Tuesday, August 11, 2020

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतकथा 🚩**🕉️(माहात्म्य सहित)🕉️*


         *⚜️दिवस विशेस⚜️*

*🚩श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतकथा 🚩*
*🕉️(माहात्म्य सहित)🕉️*

*ॐ नमो भगवते वासुदेवाय*

*ब्रह्मपुत्र! मुनिश्रेष्ठ! सर्वशास्त्रविशारद!।*
*ब्रूहि व्रतोत्तमं देव येन मुक्तिर्भवेन्नृणाम्‌।* *तद्व्रतं वद भो ब्रह्मन्‌! भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्‌ ॥*

इंद्र ने कहा है- हे ब्रह्मपुत्र, हे मुनियों में श्रेष्ठ, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, हे देव, व्रतों में उत्तम उस व्रत को बताएँ, जिस व्रत से मनुष्यों को मुक्ति, लाभ प्राप्त हो तथा हे ब्रह्मन्‌! उस व्रत से प्राणियों को भोग व मोक्ष भी प्राप्त हो जाए।

*नारद उवाच*
त्रेतायुगस्य चान्ते हि द्वापरस्य समागमे।
दैत्यः कंसाख्य उत्पन्नः पापिष्ठो दुष्टकर्मकृत्‌॥

इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने कहा- त्रेतायुग के अन्त में और द्वापर युग के प्रारंभ समय में निन्दितकर्म को करने वाला कंस नाम का एक अत्यंत पापी दैत्य हुआ। उस दुष्ट व नीच कर्मी दुराचारी कंस की देवकी नाम की एक सुंदर बहन थी। देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र कंस का वध करेगा।

नारदजी की बातें सुनकर इंद्र ने कहा- हे महामते! उस दुराचारी कंस की कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। क्या यह संभव है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवा ँ पुत्र अपने मामा कंस की हत्या करेगा। इंद्र की सन्देहभरी बातों को सुनकर नारदजी ने कहा-हे अदितिपुत्र इंद्र! एक समय की बात है। उस दुष्ट कंस ने एक ज्योतिषी से पूछा कि ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ज्योतिर्विद! मेरी मृत्यु किस प्रकार और किसके द्वारा होगी। ज्योतिषी बोले-हे दानवों में श्रेष्ठ कंस! वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी जो वाक्‌पटु है और आपकी बहन भी है। उसी के गर्भ से उत्पन्न उसका आठवां पुत्र जो कि शत्रुओं को भी पराजित कर इस संसार में 'कृष्ण' के नाम से विख्यात होगा, वही एक समय सूर्योदयकाल में आपका वध करेगा।

ज्योतिषी की बातें सुनकर कंस ने कहा- हे दैवज, बुद्धिमानों में अग्रण्य अब आप यह बताएं कि देवकी का आठवां पुत्र किस मास में किस दिन मेरा वध करेगा। ज्योतिषी बोले- हे महाराज! माघ मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण से आपका युद्ध होगा। उसी युद्ध में वे आपका वध करेंगे। इसलिए हे महाराज! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करें। इतना बताने के पश्चात नारदजी ने इंद्र से कहा- ज्योतिषी द्वारा बताए गए समय पर हीकंस की मृत्युकृष्ण के हाथ निःसंदेह होगी। तब इंद्र ने कहा- हे मुनि! उस दुराचारी कंस की कथा का वर्णनकीजिए, और बताइए कि कृष्ण का जन्म कैसे होगा तथा कंस की मृत्यु कृष्ण द्वारा किस प्रकार होगी।

इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने पुनः कहना प्रारंभ किया- उस दुराचारी कंस ने अपने एक द्वारपाल से कहा- मेरी इस प्राणों से प्रिय बहन की पूर्ण सुरक्षा करना। द्वारपाल ने कहा- ऐसा ही होगा। कंस के जाने के पश्चात उसकी छोटी बहन दुःखित होते हुए जल लेने के बहाने घड़ा लेकर तालाब पर गई। उस तालाब के किनारे एक घनघोर वृक्ष के नीचे बैठकर देवकी रोने लगी।



उसी समय एक सुंदर स्त्री जिसका नाम यशोदा था, उसने आकर देवकी से प्रिय वाणी में कहा- हे कान्ते! इस प्रकार तुम क्यों विलाप कर रही हो। अपने रोने का कारण मुझसे बताओ। तब दुःखित देवकी ने यशोदा से कहा- हे बहन! नीच कर्मों में आसक्त दुराचारी मेरा ज्येष्ठ भ्राता कंस है। उस दुष्ट भ्राता ने मेरे कई पुत्रों का वध कर दिया। इस समय मेरे गर्भ में आठवाँ पुत्र है। वह इसका भी वध कर डालेगा। इस बात में किसी प्रकार का संशय या संदेह नहीं है, क्योंकि मेरे ज्येष्ठ भ्राता को यह भय है कि मेरे अष्टम पुत्र से उसकी मृत्यु अवश्य होगी।

देवकी की बातें सुनकर यशोदा ने कहा- हे बहन! विलाप मत करो। मैं भी गर्भवती हूँ। यदि मुझे कन्या हुई तो तुम अपने पुत्र के बदले उस कन्या को ले लेना। इस प्रकार तुम्हारा पुत्र कंस के हाथों मारा नहीं जाएगा।

तदनन्तर कंस ने अपने द्वारपाल से पूछा- देवकी कहाँ है? इस समय वह दिखाई नहीं दे रही है। तब द्वारपाल ने कंस से नम्रवाणी में कहा- हे महाराज! आपकी बहन जल लेने तालाब पर गई हुई हैं। यह सुनते ही कंस क्रोधित हो उठा और उसने द्वारपाल को उसी स्थान पर जाने को कहा जहां वह गई हुई है। द्वारपाल की दृष्टि तालाब के पास देवकी पर पड़ी। तब उसने कहा कि आप किस कारण से यहां आई हैं। उसकी बातें सुनकर देवकी ने कहा कि मेरे गृह में जल नहीं था, जिसे लेने मैं जलाशय पर आई हूँ। इसके पश्चात देवकी अपने गृह की ओर चली गई।

कंस ने पुनः द्वारपाल से कहा कि इस गृह में मेरी बहन की तुम पूर्णतः रक्षा करो। अब कंस को इतना भय लगने लगा कि गृह के भीतर दरवाजों में विशाल ताले बंद करवा दिए और दरवाजे के बाहर दैत्यों और राक्षसों को पहरेदारी के लिए नियुक्त कर दिया। कंस हर प्रकार से अपने प्राणों को बचाने के प्रयास कर रहा था। एक समय सिंह राशि के सूर्य में आकाश मंडल में जलाधारी मेघों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। भादौ मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को घनघोर अर्द्धरात्रि थी। उस समय चंद्रमा भी वृष राशि में था, रोहिणी नक्षत्र बुधवार के दिन सौभाग्ययोग से संयुक्त चंद्रमा के आधी रात में उदय होने पर आधी रात के उत्तर एक घड़ी जब हो जाए तो श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फल निःसंदेह प्राप्त होता है।

इस प्रकार बताते हुए नारदजी ने इंद्र से कहा- ऐसे विजय नामक शुभ मुहूर्त में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और श्रीकृष्ण के प्रभाव से ही उसी क्षण बन्दीगृह के दरवाजे स्वयं खुल गए। द्वार पर पहरा देने वाले पहरेदार राक्षस सभी मूर्च्छित हो गए।


देवकी ने उसी क्षण अपने पति वसुदेव से कहा- हे स्वामी! आप निद्रा का त्याग करें और मेरे इस अष्टम पुत्र को गोकुल में ले जाएँ, वहाँ इस पुत्र को नंद गोप की धर्मपत्नी यशोदा को दे दें। उस समय यमुनाजी पूर्णरूपसे बाढ़ग्रस्त थीं, किन्तु जब वसुदेवजी बालक कृष्ण को सूप में लेकर यमुनाजी को पार करने के लिए उतरे उसी क्षण बालक के चरणों का स्पर्श होते ही यमुनाजी अपने पूर्व स्थिर रूप में आ गईं। किसी प्रकार वसुदेवजी गोकुल पहुँचे और नंद के गृह में प्रवेश कर उन्होंने अपना पुत्र तत्काल उन्हें दे दिया और उसके बदले में उनकी कन्या ले ली। वे तत्क्षण वहां से वापस आकर कंस के बंदी गृह में पहुँच गए।

प्रातःकाल जब सभी राक्षस पहरेदार निद्रा से जागे तो कंस ने द्वारपाल से पूछा कि अब देवकी के गर्भ से क्या हुआ? इस बात का पता लगाकर मुझे बताओ। द्वारपालों ने महाराज की आज्ञा को मानते हुए कारागार में जाकर देखा तो वहाँ देवकी की गोद में एक कन्या थी। जिसे देखकर द्वारपालों ने कंस को सूचित किया, किन्तु कंस को तो उस कन्या से भय होने लगा। अतः वह स्वयं कारागार में गया और उसने देवकी की गोद से कन्या को झपट लिया और उसे एक पत्थर की चट्टान पर पटक दिया किन्तु वह कन्या विष्णु की माया से आकाश की ओर चली गई और अंतरिक्ष में जाकर विद्युत के रूप में परिणित हो गई।

उसने कंस से कहा कि हे दुष्ट! तुझे मारने वाला गोकुल में नंद के गृह में उत्पन्न हो चुका है और उसी से तेरी मृत्यु सुनिश्चित है। मेरा नाम तो वैष्णवी है, मैं संसार के कर्ता भगवान विष्णु की माया से उत्पन्न हुई हूँ, इतना कहकर वह स्वर्ग की ओर चली गई। उस आकाशवाणी को सुनकर कंस क्रोधित हो उठा। उसने नंदजी के गृह में पूतना राक्षसी को कृष्ण का वध करने के लिए भेजा किन्तु जब वह राक्षसी कृष्ण को स्तनपान कराने लगी तो कृष्ण ने उसके स्तन से उसके प्राणों को खींच लिया और वह राक्षसी कृष्ण-कृष्ण कहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।

जब कंस को पूतना की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ तो उसने कृष्ण का वध करने के लिए क्रमशः केशी नामक दैत्य को अश्व के रूप में उसके पश्चात अरिष्ठ नामक दैत्य को बैल के रूप में भेजा, किन्तु ये दोनों भी कृष्ण के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके पश्चात कंस ने काल्याख्य नामक दैत्य को कौवे के रूप में भेजा, किन्तु वह भी कृष्ण के हाथों मारा गया। अपने बलवान राक्षसों की मृत्यु के आघात से कंस अत्यधिक भयभीत हो गया। उसने द्वारपालों को आज्ञा दी कि नंद को तत्काल मेरे समक्ष उपस्थित करो। द्वारपाल नंद को लेकर जब उपस्थित हुए तब कंस ने नंदजी से कहा कि यदि तुम्हें अपने प्राणों को बचाना है तो पारिजात के पुष्प ले लाओ। यदि तुम नहीं ला पाए तो तुम्हारा वध निश्चित है।

कंस की बातों को सुनकर नंद ने 'ऐसा हीहोगा' कहा और अपने गृह की ओर चले गए। घर आकर उन्होंने संपूर्ण वृत्तांत अपनी पत्नी यशोदा को सुनाया, जिसे श्रीकृष्ण भी सुन रहे थे। एक दिन श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी के किनारे गेंद खेल रहे थे और अचानक स्वयं ने ही गेंद को यमुना में फेंक दिया। यमुना में गेंद फेंकने का मुख्य उद्देश्य यही था कि वे किसी प्रकार पारिजात पुष्पों को ले आएँ। अतः वे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर यमुना में कूद पड़े।

कृष्ण के यमुना में कूदने का समाचार श्रीधर नामक गोपाल ने यशोदा को सुनाया। यह सुनकर यशोदा भागती हुई यमुना नदी के किनारे आ पहुँचीं और उसने यमुना नदी की प्रार्थना करते हुए कहा- हे यमुना! यदि मैं बालक को देखूँगी तो भाद्रपद मास की रोहिणी युक्त अष्टमी का व्रत अवश्य करूंगी क्योंकि दया, दान, सज्जन प्राणी, ब्राह्मण कुल में जन्म, रोहिणियुक्त अष्टमी, गंगाजल, एकादशी, गया श्राद्ध और रोहिणी व्रत ये सभी दुर्लभ हैं।

हजारों अश्वमेध यज्ञ, सहस्रों राजसूय यज्ञ, दान तीर्थ और व्रत करने से जो फल प्राप्त होता है, वह सब कृष्णाष्टमी के व्रत को करने से प्राप्त हो जाता है। यह बात नारद ऋषि ने इंद्र से कही। इंद्र ने कहा- हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद! यमुना नदी में कूदने के बाद उस बालरूपी कृष्ण ने पाताल में जाकर क्या किया? यह संपूर्ण वृत्तांत भी बताएँ। नारद ने कहा- हे इंद्र! पाताल में उस बालक से नागराज की पत्नी ने कहा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो, कहाँ से आए हो और यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?

नागपत्नी बोलीं- हे कृष्ण! क्या तूने द्यूतक्रीड़ा की है, जिसमें अपना समस्त धन हार गया है। यदि यह बात ठीक है तो कंकड़, मुकुट और मणियों का हार लेकर अपने गृह में चले जाओ क्योंकि इस समय मेरे स्वामी शयन कर रहे हैं। यदि वे उठ गए तो वे तुम्हारा भक्षण कर जाएँगे। नागपत्नी की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा- 'हे कान्ते! मैं किस प्रयोजन से यहाँ आया हूँ, वह वृत्तांत मैं तुम्हें बताता हूँ। समझ लो मैं कालियानाग के मस्तक को कंस के साथ द्यूत में हार चुका हूं और वही लेने मैं यहाँ आया हूँ। बालक कृष्ण की इस बात को सुनकर नागपत्नी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और अपने सोए हुए पति को उठाते हुए उसने कहा- हे स्वामी! आपके घर यह शत्रु आया है। अतः आप इसका हनन कीजिए।

अपनी स्वामिनी की बातों को सुनकर कालियानाग निन्द्रावस्था से जाग पड़ा और बालक कृष्ण से युद्ध करने लगा। इस युद्ध में कृष्ण को मूर्च्छा आ गई, उसी मूर्छा को दूर करने के लिए उन्होंने गरुड़ का स्मरण किया। स्मरण होते ही गरुड़ वहाँ आ गए। श्रीकृष्ण अब गरुड़ पर चढ़कर कालियानाग से युद्ध करने लगे और उन्होंने कालियनाग को युद्ध में पराजित कर दिया।

अब कलियानाग ने भलीभांति जान लिया था कि मैं जिनसे युद्ध कर रहा हूँ, वे भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही हैं। अतः उन्होंने कृष्ण के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और पारिजात से उत्पन्न बहुत से पुष्पों को मुकुट में रखकर कृष्ण को भेंट किया। जब कृष्ण चलने को हुए तब कालियानाग की पत्नी ने कहा हे स्वामी! मैं कृष्ण को नहीं जान पाई। हे जनार्दन मंत्र रहित, क्रिया रहित, भक्तिभाव रहित मेरी रक्षा कीजिए। हे प्रभु! मेरे स्वामी मुझे वापस दे दें। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे सर्पिणी! दैत्यों में जो सबसे बलवान है, उस कंस के सामने मैं तेरे पति को ले जाकर छोड़ दूँगा अन्यथा तुम अपने गृह को चली जाओ। अब श्रीकृष्ण कालियानाग के फन पर नृत्य करते हुए यमुना के ऊपर आ गए।

तदनन्तर कालिया की फुंकार से तीनों लोक कम्पायमान हो गए। अब कृष्ण कंस की मथुरा नगरी को चल दिए। वहां कमलपुष्पों को देखकर यमुनाके मध्य जलाशय में वह कालिया सर्प भी चला गया।

इधर कंस भी विस्मित हो गया तथा कृष्ण प्रसन्नचित्त होकर गोकुल लौट आए। उनके गोकुल आने पर उनकी माता यशोदा ने विभिन्न प्रकार के उत्सव किए। अब इंद्र ने नारदजी से पूछा- हे महामुने! संसार के प्राणी बालक श्रीकृष्ण के आने पर अत्यधिक आनंदित हुए। आखिर श्रीकृष्ण ने क्या-क्या चरित्र किया? वह सभी आप मुझे बताने की कृपा करें। नारद ने इंद्र से कहा- मन को हरने वाला मथुरा नगर यमुना नदी के दक्षिण भाग में स्थित है। वहां कंस का महाबलशायी भाई चाणूर रहता था। उस चाणूर से श्रीकृष्ण के मल्लयुद्ध की घोषणा की गई। हे इंद्र!

कृष्ण एवं चाणूर का मल्लयुद्ध अत्यंत आश्चर्यजनक था। चाणूर की अपेक्षा कृष्ण बालरूप में थे। भेरी शंख और मृदंग के शब्दों के साथ कंस और केशी इस युद्ध को मथुरा की जनसभा के मध्य में देख रहे थे। श्रीकृष्ण ने अपने पैरों को चाणूर के गले में फँसाकर उसका वध कर दिया। चाणूर की मृत्यु के पश्चात उनका मल्लयुद्ध केशी के साथ हुआ। अंत में केशी भी युद्ध में कृष्ण के द्वारा मारा गया। केशी के मृत्युपरांत मल्लयुद्ध देख रहे सभी प्राणी श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे। बालक कृष्ण द्वारा चाणूर और केशी का वध होना कंस के लिए अत्यंत हृदय विदारक था। अतः उसने सैनिकों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी कि तुम सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर कृष्ण से युद्ध करो।

हे इंद्र! उसी क्षण श्रीकृष्ण ने गरुड़, बलराम तथा सुदर्शन चक्र का ध्यान किया, जिसके परिणामस्वरूप बलदेवजी सुदर्शन चक्र लेकर गरुड़ पर आरूढ़ होकर आए। उन्हें आता देख बालक कृष्ण ने सुदर्शन चक्र को उनसे लेकर स्वयं गरुड़ की पीठ पर बैठकर न जाने कितने ही राक्षसों और दैत्यों का वध कर दिया, कितनों के शरीर अंग-भंग कर दिए। इस युद्ध में श्रीकृष्ण और बलदेव ने असंख्य दैत्यों का वध किया। बलरामजी ने अपने आयुध शस्त्र हल से और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को विशाल दैत्यों के समूह का सर्वनाश किया।

जब अन्त में केवल दुराचारी कंस ही बच गया तो कृष्ण ने कहा- हे दुष्ट, अधर्मी, दुराचारी अब मैं इस महायुद्ध स्थल पर तुझसे युद्ध कर तथा तेरा वध कर इस संसार को तुझसे मुक्त कराऊँगा। यह कहते हुए श्रीकृष्ण ने उसके केशों को पकड़ लिया और कंस को घुमाकर पृथ्वी पर पटक दिया, जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। कंस के मरने पर देवताओं ने शंखघोष व पुष्पवृष्टि की। वहां उपस्थित समुदाय श्रीकृष्ण की जय-जयकार कर रहा था। कंस की मृत्यु पर नंद, देवकी, वसुदेव, यशोदा और इस संसार के सभी प्राणियों ने हर्ष पर्व मनाया। इस कथा को सुनने के पश्चात इंद्र ने नारदजी से कहा- हे ऋषि इस कृष्ण जन्माष्टमी का पूर्ण विधान बताएं एवं इसके करने से क्या पुण्य प्राप्त होता है, इसके करने की क्या विधि है?

नारदजी ने कहा- हे इंद्र! भाद्रपद मास की कृष्णजन्माष्टमी को इस व्रत को करना चाहिए। उस दिन ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन करते हुए श्रीकृष्ण का स्थापन करना चाहिए। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की मूर्ति स्वर्ण कलश के ऊपर स्थापित कर चंदन, धूप, पुष्प, कमलपुष्प आदि से श्रीकृष्ण प्रतिमा को वस्त्र से वेष्टित कर विधिपूर्वक अर्चन करें। गुरुचि, छोटी पीतल और सौंठ को श्रीकृष्ण के आगे अलग-अलग रखें। इसके पश्चात भगवान विष्णु के दस रूपों को देवकी सहित स्थापित करें।

हरि के सान्निध्य में भगवान विष्णु के दस अवतारों, गोपिका, यशोदा, वसुदेव, नंद, बलदेव, देवकी, गायों, वत्स, कालिया, यमुना नदी, गोपगण और गोपपुत्रों का पूजन करें। इसके पश्चात आठवें वर्ष की समाप्ति पर इस महत्वपूर्ण व्रत का उद्यापन कर्म भी करें।

यथाशक्ति विधान द्वारा श्रीकृष्ण की स्वर्ण प्रतिमा बनाएँ। इसके पश्चात 'मत्स्य कूर्म' इस मंत्र द्वारा अर्चनादि करें। आचार्य ब्रह्मा तथा आठ ऋत्विजों का वैदिक रीति से वरण करें। प्रतिदिन ब्राह्मण को दक्षिणा और भोजन देकर प्रसन्न करें। जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तिभाव से श्रीकृष्ण की कथा को सुनते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।
*💐💐जय श्री कृष्णा💐💐*
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*_'हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम, राम-राम हरे हरे।'॥_*

*सोलह कलाओं के स्वामी मुरली मनोहर कृष्ण कन्हैया लाल की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Saturday, August 1, 2020

रक्षा बंधन: भद्रा रहित सर्वार्थसिद्धि योग में भाइयों को बांधें रक्षा सूत्र

*रक्षा बंधन: भद्रा रहित सर्वार्थसिद्धि योग में भाइयों को बांधें रक्षा सूत्र*
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रक्षाबंधन भाई बहन के रिश्ते का प्रसिद्ध त्योहार है, रक्षा का मतलब सुरक्षा और बंधन का मतलब बाध्य है। रक्षाबंधन के दिन बहने भगवान से अपने भाइयों की तरक्की के लिए भगवान से प्रार्थना करती है। 

इस वर्ष ०३ अगस्त २०२० सोमवार के पावन मुहूर्त में रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाएगा। यह भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को और गहरा करने वाला पर्व है। एक ओर जहां भाई-बहन के प्रति अपने दायित्व निभाने का वचन देता है, वहीं बहन भी भाई की लंबी उम्र के लिए उपवास रखती हैं। हालांकि राखी बांधते समय बहनों को कुछ विशेष योग और समय का ध्यान भी रखना आवश्यक है।

इस बार रक्षा बंधन पर विशेष संयोग बन रहे हैं। इस बार यह पर्व भाई-बहन के पवित्र स्नेह बंधन को और प्रबलता व सुदृढ़ता प्रदान करने वाला होगा।

०३ अगस्त को सुबह ०६:५१ बजे से ही सर्वार्थ सिद्धि योग प्रारम्भ हो जाएगा। श्रावण मास का अंतिम सोमवार होने से इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। प्रातः उत्तराषाढ़ा नक्षत्र और ०७:१८ बजे से श्रवण नक्षत्र रहेगा। जो रक्षाबंधन की दृष्टि से बहुत सार्थक फल प्रदान करता है।

इसमें सिर्फ प्रातः ०९:२८ बजे तक भद्रा काल का परित्याग अवश्य करना चाहिए। क्योंकि भद्रा में रक्षा बंधन को शास्त्रो में राजा व राष्ट्र के लिए निषिद्ध व हानिकारक बताया गया है। 

अतः इस दिन प्रातः ०९. २८ बजे के बाद संपूर्ण दिन रक्षाबंधन का सर्वार्थयोग सिद्धि सम्पन्न मूहूर्त रहेगा। जो भाई-बहन दोनों के स्नेह सूत्र को सुदृढ़ता प्रदान करने वाला होगा। साथ ही  उनके जीवन में सुख समृद्धि व सुसौम्य शान्ति की श्री वृद्धि को समुन्नत बनाने में भी सहायक होगा।

*वैदिक रक्षासूत्र*
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रक्षासूत्र मात्र एक धागा नहीं बल्कि शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का पुलिंदा है। यही सूत्र जब वैदिक रीति से बनाया जाता है और भगवन्नाम व भगवद्भाव सहित शुभ संकल्प करके बाँधा जाता है तो इसका सामर्थ्य असीम हो जाता है। 

*कैसे बनायें वैदिक राखी ?*
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वैदिक राखी बनाने के लिए एक छोटा-सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े का टुकड़ा लें। 
उसमें-
१- दूर्वा
२- अक्षत (साबूत चावल)
३- केसर या हल्दी
४- शुद्ध चंदन
५- सरसों के साबूत दाने

इन पाँच चीजों को मिलाकर कपड़े में बाँधकर सिलाई कर दें। फिर कलावे से जोड़कर राखी का आकार दें। सामर्थ्य हो तो उपरोक्त पाँच वस्तुओं के साथ स्वर्ण भी डाल सकते हैं।

*वैदिक राखी का महत्त्व*
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वैदिक राखी में डाली जानेवाली वस्तुएँ हमारे जीवन को उन्नति की ओर ले जानेवाले संकल्पों को पोषित करती हैं।

*१- दूर्वा*
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जैसे दूर्वा का एक अंकुर जमीन में लगाने पर वह हजारों की संख्या में फैल जाती है, वैसे ही ‘हमारे भाई या हितैषी के जीवन में भी सद्गुण फैलते जायें, बढ़ते जायें...’ इस भावना का द्योतक है दूर्वा। दूर्वा गणेशजी की प्रिय है अर्थात् हम जिनको राखी बाँध रहे हैं उनके जीवन में आनेवाले विघ्नों का नाश हो जाय।

*२- अक्षत (साबूत चावल)*
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हमारी भक्ति और श्रद्धा भगवान के, गुरु के चरणों में अक्षत हो, अखंड और अटूट हो, कभी क्षत-विक्षत न हो - यह अक्षत का संकेत है। अक्षत पूर्णता की भावना के प्रतीक हैं । जो कुछ अर्पित किया जाय, पूरी भावना के साथ किया जाय।

*३- केसर या हल्दी*
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केसरकेसर की प्रकृति तेज होती है अर्थात् हम जिनको यह रक्षासूत्र बाँध रहे हैं उनका जीवन तेजस्वी हो। उनका आध्यात्मिक तेज, भक्ति और ज्ञान का तेज बढ़ता जाय। केसर की जगह पिसी हल्दी का भी प्रयोग कर सकते हैं। हल्दी पवित्रता व शुभ का प्रतीक है। यह नजरदोष व नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करती है तथा उत्तम स्वास्थ्य व सम्पन्नता लाती है।

*४- चंदन*
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चंदनचंदन दूसरों को शीतलता और सुगंध देता है। यह इस भावना का द्योतक है कि जिनको हम राखी बाँध रहे हैं, उनके जीवन में सदैव शीतलता बनी रहे, कभी तनाव न हो। उनके द्वारा दूसरों को पवित्रता, सज्जनता व संयम आदि की सुगंध मिलती रहे। उनकी सेवा-सुवास दूर तक फैले।

*५- सरसों*
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सरसोंसरसों तीक्ष्ण होती है। इसी प्रकार हम अपने दुर्गुणों का विनाश करने में, समाज-द्रोहियों को सबक सिखाने में तीक्ष्ण बनें।

अतः यह वैदिक रक्षासूत्र वैदिक संकल्पों से परिपूर्ण होकर सर्व-मंगलकारी है । यह रक्षासूत्र बाँधते समय यह श्लोक बोला जाता है :

येन बद्धो बली राजा 
दानवेन्द्रो महाबलः।। 
तेन त्वां अभिबध्नामि। 
रक्षे मा चल मा चल ।।

इस मंत्रोच्चारण व शुभ संकल्प सहित वैदिक राखी बहन अपने भाई को, माँ अपने बेटे को, दादी अपने पोते को बाँध सकती है । यही नहीं, शिष्य भी यदि इस वैदिक राखी को अपने सद्गुरु को प्रेमसहित अर्पण करता है तो उसकी सब अमंगलों से रक्षा होती है  भक्ति बढ़ती है। 

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Sunday, July 26, 2020

सावन विशेष श्री रामकथा अमृत सुधा 22


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-22*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०८*📖🕉️
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✍🏻
आदरणीय चिन्तनशील बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂
🗣️
   *जीवन जबतक मोह, संशय और भ्रम से ग्रस्त रहता है तब तक वह सात्विक भावदशा में नहीं जी सकता । सात्विक भावदशा क्या, सामान्य मानवीय जीवन जीना असंभव है ।*
मानस में गोस्वामीजी ने *सती-शिव प्रसंग में इसके व्यापक कुपरिणाम का वर्णन किया है और मानस के सामान्य श्रोता और पाठकों को सचेत किया है कि संशय और भ्रमग्रस्त जीवन अत्यंत दुःखदायी होता है।वहाँ जीवन जीना दुर्लभ हो जाता है ।*
*पार्वतीजी के जीवन में जो इसकी छाया शेष रह गई थी वह भगवान् शंकर की कृपा से मिट गई ।*
गोस्वामीजी कहते हैं *यह एक ऐसा मानस रोग है कि इसके रहते व्यक्ति क्षण भर भी कल्याण पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता, उल्टे उसका जीवन विनष्ट हो जाता है ।*
*पार्वतीजी ने जिस पीड़ा को सती जन्म से भोगा, उससे वह आज मुक्त हो गई है ।*
गोस्वामीजी इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं –
*सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना मिटि गै सब कुतरक कै रचना।।*
*भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती।दारुन असंभावना बीती।।*
अर्थात् शिवजी के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वतीजी के सब कुतर्कों की रचना मिट गयी ।श्रीरघुनाथजी के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असंभावना मतलब जिसका होना संभव नहीं,ऐसी मिथ्या कल्पना, जाती रही।
भगवान् शिव ने कहा था कि *“सुनु गिरिराजकुमारि भ्रम तम रवि कर वचन मम”।* यही शिवजी का विश्वास रूप है जो यहाँ फलित हो रहा है । पार्वतीजी के सारे भ्रमों का भंजन हो गया। *रघुनाथजी ब्रह्म नहीं हैं, यह भाव ही समाप्त हो गया ।*
यह सच है *जब संशय सर्प मनुष्य को काटता है तब कुतर्क की लहरें उठने लगती हैं।* 
यहाँ भगवान् शिव के वचन से- *मिट गै सब कुतरक कै रचना*।यानी सारे भ्रम नष्ट हो गए। इस प्रसंग में यहाँ भ्रम मिटा ।पुनः *“तुम्ह कृपालु सबु संसउ हरेऊ।”और” मिटा मोह सरदातप भारी।”* से संशय और मोह मिटने की बात कही गई है ।
संत कहते हैं कि *ये सब प्रभु पद प्रीति और प्रतीति के बाधक तत्त्व हैं ।* इसके मिटने पर ही पार्वती जी को भगवान् राम के चरणों में प्रेम और विश्वास हुआ – *“भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती”*
गोस्वामीजी कहते हैं कि
*रामकृपा बिनु सुनु खगराई।जानि न जाइ राम प्रभुताई।।*
*जानें बिनु न होइ परतीती।बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।* 
यहाँ बहुत स्पष्ट कथन है कि *राम की कृपा के बिना उनकी प्रभुता का बोध नहीं होता। बिना प्रभुता जाने विश्वास नहीं होता और बिना विश्वास के प्रीति नहीं होती।*
 पार्वती जी आगे कह रही हैं - *“राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ”।*
इस प्रकार पार्वतीजी के जीवन में ये यह सबकुछ घटित हो रहा है - *स्वरूप की प्रभुता का बोध, विश्वास यानी प्रतीति और प्रेम यानी प्रीति।*
अर्थात् *भ्रम भंजन होने के पश्चात् ही भगवान् श्रीराम के चरणों में प्रीति और प्रतीति होती है ।-जहाँ प्रभु पद में ऐसा भाव उत्पन्न नहीं हो,समझना चाहिए कि मन का भ्रम भंजन नहीं हुआ है। इसके लिए भगवान् शिव के वचन ही वरेण्य हैं, जिससे राम की कृपा होती है।*
*प्रभु पद में प्रीति और प्रतीति के बाद कुछ शेष नहीं रहता है। यह भक्त-जीवन का मानो अंतिम साध्य है ।*
भगवान् श्रीराम के चरणों में प्रीति और प्रतीति होने पर *दारुण असंभावना भी मिट जाती है ।*
 मानस पीयूष में कहा गया है *“दारुण असंभावना से चार वस्तुओं का बोध होता है -एक भावना, दूसरी संभावना, तीसरी असंभावना और चौथी दारुण असंभावना।*
इन चारों के उदाहरण सुनिए- *“भई रघुपति पद प्रीति” रघुपति पद में प्रीति होना भावना है । ”भई••••प्रीति प्रतीती” श्रीरघुनाथजी के चरणों में प्रीति और प्रतीति दोनों का होना संभावना है और इन दोनों का न होना असंभावना है ।श्रीरामजी को अज्ञानी मानना दारुण असंभावना है ।”*
संशय भ्रमादि को दूर कर *भगवान् श्रीराम के चरणों में प्रीति और प्रतीति के लिए भगवती पार्वती को जब इतनी लम्बी यात्रा करनी पड़ी, तो सामान्य प्राणी के लिए यह पथ सचमुच दारुण असंभावना से ग्रस्त है।*
 एतदर्थ शिवजी के सौजन्य से *भगवान् श्रीराम की कृपा प्राप्ति के पश्चात् ही भ्रम भंजन होने पर* यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि *”भई रघुपति पद प्रीति प्रतीती।”*
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*_नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय| नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे न काराय नम: शिवाय:॥ _*

*भगवान भोलेनाथ की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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Saturday, July 25, 2020

सावन विशेष श्री रामकथा अमृत सुधा 21


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-21*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग--०७*📖🕉️
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✍🏻
आदरणीय चिन्तनशील बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂
🗣️
 *भगवान् शिव पार्वती जी के इस प्रश्न का उत्तर कि राम “अवध नृपतिसुत”हैं कि कोई “अज अगुन अलखगति” हैं, बड़े फटकारपूर्ण शब्दों में देते हैं –*
🗣
*एक बात नहीं मोहि सोहानी।जदपि मोह बस कहेहु भवानी।।*
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना।
जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना।।
कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाखंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच।। 
अग्य अकोविद अंध अभागी।
काई बिषय मुकुर मन लागी।।
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी।
सपनेहुँ संतसभा नहीं देखी।।
कहहिं ते बेद असंमत बानी।
जिन्ह कें सूझ लाभु नहीं हानी।।
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना।
राम रुप देखहिं किमि दीना।
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका ।
जल्पहिं कल्पित बचन अनेका।।
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं।
तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं।।
बातुल भूत बिबस मतवारे।
ते नहीं बोलहिं बचन बिचारे।।
जिन्ह कृत महामोह मद पाना।
तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना।
अस निज हृदय बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम।। 
अर्थात् *ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहने और सुनने वाले अधम नर पाखंडी हैं, हरि पद विमुख हैं, झूठ- सच का ज्ञान नहीं है, अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं, उनके मन रूपी दर्पण पर विषय रूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संत-समाज के दर्शन नहीं किये; जिन्हें अपनी लाभ-हानि नहीं सूझती, जिनका हृदय रूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं वे बेचारे रामचंद्रजी के रूप कैसे देखें? जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ विवेक नहीं, जो अनेक मनगढंत बातें बका करते हैं, जो श्रीहरि की माया के वश में होकर जगत में भ्रमते फिरते हैं, जिन्हें बात या बाई चड़ी है, जो भूत के वश और नशे में चूर हैं वे विचारकर वचन नहीं बोलते और जिन्होंने महामोहरूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए ।*
यहाँ ऐसे वचन बोलने वाले को *भगवान शिव उपर्युक्त 25 दोषों से ग्रस्त बताते हैं ।* निश्चित रूप से ये दोष पार्वतीजी में तो नहीं ही हैं। यह मानस का सामान्य पाठक भी समझ सकता है । 
*इस प्रकार युगीन भ्रमित चेतनाओं को दृष्टि प्रदान करने के उद्देश्य से गोस्वामी जी ने तत्कालीन परिवेश के पाखंड को निर्मूल करने और दाशरथि राम को अवतरित करने के लिए इस प्रसंग को निमित्त बनाया ।*
विशेषतः *इस प्रसंग का “आना” शब्द महत्वपूर्ण है । कबीर के  “राम नाम का मरम है आना” का सीधा संबंध “तुम्ह जो कहा राम कोउ आना” से है। फिर उसके नीचे गोस्वामीजी अन्योक्ति, वंयग्योक्ति के साथ वक्रोक्ति से प्रहार करते दिखते हैं ।*       *गोस्वामीजी ने मानस में प्रायः  व्यंग्यात्मक रूप में ही आना शब्द का प्रयोग किया है।*
यथा--
1- 
*विभीषण को संपूर्ण लंका का राज्य देकर भी श्रीराम सकुचाते हैं तो तुलसीदासजी कहते हैं –*
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना।।
2-
*सती मोह प्रसंग के पूर्व श्रीराम की वन लीला की वियोग विरह दशा को देखकर भगवान् शिव कहते हैं –*
अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन।।
3-
*सेतु बंधन के पश्चात् गोस्वामी जी कहते हैं –*
श्री रघुवीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन।। 
4-
*उत्तरकांड में जब काकभुशुंडि जी भगवान् श्रीराम के अभ्यंतर लोकों की दिव्यता के दर्शन करते हैं तो वहाँ भुशुंडि जी कहते हैं-*
भिन्न भिन्न मैं दीख सबु अति बिचित्र हरिजिन।
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखउँ आन।।
*मानस में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ आन या आना शब्द के माध्यम से व्यंग्य करते हैं ।*
पार्वतीजी, जो यहाँ गिरिराज कुमारी से संबोधित हैं *अर्थात् दृढ़ता को प्रतीकित करती हैं,* को निमित्त बनाकर गोस्वामीजी भगवान शिव के माध्यम से कहते हैं कि *”तजु संसय भजु राम पद”* अर्थात् *राम पद का सेवन करो इसी से भ्रम रुपी अंधकार का नाश होगा।*
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*_ॐ ऐहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजो राशे जगत्पते, अनुकंपयेमां भक्त्या, गृहाणार्घय दिवाकर:॥_*

*भगवान सूर्यदेव की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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Friday, July 24, 2020

सावन विशेष श्री रामकथा अमृत सुधा 20


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-20*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०६*📖🕉️
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✍🏻
आदरणीय चिन्तनशील बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂
*भगवान् शिव जब हर्षित होकर कथा कहने लगते हैं तो वे सर्वप्रथम भगवान् श्रीराम के बाल रूप* की वंदना करते हैं –
*बंदउँ बालरूप सोइ रामू।सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू।*
*मंगल भवन अमंगल हारी ।द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ।।*
यह मानस की सर्वाधिक लोकप्रिय चौपाई है, जिसमें भगवान् श्रीराम के सगुण रूप की वंदना की गई है।
इससे ऊपर की दो चौपाइयों में राम के निर्गुण रूप का गुण कहा गया है । यथा-
*झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें।।*
*जेहि जानें जग जाइ हेराई।जागें जथा सपन भ्रम जाई।।* 
पंडित विजयानंद त्रिपाठी कहते हैं ” *निर्गुण में ही जगत का भ्रम होता है।अतः बालक से निर्गुण ब्रह्म की उपासना कही। निर्गुण-सगुण में अवस्था भेद मात्र है । सगुण को किशोरावस्था मानिए तो निर्गुण बाल्यावस्था है ।जगत् में रहते हुए भी प्रपंच से पृथक होने से बालरूप में निर्गुण उपासना ही कही।”*
मेरी दृष्टि में जो श्रीरघुनाथ रूप हृदय में आया,यहाँ उन्हीं युगल स्वरूप सीताराम का वर्णन है - *मंगल भवन अमंगल हारी।* यहाँ *श्रीराम मंगलभवन हैं और मंगलहारी शब्द सीताजी के लिए है ।*
 क्योंकि तुलसीदास जी के सीताराम न तो राज्याभिषेक के बाद विलग हुए और न साकेत धाम गये। वे दोनों आज भी *“दसरथ अजिर बिहारी” हैं और हम सभी लोगों के लिए “मंगल भवन अमंगल हारी।” हैं ।*
भगवान् शिव कहते हैं कि आपकी कृपा से ही *“सकल लोक जग पावनि गंगा”* रूपी रामकथा आज अवतरित हो रही है ।इसके मूल में आपका राम चरणों में अत्यंत अनुराग है - *तुम्ह रघुबीर चरण अनुरागी।* 
इसी अनुराग का परिणाम है कि भगवान् श्रीराम ने मुझसे पाणिग्रहण हेतु कहा था-
*अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी।।*
*जाइ बिबाहहु सैलजहि•••••।* 
🗣
*यह सार्वभौम सत्य है कि श्रोता के श्रद्धा और सात्विक भाव से ही वक्ता के भाव का प्रस्फुटन होता है ।* 
शिवजी कहते हैं कि मुझे ज्ञात है कि *श्रीराम की कृपा से आपके शोक, मोह ,संदेह, भ्रम सब मिट गए हैं।अब इसका लेशमात्र भी आपमें नहीं है ।*
*जीवन उसी का धन्य है जिनके कान सदा रामकथा का श्रवण और आँखें संत दर्शन के लिए लालायित हों।*
*जिनके सिर श्रीराम और गुरु के चरणतल में नहीं झुकते, वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं-*
ते सिर कटु तुंबरि समतूला।
जे न नमत हरि गुर पद मूला।।
मानस पीयूष के अनुसार-
*“यहाँ पदमूला पद कैसा उत्तम पड़ा है।इसकी विलक्षणता श्रीमद्भागवत के स्कंध-2 अ•3 के 23वें श्लोक से मिलान करने पर स्पष्ट दीख पड़ेगी।पदमूल तलवे को कहते हैं। रज और चरणामृत का तलवों ही से संबंध है। इन्हीं की रज लोग सिर पर धारण करते और तीर्थपान करते हैं ।ध्यान भी चरण चिह्न का ही किया जाता है । पुनः ऊपर के भाग में नूपुरादि और नख का ध्यान होता है । तुलसी ऊपर चढेगी। शीश पर तलवे ही रक्खे जाते हैं । पदमूला में पद का ऊपरी भाग और पदमूल दोनों का अभिप्राय भरा है ।* श्रीमद्भागवत के *‘भागवताड्•घ्रिरेणुं’* अर्थात् रज  और *‘विष्णुपद्या••••न वेद गन्धम्’* अर्थात् चरणों पर चड़ी हुई तुलसी का सूँघना दोनों ही भाव इसमें दर्शा दिये हैं।”
*अतः गोस्वामीजी की दृष्टि वृहत्तम है।*
मध्यकाल में गोस्वामी तुलसीदास जी जिस चौराहे पर खड़े थे वहाँ एक ओर से कृष्ण प्रेम भक्ति प्रचार, दूसरी ओर से कनफटे योगियों का अलख- अलख का उच्चार, तीसरी ओर से सूफी संतों का पैग़ाम और चौथी ओर से निर्गुणियों के अक्खड़पन सुनाई पड़ रहे थे। इसके अतिरिक्त अन्य पंथों,संप्रदायों में मतभिन्नता चरम पर थी।
अर्थात् *तत्कालीन भारतीय समाज धार्मिक,राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक,सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से खंड खंड होकर पतनशील हो गया था।*
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस युगीन वैषम्य को खुलकर देखा था।क्या लोक,क्या वेद, क्या परंपरा, कथा, पुराण, क्या धर्म, क्या जीवन और क्या जगत-प्रत्येक के उलझाव को उन्होंने समझा था।
*रामकथा के संदर्भ में मानो तुलसी की शिव दृष्टि ने कामदेव को भस्मीभूत कर दिया, क्योंकि रामकथा और कामकथा एक साथ नहीं चल सकती थी।अतः गोस्वामी तुलसीदासजी ने कामदेव को रससिंधु कृष्ण का सुवन बना दिया।अपने सामने अत्याचार से पीड़ित मानवों के त्राण के लिए उन्होंने जिस राम का रूप गढ़ा, वे शक्ति, शील, और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति हैं ।*
🗣
*कबीर अपने राम को रूप देने में परहेज करते रहे, उन्हें प्रकट नहीं किया।मानो वे ज्ञान की पोटली में बँधे रह गए। तुलसीदासजी ने ज्ञान के साथ भक्ति की चाशनी देकर राम को प्रकट किया और संत्रस्त मानवता के उद्धार के लिए उनके राम धनुष-बाण धारण कर धरती पर विचरने लगे।*
कबीर ने “दशरथसुत” राम से भिन्न निर्गुण राम को महत्त्व दिया । कबीर ने कहा-
*राम नाम का मरम है आना।दशरथसुत तिहुं लोक बखाना।।*
अर्थात् दशरथ के बेटे राम का बखान तीनों लोकों में होने लगा, जबकि राम नाम का मर्म “आना” यानी दूसरा है ।
*इस कथन से तुलसी मर्माहत हो गए और इसी परिप्रेक्ष्य में शिव-पार्वती संवाद की भूमिका तैयार की गई ।*
इस संवाद में पहले शिवजी ने पार्वती जी की प्रशंसा की और उनके प्रश्नों को सुंदर, सुखद और संत सम्मत कहा परंतु
*“राम सो अवध नृपतिसुत सोई।की अज अगुन अलख गति कोई।।”*
यह उन्हें अच्छा नहीं लगा। *शिवजी को यह बात कितनी असह्य, दुःखद और अरुचिकर लगी, यह उनके उत्तर के कठोर शब्दों से ही ज्ञात होता है ।वक्ता वही उत्तम है जो श्रोता के अंतर्बाह्य भावों को समझकर दुलार और समयानुसार फटकार से उसके संशय और भ्रम को निर्मूल कर दे।*
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*_वैदूर्य कांति रमल:, प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत:।_*
*_अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद:॥_*

*शनिदेव की जय⛳*

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             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
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नागपंचमी (श्रावण पंचमी) २५ जुलाई २०२० पर विशेष

*नागपंचमी (श्रावण पंचमी) २५ जुलाई २०२० पर विशेष*
=========================
पूजा मुहूर्त - 
०५:४३ से ०८:२५ 
( २५ जुलाई २०२०)

पंचमी तिथि प्रारंभ - 
१४:३३ (२४ जुलाई २०२०)

पंचमी तिथि समाप्ति - 
१२:०१ (२५ जुलाई २०२० )

श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है। इस पर्व पर प्रमुख नाग मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है और भक्त नागदेवता के दर्शन व पूजा करते हैं। सिर्फ मंदिरों में ही नहीं बल्कि घर-घर में इस दिन नागदेवता की पूजा करने का विधान है।

नाग पंचमी का हिंदू धर्म में बहुत अधिक महत्व माना जाता है। इस दिन उत्तरा फाल्गुनी और हस्त नक्षत्र होने से चंद्रमा की स्थिति कन्या राशिगत है।

परिघ और शिव नामक योग होने से नाग पूजन के लिए यह दिन श्रेष्ठ माना जा रहा है। इस दिन नाग देवता की पूजा की जाती है और सर्पों को दूध पिलाने की भी परंपरा है। यह पर्व श्रावण मास की शुक्ल पक्ष पंचमी को मनाया जाता है।

ऐसी मान्यता है कि जो भी इस दिन श्रद्धा व भक्ति से नागदेवता का पूजन करता है उसे व उसके परिवार को कभी भी सर्प भय नहीं होता। इस बार यह पर्व २५ जुलाई, शनिवार को है। इस दिन नागदेवता की पूजा किस प्रकार करें, इसकी विधि इस प्रकार है।

 *पूजन विधि*
=========
नागपंचमी पर सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करने के बाद सबसे पहले भगवान शंकर का ध्यान करें नागों की पूजा शिव के अंश के रूप में और शिव के आभूषण के रूप में ही की जाती है। क्योंकि नागों का कोई अपना अस्तित्व नहीं है। अगर वो शिव के गले में नहीं होते तो उनका क्या होता। इसलिए पहले भगवान शिव का पूजन करेंगे।  शिव का अभिषेक करें, उन्हें बेलपत्र और जल चढ़ाएं।

इसके बाद शिवजी के गले में विराजमान नागों की पूजा करे। नागों को हल्दी, रोली, चावल और फूल अर्पित करें। इसके बाद चने, खील बताशे और जरा सा कच्चा दूध प्रतिकात्मक रूप से अर्पित करेंगे।

घर के मुख्य द्वार पर गोबर, गेरू या मिट्टी से सर्प की आकृति बनाएं और इसकी पूजा करें।

घर के मुख्य द्वार पर सर्प की आकृति बनाने से जहां आर्थिक लाभ होता है, वहीं घर पर आने वाली विपत्तियां भी टल जाती हैं।

इसके बाद 'ऊं कुरु कुल्ले फट् स्वाहा' का जाप करते हुए घर में जल छिड़कें। अगर आप नागपंचमी के दिन आप सामान्य रूप से भी इस मंत्र का उच्चारण करते हैं तो आपको नागों का तो आर्शीवाद मिलेगा ही साथ ही आपको भगवान शंकर का भी आशीष मिलेगा बिना शिव जी की पूजा के कभी भी नागों की पूजा ना करें। क्योंकि शिव की पूजा करके नागों की पूजा करेंगे तो वो कभी अनियंत्रित नहीं होंगे नागों की स्वतंत्र पूजा ना करें, उनकी पूजा शिव जी के आभूषण के रूप में ही करें।

*नाग पंचमी पूजा मन्त्र*:
=================
सर्वे नागाः प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथ्वीतले।
ये च हेलिमरीचिस्था येऽन्तरे दिवि संस्थिताः॥

ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिनः।
ये च वापीतडगेषु तेषु सर्वेषु वै नमः॥

*अर्थ-*

इस संसार में, आकाश, स्वर्ग, झीलें, कुएँ, तालाब तथा सूर्य-किरणों में निवास करने वाले सर्प, हमें आशीर्वाद देंतथा हम सभी आपको बारम्बार नमन करते हैं।

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शङ्ख पालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियां तथा।। 

एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्।
सायङ्काले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः।
तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्॥

*अर्थ -*
======
नौ नाग देवताओं के नाम अनन्त, वासुकी, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शङ्खपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक तथा कालिया हैं। यदि प्रतिदिन प्रातःकाल नियमित रूप से इनका जप किया जाता है, तो नाग देवता आपको समस्त पापों से सुरक्षित रखेंगे तथा आपको जीवन में विजयी बनायेंगे।
नाग-नागिन के जोड़े की प्रतिमा (सोने, चांदी या तांबे से निर्मित) के सामने यह मंत्र बोलें।

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शंखपाल धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।।
एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्।
सायंकाले पठेन्नित्यं प्रात:काले विशेषत:।।

तस्मै विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।

इसके बाद पूजा व उपवास का संकल्प लें। नाग-नागिन के जोड़े की प्रतिमा को दूध से स्नान करवाएं। इसके बाद शुद्ध जल से स्नान कराकर गंध, फूल, धूप, दीप से पूजा करें व सफेद मिठाई का भोग लगाएं। यह प्रार्थना करें।

सर्वे नागा: प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथिवीतले।।
ये च हेलिमरीचिस्था येन्तरे दिवि संस्थिता।
ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिन:।
ये च वापीतडागेषु तेषु सर्वेषु वै नम:।।

प्रार्थना के बाद नाग गायत्री मंत्र का जाप करें-

ऊँ नागकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि तन्नो सर्प: प्रचोदयात्।

इसके बाद सर्प सूक्त का पाठ करें

ब्रह्मलोकुषु ये सर्पा: शेषनाग पुरोगमा:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासुकि प्रमुखादय:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
कद्रवेयाश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
इंद्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखादय:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखादय:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
पृथिव्यांचैव ये सर्पा: ये साकेत वासिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
ग्रामे वा यदिवारण्ये ये सर्पा प्रचरन्ति च।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
समुद्रतीरे ये सर्पा ये सर्पा जलवासिन:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
रसातलेषु या सर्पा: अनन्तादि महाबला:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।

नागदेवता की आरती करें और प्रसाद बांट दें। इस प्रकार पूजा करने से नागदेवता प्रसन्न होते हैं और हर मनोकामना पूरी करते हैं।
 
 *सांपों को लेकर मान्यताएं*
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माना जाता है कि इच्‍छाधारी नाग होते हैं, जो रूप बदल सकते हैं।

कुछ दुर्लभ नागों के सिर पर मणि होती हैं।

नागों की स्मरण शक्ति तेज होती है।

सौ वर्ष की उम्र पूरी करने के बाद नागों में उड़ने की शक्ति हासिल हो जाती है।

सौ वर्ष की उम्र के बाद नागों में दाढ़ी-मूंछ निकल आती है।

नाग खुद का बिल नहीं बनाता, वह चूहों के बिल में रहता है।

नाग जमीन के अंदर गढ़े धन की रक्षा करता है। इसे नाग चौकी कहा जाता है।

नाग संगीत सुनकर झूमने लगते हैं।

नागों को ही सबसे पहले भूकंप, प्रलय या अन्य किसी प्राकृतिक आपता का पता चल जाता है।

नाग की केंचुल दरवाजे के ऊपर रखने से घर को नजर नहीं लगती।

*नागपंचमी*
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महाभारत आदि ग्रंथों में नागों की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है। इनमें शेषनाग, वासुकि, तक्षक आदि प्रमुख हैं। नागपंचमी के अवसर पर हम आपको ग्रंथों में वर्णित प्रमुख नागों के बारे में बता रहे हैं।

*तक्षक नाग*
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धर्म ग्रंथों के अनुसार, तक्षक पातालवासी आठ नागों में से एक है। तक्षक के संदर्भ में महाभारत में वर्णन मिलता है। उसके अनुसार, श्रृंगी ऋषि के शाप के कारण तक्षक ने राजा परीक्षित को डसा था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। तक्षक से बदला लेने के उद्देश्य से राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने सर्प यज्ञ किया था। इस यज्ञ में अनेक सर्प आ-आकर गिरने लगे। यह देखकर तक्षक देवराज इंद्र की शरण में गया।

जैसे ही ऋत्विजों (यज्ञ करने वाले ब्राह्मण) ने तक्षक का नाम लेकर यज्ञ में आहुति डाली, तक्षक देवलोक से यज्ञ कुंड में गिरने लगा। तभी आस्तिक ऋषि ने अपने मंत्रों से उन्हें आकाश में ही स्थिर कर दिया। उसी समय आस्तिक मुनि के कहने पर जनमेजय ने सर्प यज्ञ रोक दिया और तक्षक के प्राण बच गए।

*कर्कोटक नाग*
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कर्कोटक शिव के एक गण हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, सर्पों की मां कद्रू ने जब नागों को सर्प यज्ञ में भस्म होने का श्राप दिया तब भयभीत होकर कंबल नाग ब्रह्माजी के लोक में, शंखचूड़ मणिपुर राज्य में, कालिया नाग यमुना में, धृतराष्ट्र नाग प्रयाग में, एलापत्र ब्रह्मलोक में और अन्य कुरुक्षेत्र में तप करने चले गए।

ब्रह्माजी के कहने पर कर्कोटक नाग ने महाकाल वन में महामाया के सामने स्थित लिंग की स्तुति की। शिव ने प्रसन्न होकर कहा- जो नाग धर्म का आचरण करते हैं, उनका विनाश नहीं होगा। इसके बाद कर्कोटक नाग उसी शिवलिंग में प्रवेश कर गया। तब से उस लिंग को कर्कोटेश्वर कहते हैं। मान्यता है कि जो लोग पंचमी, चतुर्दशी और रविवार के दिन कर्कोटेश्वर शिवलिंग की पूजा करते हैं उन्हें सर्प पीड़ा नहीं होती।

*कालिया नाग*
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श्रीमद्भागवत के अनुसार, कालिया नाग यमुना नदी में अपनी पत्नियों के साथ निवास करता था। उसके जहर से यमुना नदी का पानी भी जहरीला हो गया था। श्रीकृष्ण ने जब यह देखा तो वे लीलावश यमुना नदी में कूद गए। यहां कालिया नाग व भगवान श्रीकृष्ण के बीच भयंकर युद्ध हुआ। अंत में श्रीकृष्ण ने कालिया नाग को पराजित कर दिया। तब कालिया नाग की पत्नियों ने श्रीकृष्ण से कालिया नाग को छोडऩे के लिए प्रार्थना की। तब श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि तुम सब यमुना नदी को छोड़कर कहीं और निवास करो। श्रीकृष्ण के कहने पर कालिया नाग परिवार सहित यमुना नदी छोड़कर कहीं और चला गया।

इनके अलावा कंबल, शंखपाल, पद्म व महापद्म आदि नाग भी धर्म ग्रंथों में पूज्यनीय बताए गए हैं।

नागपंचमी पर नागों की पूजा कर आध्यात्मिक शक्ति और धन मिलता है। लेकिन पूजा के दौरान कुछ बातों का ख्याल रखना बेहद जरूरी है।
हिंदू परंपरा में नागों की पूजा क्यों की जाती है और ज्योतिष में नाग पंचमी का क्या महत्व है।

*नाग पंचमी का महत्व: *
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मान्यता है कि इस दिन सर्पों को अर्पित किया जाने वाला पूजन नाग देवताओं के समक्ष पहुंच जाता है। हिंदू धर्म में सर्पों को पूजनीय माना गया है। नाग को भगवान शिव के गले का हार और भगवान विष्णु की शैय्या कहा गया है। 

ऐसे में माना नाग की पूजा करने से कहते हैं भगवान शिव और भगवान विष्णु दोनों प्रसन्न होते हैं। नाग पञ्चमी पूजन के समय बारह नागों की पूजा की जाती है। अनन्त, वासुकि, शेष, पद्म, कम्बल, कर्कोटक, अश्वतर, धृतराष्ट्र, शङ्खपाल, कालिया, तक्षक, पिङ्गल।

अगर कुंडली में राहु-केतु की स्थिति ठीक ना हो तो इस दिन विशेष पूजा का लाभ पाया जा सकता है।

जिनकी कुंडली में विषकन्या या अश्वगंधा योग हो, ऐसे लोगों को भी इस दिन पूजा-उपासना करनी चाहिए. जिनको सांप के सपने आते हों या सर्प से डर लगता हो तो ऐसे लोगों को इस दिन नागों की पूजा विशेष रूप से करना चाहिए।

*नाग पंचमी के दिन क्या करें:*
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इस व्रत के एक दिन पूर्व यानि चतुर्थी को एक समय भोजन कर पंचमी तिथि को उपवास रखा जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, पंचमी तिथि के स्वामी नाग हैं, इसलिए भक्तिभाव के साथ गंध, पुष्प, धूप, कच्चा दूध, खीर, भीगा हुआ बाजरा और घी से नाग देवता का पूजन करें। इस दिन सपेरों और ब्राह्मणों को भी लड्डू और दक्षिणा दान करने की परंपरा है। 

कई लोग इस दिन कालसर्प का पूजन करते हैं। नाग पूजा के लिये नागदेव की तस्वीर या फिर मिट्टी या धातू से बनी उनकी प्रतिमा का पूजन किया जाता है। दूध, धान, खील और दूब चढ़ावे के रूप मे अर्पित की जाती है। सपेरों से किसी नाग को खरीदकर उन्हें मुक्त भी कराया जाता है। इस दिन जीवित सांप को दूध पिलाकर भी नागदेवता को प्रसन्न किया जाता है।

*भूलकर भी ये ना करें*
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०१- जो लोग भी नागों की कृपा पाना चाहते हैं उन्हें नागपंचमी के दिन ना तो भूमि खोदनी चाहिए और ना ही साग काटना चाहिए.।

०२- उपवास करने वाला मनुष्य सांयकाल को भूमि की खुदाई कभी न करे।

०३- नागपंचमी के दिन धरती पर हल न चलाएं।

०४- देश के कई भागों में तो इस दिन सुई धागे से किसी तरह की सिलाई आदि भी नहीं की जाती।

०५- न ही आग पर तवा और लोहे की कड़ाही आदि में भोजन पकाया जाता है।

०६- किसान लोग अपनी नई फसल का तब तक प्रयोग नहीं करते जब तक वह नए अनाज से बाबे को रोट न चढ़ाएं।

*राहु-केतु से परेशान हों तो क्या करें*
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एक बड़ी सी रस्सी में सात गांठें लगाकर प्रतिकात्मक रूप से उसे सर्प बना लें इसे एक आसन पर स्थापित करें। अब इस पर कच्चा दूध, बताशा और फूल अर्पित करें। साथ ही गुग्गल की धूप भी जलाएं! 

इसके पहले राहु के मंत्र 'ऊं रां राहवे नम:' का जाप करना है और फिर केतु के मंत्र 'ऊं कें केतवे नम:' का जाप करें।

जितनी बार राहु का मंत्र जपेंगे उतनी ही बार केतु का मंत्र भी जपना है।

मंत्र का जाप करने के बाद भगवान शिव का स्मरण करते हुए एक-एक करके रस्सी की गांठ खोलते जाएं. फिर रस्सी को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें. राहु और केतु से संबंधित जीवन में कोई समस्या है तो वह समस्या दूर हो जाएगी।

*सांप से डर लगता है या सपने आते हैं।*
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अगर आपको सर्प से डर लगता है या सांप के सपने आते हैं तो चांदी के दो सर्प बनवाएं साथ में एक स्वास्तिक भी बनवाएं। अगर चांदी का नहीं बनवा सकते तो जस्ते का बनवा लीजिए।
अब थाल में रखकर इन दोनों सांपों की पूजा कीजिए और एक दूसरे थाल में स्वास्तिक को रखकर उसकी अलग पूजा कीजिए।

नागों को कच्चा दूध जरा-जरा सा दीजिए और स्वास्तिक पर एक बेलपत्र अर्पित करें. फिर दोनों थाल को सामने रखकर 'ऊं नागेंद्रहाराय नम:' का जाप करें।

इसके बाद नागों को ले जाकर शिवलिंग पर अर्पित करें और स्वास्तिक को गले में धारण करें।

ऐसा करने के बाद आपके सांपों का डर दूर हो जाएगा और सपने में सांप आना बंद हो जाएंगे।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Thursday, July 23, 2020

सावन विशेष श्री रामकथा अमृत सुधा 19


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-19*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०५*📖🕉️
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✍🏻
आदरणीय चिन्तनशील बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂
✍🏻
*पूर्व सती चरित में जितने मोह,भ्रम,संदेहादि थे,वे सब उसी जन्म में भस्मीभूत हो गए।*
 गोस्वामीजी संशय को सर्प की संज्ञा देते हैं-
*संशय सर्प ग्रसन उरगादः।*
यह ऐसा महाकाल है जिसके डसने पर जीवन भस्मीभूत हो जाता है । सती जी मूलतः उसी संशय सर्प के दंशन से भस्मीभूत हो गईं और इसी संशय छिद्र के कारण भगवान् शिव के साथ अगस्त्य ऋषि से सुनी हुई पूरी कथा रिसकर विनष्ट हो गई ।
संत कहते हैं कि *दक्ष पुत्री होने के कारण यह सब घटित हुआ । दक्ष में बौद्धिक चातुर्य है और वही चतुराई सती को शिव से विलग करने का कारण बनी ।*
🗣 ध्यान रखें कि
*व्यक्ति में संस्कार तीन प्रकार से आते हैं-माता -पिता के रज-वीर्य से,पूर्व जन्म के कृत कर्म से  तथा वाल्यावस्था के परिवेश से ।*
*अन्तिम दोनों तो सत्संगति और साधना से सुधर जाते हैं लेकिन माता पिता से आए तत्त्व तो शरीर के मिटने पर ही समाप्त होते हैं ।वैज्ञानिक मानते हैं कि वंशानुगत बीमारी असाध्य है ।*
💐
*दक्ष पुत्री सती भी यज्ञानल में भस्मीभूत होकर पार्वती हुई और फिर भगवान् शिव और भगवान् राम के चरणों में अनन्य अनुराग हुआ और रामकथा श्रवण की प्रीति हुई-*
भगवान् शिव कहते हैं –
*तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी।कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी ।*
दक्ष पुत्री सती तो अपने पितृ संस्कार से इस प्रकार ग्रस्त हैं कि भगवान् शिव के वचन भी अप्रभावी हो गए। 
*आज के परिवेश में तो यह और महत्त्वपूर्ण हो गया है । हमारे यहाँ तो गर्भाधान से लेकर अनेक संतति संस्कारों के वर्णन है ।सचमुच यह एक योग क्रिया है, भोगक्रिया नहीं।*
पार्वती जी ने राम कथा संबंधित 14 प्रश्न किए- *निर्गुण-सगुण संबंधी, राम अवतार, बाल चरित, सीताराम विवाह, राज-परित्याग, वनवास, रावण-वध, रामराज्य प्रसंग ये आठ प्रसंग मानो मूल प्रश्न हैं,*
*जिनके उत्तर भगवान् शिव ने दिये।* 
और छः प्रश्न हैं-
*साकेत गमन, भगवत्तत्त्व, भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य।*
इस पर मतवैभिन्य है । 
*कुछ संत कहते हैं कि भगवान् अपने निज स्वरूप में अयोध्या में ही रह गए। कुछ कहते हैं कि अँवराई वाला प्रसंग ही नारद जी के साथ साकेतधाम गमन का वर्णन है, आदि आदि ।*
गोस्वामी जी ने बड़ी कलात्मकता से इस प्रसंग को वर्णित किया है । *भगवान् शिव के पूछने पर पार्वती जी ने उत्तरकांड में कहा*-
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। *से अपनी बात कह दी और फिर आगे  भुशुंडि चरित आरंभ हुआ ।*
भगवान् शिव पार्वतीजी के श्रद्धा से पूछे गए प्रश्नों से बड़े प्रसन्न हुए और उनके हृदय में रामचरित का प्रकटीकरण हुआ- *“हर हियँ रामचरित सब आए”।* तत्पश्चात्-श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। *यहाँ गोस्वामी जी एक महत्त्वपूर्ण  बात की ओर संकेत करते हैं पहले उनका चरित आता है तब उस चरित के कारण उत्पन्न प्रेम से रूप का प्रकटीकरण होता है ।* 
*भगवान् शिव के हृदय में चरित के बाद रूप का आना भक्त्यात्मक दृष्टि से पार्वती के प्रश्नों के उत्तर हैं। चरित निर्गुण सगुण दोनों हो सकते हैं ।* कबीर और तुलसीदासजी दोनों ने राम चरित के वर्णन किये हैं । परंतु एक का निर्गुण है और दूसरे का सगुण ।
*हाँ, एक बात और है कबीर अपने निर्गुण रामचरित में सगुण चरित को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं । परंतु तुलसीदास दोनों चरित को अभेद मानते हैं ।*
*मानस के प्रायः प्रत्येक श्रोता को यही भ्रांति है कि वह निर्गुण ब्रह्म अलग है और दशरथ नंदन राम अलग हैं।*
 *भगवान् शिव सहित सारे वक्ताओं ने मानस में यही सिद्ध किया है कि दोनों अभेद हैं*-सगुनहिं अगुनहिं नहीं कछु भेदा। *पूरे मानस का यही प्रतिपाद्य है* कि
*“अगुन अलेप अमान एकरस।रामु सगुन भए भगत पेम बस।।* 
यहाँ गोस्वामीजी कहते हैं- *श्रीरघुनाथ रूप उर आवा।*
मेरी दृष्टि में यहाँ *“श्रीरघुनाथ”* शब्द महत्त्वपूर्ण है । *”श्री”* सीताजी के लिए है और *“रघुनाथ”* श्रीराम के लिए ।
*युगल चरित का सम्मिलित स्वरूप ही रामचरित मानस है।*
महाराज मनु ने भी जब कहा कि मुझे उस रूप के दर्शन चाहिए- *“जो सरूप बस सिब मन माहीं”*। तो भगवान् श्रीराम सीताजी सहित प्रकट हुए-
*राम बाम दिसि सीता सोई ।* इससे स्पष्ट है कि *भगवान् शिव के हृदय में युगल रूप का निवास है ।*
इस पर भी संतों के अलग-अलग मत हैं। *कुछ बालक राम को इनका इष्ट मानते हैं तो कुछ भिन्न स्वरूप को।* क्योंकि भगवान् शिव ने बाल लीला से लेकर रण लीला तक जिस चरित को देखा, वहीं अभिभूत हो गए।अतः शिव तो- *“सेवक स्वामी सखा सीय पी के”।*  अतः उनके हृदय में राम समग्रता में निवास करते हैं ।
हाँ,एक बात जो मेरी दृष्टि से  महत्त्वपूर्ण है । *भक्ति में सेव्य (इष्ट) बालक रूप में हों तो यह अति उत्तम है, क्योंकि कलिग्रस्त जीव के लिए ऐसा स्वरूप बड़ा सहज और स्वाभाविक होता है ।अन्यथा सेवक ही बालवत् हो जाए तो किसी भी स्वरूप में वह आनंदित रह सकता है।*
*बालक की सहजता, निष्कलुषता और उसकी अंतर्बाह्य पवित्रता भक्त्यात्मक दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण है ।* फिर कोई भी लीला हो-सर्वत्र आनंद ही आनंद है । भगवान् कहते हैं - *“बालक सुत सम दास अमानी।”*
अतः महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि *हम श्रीराम के किस रूप के उपासक हैं, बल्कि महत्त्वपूर्ण यह है कि जिस दिन हमारे जीवन में बालक सम अमानित्व का भाव जग जाता है हमारे इष्ट हमारे ही हो जाते हैं । रामकृष्ण परमहंस बालवत् जीते थे तो जगदंबा स्वयं पुत्रवत् पालन करती थीं। यहाँ तक कि माँ शारदा में भी उनका यही भाव था। यही है- बालवत् साधना ।*
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℘ *जारी ⏭️* ɮ
🙏🏻जय सियाराम
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*_नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्जसम्भवाम् । श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थिताम् ॥_*

*माता लक्ष्मी की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...