Sunday, November 10, 2019

दक्षिणा



*सत्कर्म करते समय क्यों दी जाती है दक्षिणा ?*

महालक्ष्मी का कलावतार हैं ‘दक्षिणा’देवी ‘दक्षिणा’ महालक्ष्मीजी के दाहिने कन्धे (अंश) से प्रकट हुई हैं इसलिए दक्षिणा कहलाती हैं। ये कमला (लक्ष्मी) की कलावतार व भगवान विष्णु की शक्तिस्वरूपा हैं। दक्षिणा को शुभा, शुद्धिदा, शुद्धिरूपा व सुशीला–इन नामों से भी जाना जाता है। ये उपासक को सभी यज्ञों, सत्कर्मों का फल प्रदान करती हैं।

गोलोकबिहारी श्रीकृष्ण और दक्षिणा का सम्बन्ध!!!!!!!!

गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय सुशीला नाम की एक गोपी थी जो विद्या, रूप, गुण व आचार में लक्ष्मी के समान थी। वह श्रीराधा की प्रधान सखी थी। भगवान श्रीकृष्ण का उससे विशेष स्नेह था। श्रीराधाजी को यह बात पसन्द न थी और उन्होंने भगवान की लीला को समझे बिना ही सुशीला को गोलोक से बाहर कर दिया।
 
गोलोक से च्युत हो जाने पर सुशीला कठिन तप करने लगी और उस कठिन तप के प्रभाव से वे विष्णुप्रिया महालक्ष्मी के शरीर में प्रवेश कर गयीं। भगवान की लीला से देवताओं को यज्ञ का फल मिलना बंद हो गया। घबराए हुए सभी देवता ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु का ध्यान किया। भगवान विष्णु ने अपनी प्रिया महालक्ष्मी के विग्रह से एक अलौकिक देवी ‘मर्त्यलक्ष्मी’ को प्रकट कर उसको दक्षिणा’ नाम दिया और ब्रह्माजी को सौंप दिया।

यज्ञपुरुष, दक्षिणा और फल!!!!!!

ब्रह्माजी ने यज्ञपुरुष के साथ दक्षिणा का विवाह कर दिया। देवी दक्षिणा के ‘फल’ नाम का पुत्र हुआ। इस प्रकार भगवान यज्ञ अपनी पत्नी दक्षिणा व पुत्र फल से सम्पन्न होने पर कर्मों का फल प्रदान करने लगे। इससे देवताओं को यज्ञ का फल मिलने लगा। इसीलिए शास्त्रों में दक्षिणा के बिना यज्ञ करने का निषेध है। दक्षिणा की कृपा के बिना प्राणियों के सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश व अन्य देवता भी दक्षिणाहीन कर्मों का फल देने में असमर्थ रहते हैं।

दक्षिणाहीन कर्म हो जाता है निष्फल!!!!!!

बिना दक्षिणा के किया गया सत्कर्म राजा बलि के पेट में चला जाता है। पूर्वकाल में राजा बलि ने तीन पग भूमि के रूप में त्रिलोकी का अपना राज्य जब भगवान वामन को दान कर दिया तब भगवान वामन ने बलि के भोजन (आहार) के लिए दक्षिणाहीन कर्म उसे अर्पण कर दिया। श्रद्धाहीन व्यक्तियों द्वारा श्राद्ध में दी गयी वस्तु को भी बलि भोजन रूप में ग्रहण करते हैं।

कर्म की समाप्ति पर तुरन्त देनी चाहिए दक्षिणा!!!!!!!!!

मनुष्य को सत्कर्म करने के बाद तुरन्त दक्षिणा देनी चाहिए तभी कर्म का तत्काल फल प्राप्त होता है। यदि जानबूझकर या अज्ञान से धार्मिक कार्य समाप्त हो जाने पर ब्राह्मण को दक्षिणा नहीं दी जाती, तो दक्षिणा की संख्या बढ़ती जाती है, साथ ही सारा कर्म भी निष्फल हो जाता है। संकल्प की हुई दक्षिणा न देने से (ब्राह्मण के अधिकार का धन रखने से) मनुष्य रोगी व दरिद्र हो जाता है व उससे लक्ष्मी, देवता व पितर तीनों ही रुष्ट हो जाते हैं।

शास्त्रों में दक्षिणा के बहुत ही अनूठे उदाहरण देखने को मिलते हैं |

भगवान श्रीकृष्ण ने मृत गुरुपुत्र को वापिस जीवित लाकर दी गुरुदक्षिणा!!!!!!

श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाईयों ने गुरु सान्दीपनि के आश्रम में रहकर 64 दिनों के अल्पसमय में सम्पूर्ण शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा पूरी करने के पश्चात श्रीकृष्ण और बलराम ने गुरु सान्दीपनि से गुरुदक्षिणा माँगने की प्रार्थना की।

 अगस्त्यमुनि की तरह अनेक विद्याओं के समुद्र को एक ही सांस में सोख लेने की श्रीकृष्ण की अद्भुत शक्ति देखकर गुरुजी भी ताड़ गए और उन्होंने कसकर गुरु दक्षिणा मांगने का विचार किया। ऋषि ने अपनी पत्नी को कुछ मांगने को कहा। गुरुपत्नी ने श्रीकृष्ण से गुरुदक्षिणा के रूप में अकालमृत्यु को प्राप्त हुए अपने पुत्र को वापिस ला देने की बात कही।

सारी सृष्टि के रचयिता विष्णुरूपी भगवान श्रीकृष्ण अपनी गुरुमाता के दुःख को कैसे देख सकते थे? उन्होंने गुरुपुत्र को पुनर्जीवन का वरदान दिया। दोनों भाई प्रभासक्षेत्र में गये। उन्हें पता चला कि शंखासुर नामक राक्षस गुरुपुत्र को ले गया है, जो समुद्र के नीचे पवित्र शंख में रहता है, जिसे ‘पांचजन्य’ कहते हैं। दोनों भाइयों ने राक्षस का वध कर ‘पांचजन्य’ में चारों ओर ऋषिपुत्र को खोजा। ऋषिपुत्र को उसमें न पाकर वे शंख लेकर यम के पास पहुँचे और उसे बजाने लगे।

यम ने दोनों भ्राताओं की पूजा करते हुए कहा–’हे सर्वव्यापी भगवान, अपनी लीला के कारण आप मानवस्वरूप में हैं। मैं आप दोनों के लिए क्या कर सकता हूँ?’

श्रीकृष्ण ने यमराज से कहा–’मेरे गुरुपुत्र को मुझे सौंप दीजिये, जो अपने कर्मों के कारण यहाँ लाया गया था।’ इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने गुरु को उनका जीवित पुत्र सौंपा और अपनी गुरुदक्षिणा पूर्ण की।

एकलव्य की द्रोणाचार्य को अनूठी गुरुदक्षिणा!!!!!!!

गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में दाहिने हाथ का अंगूठा मांगा। दाहिने हाथ का अंगूठा न रहे तो बाण चलाया ही कैसे जा सकता है? एकलव्य की वर्षों की अभिलाषा, परिश्रम व अभ्यास–सब व्यर्थ हुआ जा रहा था, किंतु एकलव्य के मुख पर खेद की एक रेखा तक नहीं आयी। उस वीर गुरुभक्त बालक ने बायें हाथ में छुरा लिया और तुरंत अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरुदेव के सामने धर दिया।

भरे कण्ठ से द्रोणाचार्य ने कहा–’पुत्र! सृष्टि में धनुर्विद्या के अनेकों महान ज्ञाता हुए हैं और होंगे, किंतु मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे इस भव्य त्याग और गुरुभक्ति का यश सदा अमर रहेगा।’

प्राचीन भारत में गुरु और शिष्य का ऐसा पवित्र और समर्पित रिश्ता था।

                  आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

भगवान श्रीराम का विजय मंत्र


*भगवान श्रीराम का विजय-मन्त्र!!!!!!!*

भगवान श्रीराम का विजय-मन्त्र : ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’

भगवान के ‘नाम’ का महत्व भगवान से भी अधिक होता है । भगवान को भी अपने ‘नाम’ के आगे झुकना पड़ता है । यही कारण है कि भक्त ‘नाम’ जप के द्वारा भगवान को वश में कर लेते हैं ।

जब हनुमानजी संकट में थे, तब सबसे पहले ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ मन्त्र नारदजी ने हनुमानजी को दिया था । इसलिए संकट-नाश के लिए इस मन्त्र का जप मनुष्य को अवश्य करना चाहिए । यह मन्त्र ‘मन्त्रराज’ भी कहलाता है क्योंकि—

यह उच्चारण करने में बहुत सरल है ।

इसमें देश, काल व पात्र का कोई बंधन नहीं है अर्थात् हर कहीं, हर समय व हर किसी के द्वारा यह मन्त्र जपा जा सकता है ।

इस मन्त्र का नाम विजय-मन्त्र क्यों ?

सत् गुण के रूप में (निष्काम भाव से) इस मन्त्र के जप से साधक अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है ।

रजोगुण के रूप में (कामनापूर्ति के लिए) इस महामन्त्र के जप से मनुष्य दरिद्रता, दु:खों और सभी आपत्तियों पर विजयप्राप्त कर लेता है ।

तमोगुण के रूप में (शत्रु बाधा, मुकदमें में जीत आदि के लिए) इस मन्त्र का जप साधक को संसार में विजयी बनाता है और अपने विजय-मन्त्र नाम को सार्थक करता है ।

सच्चे साधक (गुणातीत जिसे गीता में स्थितप्रज्ञ कहा गया है) को यह विजय-मन्त्र परब्रह्म परमात्मा का दर्शन कराता है । इसी विजय-मन्त्र के कारण बजरंगबली हनुमान को श्रीराम का सांनिध्य और कृपा मिली । समर्थ गुरु रामदासजी ने इस मन्त्र का तेरह करोड़ जप किया और भगवान श्रीराम ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए थे ।

इस मन्त्र में तेरह (13) अक्षर हैं और तेरह लाख जप का एक पुरश्चरण माना गया है । इस मन्त्र का जप कर सकते हैं और कीर्तन के रूप में जोर से गा भी सकते हैं ।

इस मन्त्र को सच्ची श्रद्धा से जीवन में उतारने पर यह साधक के जीवन का सहारा, रक्षक और सच्चा पथ-प्रदर्शक बन जाता है ।

लंका-विजय के बाद एक बार अयोध्या में भगवान श्रीराम देवर्षि नारद, विश्वामित्र, वशिष्ठ आदि ऋषि-मुनियों के साथ बैठे थे । उस समय नारदजी ने ऋषियों से कहा कि यह बताएं—‘नाम’ (भगवान का नाम) और ‘नामी’ (स्वयं भगवान) में श्रेष्ठ कौन है ?’

इस पर सभी ऋषियों में वाद-विवाद होने लगा किन्तु कोई भी इस प्रश्न का सही निर्णय नहीं कर पाया । तब नारदजी ने कहा—‘निश्चय ही ‘भगवान का ‘नाम’ श्रेष्ठ है और इसको सिद्ध भी किया जा सकता है ।’

इस बात को सिद्ध करने के लिए नारदजी ने एक युक्ति निकाली । उन्होंने हनुमानजी से कहा कि तुम दरबार में जाकर सभी ऋषि-मुनियों को प्रणाम करना किन्तु विश्वामित्रजी को प्रणाम मत करना क्योंकि वे राजर्षि (राजा से ऋषि बने) हैं, अत: वे अन्य ऋषियों के समान सम्मान के योग्य नहीं हैं ।’

हनुमानजी ने दरबार में जाकर नारदजी के बताए अनुसार ही किया । विश्वामित्रजी हनुमानजी के इस व्यवहार से रुष्ट हो गए । तब नारदजी विश्वामित्रजी के पास जाकर बोले—‘हनुमान कितना उद्दण्ड और घमण्डी हो गया है, आपको छोड़कर उसने सभी को प्रणाम किया ?’ यह सुन विश्वामित्रजी आगबबूला हो गए और श्रीराम के पास जाकर बोले—‘तुम्हारे सेवक हनुमान ने सभी ऋषियों के सामने मेरा घोर अपमान किया है, अत: कल सूर्यास्त से पहले उसे तुम्हारे हाथों मृत्युदण्ड मिलना चाहिए ।’

विश्वामित्रजी श्रीराम के गुरु थे अत: श्रीराम को उनकी आज्ञा का पालन करना ही था ।‘ श्रीराम हनुमान को कल मृत्युदण्ड देंगे’—यह बात सारे नगर में आग की तरह फैल गई । हनुमानजी नारदजी के पास जाकर बोले—‘देवर्षि ! मेरी रक्षा कीजिए, प्रभु कल मेरा वध कर देंगे । मैंने आपके कहने से ही यह सब किया है ।’

नारदजी ने हनुमानजी से कहा—‘तुम निराश मत होओ, मैं जैसा बताऊं, वैसा ही करो । ब्राह्ममुहुर्त में उठकर सरयू नदी में स्नान करो और फिर नदी-तट पर ही खड़े होकर ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’—इस मन्त्र का जप करते रहना । तुम्हें कुछ नहीं होगा।

दूसरे दिन प्रात:काल हनुमानजी की कठिन परीक्षा देखने के लिए अयोध्यावासियों की भीड़ जमा हो गई । हनुमानजी सूर्योदय से पहले ही सरयू में स्नान कर बालुका तट पर हाथ जोड़कर जोर-जोर से ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ का जप करने लगे ।

भगवान श्रीराम हनुमानजी से थोड़ी दूर पर खड़े होकर अपने प्रिय सेवक पर अनिच्छापूर्वक बाणों की बौछार करने लगे । पूरे दिन श्रीराम बाणों की वर्षा करते रहे, पर हनुमानजी का बाल-बांका भी नहीं हुआ । अंत में श्रीराम ने ब्रह्मास्त्र उठाया । हनुमानजी पूर्ण आत्मसमर्पण किए हुए जोर-जोर से मुस्कराते हुए ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ का जप करते रहे । सभी लोग आश्चर्य में डूब गए ।

तब नारदजी विश्वामित्रजी के पास जाकर बोले—‘मुने ! आप अपने क्रोध को समाप्त कीजिए । श्रीराम थक चुके हैं, उन्हें हनुमान के वध की गुरु-आज्ञा से मुक्त कीजिए । आपने श्रीराम के ‘नाम’ की महत्ता को तो प्रत्यक्ष देख ही लिया है । विभिन्न प्रकार के बाण हनुमान का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके । अब आप श्रीराम को हनुमान को ब्रह्मास्त्र से न मारने की आज्ञा दें ।’

विश्वामित्रजी ने वैसा ही किया । हनुमानजी आकर श्रीराम के चरणों पर गिर पड़े । विश्वामित्रजी ने हनुमानजी को आशीर्वाद देकर उनकी श्रीराम के प्रति अनन्य भक्ति की प्रशंसा की ।

राम से बड़ा राम का नाम!!!!!!!!!

गोस्वामी तुलसीदासजी का कहना है—‘राम-नाम’ राम से भी बड़ा है । राम ने तो केवल अहिल्या को तारा, किन्तु राम-नाम के जप ने करोड़ों दुर्जनों की बुद्धि सुधार दी । समुद्र पर सेतु बनाने के लिए राम को भालू-वानर इकट्ठे करने पड़े, बहुत परिश्रम करना पड़ा परन्तु राम-नाम से अपार भवसिन्धु ही सूख जाता है ।

कहेउँ नाम बड़ ब्रह्म राम तें ।
राम एक तापस तिय तारी ।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी ।।
राम भालु कपि कटकु बटोरा।
सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा ।।
नाम लेत भव सिंधु सुखाहीं ।
करहु विचार सुजन मन माहीं ।।

मन्त्र की व्याख्या,इस मन्त्र में—
‘श्रीराम’—यह भगवान राम के प्रति पुकार है ।
‘जय राम’—यह उनकी स्तुति है
‘जय जय राम’—यह उनके प्रति पूर्ण समर्पण है ।

संसार का मूल कारण सत्व, रज और तम—ये त्रिगुण हैं । ये तीनों ही भव-बंधन के कारण हैं । इन तीनों पर विजय पाने और संसार में सब कुछ ‘राम’ मानने की शिक्षा देने के लिए इस मन्त्र में तीन बार ‘राम’ और तीन ही बार ‘जय’ शब्द का प्रयोग हुआ है ।

मन्त्र का जप करते समय मन में यह भाव रहे—‘भगवान श्रीराम और सीताजी दोनों मिलकर पूर्ण ब्रह्म हैं । हे राम ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ और आपके शरण हूँ ।’


                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

सामर्थ्य


                                                     
*सामर्थ्य का अर्थ यह नहीं कि आप दूसरों को कितना झुका सकते हो अपितु यह है, कि आप स्वयं कितना झुक सकते हो। जीवन की महानता और कुछ नहीं केवल सामर्थ्य के साथ विनम्रता का आना ही तो है। जहाँ समर्थता होती है, वहाँ कई बार विनम्रता का अभाव ही देखा जाता है।*
*सामर्थ्य आते ही व्यक्ति के अन्दर सम्मान का भाव भी जागृत हो जाता है। सम्मान पाने वाले नहीं देने वाले बनो। बल का उपयोग स्वयं सम्मान प्राप्त करने के लिए नहीं, दूसरों के सम्मान की रक्षा के लिए करो। भगवान श्री कृष्ण बलवान होने के साथ-साथ पूरे जीवन शीलवान बने रहे।  भला वह सामर्थ्य भी किस काम का ? जो व्यक्ति की नम्रता का हरण व अहंकार को पुष्ट करता हो। अत: झुक के जीना सीखो ताकि दूसरों के आशीर्वाद भरे हाथ सहजता से आपके सिर तक पहुँच सकें। बिना झुके विवाद मिल जाएगा, आशीर्वाद नहीं।*

*◆●स्वयं विचार करें​●◆*
                          ®
             *🙏 जय श्री राधे🙏*
     🌹

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आज का संदेश

*इस संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य अपने संपूर्ण जीवन काल में अनेकों मित्र एवं शत्रु बनाता है | वैसे तो इस संसार में मनुष्य के कर्मों के अनुसार उसके अनेकों शत्रु हो जाते हैं जिनसे वह युद्ध करके जीत भी आता है , परंतु मनुष्य का एक प्रबल शत्रु है जिससे जीत पाना मनुष्य के लिए बहुत ही कठिन होता है | वह शत्रु है स्वयं मनुष्य का मन | जैसे शत्रु से युद्ध करते समय इस बात का ध्यान रखना होता है कि ना जाने कब आक्रमण हो जाए , कब ,  किस ओर से , किस रूप में शत्रु प्रगट हो जाए उसी प्रकार मन रूपी शत्रु के प्रत्येक कार्य पर दिव्य दृष्टि रखना चाहिए | जहां मन तुम्हें अपने बस में करके उल्टा सीधा कराना चाहे वहाँ उसके व्यवहार में हस्तक्षेप करके स्वयं को संभाल लेना चाहिए |  क्योंकि मन बड़ा बलवान शत्रु है इस से युद्ध करना भी अत्यंत दुष्कर कार्य हैं | इससे युद्धकाल में एक विचित्रता है यदि युद्ध करने वाला दृढ़ता से युद्ध में संलग्न रहते हुए इच्छा शक्ति में निरंतरता बनाए रखते हुए यदि लगातार अपने मन से युद्ध किया जाए तो विजय प्राप्त की जा सकती है |  प्रत्येक मनुष्य को यह प्रयास करना चाहिए कि उसका मन सदैव व्यस्त रहे | मन को नए-नए कार्य सौंप देना चाहिए , क्योंकि जब यह मन खाली रहता है , इसके पास जब कोई कार्य नहीं होता है तो मन में दुर्व्यसन के भाव उत्पन्न हो जाते हैं | यही मन की बिचित्रता है , इसको समझने का प्रयास जिसने किया वह अपने जीवन में सफल हो गया और जो इस रहस्य को नहीं समझ पाया वह अपने जीवन में भटकता ही रहा है |*

*आज जिस प्रकार का समाज देखने को मिल रहा है उससे यह कहा जा सकता है कि आज अपने मन पर नियंत्रण करने वालों की संख्या बहुत अधिक नहीं रह गई है | अधिकतर मनुष्य मन के बहकावे में आकर के ऐसे ऐसे कृत्य कर रहे हैं जिसका उनको पश्चाताप भी नहीं होता है |  आज अनेक लोग कहते हैं कि मन की विचित्रता को कैसे जाना जाय ?  मन पर नियंत्रण कैसे किया जाय ? ऐसे सभी लोगों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" सिर्फ इतना ही बताना चाहूंगा कि जब जब तुम्हारे अंतःकरण में वासना की प्रबल जंग उत्पन्न हो निश्चयात्मक बुद्धि को जागृत करके मन से थोड़ी देर के लिए पृथक होकर के इसके द्वारा किए जा रहे कृत्यों पर तीव्र दृष्टि रखी जाय | जब अपने मन का आकलन स्वयं किया जाता है तो मन की विचार श्रृंखला टूट जाती है , और जब मन की विचार संख्या टूट जाएगी तो मन और मन के साथ स्वयं मनुष्य चलायमान नहीं हो सकता है |  मनुष्य को यह सोचना चाहिए कि मन के व्यापार के साथ आत्मा की समस्वरता न होने पावे | यह सत्य है कि यह तुरंत नहीं हो पाएगा लेकिन धीरे धीरे अभ्यास के द्वारा अपने मन को यदि समय समय पर मनुष्य आज्ञा देता रहे तो यह मन मनुष्य को आज्ञा ना दे करके एक आज्ञाकारी दास की तरह मनुष्य के नियंत्रण में रहकर के कार्य करने लगेगा |*

*मनुष्य सबसे विचित्र प्राणियों में से एक प्राणी है | मनुष्य की विचित्रता का कारण मनुष्य के मन का विचित्र होना ही है | मनुष्य के मन को जान पाना ,  समझ पाना कभी-कभी स्वयं मनुष्य के बस के बाहर की बात हो जाती है | यही मन की विचित्र का है |*                                           आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Saturday, November 2, 2019

आज का संदेश

*नमस्कार*


*शब्द कितनी भी समझदारी से इस्तेमाल किजिए* 

        *फिरभी*

   *सुनने वाला अपनी योग्यता और मन के विचारों के अनुसार ही उसका मतलब समझता है...*

*सुप्रभात,  जय श्री राम*

Friday, November 1, 2019

भगवान शिव की अर्ध परिक्रमा क्यों.. ?


.. भगवान शिव की अर्ध परिक्रमा क्यों.. ?  
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~  
शिवजी की आधी परिक्रमा करने का विधान है। वह इसलिए की शिव के सोमसूत्र को लांघा नहीं जाता है। जब व्यक्ति आधी परिक्रमा करता है तो उसे चंद्राकार परिक्रमा कहते हैं। शिवलिंग को ज्योति माना गया है और उसके आसपास के क्षेत्र को चंद्र। आपने आसमान में अर्ध चंद्र के ऊपर एक शुक्र तारा देखा होगा। यह शिवलिंग उसका ही प्रतीक नहीं है बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड ज्योतिर्लिंग के ही समान है।

''अर्द्ध सोमसूत्रांतमित्यर्थ: शिव प्रदक्षिणीकुर्वन सोमसूत्र न लंघयेत ।।  
इति वाचनान्तरात।''

सोमसूत्र:
शिवलिंग की निर्मली को सोमसूत्र की कहा जाता है। शास्त्र का आदेश है कि शंकर भगवान की प्रदक्षिणा में सोमसूत्र का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है। सोमसूत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि भगवान को चढ़ाया गया जल जिस ओर से गिरता है, वहीं सोमसूत्र का स्थान होता है।

क्यों नहीं लांघते सोमसूत्र :
सोमसूत्र में शक्ति-स्रोत होता है अत: उसे लांघते समय पैर फैलाते हैं और वीर्य ‍निर्मित और 5 अन्तस्थ वायु के प्रवाह पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे देवदत्त और धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट पैदा हो जाती है। जिससे शरीर और मन पर बुरा असर पड़ता है। अत: शिव की अर्ध चंद्राकार प्रदशिक्षा ही करने का शास्त्र का आदेश है।

तब लांघ सकते हैं :
शास्त्रों में अन्य स्थानों पर मिलता है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर, ईंट आदि से ढके हुए सोम सूत्र का उल्लंघन करने से दोष नहीं लगता है,

लेकिन  
‘शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा’ का मतलब शिव की आधी ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

किस ओर से परिक्रमा  भगवान शिवलिंग की परिक्रमा हमेशा बांई ओर से शुरू कर जलाधारी के आगे निकले हुए भाग यानी जल स्रोत तक जाकर फिर विपरीत दिशा में लौटकर दूसरे सिरे तक आकर परिक्रमा पूरी करें।
                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

चरण स्पर्श का महत्व


*🔥चरण स्पर्श का रहस्य🔥*
*हैलो हाय कहने से आधुनिक और स्मार्ट होने का कितना ही गर्व महसूस होता हो आपको लेकिन प्रणाम में जैसी आश्वस्तता प्रतीत होती है वह अद्भुत अलौकिक है और लगता है कि भीतर ऊर्जा का उफान उठ रहा है जो भाव, बोध और मस्तिष्क में रहने वाले बुद्धि का अतिक्रमण करते हुए ऊपर ही ऊपर फैलता जा रहा है झुककर या हाथ मिलाकर अथवा गले लगकर किसी का अभिवादन करने से आपसी संबंध तो प्रगाढ़ हो सकते हैं तथा व्यक्ति के सभ्य सुसंस्कृत होने की छवि भी बनती है लेकिन झुककर अभिवादन करने का अलग ही महत्व है।प्रणाम के लिए जब हम गुरुजनों के चरणों में झुकते हैं तो उनकी प्राण ऊर्जा से जुड़ जाते हैं और वह ऊर्जा प्रणाम करने वाले की चेतना को भी ऊपर उठाती है अगर निम्न स्तर के लोगों को प्रणाम किया जाए तो उससे हानि की संभावना ही ज्यादा रहती है क्योंकि उस स्थिति में प्राण प्रवाह उलटी दिशा में बहने लगता है।नमस्ते करने के लिए, दोनो हाथों को अनाहत चक पर रखा जाता है, आँखें बंद की जाती हैं, और सिर को झुकाया जाता है।*
*इस विधि का विस्तार करते हुए हाथों को स्वाधिष्ठान चक्र (भौहों के बीच का चक्र) पर रखकर सिर झुकाकर और हाथों को हृदय के पास लाकर भी नमस्ते किया जा सकता है- जरूरी नहीं कि नमस्ते, नमस्कार या प्रणाम करते हुए ये शब्द बोले भी जाएं- नमस्कार या प्रणाम की भावमुद्रा का अर्थ ही उस भाव की अभिव्यक्ति है। आपने देखा होगा जो वास्तव में उच्चकोटि का तपस्वी या साधक है अपने चरणों का स्पर्श क्यों नहीं करने देता है क्युकि उसकी संचरित प्राण-उर्जा कही आप में न समां जाए क्युकि साधक ने ये उर्जा अपने तप और साधना से अपने अंदर समाहित की है यदि वास्तविक श्रेष्ठ साधक या तपस्वी चाहे तो अपने शिष्य को सिर्फ एक ही पल में शक्तिपाद द्वारा अपने जैसा योग्य बना सकता है और अपने द्वारा प्राप्त की गई सभी सिद्धयो एक पल में दे सकता है।*
*अपने से बड़ों का अभिवादन करने के लिए चरण छूने की परंपरा सदियों से रही है सनातन धर्म में अपने से बड़े के आदर के लिएचरण स्पर्श उत्तम माना गया है प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर चरण स्पर्श के कई लाभ हैं।चरण छूने का मतलब है पूरी श्रद्धा के साथ किसी के आगे नतमस्तक होना-इससे विनम्रताआती है और मन को शांति मिलती है साथ ही चरण छूने वाला दूसरों को भी अपने आचरण से प्रभावित करने में कामयाब होता है-हर रोज बड़ों के अभि‍वादन से आयु, विद्या, यश और बल में बढ़ोतरी होती है।माना जाता है कि पैर के अंगूठे से भी शक्ति का संचार होता है मनुष्य के पांव के अंगूठे में भी ऊर्जा प्रसारित करने की शक्ति होती है।*
*मान्यता है कि बड़े-बुजुर्गों के चरण स्पर्श नियमित तौर पर करने से कई प्रतिकूल ग्रहभी अनुकूल हो जाते हैं-प्रणाम करने का एक फायदा यह है कि इससे हमारा अहंकार कम होता है.इन्हीं कारणों से बड़ों को प्रणाम करने की परंपरा को नियम और संस्कार का रूप दे दिया गया है।जब हम किसी आदरणीय व्यक्ति के चरण छूते हैं, तो आशीर्वाद के तौर पर उनका हाथ हमारे सिर के उपरी भाग को और हमारा हाथ उनके चरण को स्पर्श करता है ऐसी मान्यता है कि इससे उस पूजनीय व्यक्ति की पॉजिटिव एनर्जी आशीर्वाद के रूप में हमारे शरीर में प्रवेश करती है इससे हमारा आध्यात्मिक तथा मानसिक विकास होता है।*
*वैज्ञानिक पक्ष : न्यूटन के नियम के अनुसार, दुनिया में सभी चीजें गुरुत्वाकर्षण के नियम से बंधी हैं साथ ही गुरुत्व भार सदैव आकर्षित करने वाले की तरफ जाता है हमारे शरीर पर भी यही नियम लागू होता है सिर को उत्तरी ध्रुव और पैरों को दक्षिणी ध्रुव माना गया है इसका मतलब यह हुआ कि गुरुत्व ऊर्जा या चुंबकीय ऊर्जा हमेशा उत्तरी ध्रुव से प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव की ओर प्रवाहित होकर अपना चक्र पूरा करती है- यानी शरीर में उत्तरी ध्रुव (सिर) से सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव (पैरों) की ओर प्रवाहित होती है दक्षिणी ध्रुव पर यह ऊर्जा असीमित मात्रा में स्थिर हो जाती है- पैरों की ओर ऊर्जा का केंद्र बन जाता है-पैरों से हाथों द्वारा इस ऊर्जा के ग्रहण करने को ही हम ‘चरण स्पर्श’ कहते हैं।*
*मानव शरीर पंच तत्वों से निर्मित है जो सजातीय तत्वों को अपनी ओर आकर्षित करता रहता है- मित्रता, स्नेह , ममता व प्रेम इसी आकर्षण की उपज है- यह आकर्षण या खिंचाव एक चुम्बकीय गुण है- प्रत्येक जीवधारी में एक ही समय में तीन वैज्ञानिक सिध्दांत एक साथ कार्य करते रहते हैं।चुम्बकीय शक्ति,तात्विक गुण,विद्युतीय उर्जा  हम अगर चिन्तन मनन करे तो पाते है की प्रतिदिन हम अनेक लोगों से मिलते है , उनमें से कुछ को हम याद नहीं रखते और कुछ के साथ हमारा मित्रता का भाव प्रकट हो जाता है और उनसे ये लगाव,मित्रता या खिंचाव उस व्यक्ति विशेष में समाहित चुम्बकीय गुण के कारण होता है जो सजातीय गुण वाले व्यक्ति को अपनी और आकर्षित करता है।आपके शरीर की उर्जा चरण स्पर्श करने वाले व्यक्ति में पहुंचती है- श्रेष्ठ व्यक्ति में पहुंचकर उर्जा में मौजूद नकारात्मक तत्व नष्ट हो जाता है- सकारात्मक उर्जा चरण स्पर्श करने वाले व्यक्ति से आशीर्वाद के माध्यम से वापस मिल जाती है- इससे जिन उद्देश्यों को मन में रखकर आप बड़ों को प्रणाम करते हैं उस लक्ष्य को पाने का बल मिलता है।*
*पैर छुना या प्रणाम करना, केवल एक परंपरा या बंधन नहीं है- यह एक विज्ञान है जो हमारे शारीरिक, मानसिक और वैचारिक विकास से जुड़ा है- पैर छुने से केवल बड़ों का आशीर्वाद ही नहीं मिलता बल्कि अनजाने ही कई बातें हमारे अंदर उतर जाती है- पैर छुने का सबसे बड़ा फायदा शारीरिक कसरत होती है, तीन तरह से पैर छुए जाते हैं- पहले झुककर पैर छुना, दूसरा घुटने के बल बैठकर तथा तीसरा साष्टांग प्रणाम- झुककर पैर छुने से कमर और रीढ़ की हड्डी को आराम मिलता है- दूसरी विधि में हमारे सारे जोड़ों को मोड़ा जाता है, जिससे उनमें होने वाले स्ट्रेस से राहत मिलती है, तीसरी विधि में सारे जोड़ थोड़ी देर के लिए तन जाते हैं, इससे भी तनाव दूर होता है।इसके अलावा झुकने से सिर में रक्त प्रवाह बढ़ता है, जो स्वास्थ्य और आंखों के लिए लाभप्रद होता है- प्रणाम करने का तीसरा सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे हमारा अहंकार कम होता है- किसी के पैर छुना यानी उसके प्रति समर्पण भाव जगाना, जब मन में समर्पण का भाव आता है तो अहंकार स्वत: ही खत्म होता है- इसलिए बड़ों को प्रणाम करने की परंपरा को नियम और संस्कार का रूप दे दिया गया है।प्रत्येक रोज़ प्रातकाल में और किसी भी कार्य की शुरुआत से पहले हमें अपने घर के बड़े बुजर्गों के ,माता पिता के चरण स्पर्श अवश्य करने चाहिए ,इससे हमारे कार्य में सफलता की सम्भावना बढ़ जाती है , हमारा मनोबल बढ़ता है और सकारात्मक उर्जा मिलती है नकारात्मक शक्ति घटती है।*                                                                      
                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...