Saturday, July 11, 2020

यज्ञ, हवन वा अग्निहोत्र सम्बन्धी कुछ प्रश्नोत्तर -

यज्ञ, हवन वा अग्निहोत्र सम्बन्धी कुछ प्रश्नोत्तर - 

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(१) यज्ञ शब्द का अर्थ क्या है ?
उत्तर- यज्ञ शब्द संस्कृत की यज् धातु से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है परोपकार। व्यापक रूप में यज्ञ के तीन अर्थ लिए जाते हैं देवपूजा, संगति करण और दान। देव पूजा का अर्थ होता है देवों की पूजा। देव दिव्य गुणों युक्त होने के कारण कहलाते हैं।पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आयु, आकाश इत्यादि जड़ देव हैं। मुख्यत: यज्ञ से अभिप्राय हवन वा अग्निहोत्र लिया जाता है, इससे परोपकार, देवपूजा, संगति करण व दान सभी सिद्ध होते हैं।

(२) कुछ लोग कहते हैं कि यज्ञ से वायु प्रदूषण होता हैं।
उत्तर- विधिवत तरीके से यज्ञ किया जाए तो कोई वायु प्रदूषण नहीं होता। घी समिधा सामग्री शुद्ध हो, आसपास पेड़ पौधे हों, जल हो, तो जो अल्पमात्रा में कार्बन-डाई-ऑक्साइड बनती है शोषित हो जाती है।

(३) क्या यज्ञ से जीवाणुओं का नाश होता है?
उत्तर:-जी हाँ ,अनेक प्रकार के जीवाणुओं का नाश होता है।

(४) यज्ञ तो पंडितों के पूजा पाठ का विषय है फिर उसका बीमारियों से क्या लेना देना?
उत्तर :- कर्मकांडी व लकीर के फकीर पंडितों ने इसे उदर पूर्ति का माध्यम बना दिया था परन्तु महर्षि दयानन्द ने वैदिक धर्म का गहन अध्ययन करके हवन को यज्ञ विज्ञान व यज्ञ चिकित्सा के रुप में सम्पूर्ण विश्व में स्थापित कर दिया।

(५) यज्ञ से जीवाणुओं का नाश कैसे होगा?
उत्तर:-यज्ञ में चार प्रकार की औषधियों का प्रयोग होता है। रोगनाशक जैसे गुग्गुल, चिरायता, गिलोय, हल्दी, जावित्री आदि। पौष्टिक जैसे काजू, किशमिश,बादाम,अखरोट, दाख , चावल,गेहूँ, तिल आदि। सुगंधित जैसे गुड़,शक्कर,मधु ,सुगंध बाला चंदन, लोंग आदि। आयुवर्धक जैसे गाय का घी, घृतकुमारी, शंखपुष्पी, दूध आदि। ये चारों प्रकार की औषधियां वायुमंडल में जाकर अतिसूक्ष्म कीटाणु जो यंत्रों से भी नहीं दिखते उन्हें नष्ट कर वातावरण को स्वच्छ व पवित्र करती हैं।

(६) इतने उत्तम पदार्थों को आप अग्नि में जलाकर नष्ट कर देते हैं, ये कहां की बुद्धिमानी है?
उत्तर:- अग्नि में डाले गये पदार्थ कभी नष्ट नहीं होते अपितु वो रुपांतरित होकर आकाश, वायु, अग्नि, जल,पृथ्वी में फैल जाते हैं और ओजोन का सुरक्षा चक्र भी तैयार करते हैं। जो भी सामग्री आप अग्नि में डालते हैं वो अधिक सूक्ष्म और शक्ति वाली बनकर आपके चारो ओर घूमती है। जब आप दाल को छोंकते हैं तो हींग की डिब्बी खोलते हैं। कहते हैं हींग की खुशबू बहुत अच्छी है मगर उस खुशबू को आपके अलावा कोई नहीं जानता। मगर जैसे ही  कडछी को गरम कर उसमें घी व हींग डालकर गर्म दाल में डालते हैं तो आपके मुहल्ले वाले और आपके अपने घर में बैठे सब जान जाते हैं कि आपकी पाकशाला में दाल छोंकी जा रही है। जैसे गरम दाल में डाली हींग नष्ट नहीं होती अपितु दूर -दूर तक फैल वातावरण को सुगंधित करती है वैसे ही यज्ञ से केवल आपके घर का नहीं अपितु आपके पड़ोसी के घर की वायु भी शुद्ध होती है।

(७)  दूध,दही, घी खाने की वस्तु है, महंगी है, रोज जलाना उचित है क्या?
उत्तर-  जब आप सौ ग्राम घी अकेले खाते हैं तो वह आपके ही शरीर में कुछ देर बाद मल-मूत्र बनकर निकल जाता है वही सौ ग्राम घी का आप हवन करते हैं तो हजारों मनुष्यों व पशु पक्षियों को मिलता है और पर्यावरण को शुद्ध करता है।

(८) सुना है, गाय के घी से हवन करने पर सब जीवाणुओं का नामोनिशान ही मिट जाता है , क्या ये बात सही है?
उत्तर:-जी हां, एकदम सही है। गाय के घी से हवन करने से चार प्रकार की गैसों का निर्माण होता है। एथिलिन आंक्साइड, प्रापलिन आंक्साइड, फार्मेल्डिहाइड, बीटा प्रापियों लेक्टोन।
जब ये गैसें वायुमंडल में घूमती हैं तब हजारों महामारियों के कृमि नष्ट हो जाते हैं।

(९) आप यज्ञ को यज्ञ विज्ञान व यज्ञ चिकित्सा कैसे कह रहे हैं ?
उत्तर-  वैज्ञानिक ट्रिलवर्ट का मानना है कि जलती शक्कर में वायु शुद्ध करने की बहुत बड़ी शक्ति विद्यमान है, इससे चेचक,हैजा,क्षय आदि बीमारियाँ तुरंत नष्ट हो जाती हैं। मुनक्का, किशमिश आदि फलों को जलाकर पता चला कि इनके धुएं से टाईफाईड के कीटाणु एक या दो घण्टे में नष्ट हो जाते हैं।  फ्रांस के वैज्ञानिक डा० हैफकिन का मानना है की गाय के घी से हवन करने से चेचक के रोगाणु मर जाते हैं। डां कुंन्दनलाल अग्निहोत्री एम०डी० ने जबलपुर सेनेटोरियम में टी.बी.के रोगियों की यज्ञ के द्वारा चिकित्सा की। उनका कहना है कि गाय के घी से हवन करने पर इस रोग के कीटाणु तीब्र गति से मरते हैं। सुना है पोलैंड में सत्रह स्थानों पर यज्ञ हास्पिटल है जहां दो सौ वैज्ञानिक प्रतिदिन यज्ञ करते हैं।

(१०) क्या यज्ञ न करने से परमात्मा नाराज होकर दण्ड भी देते हैं ?
उत्तर:-आप प्रतिदिन मल-मूत्र त्याग करते हैं, साबुन से कपड़ा धोते हैं, सैम्पू से बाल धोते हैं, साग सब्जियां धोते हैं। इस प्रकार प्रतिदिन एक सामान्य परिवार में २०० से ३०० लीटर पानी गंदा होता है।उसी तरह लोग शराब पीकर,गुटका खाकर,रसोई में अंडे, मांस,पकाकर ,बीड़ी सिगरेट पीकर वायु को गंदा करते हैं। तो इतनी गन्दगी साफ कौन करेगा ? यदि आप प्रतिदिन यज्ञ करेंगे तभी आप इस पाप से बच पायेंगे। उदाहरण से समझें- आपने अपने पड़ौसी से कहा जरा अपना झाड़ू दे दीजिए, कल लौटा देंगे। पड़ौसी कहता है बेशक ले जाईये मगर झाड़ू जिस स्थिति में ले जा रहे हैं वैसे ही लौटा दीजिए। आप ले गये।आपके घर के छोटे बच्चों ने खेल-खेल में उसकी आधी तीलियाँ निकाल कर फेंक दी।अब आप दूसरे दिन झाड़ु लौटाने गये ।जिसका झाड़ू था उसने जब आधा झाड़ु देखा तो नाराज हुआ।ऐसे ही हवा ,पानी आपको परमात्मा ने प्रयोग करने के लिये दिये हैं इन्हें गंदा करने से परमात्मा नाराज होते हैं और दण्ड भी देते हैं।यदि ग़ंदा कुछ हो ही जाता है तो परमात्मा ने आदेश दिया है कि आप यज्ञ करोगे तो जो गंदगी  फैला कर जाने अंजाने जो पाप हो जाता है उससे बच जाओगे। 

(११) यदि हम हवन नहीं करेंगे तो क्या होगा?
उत्तर:- दो प्रकार की हानि होंगी, महामारियां समय समय पर आती रहेगी और परमात्मा की जेल में जाना होगा।

(१२) परमात्मा की जेल का मतलब क्या है?
उत्तर:-जो जल को गंदा करते हैं मगर हवन से शुद्ध नहीं करते, वे अनुमान है कि अगले जन्म में मछली, कछुआ, दरियाई घोड़ा, मेढक आदि बन कर जल को शुद्ध करेंगे। जो बीडी, सिगरेट, गुटका खाकर व शराब पीकर हवा को गंदा कर रहे हैं वे कबूतर, तोता, कौआ, गिद्ध, बाज आदि बनकर हवा को शुद्ध करेंगे।

(१३) इस प्रकार के दण्ड का कारण वा नियम क्या है ?
उत्तर:-इसका नियम स्पष्ट है,सरल है, जो जैसा बीज बोता है वैसी ही फसल काटता है। इसी प्रकार अच्छे कर्म का अच्छा फल और बुरे कर्म का बुरा फल इस जन्म या अगले जन्म में मिलता ही है।

(१४) आज के युग में यज्ञ के लिए इतना समय व धन निकालना बहुत कठिन दिखाई पड़ता है।
उत्तर:- मात्र बीस मिनट मे यज्ञ हो जाता हैं और पूरे दिन के लिए आपका घर  सुरक्षित हो जाता है। आज सामान्य घर में भी प्रतिमाह लोगों के दो तीन हजार रुपए दवा में खर्च हो जाते हैं फिर भी बीमारी खत्म होने का नाम नहीं लेती। यही दो तीन हजार हर माह यज्ञ पर खर्च हो तो अनेक लोगों से बचा जा सकता है, घर का वातावरण शुद्ध सात्त्विक सुगन्धित रहता है और पूरा परिवार रोगों व विकारों से बचा रहता है।

(१५) इतने मंत्र याद करने बहुत कठिन है, क्या यज्ञ करने की कोई सरल विधि नहीं है ?
उत्तर- कुछ दिनों के अभ्यास से सब मंत्र याद हो जाते हैं। आप केवल गायत्री मंत्र से भी आहुतियां दें सकते हैं। यज्ञ करने की सरलतम विधि- तांबें या लोहे का हवन कुण्ड लें,उसमें कुछ आम की लकडी के टुकडों द्वारा अग्नि प्रज्जवलित करें और गायत्री मंत्र बोल कर शुद्ध सामग्री व शुद्ध घी दस बीस मिन्ट तक आहूतियां डालें। हवन कुण्ड न हो तो किसी अन्य पात्र या रेत की ढेरी पर भी अग्नि प्रज्जवलित कर सकते हैं। किसी कारण इतनी भी व्यवस्था न हो सके तो लौरहित यज्ञ कर लें, इसके लिए किसी लोहे या तांबे के पात्र में दो मुट्ठी सामग्री व एक कडछी शुद्ध घी मिला कर चूल्हे या गैस की धीमी आंच पर रख कर दस बीस मिण्ट तक मन ही मन या बोल कर गायत्री मंत्र का जप कर सकते हैं। 

(१६) यज्ञ के महत्त्व पर कोई वैज्ञानिक व वेदादि शास्त्रों के प्रमाण भी हैं?
उत्तर- यजुर्वेद में आया है 'यज्ञों वै श्रेष्ठतमम् कर्म', यज्ञों वै विष्णु- अर्थात यज्ञ सब कर्मों से श्रेष्ठ कर्म है, यज्ञ करने से मनुष्य का यश चहुँ ओर फैलता है। जुहोत प्र च तिष्ठत ( ऋग्वेद  १\१५\९ ) ईश्वर आज्ञा है कि तुम यज्ञ करो और प्रगति करो।" प्र यज्ञमन्सा वृजनं तिराते ( ऋग्वेद   ७\६१\४)अर्थात् यज्ञ की ओर प्रवृत्ति परिवार को दु :खों से पार लगाती है। यज्ञो हि त इन्द्र वर्धन: ( ऋग्वेद ३\३२\१२ ) अर्थात् यज्ञ ही वृद्धि और सम्पन्नता का सूचक हैं। अथर्ववेद में कहा है यज्ञ से उत्तम गति होती है परन्तु यज्ञ न करने वाले का तेज नष्ट हो जाता है। सामवेद के 114 मत्रों में स्थान-स्थान पर यज्ञ का वर्णन है। वैज्ञानिक प्रमाण हों या न हों परन्तु वेदादिक शास्त्रों के शब्द प्रमाण अधिक महत्वपूर्ण हैं। 
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०६

🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०६*
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🕉 📕 *श्री मानस सुधा सागर*📕🐚
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🔅 *दैनिक कथा पाठ*🔅
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     *दक्ष यज्ञ : सती देह त्याग*
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मईया सती मोह के कारण भगवान भोलेनाथ उनका मानसिक त्याग कर दिए, यह बात मईया को भी महसूस होगयी। दिन बितने लगे। अब
        *एक बार प्रजापति दक्ष ने कनखल नामक तीर्थ मे विशाल यज्ञ का आयोजन किया जिसमे उसने शिव जी को छोडकर बाकि सभी देवताओ,महर्षियो , मुनियो, गन्धर्वो, विद्याधरो और किन्नरो आदि को बूलाया |*
 य़ज्ञ के मुख्य पुरोहित भृगु बनाए गए | *शिव जी को यज्ञ मे अनुपस्थित देखकर एकमात्र दधिची महर्षि ने पहले तो दक्ष को बहूत ही तरह से समझाया पर जब दक्ष नही समझे तब वहॉ उपस्थित सभी लोगो की भर्तस्ना करते हूए वो उस स्थल का त्याग कर दिए |*
उधर गन्धमादन पर्वत पर स्थित अपने सखियो के साथ सती जी ने चन्द्रमा को कही बन सवर कर जाते देखा तो वो अपने मुख्य सखि विजया से पता लगाने को कहा |विजया चन्द्रमा से यह जान लेने के बाद कि वो दक्ष यज्ञ मे जा रहे है ,सती को यह बात बतलायी | यह सुनकर सती आश्चर्य मे पर गयी कि आखिर किस भूल के कारण हमे बूलाया नही |वो सखियो को वहॉ छोडकर अकेले शंकर जी से इसके बारे मे पूछने गयी  |कैलाश पर स्थित भोले भंडारी से अपनी शंका कही माता ने तो बाबा बोले कि *किसी के यहॉ बिना निमंत्रण के जाना नही चाहिए,इससे अपने सम्मान मे कमी होती है और जहॉ जाते है वहॉ सम्मान नही मिलता |* पर माता के जिद के आगे बाबा आज्ञा दे देते हैं | जब माता नंदी पर बैठ कर चली जाती है तब बाबा पूरे घटना पर सोचते है और यह कहते हूए कि अब आपसे मुलाकात इस शरीर मे नही होगी,मौन हो जाते हैं |
*वहॉ यज्ञ मे पहूचकर माता शिव भाग को नही देखती जिसका कारण पिता से पूछती है तब दक्ष उन्हे बहूत भर्तस्ना करते हूए कहते है कि तुम्हे रहना तो तो रहो या चले जाओ वापस पर हमे मत सिखाओ | माता एवं आयी हूयी अन्य बहनो ने भी उनसे बात नही की | वो दुखित और पश्चाताप करती हूयी यज्ञ मे उपस्थित सभी देवताओ एवं अन्य को यह कहते हूए कि बिना शिव के आप सब यह यज्ञ का संचालन मे उपस्थित रहकर अन्याय का साथ दे रहे है | वो बहूत दुखित होकर अपने शरीर को यज्ञ के हवन बेदी मे डाल देती है या कूद परती है | चारो तरफ हहाकार मच जाता है साथ मे आए शिव गण कोहराम मचाते है |*
इस खबर को सूनकर नारद जी से भोले नाथ अपने जटा के बाल से वीरभद्र की उत्पति करते है ( कही कही भद्रकाली भी) |ये बाबा की आज्ञा से यज्ञ स्थल पर जाते है और सबका विनाश कर देते है | भृगु की दाढी नोच लिया जाता है ,दक्ष के सर को काट कर यज्ञ मंडप मे डाल दिया  जाता है | भृगू द्वारा उत्पन्न किए गए वैदिक सैनिको को भी शिवगण परास्त कर देते हैं | *जब सभी पराजित हो जाते है तब ब्रह्मा जी अपने पूत्र की इस गति पर पश्चाताप करते हूए कैलाश आकर विभिन्न स्त्रोतो से भगवान् भोले भंडारी को खुश कर दक्ष को क्षमा कर पूनर्जीवन देने के लिए कहते हैं | तब शिवजी वहॉ जाकर दक्ष के सर पर बकरे का सर लगा कर पूनर्जीवित करते है और उसे क्षमा कर देते है |*
यही सती अगले जन्म में पार्वती बन कर शिव जी के द्वारा मानस कथा की श्रोता बनती है ।
🙏🏻
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*पढ़ते रहे सावन विशेष श्रीरामकथा अमृतसुधा के सभी प्रस्तुति* 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻

*_ॐ शन्नोदेवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शन्योरभिस्त्रवन्तु न:।_*

⛳न्यायाधिकारी सभी को अपनी वक्रदृष्टि से पाप मुक्त करने वाले भगवान शनिदेव की जय😊💪🏻

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

दर्शन और देखने में अंतर

*दर्शन और देखने में अंतर*

एक दिन मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा – “ चल मंदिर चलते है ?”

मैंने कहा – “ किसलिए ?”

मित्र बोला – “ दर्शन के लिए !”

मैं बोला – “ क्यों ! कल ठीक से दर्शन नहीं किया था क्या ?”

मित्र – “ तू भी क्या इन्सान है ! दिनभर भर एक जगह बैठा रहता है ! पर थोड़ी देर भगवान के दर्शन करने के लिए नहीं जा सकता !”

मैंने कहा – “ महाशय ! चलने में मुझे कोई समस्या नहीं है । किन्तु आप यह मत कहिये कि दर्शन करने चलेगा क्या ?, यह कहिये कि देखने चलेगा क्या ?

मित्र बोला – “ किन्तु दोनों का मतलब तो एक ही होता है !”

मैं – नहीं ! दोनों में जमीन आसमान का अंतर है !

मित्र – “कैसे ?”

कैसे ? यही प्रश्न मैं आपसे भी पूछना चाहता हूँ । अक्सर मैंने देखा है लोग तीर्थ यात्रा पर जाते है किसलिए ?, भव्य मंदिर और मूर्तियों को देखने के लिए, ना कि दर्शन के लिए ! 

अब आप सोच रहे होंगे की देखने और दर्शन करने में क्या अंतर है ?

देखने का मतलब है, सामान्य देखना जो हम दिनभर कुछ ना कुछ देखते रहते है । किन्तु दर्शन का अर्थ होता है – जो हम देख रहे है उसके पीछे छुपे तत्थ्य और सत्य को जानना । देखने से मनोरंजन हो सकता है, परिवर्तन नहीं । किन्तु दर्शन से मनोरंजन हो ना हो, परिवर्तन अवश्यम्भावी है ।

अधिकांश लोग मंदिरों में केवल देखने तक ही सीमित रहते है, दर्शन को नहीं समझ पाते । फलतः उन्हें वह लाभ नहीं मिल पाता जिसका महात्म्य ग्रंथो में मिलता है । हमारे शास्त्रों में तीर्थयात्रा के बहुत से लाभ बताये गये है किन्तु लोग तीर्थ यात्रा का मतलब केवल जगह – जगह भ्रमण करना और मंदिर और मूर्तियों को देखना ही समझते है । यह मनोरंजन है दर्शन नहीं ।

दर्शन क्या है ? दर्शन वह है जो आपके जीवन को बदलने की प्रेरणा दे । दर्शन वह है जो आपके जीवन का कायाकल्प कर दे । दर्शन वह है जो आपके जीवन में आमूल – चुल परिवर्तन कर दे । अंगरेजी में दर्शन का मतलब होता है – फिलोसोफी, जिसका अर्थ होता है –यथार्थ की परख का दृष्टिकोण ।

इसी के लिए हमारे वैदिक साहित्य में षड्दर्शन की रचना की गई । जिनमे जीवन के सभी आवश्यक और यथार्थ तत्वों की व्याख्या की गई है ।

यदि आप अब भी सोच रहे है कि दर्शन क्या है ? तो फिर जीवन के व्यावहारिक दृष्टान्तों से समझने की कोशिश करते है । रामकृष्ण परमहंस की दक्षिणेश्वर की काली को उनसे पहले और उनके बाद हजारों लोगों ने देखा किन्तु किसी को दर्शन नहीं हुआ । क्यों ? क्योंकि रामकृष्ण परमहंस ने ना केवल काली की मूर्ति को देखा बल्कि उसके दर्शन को समझा इसलिए काली ने रामकृष्ण परमहंस को दर्शन दिया ।

भगवान महावीर की मूर्ति के कभी दर्शन कीजिए। मन को शांत करती,एकाग्रता ,संयम,आदि को प्रेरित करती। पर हम दर्शन नहीं करते हम मूर्ति को देखते तभी तो हम भगवान महावीर के प्रेरित कदमों पर नहीं चलते।

भगवान श्री राम के मंदिर जाकर उनकी मूर्ति के दर्शन करने का मतलब है उनके जीवन चरित को समझा जाये और उसी के अनुसार अपने जीवन में परिवर्तन किया जाये । यही राम का दर्शन है । यदि आप राम की मूर्ति तो देखते है किन्तु अपने जीवन में कोई परिवर्तन नहीं करते है तो फिर आपको राम के दर्शन का कोई लाभ नहीं मिलने वाला ।

यदि आप शिवजी का दर्शन करने जाते है और आपके मन में क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष ही भरा है तो फिर दर्शन का क्या लाभ ?

यदि आप हनुमानजी का दर्शन करने जाते है और आपका मन पवित्र नहीं है, स्त्रियों पर आपकी गलत दृष्टि है तो फिर हनुमानजी का दर्शन करना बेकार है ।

भक्त वही सच्चा, जो है अभी बच्चा । जो बड़ा हो गया वो भक्त नहीं हो सकता और जो भक्त हो गया उसमें बड़प्पन नहीं हो सकता ।

आपके दर्शन का क्या अर्थ है !सोचो, समझो और बताओ।
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*सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की शुभ मंगल कामना 🏵️🌼🙏🌼🏵️*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
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Thursday, July 9, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०५


*🕉️📕 सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०५*📕🕉️
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*मैयासतीजी मोह प्रसङ्ग*  04
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    तो उस समय सीता वियोग की विरह-व्यथा में भगवान् राम को देखकर सती को मोह हो गया कि भगवान् शिव तो जगदीश हैं, भला एक राजकुमार को पत्नी वियोग में इस प्रकार व्याकुल देखकर उन्हें *सच्चिदानंद परमधाम कहकर प्रणाम किया ?*
भगवान शिव ने सती के मनोभाव को जानकर कहा कि परब्रह्म राम ने रघुकुल के मणि रूप में अवतार लिया है । बहुत समझाने पर भी सती के नहीं समझने पर भगवान् शिव ने कहा –
*जैसे जाइ मोह भ्रम भारी।*
*करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी।।*
सती जी सीता जी का रूप धारण कर परीक्षा करने चलीं।भगवान् राम ने उन्हें पहचान लिया और प्रणाम करते हुए कहा कि आप जंगल में अकेली किसलिए फिर रही हैं? और भगवान् शिव कहाँ हैं?
*जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥*
सती जी को बड़ा संकोच हुआ और वहाँ से लौटते हुए रास्ते में चतुर्दिक सीताराम को देखा। गोस्वामी जी कहते हैं –
*जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना।सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना।।*
*देखे सिव बिधि बिष्णु अनेका।अमित प्रभाउ एक तें एका।।*
*बंदत चरन करत प्रभु सेवा ।बिबिध बेष देखे सब देवा।।*
परम पूज्य रामकिंकर जी महाराज कहते हैं कि *सती जिज्ञासा हैं और शिव विश्वास । जिज्ञासा की पूर्णता है -संशय का विनाश और विश्वास की उपलब्धि। ब्रह्मा ने दक्ष को आदेश दिया कि वह अपनी पुत्री शिव को अर्पित करें।ब्रह्माजी का दृष्टिकोण यह था कि जिज्ञासा और विश्वास का परिणय लोक-मंगल के लिए आवश्यक है ।लेकिन सती में श्रद्धा दृष्टि का उदय नहीं हुआ और शिव की विश्वास दृष्टि पर उन्हें भरोसा नहीं था ।*
बहिरंग दृष्टि से जिज्ञासा और परीक्षा एक जैसी प्रतीत होने पर भी अहंकार पूर्वक की गई जिज्ञासा परीक्षा ही है ।
*ईश्वर जिज्ञासा का विषय हो सकता है, परीक्षा का नहीं । सती ने उसे परीक्षा का विषय बना दिया ।*
*महाराज जी का यह प्रतीकात्मक विश्लेषण बड़ा ही प्रासंगिक है और आज के इस तार्किक युग में अति महत्त्वपूर्ण है ।*
यहाँ सती जी ने जो दृश्य देखा वह विवेचना का विषय है ।
*भरद्वाज जी और पार्वती जी ने जो राम तत्त्व के बारे में संदेह किया था वह इस सती प्रसंग से स्पष्ट हो गया कि वे सीताराम ब्रह्म के सगुण साकार रूप हैं जिनकी चरण वंदना और सेवा शिव, विष्णु और ब्रह्मा अपनी शक्ति समेत अनेक देवताओं के साथ कर रहे हैं ।*
अर्थात् 
*श्रीराम साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं,जिनकी चरण वंदना ब्रह्मांड के सभी त्रिदेव और अन्य देव भी करते हैं ।*
इसमें संदेह नहीं करना चाहिए। *मानस के श्रीराम का यही मूल स्वरूप है ।*
गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में सती प्रसंग को अत्यंत कुशलता से प्रस्तुत किया है, *जिससे संदिग्ध मानस में श्रद्धा उत्पन्न हो सके ।सती के चरित को संक्षेप में वर्णित कर मानस के आरंभ में ही गोस्वामी जी मोह को दूर करने का प्रयास करते हैं। ध्यान दीजिए इसी मोह को दूर करने के लिए भगवान् कृष्ण को 10 अध्याय गीता कहनी पड़ी और 11वें अध्याय में भगवान् ने अपने  दिव्य दर्शन कराए।*
सती ने भगवान् को सीता लक्ष्मण सहित उस अलौकिक चमत्कारिक  रूप को देखा तो वे अत्यंत भयभीत हो गईं।
*हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं । नयन मूदि बैठीं मग माहीं।।बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छ कुमारी।।*
यहाँ भयभीत होने का कारण यह है कि *सती जी से लगातार गलतियाँ हुईं। यथा-भगवान् राम की परीक्षा के लिए सीता का रूप धारण किया ,भगवान् शिव के वचन को नहीं माना, परीक्षा से ग्लानि हुई और अंततः उनके सर्वत्र उस दिव्य रूप के दर्शन से भय उत्पन्न हुआ ।*
यही स्थिति है जहाँ सतीजी जाते समय तो उन्हें राजकुमार समझकर प्रणाम तक नहीं किया और यहाँ गोस्वामी जी कहते हैं –
*पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा।चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा।।*
सतीजी ने भयभीत होकर दूर से ही रामजी को धरती पर बार-बार उनके चरणों में सिर नवाया।मानो प्रभु से परीक्षा के परिणामस्वरूप क्षमा याचना कर रहीं हो। भगवान् के चरण ही आपत्तियों में एक मात्र शरण है, यही यहाँ बोध होता है ।
पुनः उसी दशा में भगवान् शंकर के पास आयीं। रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे सती जी ने भगवान शिवजी से सबकुछ छिपा लिया और कहा कि आपकी तरह मैंने उन्हें प्रणाम किया और किसी प्रकार की परीक्षा नहीं ली।भगवान शिव ने ध्यान में सती के सारे चरित्र को देखकर जान लिया और सदा सर्वदा राम को नमन करने वाले भगवान् शिव ने आज उनकी माया को प्रणाम किया जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया ।
*बहुरि राममायहि सिर नावा।प्रेरि सतिहि जेहिं झूठ कहावा।।*
सतीजी ने सीताजी का रूप धारण किया। *आज भाषा की अशुद्धि पर हम ध्यान नहीं देते ।सोचिए ,सती सीता हो गईं ,तो कितना बड़ा अनर्थ हो गया । यह यहाँ ध्यातव्य है।* अब इस शरीर से उनसे पति-पत्नी रूप में भेंट नहीं हो सकती ।लेकिन सती परम पवित्र है अतः इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में पाप है । ऐसी सोच है विश्वास के अवतार श्री राम को हृदय में धारण करने वाले शिव जी का ।गोस्वामी जी कहते हैं- 
*तब संकर प्रभु पद सिरु नावा सुमिरत राम हृदय अस आवा।एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं।।*
यहाँ भावार्थ यह है कि जब स्वयं भगवान् शंकर स्वयं कुछ निश्चय न कर सके तब *’शं’* (कल्याण) करने वाले भगवान् राम, जो *“मंगलभवन अमंगल हारी”* हैं, उनके चरणों में सीस नवाया। वे इनके इष्ट हैं और उनके हृदय में निवास करते हैं - *जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।*
*जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं।।*
अर्थात् जो चरण कमल कामदेव के शत्रु श्रीशिवजी के हृदयरूपी सरोवर में सदा ही विराजते हैं, जिनका एक बार भी स्मरण करने से मन में निर्मलता आ जाती है और कलियुग के सारे पाप भाग जाते हैं ।
अर्थात् *उनके हृदय में जो भगवान् राम की पावन छवि विराजमान है, उनके पदों में प्रणाम किया और संकट दूर हुआ ।*
तत्त्वार्थ यह कि *जगत में जब सबकुछ निरुपाय हो जाता है यानी “एक भी उपाय नहीं दिखता तब भगवान राम दिखते हैं ।”*
यहाँ स्मरण करते ही हृदयस्थ भगवान राम  समाधान कर दिये । 
विभीषणजी भी कहते हैं –
*हर उर सर सरोज पद जेई।अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई।।*
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⏯ *जारी रहेगा यह प्रसङ्ग* ⏩
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*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻

*_पद्मानने पद्म पद्माक्ष्मी पद्म संभवे तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्_*

⛳मंगलकारी सुख प्रदा मा लक्ष्मी की जय😊💪🏻

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Wednesday, July 8, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०४


🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०४*📕🕉️
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*मैया सती जी के भ्रम की शुरुआत*  03
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    इधर कथा प्रारंभ हुई। गोस्वामी जी वक्ता और श्रोता के संबंध का चित्रण करते हुए लिखते हैं -
*रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥*
अगस्त्य जी ने राम कथा सुनाई और शंकर जी गदगद होकर सुनते रहे। इसके पश्चात अगस्त्य जी ने बोले *अब कथा की जरा दक्षिणा दीजिए*🙂 🗣
*कथा बिना दक्षिणा के न सुननी चाहिए और न सुनानी चाहिय याद रखियेगा आप सभी* 
*यह सूत्र यहाँ भी है लागू🙂* इस लिए *सनातन गर्न्थो को पढ़कर प्रचारित और प्रसारित कीजिये आप सभी*,गूगल यूनिवर्सिटी के व्हाट्सएप और फेसबुक आचार्य रूपी कालनेमि के माया चक्र में न पड़ें।
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शंकर जी ने पूछा *दक्षिणा क्या देना है* 🤔 
तो ऋषि बोले - *महाराज जी जरा भक्ति का रहस्य बता दीजिए ।कथा का फल तो भक्ति है ,अतः आप कृपा करके भक्ति प्रदान कीजिए ।*
गोस्वामी जी लिखते हैं
*रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥*
पर सती जी के संदर्भ में 
*श्रोता और वक्ता का ऐसा सामंजस्य नहीं बैठ पाया,उनमें बुद्धि का दोष आरंभ हो गया । बुद्धिमान व्यक्ति में एक प्रकार का अहंकार होता है। दक्ष की बेटी के अंतकरण में भी बुद्धिमता का, अपनी श्रेष्ठता का ,मैं प्रजापति की बेटी हूं - इस प्रकार का अभिमान जागृत हो गया ।उनकी मातृत्व की वृत्ति, शिव की पत्नी की वृति मिट गई। सती में बुद्धिमानी का चतुराई का मिथ्याभिमान जो उन्हें कथा सुननेसे रोक देती है। वे श्रवण का तिरस्कार करती है। यही से शंकर जी से उनकी दूरी की भूमिका आरंभ हो जाती है।*  
जब शंकर जी लौटने लगे तो उन्होंने ऋषि से विदा मानी
*मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।*
अब *जब शंकर जी चलने लगे तो उनके साथ में सती जगजननी भवानी भी तो लौटी होगी* 🤔 
पर बाबा लिखते हैं *लौटी तो हैं पर इस समय है - सती जगजननि भवानी - नहीं लग रही है । लगता है दक्ष कन्या लौट रही हैं,शिव की पत्नी नहीं।* 
क्या लिखे हैं तो 
*चले भवन संग दच्छ कुमारी।*
इसका अभिप्राय यह है कि *यदि आप में जिज्ञासा हो और साथ में अपनी बुद्धिमता का अहंकार हो अर्थात आप जानना भी चाहे और अपनी अपेक्षा किसी को बुद्धिमान भी ना माने तब तो आपकी जिज्ञासा आपके अंतकरण में संशय और भ्रम की ही सृष्टि करेगी ।* 
*सती के जीवन में पहली भूल यहीं हुई ।* उनकी दूसरी भूल तब होती है जब वे शंकर जी के साथ लौट रही हैं।
जैसा कि श्री मानस के प्रसंग से हम जानते हैं कि 
*तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥*
*पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥*
लौटते समय भगवान शंकर के मन में एक और अभिलाषा उत्पन्न होती है उनके कान मानो कहते हैं हम तो कथा सुन कर धन्य हो गए। पर उनके नेत्र कहते हैं इतने निकट आकर भी यदि प्रभु के बिना दर्शन लौट गए तो हमसे बढ़कर अभागा कौन होगा? इसलिए दर्शन भी कर लीजिए। लेकिन उसी वक्त विवेक जागृत हुआ और उन्होंने सोचा कि मेरा जाना ठीक नहीं होगा इससे तो जो भेद है वह खुल जाने का डर है- 
*हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।*
*गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥*
इससे खलबली मची हुई थी परंतु इस चीज को सतीजी नहीं जानती थी
*संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।*
*तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥*
वे सोचते थे कि 
*रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥*
इसके आगे क्या हुआ वह देखिये मानसकार के ही शब्दों में--
*ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥*
*करि छलु मूढ़ हरी बैदेही।    प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥  मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥*
*बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥                                 कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥*
*अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान। जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥*
*संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा॥ भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥*
*जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥ चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥*
सतीजी ने शंकरजी की यह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। वे मन ही मन कहने लगीं कि ,क्या, तो जिस शंकरजी की सारा जगत्‌ वंदना करता है, वे जगत्‌ के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं वही आज क्या कर रहें हैं ----
*तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥ भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥*
सती जी ठहरी दक्ष पुत्री ,चतुर और साहित्य का ज्ञान रखने वाली लगी सोचने कि सामने यह जो श्री राम विलाप कर रहे हैं क्या शंकर जी ने उन्हीं के लिए जय सच्चिदानंद कहा । माथा पीटने लगी और मन ही मन बोली ऐसी बात अगर कोई दूसरा कहता तो मैं क्षमा भी कर देती पर इतने बुद्धिमान होकर भी शंकर जी ऐसी गैर साहित्यिक भाषा का प्रयोग कैसे किया ?क्या वे नहीं जानते की *माया मृग के पीछे दौड़ने वाला सत कैसे हो सकता है ,जो लता वृक्षों से सीता का पता पूछ रहा है उस से बढ़कर जड और कौन होगा और जो इतना विलाप कर रहा है उसको आनंद कहना तो बेचारे आनंद शब्द की बड़ी दुर्दशा है !*
पर हमारे मानस के आदि आचार्य विश्वास के अवतार शंकरजी जी की व्याख्या सती जी से उल्टी है । कैसी है तो देखते हैं --
*वह कहते हैं आज तक लोग माया के पीछे दौड़ते रहे लेकिन कोई माया पर प्रहार नहीं कर पाया ,आपने माया मृग को मार कर सिद्ध कर दिया कि आप नित्य सत्य हैं, फिर लता वृक्ष से पूछकर अपने लोगों का भ्रम दूर कर दिया कि लता और वृक्ष जड़ हैं ।आपने बताया कि चैतन्य तत्व ब्रह्मांड में सर्वत्र व्याप्त हैं और क्या कहें आप इतना बढ़िया रोए की मजा ला दिया*
पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥
*वैसे तो रोना दुखदाई है पर एक रोना बड़ा सुखदाई हैं। कैसा तो जब नाटक में अभिनेता हो और उसे रोने का अभिनय मिला हुआ हो और उसका रोना देखकर सभी दर्शक अगर रोने लगे तो अभिनेता मन ही मन हंसेगा की क्या रोया है हमने सबको रुला दिया यही रोने का आनंद है । प्रभु आप सभी अवतार में तो हंसने का आनंद लेते औऱ देते हैं पर इस अवतार में आप रोने का आनंद ले औऱ दे रहे हैं ।*
ध्यान देने योग्य प्रसंग है 
*यह विश्वास की उपलब्धि है पर सति बुद्धिमान हैं वे तो तर्क के द्वारा ईश्वर को समझने की चेष्टा करती है इसलिए भ्रांति होती है फलस्वरुप शंकर जी से दूरी उत्पन्न हो जाती है।*
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⏯ *जारी रहेगा यह प्रसंग*⏯
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*सियावर श्रीरामचन्द्र जी की जय*
*सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की शुभ मंगल कामना 🏵️🌼🙏🌼🏵️*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
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Tuesday, July 7, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा -०३


🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा -०३*
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*मैया सती जी के भ्रम की शुरुआत*  02
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         कल हम सभी *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा*  के *दैनिक कथा पाठ* में *दूसरेें दिन* प्रसङ्ग  *मैया सती जी के मोह की शुरुआत* पर आधारित कथा रस के *पहले भाग  का* आनंद लिए जिसमे यह देखे कि *भगवान शंकर जी अगस्त्य जी के पास मैया सती के साथ कथा सुनने के लिए चल पड़े है ।*
अब *तीसरे दिन* इस कथा प्रसंग को आगे बढ़ाने से पहले जरा घ्यान दीजिये ।
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    *कथा का पूरा आनन्द और लाभ उठाने के लिए वक्ता और श्रोता के बीच सामंजस्य होना चाहिये ।*
            *यदि वक्ता सोचे कि ये श्रोता मुझसे नीचे बैठे होने के कारण मुझसे छोटे हैं ,तो उसमे अभिमान आये बिना नही रहेगा । इसीप्रकार यदि श्रोता सोचे कि वक्ता ऊपर बैठा है तो क्या हुआ ,मैं तो उससे अधिक बुद्धिमान हूँ तो वह भी कभी सामनेवाले की बात को आदर पूर्वक नही सुन सकेगा । श्रोता के मन में यह आना चाहिए कि जो वक्ता के रूप में हमारे सामने विराजमान हैं, वह पूजनीय है, वंदनीय है, उनका ज्ञान हमारी अपेक्षा अधिक है और मैं उनसे ज्ञान ग्रहण करने के लिए आया हूं। वैसे ही वक्ता के मन में भी यह वृति आनी चाहिए कि यह तो भगवान की कृपा है जो उन्होंने मुझे निमित्त बनाकर श्रेष्ठ से श्रेष्ठ लोगों के समक्ष कथा कहने का अवसर दिया है । जो सुनने के लिए आए हैं ,ओ छोटे नहीं हैं अपितु उन्होंने हमें यह अवसर दिया है जिससे हम अपनी वाणी को पवित्र कर सकें।*
 श्रीमानस में वक्ता और श्रोता का ऐसा सामंजस्य काग भुसुंडि जी और गरुड़ जी में मिलता है।
*जब वक्ता और श्रोता में विनम्रता और कृतज्ञता का सामंजस्य होता है तो कथा रस का प्रवाह ठीक चलता है । शंकर जी और अगस्त्य जी के साथ तो यह प्रवाह ठीक चलता रहा पर सती जी के साथ यह ठीक नहीं चल पाया।*
अब कथा प्रसङ्ग को आगे बढ़ाते हैं ----😊
*भोले बाबा सती जी के साथ मुनि के आश्रम पहुँच गए। यहाँ मुनि उन दोनों को देखते ही क्या किये,* 
तो बाबा जी लिखते हैं -
*संग सती जगजननि भवानी । पूजे ऋषि अखिलेश्वर जानी।।*
पर इस पूजन का प्रभाव *शंकर जी और सती जी के अंतः कारणों पर अलग अलग प्रकार से पड़ता है।* शंकर जी ने जब देखा कि अगस्त्य जी मेरी पूजा कर रहे हैं तो उन्होंने तो हांथ जोड़ लिया और कहने लगे - *महाराज अन्य वक्ता तो वाणी द्वारा उपदेश देते होंगे पर आपका तो पूरा जीवन ही उपदेश है।वक्ता यही तो कहता है कि अभिमान छोड़ देना चाहिए, पर आपने तो यह स्वयं अपनी क्रिया से दिखा दिया ।* मैं तो सुनने आया हूँ,अतः कहाँ मुझे आपका पूजन करना चाहिए था ,उल्टे आपने मेरा पूजन किया । इसी से लगता है कि आप कितने विनम्र हैं, कितने निराभिमानी हैं। *आपका जीवन ही कथा का रूप है।* पर सती जी ने ऋषि के पूजन का ऐसा अर्थ नही लिया । 
ध्यान दीजिए *जीवन मे घटने वाली घटनाओं का सही अर्थ लेना भी एक कला है जो लोग सही अर्थ लेना जानते हैं वे सुखी होते हैं और जो नही जानते वे सती जी के समान कष्ट का भोग करते हैं।* 
सती जी ने सोचा कि *जब ऋषि मेरा पूजन कर रहे हैं तो इससे यही सिद्ध हुआ कि वे मुझसे कम बुद्धिमान हैं और जब मुझसे कम बुद्धिमान हैं तब मैं इनसे क्या सुनु ? पूजन का ऐसा उल्टा प्रभाव सती जी पर पड़ गया कि उनके अन्तःकरण में अवांछनीय संस्कार जाग्रत हो गए ।*
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⏯ *जारी रहेगा यह प्रसंग* ⏯
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
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Monday, July 6, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा* ०२


🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा*  ०२
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*संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।।* से आगे का प्रसङ्ग
*मैया सती जी के भ्रम की शुरुआत*  01
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      भगवान शंकर कथा सुनने के लिए चले । *यह विश्वास का स्वरूप है।बुद्धिमता का लक्षण है देखना और विश्वास का सुनना ।ईश्वर ने हमारे जीवन मे इन दोनों का सामंजस्य किया है।*
ध्यान दीजिए *दण्डकारण्य में श्री भगवान भी विजमान हैं और अगस्त्य जी भी ।  पर जैसा कि मानस से यह विदित है कि पहले अगस्त्यमुनि के पास शिव जी जाते हैं ,बाद में भगवान का प्रसंग आया है । बड़ा ही सुंदर सीख है इस प्रसंग से वह यह कि पहले भक्त के पास जाना चाहिये । पहले सुनना चाहिय बाद में भगवान को देखना ।*
 इसका अभिप्राय यह कि *संसार की वस्तुओ में तो दृष्टि की प्रमुखता है,पर जो ईश्वर का विषय है वह मुखयतः श्रुति का विषय है। संसार की वस्तुओं को तो आंखे देखकर प्रमाणित करेंगी ,लेकिन जो प्रत्यक्ष रूप से नही दिखाई देता उसके विषय मे यदि केवल दृष्टि पर ही आग्रह करते रहें तो भ्रमित हो जाएंगे ।इसलिए हमारे यहाँ ईश्वर के संदर्भ में परम प्रमाण श्रुति का मानते हैं। श्रुति का अर्थ वेद भी है और कान भी ।*

*शिव जी कथा सुनने चलने लगे तो उनके साथ सती जी भी साथ हो गयी। इस बात पर गोस्वामी जी खुश बहुत हुए ,उन्होंने शंकर जी को तो कुछ ही विशेषण इस प्रसंग पर दिए पर सतीजी के लिए विशेषणो की भरमार कर दिए।* शंकर जी के लिए तो केवल इतना ही कहा -
*एक बार त्रेता जुग माहीं।संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।।*
ये शम्भू हैं ।पर जब सती जी की बारी आई तो  
*संग सती जगजननि भवानी।*
ये सती हैं,जगजननि हैं,भवानी हैं। 
ध्यान दीजिए *ये विशेषण किसी भी नारी जीवन की परिपूर्णता की ओर इंगित करते हैं। नारी जीवन की परिपूर्णता उसके तीनो रूपों के सामंजस्य में समाहित है -एक ओर तो वह पुत्री है,दूसरी ओर पत्नी और तीसरी ओर मां। पुत्री के रूप में वह समर्पण की प्रेरणा देती है,तो पत्नी के रूप में स्नेह की और माता रूप में वात्सल्यमयी सेवा की। स्नेह,सेवा और समर्पण की मंजुल त्रिवेणी में नारी जीवन की परिपूर्णता और सार्थकता है। इस लिए ही बाबा ने कहा कि दक्ष पुत्री के रूप में सती हैं,शंकर जी की पत्नी रूप में भवानी और सृष्टि के माता के नाते वात्सल्यमयी जगजननि ।उनके तीनो रूपों में सुंदर सामंजस्य है।* 
ऐसी सती शंकर जी के पीछे पीछे भगवत कथा सुनने के लिए दण्डकारण्य आती हैं।
     🙏🏼💐🙏🏼
जारी रहेगा यह प्रसङ्ग
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*श्रीरामकथा से संबंधित इस प्रसङ्ग पर या अन्य किसी प्रसङ्ग पर शंका समाधान या चर्चा हेतु व्हाट्सएप के माध्यम से सम्पर्क करें - 8120032834* 
 आपकी जिज्ञासा का यथा संभव सटीक और प्रामाणिक आर्ष सिद्धान्तों पर आधारित समाधान प्रेषित किया जाएगा।
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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...