार के कांगड़ी गांव में गुरुकुल विद्यालय खोला गया, इस समय यह मानद विश्वविद्यालय है जिसका नाम गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय है। गांधी जी उन दिनों अफ्रीका में संघर्षरत थे। महात्मा मुंशीराम विज जी ने गुरुकुल के छात्रों से 1500 रुपए एकत्रित कर गांधी जी को भेजे। गांधी जी जब अफ्रीका से भारत लौटे तो वे गुरुकुल पहुंचे तथा महात्मा मुंशीराम विज तथा राष्ट्रभक्त छात्रों के समक्ष नतमस्तक हो उठे, रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने ही सबसे पहले उन्हें महात्मा की उपाधि से विभूषित किया और बहुत पहले यह भविष्यवाणी कर दी थी कि वे आगे चलकर बहुत महान बनेंगे।

*पत्रकारिता एवं हिन्दी-सेवा*

उन्होने पत्रकारिता में भी कदम रखा, वे उर्दू और हिन्दी भाषाओं में धार्मिक व सामाजिक विषयों पर लिखते थे। बाद में स्वामी दयानन्द सरस्वती का अनुसरण करते हुए उनने देवनागरी लिपि में लिखे हिन्दी को प्राथमिकता दी। उनका पत्र सद्धर्म पहले उर्दू में प्रकाशित होता था और बहुत लोकप्रिय हो गया था। किन्तु बाद में उनने इसको उर्दू के बजाय देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी में निकालना आरम्भ किया। इससे इनको आर्थिक नुकसान भी हुआ। उन्होने दो पत्र भी प्रकाशित किये, हिन्दी में अर्जुन तथा उर्दू में तेज। जलियांवाला काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का 34वां अधिवेशन ( दिसम्बर 1919 ) हुआ। स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में अपना भाषण हिन्दी में दिया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने का मार्ग प्रशस्त किया।

*स्वतन्त्रता आन्दोलन*

उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ-चढ़कर भाग लिया, गरीबों और दीन-दुखियों के उद्धार के लिये काम किया। स्त्री-शिक्षा का प्रचार किया, सन् 1919 में स्वामी जी ने दिल्ली में जामा मस्जिद क्षेत्र में आयोजित एक विशाल सभा में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रत्येक नागरिक को पांथिक मतभेद भुलाकर एकजुट होने का आह्वान किया था।

*शुद्धि आंदोलन*

शुद्धि आंदोलन स्वामी श्रद्धानन्द ने जब कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं को *मुस्लिम तुष्टीकरण की घातक नीति* अपनाते देखा तो उन्हें लगा कि यह नीति आगे चलकर राष्ट्र के लिए विघटनकारी सिद्ध होगी, इसके बाद कांग्रेस से उनका मोहभंग हो गया, दूसरी ओर कट्टरपंथी मुस्लिम तथा ईसाई हिन्दुओं का मतान्तरण कराने में लगे हुए थे; स्वामी जी ने असंख्य व्यक्तियों को आर्य समाज के माध्यम से पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित कराया, उनने गैर-हिन्दुओं को पुनः अपने मूल धर्म में लाने के लिये शुद्धि नामक आन्दोलन चलाया और बहुत से लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किया, स्वामी श्रद्धानन्द पक्के आर्यसमाज के सदस्य थे, किन्तु सनातन धर्म के प्रति दृढ़ आस्थावान पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ को गुरुकुल में आमंत्रित कर छात्रों के बीच उनका प्रवचन कराया था।

*हत्या*

*23 दिसम्बर 1926 को नया बाजार स्थित उनके निवास स्थान पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश करके गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी* उसे बाद में फांसी की सजा हुई।

श्रद्धानंद का जन्म 2 फरवरी सन् 1856 (फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, विक्रम संवत् 1913) को पंजाब प्रान्त के जालंधर जिले के पास बहने वाली सतलुज नदी के किनारे बसे प्राकृतिक सम्पदा से सुसज्ज्ति तलवन नगरी में हुआ था। उनके पिता नानकचन्द विज ईस्ट ईण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम वृहस्पति विज और मुंशीराम विज था, किन्तु मुन्शीराम विज सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ। मुंशीराम विज से स्वामी श्रद्धानंद बनाने तक का उनका सफ़र पूरे विश्व के लिए प्रेरणादायी है। स्वामी दयानंद सरस्वती से हुई एक भेंट और पत्नी शिवादेवी के पतिव्रत धर्म तथा निश्छल निष्कपट प्रेम व सेवा भाव ने उनके जीवन को क्या से क्या बना दिया।

वकालत के साथ आर्य समाज के जालंधर जिला अध्यक्ष के पद से उनका सार्बजनिक जीवन प्रारम्भ हुया| महर्षि दयानंद के महाप्रयाण के बाद उन्होने स्वयं को स्व-देश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखंड खडंन, अंधविश्‍वास उन्मूलन और धर्मोत्थान के कार्यों को आगे बढ़ाने में पूर्णतः समर्पित कर दिया। गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना, अछूतोद्धार, शुद्धि, सद्धर्म प्रचार, पत्रिका द्वारा धर्म प्रचार, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद पढ़ने व पढ़ाने की व्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना, आर्य भाषा के प्रचार तथा उसे जीवीकोपार्जन की भाषा बनाने का सफल प्रयास, आर्य जाति के उन्नति के लिए हर प्रकार से प्रयास करना आदि ऐसे कार्य हैं जिनके फलस्वरुप स्वामी श्रद्धानंद अनंत काल के लिए अमर हो गए।

23 दिसंबर, 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी युवक ने धोखे से गोली चलाकर स्वामी जी की हत्या कर दी। यह युवक स्वामी जी से मिलकर इस्लाम पर चर्चा करने के लिए एक आगंतुक के रूप में नया बाज़ार, दिल्ली स्थित उनके निवास गया था। उनकी हत्या के दो दिन बाद अर्थात 25 दिसम्बर, 1926 को गुवाहाटी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में जारी शोक प्रस्ताव में जो कुछ कहा वह स्तब्ध करने वाला था। महात्मा गांधी के शोक प्रस्ताव के उद्बोधन का एक उद्धरण इस प्रकार है *मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ, मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ;* वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना को पैदा किया, इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है।

महात्मा गांधी ने अपने भाषण में यह भी कहा, *… मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता, हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए; मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ।* उन्होंने आगे कहा कि *समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पढ़ती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है।* अब्दुल रशीद के धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुये गांधी ने कहा कि ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया, स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो शक्तिशाली विभाजन को मजबूत कर सकेगा। (यंग इण्डिया, 1926)

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वेच्छा एवं सहमति के पश्चात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मलखान राजपूतों को शुद्धि कार्यक्रम के माध्यम से हिन्दू धर्म में वापसी कराई। शासन की तरफ से कोई रोक नहीं लगाई गई थी जबकि ब्रिटिश काल था, हत्या का कारण कुछ भी हो, हत्या हत्या होती है, अच्छी या बुरी नहीं। *अब्दुल रशीद को भाई मानना, और उसे निर्दोष कहना, गांधी को महात्मा के पद से नीचे गिराता है।*

*हम सभी को स्वामी श्रद्धानंद के बलिदान को याद करना चाहिए तथा उनके विचारों को अपने जीवन में प्रयुक्त करना चाहिए।*

वंदेमातरम् *भारत माता की जय*
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Sunday, December 22, 2019

आज का संदेश


           🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴
 

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                                  *हमारे देश भारत में आदिकाल से राजा एवं प्रजा के बीच अटूट सम्बन्ध रहा है | प्रजा पर शासन करने वाले राजाओं ने अपनी प्रजा को पुत्र के समान माना है तो अपराध करने पर उन्हें दण्डित भी किया है | हमारे शास्त्रों में लिखा है कि :- "पिता हि सर्वभूतानां राजा भवति सर्वदा" अर्थात किसी भी देश का राजा प्रजा के लिए पिता के समान ही होता है | जिस प्रकार एक पिता अपनी सन्तान के द्वारा किये गये अच्छे व विवेकपूर्ण कार्यों पर उसे पुरस्कृत करके उनका मनोबल तो बढाता ही है साथ ही सन्तान के द्वारा की गयी उदण्डता पर अपनी प्राणप्रिय सन्तान को भी दण्डित करने से नहीं चूकता ! उसी प्रकार राजा का भी कर्म है कि वह अपनी प्रजा के सत्कार्यों पर उन्हें उत्साहित करे परन्तु वही प्रजा जब निरंकुश होने लगे तो उसे दण्डित करके उन्हें भय दिखलाकर सीधे राह पर लाने का प्रयास करे | हमारे भारत का इतिहास रहा है कि यहाँ अपराध करने वाले दण्डित होते रहे हैं | कोई भी राजा तब तक निर्विघ्न राज्य नहीं कर सकता जब तक उसे राजनीति का ज्ञान न हो | पूर्वकाल के शासकों ने अपनी प्रजा के उत्थान के लिए जहाँ अनेकों लोककल्याणक कार्य किये हैं वहीं किसी अपराध पर अपने प्रियजनों को भी दण्डित किया है | सभी धर्मों से ऊपर उठते हुए किसी भी राजा का एक ही धर्म होता है जिसे राजधर्म कहा जाता है | राजधर्म का पालन करने वाले राजा का अपना कोई हित नहीं होता है बल्कि उसका प्रमुख कार्य होता प्रजारंजन अर्थात प्रजा के विषय में ही सोंचते रहना | इस प्रकार के राजधर्म का पालन करने वाले राजाओं का एक लम्बा इतिहास हमारे देश भारत में देखने को मिलता है | प्रजाजन अपने राजा को उनके कार्यों के अनुसार ही सम्मान देते रहे हैं | अन्य देशों में जहाँ राजाओं द्वारा प्रजा पर अत्याचार की कथायें पढ़ने एवं सुनने को मिलती हैं वहीं हमारे देश के इतिहास में राजाओं द्वारा प्रजारंजन का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करने वाली कथायें हृदय को पुलकित कर देती हैं |*

*आज समय परिवर्तित हो गया है राजा एवं उनका राज्य इतिहास हो गया है न तो राजा रह गये और न ही उनका राज्य | आज हम लोकतांत्रिक शासकीय व्यवस्था के अन्तर्गत जीवन यापन कर रहे हैं | राजा के स्थान पर अब जनता द्वारा चुने गये शासकों ने ले लिया है परंतु शासन करने की प्रणाली लगभग वही है | अपराधियों को दण्डित करने प्रावधान आज भी है | यदि आज कुछ परिवर्तित हुआ है तो वह है अपराध एवं अपराधी | आज सफेदपोश अपराधी यत्र तत्र समाज में देखे जा सकते हैं | ये सफेदपोश अपराधी हमारी जनता के द्वारा ही चुने गये होते हैं और अपना स्वार्थसिद्ध करने के लिए जनता को बरगलाकर शासक के प्रति विद्रोह की स्थिति उत्पन्न करने का प्रयास करते रहते हैं | मैं भगवान वाल्मीकि जी द्वारा रचित एक श्लोक की व्याख्या को पढ़कर विचार करता हूँ कि जो आज हो रहा है वह बहुत पहले हमारे मनीषियों द्वारा लिख दिया गया है | वाल्मीकि जी विखते हैं :-- "नाराजके जनपदे स्वकं भवति कस्यचित् ! मत्स्या इव जना नित्यं भक्षयन्ति परस्परम् !!" अर्थात जब प्रजा निरंकुश होने लगती है तो कोई किसी का नहीं रह जाता है लोग एक दूसरों को मछलियों की भाँति खाने लगते हैं , सामाजिक सम्बन्धों का महत्त्व नहीं रह जाता है समर्थ लोग निर्बलों पर अत्याचार करने लगते हैं | ऐसे में राजा को राजधर्म का पालन करते हुए इन सफेदपोश अपराधियों को भी दण्डित करने से नहीं बचना चाहिए अपितु कठोर निर्णय लेते हुए निरंकुश हो चुकी प्रजा को उचित दण्ड देते हुए उन्हें उनके अपराधों के अनुसार उनके प्रति व्यवहार करना चाहिए | आज हमारे देश की जो स्थिति है ऐसे में देश के शासकों को राजधर्म का पालन करते हुए अपराधियों पर कठोर से कठोर दण्डात्मक कार्यवाही करनी चाहिए तभी इस देश में पुन: समरसता का परिवेश निर्मित हो पायेगा | परंतु जिस प्रकार आज सभी धर्म प्रदूषित हो गये हैं ऐसे में राजधर्म भी इस विकृत प्रदूषण से स्वयं को बचा नहीं पाया है |*

*राजा या शासक सदैव अपने प्रजाधर्म से बंधा होता है किसी भी धर्म एवं दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उसका एक ही धर्म होना चाहिए जिसे राजधर्म कहा गया है |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"आज दिवस की मंगलमय कामना*----🙏🏻🙏🏻🌹

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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Friday, December 20, 2019

संस्कृत भाषा


# *संस्कृत*

समर्पित होकर पूरा पढ़ेंगे तो सचमुच अपने सनातन अपनी भाषा पर गर्व महसूस होगा *…*..

*संस्कृत में 1700 धातुएं, 70 प्रत्यय और 80 उपसर्ग हैं, इनके योग से जो शब्द बनते हैं, उनकी संख्या 27 लाख 20 हजार होती है; यदि दो शब्दों से बने सामासिक शब्दों को जोड़ते हैं तो उनकी संख्या लगभग 769 करोड़ हो जाती है।*

संस्कृत इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज की सबसे *प्राचीन भाषा* है और सबसे *वैज्ञानिक भाषा भी है;* इसके सकारात्मक तरंगों के कारण ही ज्यादातर श्लोक संस्कृत में हैं, *भारत में संस्कृत से लोगों का जुड़ाव खत्म हो रहा है लेकिन विदेशों में इसके प्रति रुझाान बढ़ रहा है।*

ब्रह्मांड में सर्वत्र गति है, गति के होने से ध्वनि प्रकट होती है ध्वनि से शब्द परिलक्षित होते हैं और शब्दों से भाषा का निर्माण होता है; आज अनेकों भाषायें प्रचलित हैं, किन्तु इनका काल निश्चित है कोई सौ वर्ष, कोई पाँच सौ तो कोई हजार वर्ष पहले जन्मी; साथ ही इन भिन्न भिन्न भाषाओं का जब भी जन्म हुआ, उस समय अन्य भाषाओं का अस्तित्व था, अतः पूर्व से ही भाषा का ज्ञान होने के कारण एक नयी भाषा को जन्म देना अधिक कठिन कार्य नहीं है *.*. किन्तु फिर भी साधारण मनुष्यों द्वारा साधारण रीति से बिना किसी वैज्ञानिक आधार के निर्माण की गयी सभी भाषाओं मे भाषागत् दोष दिखते हैं *.*. ये सभी भाषाए पूर्ण शुद्धता, स्पष्टता एवं वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती; क्योंकि ये सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे की बातों को समझने के साधन मात्र के उद्देश्य से बिना किसी सूक्ष्म वैज्ञानिकीय चिंतन के बनाई गयी, किन्तु मनुष्य उत्पत्ति के आरंभिक काल में, धरती पर किसी भी भाषा का अस्तित्व न था।

तो सोचिए किस प्रकार भाषा का निर्माण संभव हुआ होगा? शब्दों का आधार *ध्वनि है*, तब ध्वनि थी तो स्वाभाविक है *शब्द भी थे*; किन्तु व्यक्त नहीं हुये थे अर्थात उनका ज्ञान नहीं था, प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन की आत्मिक एवं लौकिक उन्नति व विकास में शब्दों के महत्व और शब्दों की अमरता का गंभीर आंकलन किया *.*. उन्होंने एकाग्रचित्त हो ध्वानपूर्वक, बार बार मुख से अलग प्रकार की ध्वनियाँ उच्चारित की और ये जानने में प्रयासरत रहे कि मुख-विवर के किस सूक्ष्म अंग से, कैसे और कहाँ से ध्वनि जन्म ले रही है? तत्पश्चात निरंतर अथक प्रयासों के फलस्वरूप उन्होने परिपूर्ण, पूर्ण शुद्ध, स्पष्ट एवं अनुनाद क्षमता से युक्त ध्वनियों को ही भाषा के रूप में चुना; *सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और सूर्य के चारों ओर से 9 भिन्न भिन्न रश्मियों के निकलने से कुल निकली 36 रश्मियों की ध्वनियों पर '''संस्कृत के 36 स्वर बनें''' और इन 36 रश्मियों के पृथ्वी के आठ वसुओं से टकराने से '''72 प्रकार की ध्वनि उत्पन्न''' होती हैं .*. *जिनसे '''संस्कृत के 72 व्यंजन बनें''' .*. इस प्रकार ब्रह्माण्ड से निकलने वाली कुल *108 ध्वनियों पर '''संस्कृत की वर्णमाला आधारित''' है …*..

ब्रह्मांड की इन ध्वनियों के रहस्य का ज्ञान वेदों से मिलता है, इन ध्वनियों को नासा ने भी स्वीकार किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन ऋषि मुनियों को उन ध्वनियों का ज्ञान था और उन्हीं ध्वनियों के आधार पर उन्होने पूर्णशुद्ध भाषा को अभिव्यक्त किया, *अतः प्राचीनतम आर्यभाषा जो '''ब्रह्मांडीय संगीत''' थी* उसका नाम *'''संस्कृत'''* पड़ा *…*..

संस्कृत – संस् + कृत् अर्थात 
*श्वासों से निर्मित* अथवा साँसो से बनी एवं स्वयं से कृत, जो कि ऋषियों के ध्यान लगाने व परस्पर संपर्क से अभिव्यक्त हुई।

कालांतर में *पाणिनी* ने नियमित *व्याकरण* के द्वारा संस्कृत को परिष्कृत एवं सर्वम्य प्रयोग में आने योग्य रूप प्रदान किया; *पाणिनीय व्याकरण* ही संस्कृत का प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है, दिव्य व दैवीय गुणों से युक्त, अतिपरिष्कृत, परमार्जित, सर्वाधिक व्यवस्थित, अलंकृत सौन्दर्य से युक्त, पूर्ण समृद्ध व सम्पन्न, पूर्ण वैज्ञानिक '''देववाणी''' *संस्कृत– मनुष्य की आत्मचेतना को जागृत करने वाली, सात्विकता में वृद्धि, बुद्धि व आत्मबल प्रदान करने वाली सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है*; अन्य सभी भाषाओ में त्रुटि होती है पर इस भाषा में कोई लेशमात्र भी त्रुटि नहीं है, इसके उच्चारण की शुद्धता को इतना सुरक्षित रखा गया कि सहस्त्रों वर्षो से लेकर आज तक वैदिक मन्त्रों की ध्वनियों व मात्राओं में कोई पाठ भेद नहीं हुआ और ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कह रहे बल्कि *विश्व के आधुनिक विद्वानों और भाषा विदों ने भी एक स्वर में संस्कृत को पूर्ण वैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ माना है।*

*संस्कृत की सर्वोत्तम शब्द-विन्यास युक्ति के, गणित के, कंप्यूटर आदि के स्तर पर नासा व अन्य वैज्ञानिक व भाषा-विद संस्थाओं ने भी इस भाषा को एक मात्र वैज्ञानिक भाषा मानते हुए इसका अध्ययन आरंभ कराया है .*. और भविष्य में भाषा-क्रांति के माध्यम से आने वाला समय संस्कृत का बताया है; अतः अंग्रेजी बोलने में बड़ा गौरव अनुभव करने वाले, अंग्रेजी में गिटपिट करके गुब्बारे की तरह फूल जाने वाले कुछ महाशय जो संस्कृत में दोष गिनाते हैं उन्हें कुँए से निकलकर संस्कृत की वैज्ञानिकता का एवं संस्कृत के विषय में विश्व के सभी विद्वानों का मत जानना चाहिए।

*नासा की वेबसाईट पर जाकर संस्कृत का महत्व पढ़ें …*..

*काफी शर्म की बात है कि भारत की भूमि पर ऐसे लोग हैं जिन्हें अमृतमयी वाणी संस्कृत में दोष और विदेशी भाषाओं में गुण ही गुण नजर आते हैं वो भी तब जब विदेशी भाषा वाले संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं।*

अतः जब हम अपने बच्चों को कई विषय पढ़ा सकते हैं तो संस्कृत पढ़ाने में संकोच नहीं करना चाहिए, देश विदेश में हुए कई शोधों के अनुसार संस्कृत मस्तिष्क को काफी तीव्र करती है जिससे अन्य भाषाओं व विषयों को समझने में काफी सरलता होती है, साथ ही यह सत्वगुण में वृद्धि करते हुये नैतिक बल व चरित्र को भी सात्विक बनाती है; अतः सभी को यथायोग्य संस्कृत का अध्ययन करना चाहिए।

आज दुनिया भर में लगभग 6900 भाषाओं का प्रयोग किया जाता है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि *इन भाषाओं की जननी कौन है!?!?!?*

नहीं?

कोई बात नहीं आज हम आपको दुनिया की सबसे पुरानी भाषा के बारे में विस्तृत जानकारी देने जा रहे हैं।

*दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है:- '''संस्कृत भाषा'''।*

आइये जाने संस्कृत भाषा का महत्व :

संस्कृत भाषा के विभिन्न स्वरों एवं व्यंजनों के विशिष्ट उच्चारण स्थान होने के साथ प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के सात ऊर्जा चक्रों में से एक या एक से अधिक चक्रों को निम्न प्रकार से प्रभावित करके उन्हें क्रियाशील– उर्जीकृत करता है:-

मूलाधार चक्र– स्वर *अ* एवं *क* वर्ग का उच्चारण मूलाधार चक्र पर प्रभाव डाल कर उसे क्रियाशील एवं सक्रिय करता है।

स्वर *इ* तथा *च* वर्ग का उच्चारण स्वाधिष्ठान चक्र को उर्जीकृत करता है।

स्वर *ऋ* तथा *ट* वर्ग का उच्चारण मणिपूरक चक्र को सक्रिय एवं उर्जीकृत करता है।

स्वर  *ल* तथा *त* वर्ग का उच्चारण अनाहत चक्र को प्रभावित करके उसे उर्जीकृत एवं सक्रिय करता है।

स्वर *उ* तथा *प* वर्ग का उच्चारण विशुद्धि चक्र को प्रभावित करके उसे सक्रिय करता है।

ईषत् स्पृष्ट वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से आज्ञा चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रियता प्रदान करता है।

ईषत् विवृत वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से *.*. सहस्त्राधार चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रिय करता है।

इस प्रकार देवनागरी लिपि के  प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के किसी न किसी उर्जा चक्र को सक्रिय करके व्यक्ति की चेतना के स्तर में अभिवृद्धि करता है; वस्तुतः *संस्कृत भाषा का प्रत्येक शब्द इस प्रकार से संरचित (design) किया गया है कि उसके स्वर एवं व्यंजनों के मिश्रण (combination) का उच्चारण करने पर वह हमारे विशिष्ट ऊर्जा चक्रों को प्रभावित करें;* प्रत्येक शब्द स्वर एवं व्यंजनों की विशिष्ट संरचना है जिसका प्रभाव व्यक्ति की चेतना पर स्पष्ट परिलक्षित होता है, इसीलिये कहा गया है कि व्यक्ति को शुद्ध उच्चारण के साथ-साथ बहुत सोच-समझ कर बोलना चाहिए, शब्दों में शक्ति होती है जिसका दुरूपयोग एवं सदुपयोग स्वयं पर एवं दूसरे पर प्रभाव डालता है, *शब्दों के प्रयोग से ही व्यक्ति का स्वभाव, आचरण, व्यवहार एवं व्यक्तित्व निर्धारित होता है।*

उदाहरणार्थ जब *राम* शब्द का उच्चारण किया जाता है, तो हमारा अनाहत चक्र जिसे हृदय चक्र भी कहते है सक्रिय होकर उर्जीकृत होता है, *कृष्ण* का उच्चारण मणिपूरक चक्र– नाभि चक्र को सक्रिय करता है, *सोह्म* का उच्चारण दोनों *अनाहत* एवं *मणिपूरक* चक्रों को सक्रिय करता है।

वैदिक मंत्रों को हमारे मनीषियों ने इसी आधार पर विकसित किया है, प्रत्येक मन्त्र स्वर एवं व्यंजनों की एक विशिष्ट संरचना है, इनका निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार शुद्ध उच्चारण ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करने के साथ साथ मष्तिष्क की चेतना को उच्चीकृत करता है; उच्चीकृत चेतना के साथ व्यक्ति विशिष्टता प्राप्त कर लेता है और उसका कहा हुआ अटल होने के साथ-साथ अवश्यम्भावी होता है *…*..

शायद आशीर्वाद एवं श्राप देने का आधार भी यही है, संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता एवं सार्थकता इस तरह स्वयं सिद्ध है।

*भारतीय शास्त्रीय संगीत के सातों स्वर हमारे शरीर के सातों उर्जा चक्रों से जुड़े हुए हैं*, प्रत्येक का उच्चारण सम्बन्धित उर्जा चक्र को क्रियाशील करता है; शास्त्रीय राग इस प्रकार से विकसित किये गए हैं जिससे उनका उच्चारण/ गायन विशिष्ट उर्जा चक्रों को सक्रिय करके चेतना के स्तर को उच्चीकृत करें, प्रत्येक राग मनुष्य की चेतना को विशिष्ट प्रकार से उच्चीकृत करने का सूत्र (formula) है; इनका सही अभ्यास व्यक्ति को असीमित ऊर्जावान बना देता है।

*संस्कृत केवल स्व-विकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा है इसीलिए इसका नाम संस्कृत है, संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषा-विद नहीं बल्कि '''महर्षि पाणिनि; महर्षि कात्यायिनि और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं'''।*

इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है, *यही इस भाषा का रहस्य है* जिस प्रकार साधारण पकी हुई दाल को शुध्द घी में जीरा; मैथी; लहसुन; और हींग; का तड़का लगाया जाता है तो उसे संस्कारित दाल कहते हैं, घी, जीरा, लहसुन, मैथी, हींग, आदि सभी महत्वपूर्ण औषधियाँ हैं; ये शरीर के तमाम विकारों को दूर करके पाचन संस्थान को दुरुस्त करती है *.*. दाल खाने वाले व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता कि वह कोई कटु औषधि भी खा रहा है, और अनायास ही आनन्द के साथ दाल खाते-खाते इन औषधियों का लाभ ले लेता है, *ठीक यही बात संस्कारित भाषा संस्कृत के साथ सटीक बैठती है;* जो भेद साधारण दाल और संस्कारित दाल में होता है, *वैसा ही भेद अन्य भाषाओं और संस्कृत भाषा के बीच है।*

*संस्कृत भाषा में वे औषधीय तत्व क्या है!?!?!?*

 यह विश्व की तमाम भाषाओं से संस्कृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है, चार महत्वपूर्ण विशेषताएँ:-

1. अनुस्वार (अं) और विसर्ग (अ:) : संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभदायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग, पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं- यथा *राम: बालक: हरि: भानु: आदि।* नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं- यथा *जलं वनं फलं पुष्पं आदि।*

विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है, अर्थात जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है, जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं; उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है; भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भंवरे की तरह गुंजन करना होता है और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है; अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा, उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जायेगा, जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- '''राम फल खाता है''' इसको संस्कृत में बोला जायेगा- *राम: फलं खादति* = राम फल खाता है, यह कहने से काम तो चल जायेगा, किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं; यही संस्कृत भाषा का रहस्य है *.*. संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों; अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात चलते फिरते योग साधना करना होता है।

2. शब्द रूप- संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप : *विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं*, जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं- *यथा* रम् (मूल धातु)- राम: रामौ रामा:, रामं रामौ रामान्, रामेण रामाभ्यां रामै:, रामाय रामाभ्यां रामेभ्य:, रामात् रामाभ्यां रामेभ्य:, रामस्य रामयो: रामाणां, रामे रामयो: रामेषु, हे राम! हे रामौ! हे रामा: *ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं।*

जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है और इन *25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है, सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं- आत्मा, (पुरुष) (अंत:करण 4) मन बुद्धि चित्त अहंकार, (ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण, (कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्, (तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द,(महाभूत 5) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश।*

3. द्विवचन- *संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन*, सभी भाषाओं में एक वचन और बहुवचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है, इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है; जैसे:- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं- रामौ, रामाभ्यां और रामयो: इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।

4. सन्धि- *संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि*, संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है, उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है, ऐसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।

*इति अहं जानामि* इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।

यथा- 1 *इत्यहं जानामि* 2 *अहमिति जानामि* 3 *जानाम्यहमिति* 4 *जानामीत्यहम्* इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है, जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं निरोग हो जाता है, इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं, अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है; यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है; इसीलिए इसे *देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं* संस्कृत भाषा का व्याकरण *अत्यन्त परिमार्जित एवं वैज्ञानिक है।*

संस्कृत के एक वैज्ञानिक भाषा होने का पता उसके किसी वस्तु को संबोधन करने वाले शब्दों से भी पता चलता है, इसका हर शब्द उस वस्तु के बारे में, जिसका नाम रखा गया है, के सामान्य लक्षण और गुण को प्रकट करता है; ऐसा अन्य भाषाओं में बहुत कम है, पदार्थों के नामकरण ऋषियों ने वेदों से किया है और वेदों में यौगिक शब्द हैं और हर शब्द गुण आधारित हैं।

इस कारण संस्कृत में वस्तुओं के नाम उसका गुण आदि प्रकट करते हैं, *जैसे हृदय शब्द* हृदय को अंगेजी में हार्ट कहते हैं और संस्कृत में हृदय कहते हैं।

अंग्रेजी वाला शब्द इसके लक्षण प्रकट नहीं कर रहा, लेकिन *संस्कृत शब्द* इसके लक्षण को प्रकट कर इसे परिभाषित करता है, *बृहदारण्यकोपनिषद 5.3.1 में हृदय शब्द का अक्षरार्थ* इस प्रकार किया है- तदेतत् र्त्यक्षर हृदयमिति, हृ इत्येकमक्षरमभिहरित, द इत्येकमक्षर ददाति, य इत्येकमक्षरमिति।

अर्थात हृदय शब्द हृ, हरणे द दाने तथा इण् गतौ इन तीन धातुओं से निष्पन्न होता है, हृ से हरित अर्थात शिराओं से अशुद्ध रक्त लेता है, द से ददाति अर्थात शुद्ध करने के लिए फेफड़ों को देता है और य से याति अर्थात सारे शरीर में रक्त को गति प्रदान करता है।

इस सिद्धांत की *खोज हार्वे ने 1922 में की थी,* जिसे *हृदय शब्द* स्वयं *लाखों वर्षों* से उजागर कर रहा था।

संस्कृत में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया के कई तरह से शब्द रूप बनाए जाते, जो उन्हें व्याकरणीय अर्थ प्रदान करते हैं, अधिकांश शब्द-रूप मूल शब्द के अंत में प्रत्यय लगाकर बनाए जाते हैं, इस तरह यह कहा जा सकता है कि संस्कृत एक बहिर्मुखी- अंतःश्लिष्टयोगात्मक भाषा है।

*संस्कृत के व्याकरण को महापुरुषों ने वैज्ञानिक* स्वरूप प्रदान किया है, संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है।

*देवनागरी लिपि* वास्तव में संस्कृत के लिए ही बनी है, इसलिए इसमें *हरेक चिन्ह* के लिए *एक और केवल एक ही ध्वनि है।*

*देवनागरी में 13 स्वर और 34 व्यंजन हैं*, *'''संस्कृत''''* केवल स्वविकसित भाषा नहीं, बल्कि *संस्कारित भाषा* भी है, अतः *इसका नाम संस्कृत* है।

केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है, जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है, *संस्कृत को संस्कारित* करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद नहीं, बल्कि *महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायन और योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं।*

*विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का प्रायः एक ही रूप होता है, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 27 रूप होते हैं, सभी भाषाओं में* एकवचन और बहुवचन होते हैं, जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है, संस्कृत भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है संधि; *संस्कृत में जब दो अक्षर* निकट आते हैं, तो वहां संधि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है, *इसे शोध में कम्प्यूटर अर्थात कृत्रिम बुद्धि* के लिए सबसे *उपयुक्त भाषा सिद्ध हुई है* और यह भी  पाया गया है कि *संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।*

*संस्कृत ही एक मात्र साधन है, जो क्रमशः अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाती है,*  इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएं ग्रहण करने में सहायता मिलती है; वैदिक ग्रंथों की बात छोड़ भी दी जाए, तो भी संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरंतर होती आ रही है, *संस्कृत केवल एक भाषा* मात्र नहीं है, अपितु एक विचार भी है; *संस्कृत एक भाषा मात्र नहीं, बल्कि एक संस्कृति है और संस्कार भी है।* संस्कृत में विश्व का  कल्याण है, शांति है, सहयोग है और *वसुधैव कुटुंबकम्* की भावना भी *…*..

जयतु हिंदुराष्ट्रम् *भारत माता की जय*
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Thursday, December 19, 2019

क्यों है श्रीगणेश को दूर्वा अत्यन्त प्रिय ?

*💥क्यों है श्रीगणेश को दूर्वा अत्यन्त प्रिय ?💥*

सनातन हिन्दू धर्म में देव पूजा में दूर्वा को अत्यन्त पवित्र माना गया है । देवी दुर्गा को छोड़कर पूजा में प्राय: सभी देवताओं को दूर्वा चढ़ाई जाती है । जिस प्रकार शिव पूजन में बेल पत्र आवश्यक है उसी प्रकार श्रीगणेश की पूजा तो बगैर दूर्वा के पूरी ही नहीं मानी जाती है ।

यह दूर्वा कहां से उत्पन्न हुई ?
कैसे अजर-अमर (चिरायु) हुई ?
क्यों इतनी पवित्र मानी गयी है ?
क्यों श्रीगणेश को दूर्वा अति प्रिय है ? और
दूर्वा से गणेश पूजन का महत्व क्या है ?
इन्हीं प्रश्नों का उत्तर इस प्रस्तुति में दिया गया है ।

समुद्र-मंथन में भगवान विष्णु से हुई दूर्वा की उत्पत्ति
अमृत की प्राप्ति के लिए देवताओं और देत्यों ने जब क्षीरसागर को मथने के लिए मन्दराचल पर्वत की मथानी बनायी तो भगवान विष्णु ने अपनी जंघा पर हाथ से पकड़कर मन्दराचल को धारण किया था । मन्दराचल पर्वत के तेजी से घूमने से रगड़ के कारण भगवान विष्णु के जो रोम उखड़ कर समुद्र में गिरे, वे लहरों द्वारा उछाले जाने से हरे रंग के होकर दूर्वा के रूप में उत्पन्न हुए ।

दूर्वा की चिरायुता (अजर-अमर होने) और पवित्रता का रहस्य!!!!!!
उसी दूर्वा पर देवताओं ने समुद्र-मंथन से उत्पन्न अमृत का कलश रखा था । उस कलश से जो अमृत की बूंदें छलकीं, उनके स्पर्श से वह दूर्वा अजर-अमर हो गयी । दूर्वा को कितना भी काट दो उसकी जड़ें अपने-आप चारों ओर फैलती हैं ।

सभी देवताओं ने इस मन्त्र से दूर्वा की पूजा की और तभी से यह देव पूजा में अत्यन्त पवित्र और पूज्य मानी जाने लगी ।

त्वं दूर्वेऽमृतजन्मासि वन्दिता च सुरासुरै: ।
सौभाग्यं संततिं कृत्वा सर्वकार्यकरी भव ।।
यथा शाखाप्रशाखाभिर्विस्तृतासि महीतले ।
तथा ममापि संतानं देहि त्वमजरामरे ।।

सौभाग्यं संततिं कृत्वा सर्वकार्यकरी भव ।। यथा शाखाप्रशाखाभिर्विस्तृतासि महीतले । तथा ममापि संतानं देहि त्वमजरामरे ।।

अर्थात्—हे दूर्वे ! तुम्हारा जन्म अमृत से हुआ है और देव और दानव दोनों की ही तुम पूज्य हो । तुम सौभाग्य व संतान देने वाली व सब कार्य सिद्ध करने वाली हो । जिस प्रकार तुम्हारी शाखा प्रशाखाएं पृथ्वी पर फैली हुई हैं उसी तरह हमें भी ऐसी संतान दो जो अजर-अमर हों ।

श्रीगणेश को क्यों है दूर्वा अति प्रिय
श्रीगणेश को दूर्वा प्रिय होने के कई कारण हैं—

▪️हाथी को दूर्वा प्रिय होती है ।

▪️दूर्वा में अत्यन्त नम्रता और सरलता है । यही कारण है कि तूफान में बांस जैसे बड़े-बड़े पेड़ अहंकार में अकड़े खड़े रहते हैं, जिस कारण गिर जाते हैं और दूर्वा सिर झुका लेती है, इस कारण जस-की-तस खड़ी रहती है । भगवान श्रीगणेश को भी विनम्रता और सरलता बहुत पसन्द है ।

▪️एक पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में अनलासुर नाम का एक दैत्य था, उसके कोप से स्वर्ग और धरती पर त्राहि-त्राहि मची हुई थी क्योंकि वह मुनि-ऋषियों और मनुष्यों को जिंदा निगल जाता था । इस दैत्य के अत्याचारों से दु:खी होकर सभी देवता व ऋषि-मुनि भगवान शंकर के पास कैलास पहुंचे और उनसे अनलासुर का वध करने की प्रार्थना की ।

भगवान शंकर ने देवताओं से कहा कि अनलासुर का नाश केवल श्रीगणेश ही कर सकते हैं । देवताओं व ऋषियों ने तब श्रीगणेश से प्रार्थना की । इस पर श्रीगणेश ने अनलासुर को निगल लिया । तमोगुणी, अहंकारी व दुष्ट दैत्य के उदर में पहुंचते ही श्रीगणेश के पेट में बहुत जलन होने लगी।

कई प्रकार के उपाय करने के बाद भी जब श्रीगणेश के पेट की जलन शांत नहीं हुई, तब कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठें बनाकर श्रीगणेश को खाने को दीं । श्रीगणेश के दूर्वा ग्रहण करने पर उनके पेट की जलन शांत हुई । ऐसा माना जाता है कि श्रीगणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा तभी से आरंभ हुई।

दूर्वा के बिना नहीं होता गणेश-पूजन पूरा
श्रीगणेश को पूजा में दो दूर्वा चढ़ाने का विधान है । दो दूर्वा जिसे दूर्वादल भी कहते हैं, चढ़ाने का कारण है—

▪️मनुष्य सुख-दु:ख भोगने के लिए बार-बार जन्म लेता है । उसी प्रकार दूर्वा अपनी अनेक जड़ों से जन्म लेती है । इस सुख-दु:ख रूपी द्वन्द्व को दो दूर्वा से श्रीगणेश को समर्पित किया जाता है ।

▪️एक और तथ्य है कि दूर्वा को कितना भी काट दो उसकी जड़ें अपने आप चारों ओर फैलतीं हैं । अत: दूर्वा की भाँति भक्तों के कुल की वृद्धि होती रहे और उन्हें स्थायी सुख सम्पत्ति प्राप्त हो, इसलिए गणेश पूजन में दूर्वा चढाते हैं ।

नानक नन्हें बनि रहो, जैसी नन्ही दूब।
सबै घास जरि जायगी, दूब खूब-की-खूब ।।

श्रीगणपति अथर्वशीर्ष में कहा गया है—
‘यो दुर्वांकुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।’

अर्थात्—जो दूर्वा से भगवान गणपति का पूजन करता है वह कुबेर के समान हो जाता है ।
चतुर्थी तिथि में सभी विघ्नों के नाश व मनोकामना पूर्ति के लिए भगवान गणेश की पूजा 21 दूर्वादल व मोदक आदि से करनी चाहिए । जहां तक संभव हो दूर्वा तीन या पांच फुनगी वाली लेनी चाहिए । इसके लिए 21 दूर्वा को मोली से बांधकर व जल में डुबोकर श्रीगणेश के मस्तक पर इस तरह चढ़ाना चाहिए जिससे श्रीगणेश को दूर्वा की भीनी सुगंध मिलती रहे ।
महाराष्ट्र के कुछ मन्दिरों जैसे सिद्धिविनायक मुम्बई व अष्टविनायक आदि में श्रीगणेश को दूर्वा का हार अर्पित किया जाता है ।
दूर्वा का हार मिलना संभव न हो तो  21 दूर्वा को मोली से बांधकर उसमें एक गुड़हल का लाल पुष्प लगा कर श्रीगणेश के मस्तक पर धारण कराना चाहिए । वैसे श्रीगणेश दो दूर्वादल से भी प्रसन्न हो जाते हैं ।विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए श्रीगणेश का सहस्त्रार्चन (1000 नामों से पूजन) दूर्वा से किया जाता है ।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Wednesday, December 18, 2019

भीष्म को मां अंबा का श्राप

 

भीष्म को अंबा का श्राप
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महाभारत के अनुसार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे। अंबा ने रास्ते में भीष्म को बताया कि मन ही मन किसी और को अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे ससम्मान छोड़ दिया लेकिन हरण कर लिए जाने पर शाल्व जिनसे वो प्रेम करती थीं, उसने अंबा को अस्वीकार कर दिया। तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ और अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत। अंबा ने भीष्म को श्राप दिया कि तुम्हारी मृत्यु का कारण मैं ही बनूंगी। अगले जन्म में अंबा ने शिखंडी के रूप में जन्म लिया और भीष्म की मृत्यु का कारण बनी।
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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...