🕉 📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-१०*📕🐚
💢💢 *उमा प्रसङ्ग -02* 💢💢
(श्री शिव कथा श्रीराम कथा का मॉडल)
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गोस्वामीजी रामकथा का आरंभ शिव चरित से करते हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि
*शिवकथा रामकथा की पूर्वानुकृति अर्थात माॅडल है।* आज भी बड़ी आकृति मूर्ति, मंदिर आदि के निर्माण के पूर्व निर्माता कलाकार उसका माॅडल बनाते हैं । *शिवकथा रामकथा का वही माॅडल है।*
इसलिए पूरा शिवचरित कहने के बाद भरद्वाज जी की प्रसन्नता को देखकर याज्ञवल्क्य जी कहते हैं –
*अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा।तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा।।*
*सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं।।*
*बिनु छल विस्वनाथ पद नेहू।राम भगत कर लच्छन एहू।।*
*सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सति असि नारी ।।*
*पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई।।*
*प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरम तुम्हार।सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार।।*
*मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला।।*
उपर्युक्त प्रसंग से भी यह सिद्ध होता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी के मत में शिवचरित में राम-कथा के स्वरूप दर्शन होते हैं।
*अब बहुत लोगों के मन में यह सहज प्रश्न खड़ा होता है कि वैष्णव तुलसीदास जी को यहाँ शिवचरित को इतना विस्तार देने की क्या आवश्यकता थी ?*🤔
आइये, अब विश्लेषण करते हैं कि शिवचरित रामचरित का माॅडल कैसे है ।🙂
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*पार्वती भूधरसुता के रूप में अवतरित होती हैं-*
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाही।
जनमीं पारबती तनु पाई।।
*और*
*सीताजी भूसुता के रूप में –*
सीय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि। धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचार ।।
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*पृथ्वी परोपकारिणी और क्षमारूपा है,वैसे ही पर्वत भी-* संत,विटप,सरिता,गिरि,धरनी।परहित हेतु सबन्ह कै करनी।।
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*शिव-पार्वती विवाह में श्रीराम कारण बनते हैं-*
अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।जाइ विवाहहु सैलजहि यह मोहि माँगे देहु।।
*तो सीता विवाह में पार्वती का वरदान सहायक होता है –*
सुनु सिय सत्य असीस हमारी । पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।
*और साथ साथ शंकर-चाप ही सीता राम विवाह का हेतु है।*
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*सीता जगजननी हैं और पार्वती भी –*
जनकसुता जग जननि जानकी।
जगत जननि दामिनि दुति गाता।।
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*राम और शिव दोनों सहज समरथ भगवाना हैं, ब्रह्म हैं, वेदस्वरूप हैं, अज, निर्गुण, निर्विकल्प और निरीह हैं।*
राम के अनेक उदाहरण हैं ।
शिव के लिए -
*निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं।*
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*भवानी और शंकर श्रद्धा और विश्वास रूप हैं तो सीता राम गिरा-अर्थ के रूप में –*
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरुपिणौ।
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
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*राम सीता का परित्याग कर रावण वध करते हैं तो शिव सती का परित्याग कर मदन-दहन।*
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*इस प्रकार दोनों कथाओं का समंजन गोस्वामी जी की अद्भुत कथा शैली की देन है और उपर्युक्त संदर्भ से यह ज्ञात हुआ कि शिवचरित और रामचरित अन्योन्याश्रित हैं।*
*गोस्वामी जी की यह भावधारा अत्यंत प्रासंगिक है। शैव और वैष्णव का ऐसा कथात्मक संयोजन अन्यत्र दुर्लभ है।रामचरितमानस की यह असाधारण विशेषता है ।*
*श्री गोस्वामी तुलसीदास जी उमाचरित प्रकरण को आगे बढाते हुए* कहते हैं कि –
*सती मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा।।*
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यह ध्यान दीजिए
*यह सनातन सत्य है कि योगाग्नि से शरीर जला देने पर पुनर्जन्म नहीं होता।जीव हरि पद में लीन हो जाता है।*
यहाँ इसीलिए *शिव पद में अनुराग माँगा।पद में अनुराग होना भक्ति है और सतीजी शिव भक्त ही हैं ।*
यहाँ शिवपद भक्त्यात्मक ही है । *अगर मात्र शिव पद होता तो उससे मोक्षादि ज्ञान विषयक अर्थ लगाया भी जा सकता था।*
सच तो यह है कि *भगवान श्रीराम ने उनके अपराध को क्षमा करते हुए उनके शरीर परित्याग की प्रार्थना को सुन लिया ,अतः यहाँ भी उन्हीं से “हरि सन वरु मागा”।*
यहाँ दूसरा उद्देश्य यह है *चाहे जितना भी जन्म लेना पड़े, हरेक जन्म में भगवान शिव के चरणों में ही अनन्य प्रीति हो।*
सतीजी जानती हैं कि *भगवान शिव श्रीराम के अनन्य प्रिय हैं।भगवान के वचन को वे कभी नहीं टालेंगे। अतः हरि से वर माँगा ।*🙂
*शिव भक्ति भगवान् श्रीराम की कृपा से ही मिलती है ।और उनके चरणों में अनन्य भक्ति तो बिना राम की कृपा से सर्वथा असंभव है ।*
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संत कहते हैं कि *सती विरहानल, यज्ञानल, क्रोधानल और योगानल में जलीं । यही हेतु है कि अत्यंत शीतलालय हिमालय पर आकर अवतरित हुईं ।*🙂
एक बात और है *जब शिव हिमालय में स्वयं तपस्यारत थे तो उन्हें प्राप्त करने के लिए हिमालय के गेह में ही आना सर्वथा अनुकूल था ।*🙃
पंडित विजयानंद त्रिपाठी कहते हैं कि *चैत्र शुक्ल नवमी को त्रेता युग के आदि में अर्ध रात्रि के समय भगवती का जन्म हुआ।*
वैसे यह कहने में कि *शिव पद अनुराग की प्राप्ति के लिए ही भगवती हिमालय पर आयीं और भगवान राम से वर की याचना फलीभूत हुई ,* कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
*उनके हिमालय पर आने से सकल सिद्धि संपत्ति वहाँ छा गईं।*
भगवती के जन्म के समाचार सुनकर नारद मुनि वहाँ आये। गोस्वामी जी *वहाँ चार बार उनके चरणों का* उल्लेख करते हैं –
*सैलराज बड़ आदर कीन्हा।*
*पद पखारि बर आसनु दीन्हा।।*
*नारि सहित मुनि पद सिरु नावा।*
*चरन सलिल सब भवनु सिंचावा।।*
*निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना।सुता बोलि मेली मुनि चरना।।*
यहाँ मुनि के आगमन पर शैलराज ने पद प्रक्षालन कर उन्हें आसन प्रदान कर आदर दिया ।फिर पति पत्नी ने उनके चरणों में सिर नवाया। पादोदक से पूरे घर को सिंचित किया क्योंकि विप्रचरण तीर्थ सद्गतिदायक होता है । शास्त्रानुसार-
*पृथ्वी में जितने तीर्थ हैं वे सब सागर में रहते हैं और सागर में जितने तीर्थ हैं वे सब विप्र के दाहिने पाँव में रहते हैं-*
पृथिव्यां यानि तीर्थानि तानि सर्वाणि सागरे।
सागरे यानि तीर्थानि पदे विप्रस्य दक्षिणे।।
*महर्षि नारद तो महामुनि, अनन्य हरि भक्त हैं ।इनके चरणोदक से न केवल घर पवित्र होता है वरन वहाँ रहने वाले जीवों का भी परम कल्याण होता है ।*
बाद में हिमालय ने सुता के सर्वविध कल्याण के लिए मुनि के चरणों में डाल दिया ।
💐🙏🏻💐 जारी
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ॐ गं गणपतये नमो नम:
श्री सिद्धि विनायक नमो नम:
अष्ट विनायक नमो नम:
मंगल मूर्ति मोरया।। ⛳
*जय श्री गौरीसुत महाराज की⛳*
आपका अपना
"पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
राष्ट्रीय प्रवक्ता
राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
8120032834/7828657057