Wednesday, July 31, 2019

गुरु पूर्णिमा

सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर सभ्यता और धर्म के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। शिव को लेकर 'आदिनाथ' भी कहा जाता है। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम आदिश भी है। इस 'आदिश' शब्द से ही 'आदेश' शब्द बना है। नाथ साधु जब एक-दूसरे से मिलते हैं तो कहते हैं- आदेश।

शिव तो जगत के गुरु हैं। मान्यता अनुसार सबसे पहले उन्होंने अपना ज्ञान 7 लोगों को दिया था। ये ही आगे चलकर ब्रह्मर्षि कहलाए। इन 7 ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया गया हो। आज सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जाएगी। परशुराम और रावण भी शिव के शिष्य थे।

शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत ‍की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है। आदिगुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया।

सप्त ऋषियों के नाम : बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे। उल्लेखनीय है कि हर काल में अलग-अलग सप्त ऋषि हुए हैं। उनमें भी जो ब्रह्मर्षि होते हैं उनको ही सप्तर्षियों में गिना जाता है। 7 ऋषि योग के 7 अंगों का प्रतीक हैं 8वां अंग मोक्ष है। मोक्ष के लिए ही 7 प्रकार के योग किए जाते हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

सप्त ब्रह्मर्षि देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:।
कण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावश:।।
अर्थात : 1. ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5. काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि। वैदिक काल में ये 7 प्रकार के ऋषिगण होते थे।

सप्त ऋषि ही शिव के मूल शिष्य : भगवान शिव ही पहले योगी हैं और मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ उन्हीं को है। उन्होंने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए 7 ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7 बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन 7 रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं। बाद में योग में आई जटिलता को देखकर पतंजलि ने 300 ईसा पूर्व मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। योग का 8वां अंग मोक्ष है। 7 अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिए हैं।

अगले पन्ने पर सप्तऋषि कैसे बने शिव से शिष्य...

सबसे पहले मोक्ष या निर्वाण का स्वाद भगवान शिव ने ही चखा। आदि योगी शिव ने ही इस संभावना को जन्म दिया कि मानव जाति अपने मौजूदा अस्तित्व की सीमाओं से भी आगे जा सकती है। सांसारिकता में रहना है, लेकिन इसी का होकर नहीं रह जाना है। अपने शरीर और दिमाग का हरसंभव इस्तेमाल करना है, लेकिन उसके कष्टों को भोगने की जरूरत नहीं है। ये शिव ही थे जिन्होंने मानव मन में योग का बीज बोया।

योग विद्या के मुताबिक 15 हजार साल से भी पहले शिव ने सिद्धि प्राप्त की थी। इस अद्भुत निर्वाण या कहें कि परमानंद की स्थिति में पागलों की तरह हिमालय पर नृत्य किया था। फिर वे पूरी तरह से शांत होकर बैठ गए। उनके इस अद्भुत नृत्य को उस दौर और स्थान के कई लोगों ने देखा। देखकर सभी के मन में जिज्ञासा जाग उठी कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि वे पागलों की तरह अद्भुत नृत्य करने लगे।

आखिरकार लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और इसे जानने को उत्सुक होकर धीरे-धीरे लोग उनके पास पहुंचे लेकिन शिवजी ने उन पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि आदि योगी तो इन लोगों की मौजूदगी से पूरी तरह बेखबर परमानंद में लीन थे। उन्हें यह पता ही नहीं चला कि उनके इर्द-गिर्द क्या हो रहा है। लोग इंतजार करते रहे और फिर लौट गए। लेकिन उन लोगों में से 7 लोग ऐसे भी थे, जो उनके इस नृत्य का रहस्य जानना ही चाहते थे। लेकिन शिव ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया, क्योंकि वे अपनी समाधि में लीन थे।

कठिन इंतजार के बाद जब शिव ने आंखें खोलीं तो उन्होंने शिवजी से उनके इस नृत्य और आनंद का रहस्य पूछा। शिव ने उनकी ओर देखा और फिर कहा, 'यदि तुम इसी इंतजार की स्थिति में लाखों साल भी गुजार दोगे तो भी इस रहस्य को नहीं जान पाआगे, क्योंकि जो मैंने जाना है वह क्षणभर में बताया नहीं जा सकता और न ही उसे क्षणभर में पाया जा सकता है। वह कोई जिज्ञासा या कौतूहल का विषय नहीं है।’

ये 7 लोग भी हठी और पक्के थे। शिव की बात को उन्होंने चुनौती की तरह लिया और वे भी शिव के पास ही आंखें बंद करके रहते। दिन, सप्ताह, महीने, साल गुजरते गए, लेकिन शिव थे कि उन्हें नजरअंदाज ही करते जा रहे थे।

84 साल की लंबी साधना के बाद ग्रीष्म संक्रांति के शरद संक्रांति में बदलने पर पहली पूर्णिमा का दिन आया, जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायण में चले गए। पूर्णिमा के इस दिन आदि योगी शिव ने इन 7 तपस्वियों को देखा तो पाया कि साधना करते-करते वे इतने पक चुके हैं कि ज्ञान हासिल करने के लिए तैयार हैं। अब उन्हें और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।

शिव ने उन सातों को अगले 28 दिनों तक बेहद नजदीक से देखा और अगली पूर्णिमा पर उनका गुरु बनने का निर्णय लिया। इस तरह शिव ने स्वयं को आदिगुरु में रूपांतरित कर लिया, तभी से इस दिन को 'गुरु पूर्णिमा' कहा जाने लगा।

               *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
               राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
              धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
              प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
      अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
          ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

हरियाली अमावस्या-हरेली तिहार

*हरियाली अमावस्या-हरेली तिहार*

भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल से पर्यावरण संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। पर्यावरण को संरक्षित करने की दृष्टि से ही पेड़-पौधों में ईश्वरीय रूप को स्थान देकर उनकी पूजा का विधान बताया गया है। जल में वरुण देवता की परिकल्पना कर नदियों व सरोवरों को स्वच्छ व पवित्र रखने की बात कही गई है। वायुमंडल की शुचिता के लिए वायु को देवता माना गया है,
वेदों व ऋचाओं में इनके महत्व को बताया गया है। शास्त्रों में पृथ्वी, आकाश, जल, वनस्पति एवं औषधि को शांत रखने को कहा गया है। इसका आशय यह है कि इन्हें प्रदूषण से बचाया जाए। यदि ये सब संरक्षित व सुरक्षित होंगे तभी हमारा जीवन भी सुरक्षित व सुखी रह सकेगा।
श्रावण कृष्ण पक्ष अमावस्या को हरियाली अमावस्या के नाम से जाना जाता है। यह अमावस्या पर्यावरण के संरक्षण के महत्व व आवश्यकता को भी प्रदर्शित करती है। देश के कई भागों विशेषकर उत्तर भारत में इसे एक धार्मिक पर्व के साथ ही पर्यावरण संरक्षण के रूप में मनाया जाता है।

इस दिन नदियों व जलाशयों के किनारे स्नान के बाद भगवान का पूजन-अर्चन करने के बाद शुभ मुहूर्त में वृक्षों को रोपा जाता है। इसके तहत शास्त्रों में विशेषकर आम, आंवला, पीपल, वटवृक्ष और नीम के पौधों को रोपने का विशेष महत्व बताया गया है।

वृक्षों में बसते हैं देवता:- धार्मिक मान्यता के अनुसार वृक्षों में देवताओं का वास बताया गया है। शास्त्रों के अनुसार पीपल के वृक्ष में त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु व शिव का वास होता है। इसी प्रकार आंवले के पेड़ में लक्ष्मीनारायण के विराजमान होने की परिकल्पना की गई है। इसके पीछे वृक्षों को संरक्षित रखने की भावना निहित है। पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने के लिए ही हरियाली अमावस्या के दिन वृक्षारोपण करने की प्रथा बनी।

हरियाली अमावस्या पर मेलों का आयोजन:-
इस दिन कई शहरों व गांवों में हरियाली अमावस के मेलों का आयोजन किया जाता है। इसमें सभी वर्ग के लोगों के साथ युवा भी शामिल हो उत्सव व आनंद से पर्व मनाते हैं। गुड़ व गेहूं की धानी का प्रसाद दिया जाता है। स्त्री व पुरुष इस दिन गेहूं, जुवार, चना व मक्का की सांकेतिक बुआई करते हैं जिससे कृषि उत्पादन की स्थिति क्या होगी, इसका अनुमान लगाया जाता है।

मध्यप्रदेश में मालवा व निमाड़, राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम, गुजरात के पूर्वोत्तर क्षेत्रों, उत्तरप्रदेश के दक्षिण-पश्चिमी इलाकों के साथ ही हरियाणा व पंजाब में हरियाली अमावस्या को इसी तरह पर्व के रूप में मनाया जाता है। श्रावण मास में महादेव के पूजन का विशेष महत्व है इसीलिए हरियाली अमावस्या पर विशेष तौर पर शिवजी का पूजन-अर्चन किया जाता है।
छत्तीसगढ़ में इस दिन को *हरेली तिहार* के नाम से व हर्षोल्लास से मनाया जाता है।

*पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

महाभारत युद्ध के अक्षौहिणी सेना व कुरूक्षेत्र का क्षेत्रफल


#महाभारत_की_१८_अक्षोहिणी_सेना_और_कुरुक्षेत्र_का_क्षेत्रफल  (#विशेष_लेख #अवश्य_पढ़ें)

भारतीय इतिहास और महाभारत युद्ध को झूठा कहने वालो के मुह पर जोरदार तमाचा लगाता ज्ञान वर्धक लेख :

युद्ध के लिए आवश्यक सैनिक, रथादि वाहन, घुड़सवार आदि का वर्गीकरण और सेना की संरचना। अक्षौहिणी प्राचीन भारत में सेना का माप हुआ करता था। ये संस्कृत का शब्द है। विभिन्न स्रोतों से इसकी संख्या में कुछ कुछ अंतर मिलते हैं।

महाभारत के अनुसार इसमें २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५, ६१० घुड़सवार एवं १,०९,३५० पैदल सैनिक होते थे। महाभारत, (आदि पर्व – २. १५-२३) इसके अनुसार इनका अनुपात १ रथ:१ गज:३ घुड़सवार:५ पैदल सैनिक होता था। इसके प्रत्येक भाग की संख्या के अंकों का कुल जमा १८ आता है। एक घोडे पर एक सवार बैठा होगा, हाथी पर कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक पीलवान और दूसरा लडने वाला योद्धा, इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य और चार घोडे रहे होंगें, इस प्रकार महाभारत की सेना के मनुष्यों की संख्या कम से कम ४६,८१,९२० और घोडों की संख्या, रथ में जुते हुओं को लगा कर २७,१५,६२० हुई इस संख्या में दोनों ओर के मुख्य योद्धा कुरूक्षेत्र के मैदान में एकत्र ही नहीं हुई वहीं मारी भी गई।

अक्षौहिणी हि सेना सा तदा यौधिष्ठिरं बलम्। प्रविश्यान्तर्दधे राजन्सागरं कुनदी यथा ॥
(5.49.19.0.6 उद्योगपर्व, एकोनविंशोऽध्यायः (19) श्लोक 6)

महाभारत के युद्घ में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई थी। महाभारत के आदिपर्व और सभापर्व अनुसार....

अक्षौहिण्या: परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्।

अक्षौहिणी सेना में कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते है? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये, क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है।

यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्व हि विदितं तव॥

सौतिरूवाच उग्रश्रवाजी ने कहा-

एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े-बस, इन्हीं को सेना के मर्मज्ञ विद्वानों ने ‘पत्ति’ कहा है॥

एको रथो गजश्चैको नरा: पञ्च पदातय:।
त्रयश्च तुरगास्तज्झै: पत्तिरित्यभिधीयते॥

इस पत्ति की तिगुनी संख्या को विद्वान पुरुष ‘सेनामुख’ कहते हैं। तीन ‘सेनामुखो’ को एक ‘गुल्म’ कहा जाता है॥

एको रथो गजश्चैको नरा: पञ्च पदातय:।
पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहु: सेनामुखं बुधा:।
त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते॥

तीन गुल्म का एक ‘गण’ होता है, तीन गण की एक ‘वाहिनी’ होती है और तीन वाहिनियों को सेना का रहस्य जानने वाले विद्वानों ने ‘पृतना’ कहा है।

त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रय:। स्मृतास्तिस्त्रस्तु वाहिन्य: पृतनेति विचक्षणै:॥

तीन पृतना की एक ‘चमू’ तीन चमू की एक ‘अनीकिनी’ और दस अनीकिनी की एक ‘अक्षौहिणी’ होती है। यह विद्वानों का कथन है।

चमूस्तु पृतनास्तिस्त्रस्तिस्त्रश्चम्वस्त्वनीकिनी।
अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधा:॥

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! गणित के तत्त्वज्ञ विद्वानों ने एक अक्षौहिणी सेना में रथों की संख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (21870) बतलायी है। हाथियों की संख्या भी इतनी ही कहनी चाहिये।

अक्षौहिण्या: प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमा:।
संख्या गणिततत्त्वज्ञै: सहस्त्राण्येकविंशति:॥
शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्तति:।
गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्॥

निष्पाप ब्राह्मणो! एक अक्षौहिणी में पैदल मनुष्यों की संख्या एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास (109350) जाननी चाहिये।

ज्ञेयं शतसहस्त्रं तु सहस्त्राणि नवैव तु।
नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघा:॥

एक अक्षौहिणी सेना में घोड़ों की ठीक-ठीक संख्या पैंसठ हजार छ: सौ दस (65610) कही गयी है।

पञ्चषष्टिसहस्त्राणि तथाश्वानां शतानि च।
दशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया॥
तपोधनो! संख्या का तत्त्व जानने वाले विद्वानों ने इसी को अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने आप लोगों को विस्तारपूर्वक बताया है।

एतामक्षौहिणीं प्राहु: संख्यातत्त्वविदो जना:।
यां व: कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधना:॥

श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इसी गणना के अनुसार कौरवों-पाण्डवों दोनों सेनाओं की संख्या अठारह अक्षौहिणी थी।

एतया संख्यया ह्यासन् कुरुपाण्डवसेनयो:।
अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठा: पिण्डिताष्टादशैव तु॥

अद्भुत कर्म करने वाले काल की प्रेरणा से समन्तपञ्चक क्षेत्र में कौरवों को निमित्त बनाकर इतनी सेनाएँ इकट्ठी हुई और वहीं नाश को प्राप्त हो गयीं।

समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गता:।
कौरवान् कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा॥

अल बरूनी के अनुसार – अल बरूनी ने अक्षौहिणी की परिमाण-संबंधी व्याख्या इस प्रकार की है-

एक अक्षौहिणी में १० अंतकिनियां होती हैं। एक अंतकिनी में ३ चमू होते हैं। एक चमू में ३ पृतना होते हैं। एक पृतना में ३ वाहिनियां होती हैं। एक वाहिनी में ३ गण होते हैं। एक गण में ३ गुल्म होते हैं। एक गुल्म में ३ सेनामुख होते हैं। एक सेनामुख में ३ पंक्ति होती हैं। एक पंक्ति में १ रथ होता है। शतरंज के हाथी को ‘रूख’ कहते हैं जबकि यूनानी इसे ‘युद्ध-रथ’ कहते हैं। इसका आविष्कार एथेंस में ‘मनकालुस'(मिर्तिलोस) ने किया था और एथेंसवासियों का कहना है कि सबसे पहले युद्ध के रथों पर वे ही सवार हुए थे। लेकिन उस समय के पहले उनका आविष्कार एफ्रोडिसियास (एवमेव) हिन्दू कर चुका था, जब महाप्रलय के लगभग ९०० वर्ष बाद मिस्त्र पर उसका राज्य था। उन रथों को दो घोड़े खींचते थे। रथ में एक हाथी, तीन सवार और पांच प्यादे होते हैं। युद्ध की तैयारी, तंबू तानने और तंबू उखाड़ने के लिए उपर्युक्त सभी की आवश्यकता होती है।

एक अक्षौहिणी में २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५,६१० सवार और १,०९,३५० पैदल सैनिक होते हैं। हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथी होता है जो बाणों से सुसज्जित होता है, उसके दो साथियों के पास भाले होते हैं और एक रक्षक होता है जो पीछे से सारथी की रक्षा करता है और एक गाड़ीवान होता है।

हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है; कुर्सी में उसका मालिक धनुष-बाण से सज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं जो भाले फेंकते हैं और उसका विदूषक हो होता है जो युद्ध से इतर अवसरों पर उसके आगे चलता है। तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं उनकी संख्या २,८४,३२३ होती है (एवमेव के अनुसार)। जो लोग घुड़सवार होते हैं उनकी संख्या ८७,४८० होती है। एक अक्षौहिणी में हाथियों की संख्या २१,८७० होती है, रथों की संख्या भी २१,८७० होती है, घोड़ों की संख्या १,५३,०९० और मनुष्यों की संख्या ४,५९,२८३ होती है। एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों- हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल संख्या ६,३४,२४३ होती है। अठारह अक्षौहिणीयों के लिए यही संख्या ११,४१६,३७४ हो जाती है अर्थात ३,९३,६६० हाथी, २७,५५,६२० घोड़े, ८२,६७,०९४ मनुष्य।

इतनी बड़ी सेना का विस्तार और वर्गीकरण – कितना गणितज्ञ और वैज्ञानिक स्तर पर होगा – ये आप लोग आंकलन कर लेवे – धनुर्वेद में जो उपवेद है के आधार पर सेना की संरचना – गठन – सञ्चालन – व्यूह रचना – युद्ध कौशल – रणनीति आदि भली भाँती वर्णित है।

कुछ अति ज्ञानी हिन्दू और वामपंथी विचारधारा के इतिहास को पढ़ने वाले सेक्युलर जमात के लोग कहते हैं – कुरुक्षेत्र तो इतना सा राज्य है – उसमे इतनी सेना का होना और युद्ध होना – सेनिको के मरने पर अन्तेय्ष्टि आदि और भी बहुत से कार्य कैसे संभव होंगे ?

उन अति विशिष्ट ज्ञानी लोगो को केवल हिन्दू समाज और भारतीय इतिहास आदि को झूठा साबित करने का ही कार्य है इसलिए मनगढ़ंत रचना करते हैं –

ऐसे लोगो से पूछना चाहिए क्या “कुरुक्षेत्र” जो आज की स्तिथि में दीखता है – उसका क्षेत्रफल महाभारत काल में भी इतना ही था क्या ???

तब कोई जवाब नहीं बन पायेगा –

आइये देखते हैं कुरुक्षेत्र कितना बड़ा था –

कुरु-जनपद प्राचीन भारत का प्रसिद्ध जनपद जिसकी स्थितिं वर्तमान दिल्ली-मेरठ प्रदेश में थी। महाभारतकाल में हस्तिनापुर कुरु-जनपद की राजधानी थी। महाभारत से ज्ञात होता है कि कुरु की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ थी। महाभारत के अनेक वर्णनों से विदित होता है कि कुरुजांगल, कुरु और कुरुक्षेत्र इस विशाल जनपद के तीन मुख्य भाग थे। कुरुजांगल इस प्रदेश के वन्यभाग का नाम था जिसका विस्तार सरस्वती तट पर स्थित काम्यकवन तक था। खांडव वन भी जिसे पांडवों ने जला कर उसके स्थान पर इन्द्रप्रस्थ नगर बसाया था इसी जंगली भाग में सम्मिलित था और यह वर्तमान नई दिल्ली के पुराने किले और कुतुब के आसपास रहा होगा। मुख्य कुरु जनपद हस्तिनापुर (ज़िला मेरठ, उ0प्र0) के निकट था। कुरुक्षेत्र की सीमा तैत्तरीय आरण्यक में इस प्रकार है- इसके दक्षिण में खांडव, उत्तर में तूर्ध्न और पश्चिम में परिणाह स्थित था। संभव है ये सब विभिन्न वनों के नाम थे। कुरु जनपद में वर्तमान थानेसर, दिल्ली और उत्तरी गंगा द्वाबा (मेरठ-बिजनौर ज़िलों के भाग) शामिल थे। महाभारत में भारतीय कुरु-जनपदों को दक्षिण कुरु कहा गया है और उत्तर-कुरुओं के साथ ही उनका उल्लेख भी है। अंगुत्तर-निकाय में ‘सोलह महाजनपदों की सूची में कुरु का भी नाम है जिससे इस जनपद की महत्ता का काल बुद्ध तथा उसके पूर्ववर्ती समय तक प्रमाणित होता है। महासुत-सोम-जातक के अनुसार कुरु जनपद का विस्तार तीन सौ कोस था। जातकों में कुरु की राजधानी इन्द्रप्रस्थ में बताई गई है। हत्थिनापुर या हस्तिनापुर का उल्लेख भी जातकों में है। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल के पश्चात और मगध की बढ़ती हुई शक्ति के फलस्वरूप जिसका पूर्ण विकास मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ हुआ, कुरु, जिसकी राजधानी इस्तिनापुर राजा निचक्षु के समय में गंगा में बह गई थी और जिसे छोड़ कर इस राजा ने वत्स जनपद में जाकर अपनी राजधानी कौशांबी में बनाई थी, धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में विलीन हो गया। इस तथ्य का ज्ञान हमें जैन उत्तराध्यायन सूत्र से होता है जिससे बुद्धकाल में कुरुप्रदेश में कई छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व ज्ञात होता है।

अब बताओ विशिष्ट ज्ञानियो – जब कुरुक्षेत्र ही इतना बड़ा था उस समय – तो इतनी बड़ी सेना और युद्ध कैसे नहीं हो सकता ??? अब बुद्धिमान लोग स्वयं विचार कर लेवे!!!!!

   प्रस्तुति
*पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७ओ

पैगाम दे डाला

तुम्हें गर चाँद न कहते भला  फिर और क्या कहते,
तुम्हारी इक झलक ने हमको यूँ मदहोश कर डाला...!
ग़ज़ब का हुस्न चिल्मन में गज़ब क़ातिल अदाएँ हैं,
झुका   कर  आपने  पलकें  खुला  पैगाम दे डाला...!!

Monday, July 29, 2019

वैदिक विज्ञान

हिंदुस्तान के गौरवशाली #ऋषि-मुनियों का #वैज्ञानिक #इतिहास।

हिंदु वेदों को मान्यता देते हैं और वेदों में विज्ञान बताया गया है। केवल सौ वर्षों में पृथ्वी को नष्टप्राय बनाने के मार्ग पर लाने वाले आधुनिक विज्ञान की अपेक्षा, अत्यंत प्रगतिशील एवं एक भी समाज विघातक शोध न करनेवाला प्राचीन #हिंदु_विज्ञान’ था।

पूर्वकाल के शोधकर्ता हिंदु ऋषियों की बुद्धि की विशालता देखकर आज के वैज्ञानिकों को अत्यंत आश्चर्य होता है। पाश्चात्त्य वैज्ञानिकों की न्यूनता सिद्ध करनेवाला शोध सहस्रों वर्ष पूर्व ही करने वाले हिंदु ऋषि-मुनि ही खरे वैज्ञानिक शोधकर्ता हैं।

• गुरुत्वाकर्षण का गूढ उजागर करनेवाले भास्कराचार्य।

भास्कराचार्य जी ने अपने (दूसरे) ‘सिद्धांत शिरोमणि’ ग्रंथ में विषय में लिखा है कि, ‘पृथ्वी अपने आकाश का पदार्थ स्व-शक्ति से अपनी ओर खींच लेती हैं । इस कारण आकाश का पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’ । इससे सिद्ध होता है कि, उन्होंने गुरुत्वाकर्षण का शोध न्यूटन से ५०० वर्ष पूर्व लगाया।

• परमाणु शास्त्र के जनक आचार्य कणाद।

अणुशास्त्रज्ञ जॉन डाल्टनके २५०० वर्ष पूर्व आचार्य कणादजीने बताया कि, ‘द्रव्यके परमाणु होते हैं । ’विख्यात इतिहासज्ञ टी.एन्. कोलेबु्रक जी ने कहा है कि, ‘अणुशास्त्र में आचार्य कणाद तथा अन्य भारतीय शास्त्रज्ञ युरोपीय शास्त्रज्ञों की तुलना में विश्व विख्यात थे।’

• कर्करोग प्रतिबंधित करनेवाला पतंजलीऋषिका योगशास्त्र !

‘पतंजली ऋषि द्वारा २१५० वर्ष पूर्व बताया ‘योगशास्त्र’, कर्करोग जैसी दुर्धर व्याधि पर सुपरिणामकारक उपचार है । योगसाधना से कर्करोग प्रतिबंधित होता है ।’ – भारत शासन के ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्था’के (‘एम्स’के) ५ वर्षों के शोध का निष्कर्ष।

• औषधि-निर्मिति के पितामह : आचार्य चरक।

इ.स. १०० से २०० वर्ष पूर्व काल के आयुर्वेद विशेषज्ञ चरकाचार्यजी। ‘चरकसंहिता’ प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथ के निर्माणकर्ता चरक जी को ‘त्वचा चिकित्सक’ भी कहते हैं। आचार्य चरक ने शरीर शास्त्र, गर्भ शास्त्र, रक्ताभिसरण शास्त्र, औषधि शास्त्र इत्यादि के विषय में अगाध शोध किया था। मधुमेह, क्षयरोग, हृदयविकार आदि दुर्धररोगों के निदान एवं औषधोपचार विषयक अमूल्य ज्ञान के किवाड उन्होंने अखिल जगत के लिए खोल दिए। चरकाचार्यजी एवं सुश्रुताचार्य जी ने इ.स. पूर्व ५००० में लिखे गए अर्थववेद से ज्ञान प्राप्त करके ३ खंड में आयुर्वेद पर प्रबंध लिखे।

• शल्यकर्म में निपुण महर्षि सुश्रुत !

६०० वर्ष ईसापूर्व विश्व के पहले शल्य चिकित्सक (सर्जन) महर्षि सुश्रुत शल्य चिकित्सा के पूर्व अपने उपकरण उबाल लेते थे । आधुनिक विज्ञान ने इसका शोध केवल ४०० वर्ष पूर्व किया ! महर्षि सुश्रुत सहित अन्य आयुर्वेदाचार्य त्वचारोपण शल्यचिकित्सा के साथ ही मोतियाबिंद, पथरी, अस्थिभंग इत्यादिके संदर्भमें क्लिष्ट शल्यकर्म करने में निपुण थे । इस प्रकार के शल्यकर्मों का ज्ञान पश्चिमी देशों ने अभी के कुछ वर्षों में विकसित किया है।

महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखित ‘सुश्रुतसंहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा के विषय में विभिन्न पहलू विस्तृत रूप से विशद किए हैं । उसमें चाकू, सुईयां, चिमटे आदि १२५ से भी अधिक शल्यचिकित्सा हेतु आवश्यक उपकरणोंके नाम तथा ३०० प्रकार के शल्यकर्मोंका ज्ञान बताया है।

• नागार्जुन

नागार्जुन, ७वीं शताब्दी के आरंभ के रसायन शास्त्र के जनक हैं। इनका पारंगत वैज्ञानिक कार्य अविस्मरणीय है। विशेष रूपसे सोने धातुपर शोध किया एवं पारे पर उनका संशोधन कार्य अतुलनीय था। उन्होंने पारे पर संपूर्ण अध्ययन कर सतत १२ वर्ष तक संशोधन किया । पश्चिमी देशों में नागार्जुन के पश्चात जो भी प्रयोग हुए उनका मूलभूत आधार नागार्जुन के सिद्धांत के अनुसार ही रखा गया।

• बौद्धयन

२५०० वर्ष पूर्व (५०० इ.स.पूर्व) ‘पायथागोरस सिद्धांत’की खोज करनेवाले भारतीय त्रिकोणमितितज्ञ । अनुमानतः २५०० वर्ष पूर्व भारतीय त्रिकोणमितिवितज्ञों ने त्रिकोणमितिशास्त्र में महत्त्वपूर्ण शोध किया। विविध आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाने की त्रिकोणमितिय रचना-पद्धति बौद्धयन ने खोज निकाली। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में परिवर्तन करना, इस प्रकार के अनेक कठिन प्रश्नों को बौद्धयन ने सुलझाया।

• ऋषि भारद्वाज

राइट बंधुओंसे २५०० वर्ष पूर्व वायुयान की खोज करनेवाले भारद्वाज ऋषि।

आचार्य भारद्वाज जी ने ६०० वर्ष इ.स.पूर्व विमानशास्त्र के संदर्भमें महत्त्वपूर्ण संशोधन किया। एक ग्रह से दूसरे ग्रहपर उडान भरनेवाले, एक विश्व से दूसरे विश्व उडान भरनेवाले वायुयान की खोज, साथ ही वायुयान को अदृश्य कर देना इस प्रकार का विचार पश्चिमी शोधकर्ता भी नहीं कर सकते। यह खोज आचार्य भारद्वाज जी ने कर दिखाया। जिसे आधुनिक काल में महाराष्ट्र के शिवकर तलपदे ने विश्व के सामने लाया।

पश्चिमी वैज्ञानिकों को महत्वहीन सिद्ध करनेवाले खोज, हमारे ऋषि-मुनियों ने सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही कर दिखाया था। वे ही सच्चे शोधकर्ता हैं।

• गर्गमुनि

कौरव-पांडव काल में तारों के जगत के विशेषज्ञ गर्ग मुनि जी ने नक्षत्रों की खोज की। गर्ग मुनि जी ने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के जीवन के संदर्भ में जो कुछ भी बताया वह शत प्रतिशत सत्य सिद्ध हुआ। कौरव-पांडवों का भारतीय युद्ध मानव संहारक रहा, क्योंकि युद्धके प्रथम पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी । इसके द्वितीय पक्ष में भी तिथि क्षय थी । पूर्णिमा चौदहवें दिन पड गई एवं उसी दिन चंद्रग्रहण था, यही घोषणा गर्ग मुनि जीने भी की थी

!! जय श्रीराम !!

                             प्रस्तुति
                *पं. खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
                राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
               धार्मिक प्रवक्ता- साहित्यकार
              प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़ १६२-१९
          ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

यूं ही

वक़्त के एक दौर में इतना भूखा था मै...
के
कुछ न मिला तो धोखा ही खा गया!!

यू़ हि

छोटा सा शहर, चंद रास्ते और वही गिनी-चुनी गलियाँ,
तुमसे टकराने का मगर कमबख्त इत्तेफ़ाक नहीं होता !

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...