*अहंकार की परीक्षा*
*प्रभु के वक्षस्थल पर विप्र-चिह्न!जानिए आखिर क्यों भृगु ऋषि ने मारी भगवान विष्णु को लात पौराणिक कथा !*
*दुर्वासा मुनि की बात छोड़ दी जाए तो यह कहना गलत नही होगा कि ऋषि-मुनि जल्दी नाराज नहीं होते थे। लेकिन एक बार जब क्रोधित हो गए तो बिना शाप दिए शांत भी नहीं होते थे। लेकिन भृगु ऋषि ने जो किया वह तो हतप्रभ कर देने वाली बात थी।*
*भृगु ऋषि ने क्षीरसागर में शेषशैय्या पर सोते हुए भगवान विष्णु की छाती पर अपने पैर से जोरदार प्रहार किया था। महान ग्रंथ ’भृगु संहिता’ के प्रतिष्ठित रचयिता, प्रबुद्ध चिंतक और महाज्ञानी भृगु ऋषि ने ऐसा किया, तो जरूर कोई-न-कोई विशेष बात रही होगी। आइए जानते हैं इस रोचक प्रसंग के बारे में।*
*क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उतपात।*
*का रहिमन हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात।।*
*अर्थात बड़े का बड़प्पन इसी में है कि वह सदैव निरहंकारी रहे। असभ्य व्यक्ति अभद्रता से पेश आए तो उसे आपा नहीं खोना चाहिए। यदि वह स्वयं पर अंकुश न रख सका तो बड़े व छोटे में भेद ही क्या रह जाएगा।*
*रहीम कहते हैं कि बड़े को क्षमाशील होना चाहिए, क्योंकि क्षमा करना ही उसका कर्तव्य, भूषण व बड़प्पन है, जबकि उत्पात व उदंडता करना छोटे को ही शोभा देता है। छोटों के उत्पात से बड़ों को कभी उद्विग्न नहीं होना चाहिए। क्षमा करने से उनका कुछ नहीं घटता। जब भृगु ने विष्णु को लात मारी तो उनका क्या घट गया? कुछ नहीं।*
*भृगु ने ब्रहमा-विष्णु-महेश की महानता को परखने के लिए विष्णु के वक्ष पर पाद-प्रहार किया। इससे विष्णु चुपचाप मुस्कराते रहे, जबकि ब्रहमा और महेश आपा खो बैठे। भृगु को उत्तर मिल चुका था। उन्हें ब्रहमा या महेश को लात मारने की आवश्यकता नहीं पड़ी।*
*श्रीरामचरितमानस में उपाख्यानित है कि भक्त और भगवान दोनों को एक ही प्रकार की परीक्षा देनी पड़ती है। जैसे भक्त पर लात का प्रहार किया गया,वैसे ही भगवान पर भी। अन्तर इतना है कि दोनों स्थानों पर मारने वाले पात्र अलग अलग स्तर के हैं।*
*पुराणों में कथा वर्णित है कि भगवान नारायण की छाती पर भृगु ऋषि ने प्रहार किया। और विभीषण की छाती पर, मानस में,रावण प्रहार करता है।भृगु परम पुण्यात्मा हैं और रावण पापी है। परीक्षा के पात्र हैं,भक्त और भगवान।*
*आज हम भगवान की परीक्षा की ओर केन्द्रित होकर,आइए इस के अंतरंग-रहस्य पर प्रकाश डालते हैं।*
*देखें-- एक बार इस बात पर विवाद छिड़ा कि भगवान के अनेक रूपों में सर्वश्रेष्ठ कौन है? भृगु को परीक्षा का भार सौंपा गया।वे ब्रह्मा के पास पहुँचे,पर उन्हें प्रणाम नहीं किया।*
*इससे ब्रह्मा को बुरा लगा।भृगु सोचने लगे कि ये बड़े शक्तिशाली और सृष्टि के रचयिता तो हैं,पर सम्मान के प्रेमी हैं,यह इनकी कमी है,इसलिए श्रेष्ठ नहीं है।*
*फिर वे भगवान शंकर के पास गये।उन्हें देखते ही,शंकरजी दौड़कर उनसे मिलने के लिए आए।पर भृगु कह उठे--तुम तो चिता की राख लगाये रहते हो,बड़े गन्दे हो,मुझे मत छुओ। यह सुनकर शंकरजी उन्हें त्रिशूल लेकर मारने दौड़े।भृगु ने सोचा,ये तो महान क्रोधी हैं,अभी इतना प्रेम दिखा रहे थे और अब मारने दौड़ रहे हैं।अरे!ये तो महान क्रोधी हैं।नहीं,नहीं,ये भी श्रेष्ठ नहीं हैं।*
*तत्पश्चात् वे विष्णु भगवान के पास क्षीरसागर गये।भगवान नारायण शयन कर रहे थे और कथा है कि भृगु ने उनकी छाती पर चरण से प्रहार किया।भगवान उठ कर बैठ गये और उन्होंने भृगु के चरण को पकड़ लिया।कहा--महाराज!आपके चरणों को बड़ा कष्ट हुआ होगा,क्योंकि वे तो बड़े कोमल हैं।जबकि मेरी छाती बड़ी कठोर है।*
*जब भृगु लौट कर आए तो उन्होंने घोषणा कर दी कि नारायण ही भगवान का श्रेष्ठ रूप है।इस पौराणिक, आप लोगों द्वारा सुनी हुई कथा का तत्त्व क्या है?*
*देखें-- इसका अर्थ यह नहीं कि भृगु ने ब्रह्मा या शंकर भगवान को जो प्रमाणपत्र दिया,वह सही था।उनके प्रमाणपत्र का कोई बहुत मूल्य नहीं था।यदि वे प्रमाणपत्र न भी देते, तो नारायण की भगवत्ता में कोई अन्तर नहीं आता।यह तो उनकी अपनी कसौटी थी।*
*जैसे कोई पहली कक्षा का विद्यार्थी,किसी को एम.ए. का प्रमाणपत्र दे दे,तो उसका क्या मूल्य?उसके प्रमाणपत्र देने या न देने का कोई अर्थ नहीं है। तब फिर यह जो भृगु ने नारायण की परीक्षा ली,उसका तत्त्व क्या है?*
*वास्तव में जब भगवान ने उनसे कहा कि आपके चरणों में चोट लग गयी होगी,तो इसमें स्तुति और व्यंग्य दोनों हैं ।वह कैसे?*
*भृगु ब्राह्मण हैं,अकिंचन हैं।*
*एक नया दृश्य यहाँ उपस्थित होता है।ऐसा तो देखा जाता है कि एक अकिंचन किसी लक्ष्मीपति के पास जाकर अपमानित या लांछित हो,पर ऐसा बहुधा नहीं देखा जाता कि अकिंचन जाकर लक्ष्मीपति को ही अपमानित कर दे,और अपमान भी कैसा किया?हृदय पर चरण से प्रहार किया।लक्ष्मीजी ने जब प्रश्न सूचक दृष्टि से मुनि की ओर देखा,तो मुनि बोले--ये सो रहे हैं,इसलिए इन्हें जगा रहे हैं।*
*तो क्या भगवान सो रहे थे?उनका तो शयन भी जागरण ही है।फिर भृगु किसको जगाने चले थे?इसका एक सांकेतिक अर्थ देखें--भृगु हैं त्यागी,तपस्वी और भगवान हैं लक्ष्मीपति।जैसे भृगु में त्याग का अहंकार था,उसी प्रकार सर्वशक्तिमान भगवान में भी अपने लक्ष्मीपतित्व का अभिमान जाग उठता,तब क्या होता?संसार में ऐसे अहंकारों की टकराहट प्रायः दिखाई देती है।*
*एक व्यक्ति को त्याग का अहंकार है कि मैंने इतना छोड़ दिया,तो दूसरे को संग्रह का अहंकार है कि मेरे पास इतना धन है।ये दोनों अहंकार एक दूसरे से भिड़ते रहते हैं। पर यहाँ पर भृगु तो अपने त्याग का अहंकार लेकर आए,पर लक्ष्मीपति इतने अधिक निरहंकारी निकले कि त्यागी महोदय हार गये।*
*लक्ष्मीपति शरीर से तो जागे,पर उनका अहंकार नहीं जग पाया,और व्यंग्य यह था,कि प्रभु पूछ बैठते हैं--महाराज!आपको चोट तो नहीं लगी?भृगु आए थे भगवान को चोट पहुँचाने।यदि भगवान का अहम् जागता कि कहाँ मैं साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान,और कहाँ यह अकिंचन ब्राह्मण,और इसकी धृष्टता तो देखो कि मुझ पर प्रहार कर रहा है--तब तो भगवान को अवश्य चोट लग जाती।*
*पर भगवान का अहम् नहीं जगा,इसलिए उनकी विजय हो गयी और त्यागी पराजित हो गया।यदि कभी ऐसा हो कि प्रहार करने वाला जिस पर प्रहार करे,उसे तो चोट न लगे और स्वयं प्रहार करने वाले को ही चोट लग जाए,तो इससे बड़ा कोई अचरज नहीं हो सकता।यहाँ पर ऐसा ही हुआ।*
*इसका अभिप्राय यह है कि सही अर्थों में व्यक्ति को चोट तब लगती है,जब वह अपने“मैं”पर,अपने अहम् पर प्रहार का अनुभव कर तिलमिला जाता है।भगवान नारायण में तो रंच मात्र भी अहंकार नहीं है,इसीलिए वे जगद् बंद्य हैं,जगत्पूज्य हैं। तभी तो वे मुस्कराकर मुनि से पूछते हैं कि चोट तो नहीं लगी?और भृगु को अपनी भूल का ज्ञान होता है,वे लौट जाते हैं। भगवान परीक्षा में खरे उतरते हैं।*
सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना"*----🙏🏻🙏🏻🌹
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आपका अपना
"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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