Friday, July 17, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-13


🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-13*📕🐚
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
💢💢 *उमा शिव विवाह महत्व-०२* 💢💢 विश्राम भाग
➖➖➿➿➿➿➿➖➖
 🗣
       *शिव पार्वती का विवाह हो चुका है,और इस मिलन से एक तरफ तो सकाम कर्म की प्रेरणा से युक्त देवताओ के अभीष्ट की सिद्धि हुई और स्वामी कार्तिक जैसे पुरुषार्थ परायण सेनापति को पाकर उनकी सुख सम्पति लौट आई,वही दूसरी तरफ ज्ञानी और भक्तो के लिए भी यह मिलन कल्याणकारी सिद्ध हुआ |*
*जहॉ सकाम कर्मियो के लिए उनके शारीरिक मिलन की अपेक्षा थी, वही भक्तो की दृष्टि मे उनके मानसिक मिलन का महत्व है |*
भगवान् भोले भंडारी के मन मे श्रीरामचरितमानस की रचना युगो पूर्व हो चुकी थी और *उसके प्रथम संस्करण को वो लोमश ऋषि द्वारा काकभूषुण्डि जी को प्रदत्त कर चुके थे* पर यह पूरी तरह प्रचलित नही हो पायी थी | *सती जो पार्वती से पहले थी,उनमे बौद्धिक अंहकार होने के कारण इसकी अधिकारिणी  नही बन सकी थी |*
दक्ष तन्या के सामने श्रीसरकारजी के कथा का प्राकट्य नही हो पाया पर *अब वही सती अपनी त्रुटियो को समझकर अटल हिमाचल के यहॉ श्रद्धा बनकर पार्वती रुप मे आयी और शिव की अर्धांगिनि बन गयी है |* एक दिन कैलास के शिखर पर बैठे भोले भंडारी से क्या कह रही है देखे-
*है दक्षसुता की देह नही,अब तो सेवा मे गिरिजा है | फिर पूर्व जन्म की उलझन को प्रभु सुलझा दे तो अच्छा है ||*
यही पर नही रुकती आगे भी कहती हैं-
*हो भक्त भगीरथ पर प्रसन्न,तत्क्षण उसको गंगा दी थी|तो मैने भी की देह भस्म,मेरी इस बलि पर ध्यान करे |*
*श्रीरामकथा रुपी गंगा अब मेरे लिए प्रदान करे ||*
देवो के देव महादेव यह सुनकर मुस्काए और देखे कि 
*भक्ति गीत से बंजर मन मे, नव नव अंकुर आए | भक्ति प्रेम की रस वर्षा से,चमन मे फूल उग आए ||*
बाबा ने सोचा कि माता पार्वती के अन्त:करण मे श्रीसरकारजी की कथा श्रवण की असीम उत्कंठा जागृत है यही सु समय है -
*जब भाव समर्पण मन से है,वहॉ तर्क विवेक नही होता | आस्था का जहॉ विसर्जन है,वहॉ खंडित विश्वास नही होता ||*
अब भोले भंडारी कहते है कि ध्यान से कथा सुने पार्वती जी आप , पर यह भी ध्यान रखे-
*सम्पूर्ण नही अपूर्ण होता,सूरज न कभी आधा होता | जो चक्षु दोष से पीडित हो,उसे सत्य का आभास ही नही होता ||*
यह कहते हूए शिव जी ने मानस का विवरण मईया को दिए |
*क्योकि रामचरितमानस का अवतरण विश्वास युक्त ह्रदय मे ही संभव है और उसे श्रवण करने के लिए ह्रदय मे सच्ची श्रद्धा भावना की आवश्यकता है |* 
💐
*अत: शिव पार्वती का मिलन न केवल स्वार्थपरायण देवताओ के हित के लिए हुआ; अपितु उसके द्वारा समाज के देशकालातीत सत्य रुपी मानस की उपलब्धि हुई |*
💐🙏🏻💐
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻
 
*_कोणस्थ पिंगलो बभ्रु: कृष्णो रौद्रोन्तको यम:।_*

*सूर्यपुत्र शनिदेव की जय⛳*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Thursday, July 16, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-12

🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-12*📕🐚
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
💢💢 *उमा शिव विवाह महत्व-०१* 💢💢
➿➿➿➿➿➿➿➿
 🗣
      *शिव-पार्वती विवाह का बड़ा ही आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व है । दोनों  विदा होकर कैलास आ गये । समय पाकर षडानन का जन्म हुआ, जिन्होंने तारकासुर का वध किया ।*
गोस्वामी तुलसीदासजी इस प्रसंग की फलश्रुति बताते हुए कहते हैं –
*यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहिं। कल्याण काज बिबाह मंगल सर्वदा सुख पावहीं।।*
*चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु। बरनै तुलसीदास किमि अति मतिमंद गवाँरु।।*
अर्थात् शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गायेंगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पावेंगे।
गिरिजापति महादेव जी का चरित्र समुद्र के समान अपार है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यंत मंदबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है।
*शक्ति और शक्तिमान की सर्वात्मसत्ता का संबंध अभिन्न है ।उपर्युक्त कथा में श्रीपार्वती को हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ से उत्पन्न कहा गया है । वैदिक कोश में ‘निघंटु’ के अनुसार मैना,मेनका शब्दों का अर्थ ‘वाणी’और ‘गिरि’, पर्वत आदि शब्दों का अर्थ मेघ होता है ।अमर सिंह ने -‘अपर्णा पार्वती दुर्गा मृडानी चण्डिकाम्बिका’ में सबको एक सा ही कहा है।वे जगन्माता हैं। वे जगत का पालन करती हैं ,इस काम में मेघ भी उनका सहायक हुआ। हिमालय का एक अर्थ मेघ भी है ।यास्क ने निरुक्त के छठे अध्याय के अंत में हिम का अर्थ जल लिया है -‘हिमेन उदकेन'(नि•अ•6)।*
ऋग्वेद का कथन है-‘गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षती
*माता से संतति का आविर्भाव होता है । मेनका(मैना)-वेदवाणी ने उनका ज्ञान लोगों को कराया ।वेदों ने हमें सिखाया है कि परमात्मा अपने को स्त्री और पुरुष -दो रूपों में रखते हैं,जिससे प्राणियों को ईश्वर के मातृत्व -पितृत्व दोनों का सुख प्राप्त हो।’त्र्यम्बकं यजामहे’ (यजुर्वेद)।इसका अर्थ है कि हम दुर्गा सहित महादेव की पूजा करते हैं ।*
भारतीय सनातन परंपरा में शिव विवाह शक्ति और शक्तिमान का सम्यक सम्मिलन है ।शक्ति और शक्तिमान का यह मिलन मूलतः अभिन्न है ।
परंतु लीला हेतु *शिव-पार्वती, सीता-राम, कृष्ण-रुक्मिणी आदि के विवाह संस्कार शास्त्रों में वर्णित हैं ।*
शिव-पार्वती के इस *अभिन्न सम्मिलन को ही अर्द्धनारीश्वर कहा गया है । यानी ऐसा शरीर जिसमें आधा भाग स्त्री का हो और आधा ही पुरुष का।*
ध्यान दीजिये👀👁️
*अब यह वैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य साबित किया गया है। चिकित्सा विज्ञान इसे हर्मीफ्रोडाइट कहते हैं ।*
“शैव सिद्धांत के अनुसार *शिव की दो शक्तियाँ हैं -समवायनी और परिग्रहरूपा।समवायनी शक्ति चिद्रूपा, निर्विकारा और परिणामिनी है ।इसे शक्ति तत्त्व के नाम से कहते हैं ।वह शक्ति परम शिव में नित्य समभाव से रहती है। अतः शिव-शक्ति का संबंध तादात्म्य-संबंध है ।वही शक्ति शिव की स्वरूपा शक्ति है । इससे भिन्न जो परिग्रह शक्ति है वह अचेतन और परिणामिनी है ।वह परिग्रह शक्ति शुद्ध और अशुद्ध-भेद से दो प्रकार की है।शुद्ध शक्ति का नाम महामाया और अशुद्ध शक्ति का नाम माया है । महामाया सात्विक जगत का उपादान कारण है और माया प्राकृत जगत का उपादान कारण है।”* 
दर्शन सिद्धांत के अनुसार *शिव के बिना शक्ति असित (काली) और शक्ति के बिना शिव शव हो जाते हैं ।काली  की प्रतिमा का प्रतीकार्थ यही है।जब शिव शक्ति के बिना शव हो गए तो शक्ति आश्चर्य मुद्रा में जिह्वा बाहर कर शिव रहित काले वर्ण की (असित)   काली हो गई।*
यह लोक के लिए मानो प्रतीकात्मक बोध कथा है कि *जीवन के सर्वविध कल्याण के लिए शिव और शक्ति का सम्यक मिलन अनिवार्य है अन्यथा सृष्टि असंतुलित हो जाती है ।*
आज के युग में नर-नारी का संघर्ष,असमानता आदि की व्यथा कथा इसी मूल दर्शन पर आधारित है । *हमें समझना होगा कि दोनों का सम्यक सहयोग दर्शन ही सृष्टि को सत्यं-शिवं-सुंदरम् का स्वरूप प्रदान कर सकता है ।*
     💐🙏🏻💐 प्रसङ्ग जारी⏭️
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻
 
*_ॐ नमो लक्ष्मी दैवये नमः_*

*माता लक्ष्मी की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

जाति या वर्ण नहीं ज्ञान है सर्वोपरि


•» *जाति या वर्ण नहीं ज्ञान है सर्वोपरि* «•
..…........................................
..….........................................................
 🗣↤ आदरणीय चिन्तनशील मित्रों, ↦
        *भारतीय संस्कृति में सदा से जाति को नहीं,योग्यता को ही सर्वोपरि माना गया है | जाति को मूल्य देने से मानव और उसकी मानवता की उपेक्षा होती है|जो जातिवादी होते हैं,वे समग्र मानव जाति की महत्ता का अवमूल्यन करते हैं| वे मानव अस्तित्व में अविश्वास और उसके प्रति अनास्था की भावना से ग्रस्त होते हैं,फलत: मानवता के उच्च आदर्शो के प्रति वे कभी आस्थाशील नहीं होते |*
*जाति के आधार पर योग्यता का मूल्यांकन संकीर्ण दृष्टि का परिचायक है | सच पूछिए तो मनुष्य,जाति के आधार पर नहीं वरन् योग्यता के आधार पूजनीय होता है, बस आपस में लड़ें न इसलिए वर्ण व उनमें जातिगत व्यवस्था व परंपरा तथा कुछ अंतर व दायित्वों का निर्माण किया गया है*
कबीर दास ने कहा है, *जाति न पूछो साधु की,पूछ लीजिए ज्ञान |*
कबीर जी स्वंय जुलाहा थे,परन्तु ज्ञान के कारण वे सर्वजन पूजनीय बन गये | रविदास या रैदास जी जाति के चमार थे,पर ज्ञानदीप्त होने के कारण सर्वजनप्रणम्य हो गये | *पूजनीयता के लिए शर्त है ,साधु या ज्ञानी बनने की ,न कि उच्च जाति या वर्ण से ताल्लुकात होने की|* लोक में भी कहावत प्रचलित है, *जो ज्ञान का चमत्कार दिखलाता है,वही नमस्कार प्राप्त करता है |* 
साधु वही होता है,जो ज्ञान का साधक होता है,धार्मिक,दयालु, शुद्धाचार और शिष्टाचार से सम्पन्न धर्मपरायण होता है, *जिसके समस्त कार्य विधि के अनुकूल और शास्त्रसम्मत होते हैं |*
गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि *उन्होने चार वर्णो की सृष्टि गुण और कर्म के आधार पर की है,न कि जन्म के आधार पर:* 
चातुर्वर्ण्यं मया सृृष्टं गुणकर्मविभागश: |
*भगवान् महावीर ने भी *उत्तराध्ययनसूत्र* में लिखा है कि कर्म से ही कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य,और शूद्र होता है | भगवान् बुद्ध ने भी *धम्मपद* के ब्राह्मण वर्ग में ब्राह्मण की परिभाषा करते हुए जाति को मूल्य न देकर ज्ञान को मूल्य दिया है | उन्होने कहा है : *जो गम्भीर प्रज्ञावाला,मेधावी,सत्,और असत् का विवेक रखनेवाला तथा परमार्थ का ज्ञाता है,वही ब्राह्मण है |* 
जब ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित होती है,तब जाति,वर्ण,लिंग आदि सब कुछ भस्म हो जाता है,जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि लकड़ियो को जलाकर राख कर देता है | श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय ४ श्लोक ३७ मे भगवान् कहते हैं-
*यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ||*
इससे स्पष्ट है कि *अगर कोई हिन्दु व्यक्ति,चाहे वह अनुसूचित जाति या जनजाति का ही सदस्य क्यो न हो,सबसे पहले वह मानव है और मानव होने के साथ ही यदि साधु या ज्ञानी है,तो वह सर्वजन के लिए आदरणीय किसी भी उच्चासन पर विराचमान हो सकता है |*
*भारतवर्ष की यही सांस्कृतिक विशिष्टता रही है कि वह परम्परागत या कुलक्रमागत जाति,वर्ग,वर्ण या लिंग को मूल्य न देकर ज्ञान को मूल्य देता आ रहा है | इसलिए इस देश मे प्राचीन और अर्वाचीन काल में भी अनेक ऐसे व्यक्ति उच्चपदो पर या समाज मे सर्व मान्य और पूजनीय हुए हैं,जो अनुसूचित जाति और जन जाति के सदस्य रहें हैं |*
हम श्रीमद्भागवद्गीता 4-38 के अनुसार कह सकते है कि *ज्ञान से बढकर कोई पवित्र वस्तु नही है - न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते* गीता के अध्याय ५ श्लोक १८ के अनुसार *ज्ञानी वही होता है जो विद्या विनय सम्पन्न ब्राह्मण,गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल को समान दृष्टि से देखता है |*
🗣
 *इसलिए हम कह सकते हैं कि किसी भी व्यक्ति की योग्यता की श्रेष्ठता उसका जन्मना या जात्या तथाकथित ब्राह्मण या उच्चवर्ण का होना नही वरन् उसका पवित्रात्मा या ज्ञान विज्ञान तृप्तात्मा होना है | ज्ञान यज्ञ से भगवान् की उपासना का अधिकार किसी भी मनुष्य को स्वंय भगवान् द्वारा ही प्राप्त है |ज्ञानयज्ञ की योग्यता से सम्पन्न कोई भी विधिज्ञ और शास्त्रज्ञ हिन्दु श्रेष्ठ है फिर चाहे वह किसी वर्ण का हो जन्म से |*
🔰🔰🔰🔰🔰🔰🔰🔰🔰🔰
*मनन कीजिएगा जरुर*
 ¯°·._.•  •._.·°¯
╰☆☆ *सुप्रभात* ☆☆╮
🙏🏻🌹
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻
 
*_ॐ नमो लक्ष्मी दैवये नमः_*

*माता लक्ष्मी की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Wednesday, July 15, 2020

एकादशी उत्पत्ति कथा प्रसंग

*कामिका एकादशी व्रत* (१६-०७-२०२०) पर विशेष
➖➖➖➖➖➖
*एकादशी उत्पत्ति कथा प्रसंग*
➖➖➖➖➖➖
*ஜ۩۞۩ஜ* 
*एकादशी एक ऐसा नाम जो वैष्णव समाज के लिए सुपरिचित है।*
यह एक ऐसा त्योहार है जिसके फल का विवरण कुछ इस तरह से मिलता है -
*काशी सेवै अब्द शत, अचवै वारि केदार। उभय सहस गो दान दे, तीरथ अटै अपार।।*
*होम यज्ञ करि शत सहस्र, विप्र जिमावै कोय। एकादशी ब्रत के रहे, सम नहिं ताके होय।।*
एकादशी व्रत के फल पर इतना ही नही कहा गया, यह भी कहा गया है -
 *जो ब्रत सहित विधान, रहै राखि विश्वास उर। आवा अन्त विमान, वसै विष्णु पुर जाइ सो।।*
इसके अलावे भी इस व्रत पर बाते कही गयी हैं। यह व्रत एक वर्ष मे चौबीस बार किया जाता है,अर्थात प्रत्येक महीने के दोनो पक्षों में और सब का अपना अपना माहात्म्य है।
*एेसे महत्वपूर्ण व्रत की अर्थात एकादशी की उत्पत्ति कथा हम सभी को जाननी चाहिए*
तो आए पढते हैं एकादशी उत्पति वर्णन----
🗣
सतयुग मे शंखासुर का पुत्र *मुर* अपने पिता के वध होने पर वन मे तपस्या करके ब्रह्मा जी से वर प्राप्त किया कि सुरलोक,विष्णु लोक,मुनिलोक,जितनी सृष्टि रची गयी है, उससे अजयेता हासिल हो।
*इस वर के प्रभाव से अपनी भुजाओं द्वारा सब राजाओ को जीत करके मानवो पर विजय हासिल करने के बाद  इंद्र पर भी विजय प्राप्त कर वह 'मुर" अत्याचार करने लगा और उन सभी विजित प्रदेश पर अपना शासन जमाया| इससे घबराकर देवताओ सहित इंद्र महादेव के पास गए जहॉ महादेव ने श्वेत लोक मे विष्णु जी के पास जाने को कहा। जहॉ पहुच कर देवताओ ने श्रीविष्णु की स्तुति की और अपने कष्ट को बतलाया। तब विष्णु ने मुर से युद्ध करना स्वीकार किया, सभी देव इन्द्र सहित युद्ध के लिए भगवान के साथ निकल पडे, यह सुनकर वह राक्षश मुर भी अपनी सेना के साथ सन्मुख आ गया। दोनो दल के बीच युद्ध शुरु हो गया, युद्ध मे मुर भारी पड़ने लगा, यह देख इन्द्र भाग चलें। अब मुर श्री विष्णु भगवान के साथ युद्ध करने लगा, जो सहस्र वर्ष चला जिससे कोई परिणाम नही निकला, तब श्रीविष्णु जी युद्ध छोड़कर भाग खडे हूए और बद्रीवन मे सिह नामक गुफा मे जाकर छिप गए जिसका विस्तार योजन भर था और प्रवेश द्वार एक ही था। श्रीविष्णु जी को प्रवेश करते देख कर मुर भी सेना सहित उसमे घुस गया। यह देखकर भगवान माया वश निद्रावश होकर सो गए |तब भगवान के वक्ष से एक कन्या उत्पन्न हुयी। जिसमे अपार बल और तेज था,चार भुजाओं से युक्त दिव्य शरीर सुन्दर वस्त्र धारी देवी को देखकर राक्षसो ने इन्ही से युद्ध करना चालू कर दिया | देखते देखते वहॉ चारो ओर अग्नि प्रकट हुयी। बाहर निकलने का मार्ग अवरोध हो गया और सभी राक्षस मुर सहित उसमे जल कर मर गए | गुफा के बाहर इन्द्र आदि देव खडे थे, उन सबको गुफा से बहुत अधिक सुगंध निकली,जिसे शुभ संकेत समझ कर वे सभी खुश होकर गुफा मे प्रवेश किए और देवी को देखकर स्तुति करना चालू किए। स्तुति समाप्त होने पर भगवान जाग पड़े और उस देवी से यू कहा - आपने देवताओं का कल्याण किया है जो इच्छा हो मांग लीजिए, पर उस देवी ने कुछ भी मांगने से इंकार कर दिया और बोलीं कि आपकी जो इच्छा हो वह दे दीजिए। तब श्री विष्णु जी ने इस देवी को एकादशी नाम दिया और अपने लोक मे वास करने का अधिकार दिया साथ साथ नवों निधि तथा सिद्धि देने वाली,सर्वमनोकामना पूर्ण करने वाली और भय हरने वाली बताते हूए कहा कि जो भक्त आपका व्रत करेगा उन्हे कभी कष्ट नही होगा।*
ऐसा कह कर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए। 
*तो यही है एकादशी उत्पति की कथा* 
🙏🏻
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻
 
*_ॐ सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितंच सत्ये ।_*
*_सत्यस्य सत्यामृत सत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥⛳_*

*सत्यनारायण भगवान की जय⛳*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-11


🕉 📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-11*📕🐚
💢💢 *उमा प्रसङ्ग -03* 💢💢 विश्राम भाग
➖➖➖➖➖➖
 🗣
     मुनि नारदजी ने गिरिजा के गुणों का वर्णन करते हुए उनके होने वाले पति के बारे में जो कुछ कहा उससे उनके माता पिता बड़े दुःखी हुए, परंतु *“उमा हरषानी”* । क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि वे शिव के लिए ही आयीं हैं ।
*देवर्षि के वचन असत्य नहीं हो सकते,यह विचारकर पार्वतीजी ने उन वचनों को हृदय में धारण कर लिया ।* गोस्वामी जी लिखते हैं –
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू।
*नारदजी के वचन को हृदय में धारण करने के कारण शिव पद कमल में अनुराग हुआ ।* नारदजी ने स्पष्ट कहा था - *“अस स्वामी एहि कहँ मिलहि”।* गुरु और संत की वाणी में श्रद्धा होने से प्रभु पद प्रीति सहज रूप में उत्पन्न होती है । पुनः पूर्वजन्म की वह प्रार्थना भी सार्थक हो रहीहै-
*जनम जनम सिव पद अनुरागा।*
नारदजी के जाने पर मैना जी बहुत दुःखित हुईं और कहा कि पुत्री का विवाह वहाँ कीजिए जहाँ सारी अनुकूलताएँ हों।
*गोस्वामी जी जो चौपाई यहाँ देते हैं वह आज के संदर्भ में और प्रासंगिक है।* यथा-
*जौं घर बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा।*
अर्थात् जो हमारी कन्या के अनुकूल घर मतलब आर्थिक संपन्नता ,वर के स्वभाव और सामर्थ्य तथा कुल मतलब वंश का शील,सदाचार आदि उत्तम हो तो विवाह कीजिए । *इन तीनों के अनुकूल होने पर भी “सुता अनुरुपा”बहुत मह्त्त्वपूर्ण है, जिसे आज के इस भौतिक युग में अवश्य विचार किया जाना चाहिए ।*
माता पिता को दुःखी देखकर पार्वती जी ने उन्हें बहुविध समझाया ।अंततः वेदशिरा ऋषि ने आकर सबको समझाकर प्रबोधित किया । 
गोस्वामीजी लिखते हैं –
*उर धरि उमा प्रानपति चरना।जाइ बिपिन लागीं तपु करना।।*
*अति सुकुमार न  तनु तप जोगु। पति पद सुमिरि तजेउ सब भोगू।।*
*नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा।।*
यहाँ गोस्वामी जी ने *तप के आरंभ में ही तीन बार भगवान शिव के पद का उल्लेख करते हुए उनमें पार्वती जी के अतिशय प्रेम का वर्णन किया है।* 
यथा- *“प्रानपति चरना”, “पति पद”और”नित नव चरन उपज अनुरागा”।*
मानस-पीयूषकार कहते हैं कि चरण हृदय में रखने का भाव यह है कि *गुरुजनों के चरणों की पूजा होती है ।दास्य भाव में चरणों से ही देवता के रूप का वर्णन हुआ करता है । चरणों की आरती चार बार होती है और अंगों की एक-एक होती है , क्योंकि चरण के अधिकारी सब हैं ।*
*अपराध क्षमा करने के लिए चरण ही पकड़े जाते हैं ।सती तन में जो अपराध हुआ था, वह यहीं क्षमा कराएँगे।*
*यहाँ पार्वतीजी तप के आरंभ में शिव-पद अनुराग की बात इसलिए करती हैं कि जहाँ चरण होता है वहीं शरीर होता है। पति-पद-ध्यान ही यहाँ मुख्य तप है ।आहार- नियंत्रण और आहार-त्याग ध्यान की दृढ़ता के लिए है। दास्य भाव में चरणों की उपासना ही मुख्य है ।*
एक संत कहते हैं कि *चरण का अर्थ आचरण भी होता है। अर्थात् पति को जो आचरण (अर्थात् तप)अत्यंत प्रिय था उसे स्वयं करने लगीं।*
इस क्रम में भगवान् शिव भगवान श्रीराम को हृदय में धारण कर पृथ्वी पर विचरने लगे।वे उन्हीं के गुणों का वर्णन करते हुए मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते रहे । *इस प्रकार बहुत दिन बीतने पर श्रीराम के चरणों में नित नई प्रीति हो रही है-*
एहि बिधि गयउ काल बहु बीती ।
नित नै होइ राम पद प्रीति ।।
*उधर उमा को पति-पद में “नित नव चरन उपज अनुरागा।” की स्थिति है । इस प्रकार दोनों में चरणों के प्रति अनुराग उत्पन्न हो रहा है।*
आगे के प्रसंग में 
*जब सप्तर्षि पार्वतीजी के पास आकर भगवान शिव की निन्दा और भगवान् विष्णु की प्रशंसा करते हैं तो पार्वती जी किसी भी स्थिति में नारद के उपदेश को त्यागने से इंकार करती हैं।* तब शिव के प्रति अनन्य निष्ठा को देखते हुए सप्तर्षि ने कहा –
*तुम माया भगवान् शिव सकल जगत पितु मातु ।*
*नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु।।*
यहाँ सप्तर्षियों का मन वचन और कर्म तीनों से भवानी के चरणों में अनुराग दिखाया है।
*“पुनि पुनि हरषत” से मन,”तुम माया भगवान” से वचन और “नाइ चरन सिर” से कर्म का अनुराग कहा ।*
शिव पुराण में भी प्रणाम और जय जयकार का वर्णन है ।
*आगे के प्रसंग में हिमाचल ने  शिव की स्वीकृति के बाद लग्न पत्रिका सप्तर्षियों को दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की* –
पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही।
गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही।।
इसी प्रकार बारात के लिए आदेश देने पर शिव के गणों ने उनके चरणों में शीश नवाया-
*प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए।*
उन गुणों का वर्णन करते हुए गोस्वामी जी कहते हैं –
*बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू।*
शिव जी कि विचित्र वेष से घबड़ाए पति-पत्नी को जब नारद ने पार्वती के पूर्व जन्म के रहस्य को उद्घाटित किया तो दोनों ने आनंदमग्न होकर पार्वती के चरणों की बार बार वंदना की-
*तब मयना हिमवंतु अनंदे।पुनि पुनि पारबती पद बंदे।।* 
यहाँ पार्वती के ऐश्वर्य जानकर भगवती भाव में मैना और हिमाचल ने आनंद भाव से चरण-वंदना की।
*मंडप पर भगवती पार्वती की शोभा वेद,शेषजी और सरस्वती जी भी नहीं कर पाते।वहाँ पार्वती जी संकोच के मारे पति(शिवजी) के चरण कमलों को देख नहीं सकतीं-* अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकर तहाँ ।।
*यहाँ संकोच सहज और स्वाभाविक है ।*
बहुत प्रकार का दहेज देकर फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने और मैना ने शिवजी के चरण कमलों में प्रणाम किया –
1- *संकर चरन पंकज गहि रह्यो।।*
2- *पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो।।* 
आगे भी अपनी बेटी के बारे में विनती कर मैना भगवान् शिव के चरणों में शीश नवाकर घर गयीं-
*गवनी भवन चरन सिरु नाई।।*
घर जाकर बेटी को उपदेश दिया –
*करेहु सदा संकर पद पूजा ।नारिधरमु पति देउ न दूजा।।*
विदाई के समय तो यह स्थिति आयी कि परम प्रेम के कारण माता मैना पार्वती के चरणों को पकड़ कर गिर पड़ती हैं –
*पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना।*
        💐🙏🏻💐
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻
 
*_ॐ सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितंच सत्ये ।_*
*_सत्यस्य सत्यामृत सत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥⛳_*

*सत्यनारायण भगवान की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Tuesday, July 14, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-१०


🕉 📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-१०*📕🐚
💢💢 *उमा प्रसङ्ग -02* 💢💢
(श्री शिव कथा श्रीराम कथा का मॉडल)
➖➖➖➖
 🗣
     गोस्वामीजी रामकथा का आरंभ शिव चरित से करते हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि 
*शिवकथा रामकथा की पूर्वानुकृति अर्थात माॅडल है।* आज भी बड़ी आकृति मूर्ति, मंदिर आदि के निर्माण के पूर्व निर्माता कलाकार उसका माॅडल बनाते हैं । *शिवकथा रामकथा का वही माॅडल है।*
इसलिए पूरा शिवचरित कहने के बाद भरद्वाज जी की प्रसन्नता को देखकर याज्ञवल्क्य जी कहते हैं –
*अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा।तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा।।*
*सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं।।*
*बिनु छल विस्वनाथ पद नेहू।राम भगत कर लच्छन एहू।।*
*सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सति असि नारी ।।*
*पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई।।*
*प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरम तुम्हार।सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार।।* 
*मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला।।*
उपर्युक्त प्रसंग से भी यह सिद्ध होता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी के मत में शिवचरित में राम-कथा के स्वरूप दर्शन होते हैं।
*अब बहुत लोगों के मन में यह सहज प्रश्न खड़ा होता है कि वैष्णव तुलसीदास जी को यहाँ शिवचरित को इतना विस्तार देने की क्या आवश्यकता थी ?*🤔
आइये, अब विश्लेषण करते हैं कि शिवचरित रामचरित का माॅडल कैसे है ।🙂
🌷
*पार्वती भूधरसुता के रूप में अवतरित होती हैं-*
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाही।
जनमीं पारबती तनु पाई।।
*और* 
*सीताजी भूसुता के रूप में –*
सीय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि। धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचार ।।
💐
*पृथ्वी परोपकारिणी और क्षमारूपा है,वैसे ही पर्वत भी-* संत,विटप,सरिता,गिरि,धरनी।परहित हेतु सबन्ह कै करनी।।
💐
*शिव-पार्वती विवाह में श्रीराम कारण बनते हैं-*
अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।जाइ विवाहहु सैलजहि यह मोहि माँगे देहु।।
*तो सीता विवाह में पार्वती का वरदान सहायक होता है –*
सुनु सिय सत्य असीस हमारी । पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।
*और साथ साथ शंकर-चाप ही सीता राम विवाह का हेतु है।*
💐
*सीता जगजननी हैं और पार्वती भी –*
जनकसुता जग जननि जानकी।
जगत जननि दामिनि दुति गाता।।
💐
*राम और शिव दोनों सहज समरथ भगवाना हैं, ब्रह्म हैं, वेदस्वरूप हैं, अज, निर्गुण, निर्विकल्प और निरीह हैं।* 
राम के अनेक उदाहरण हैं ।
शिव के लिए -
*निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं।* 
💐
*भवानी और शंकर श्रद्धा और विश्वास रूप हैं तो सीता राम गिरा-अर्थ के रूप में –*
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरुपिणौ।
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
💐
*राम सीता का परित्याग कर रावण वध करते हैं तो शिव सती का परित्याग कर मदन-दहन।*
💐💐💐💐💐
*इस प्रकार दोनों कथाओं का समंजन गोस्वामी जी की अद्भुत कथा शैली की देन है और उपर्युक्त संदर्भ से यह ज्ञात हुआ कि शिवचरित और रामचरित अन्योन्याश्रित हैं।*
*गोस्वामी जी की यह भावधारा अत्यंत प्रासंगिक है। शैव और वैष्णव का ऐसा कथात्मक संयोजन अन्यत्र दुर्लभ है।रामचरितमानस की यह असाधारण विशेषता है ।*
*श्री गोस्वामी तुलसीदास जी उमाचरित प्रकरण को आगे बढाते हुए* कहते हैं कि –
*सती मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा।।*
🗣
यह ध्यान दीजिए
*यह सनातन सत्य है कि योगाग्नि से शरीर जला देने पर पुनर्जन्म नहीं होता।जीव हरि पद में लीन हो जाता है।*
यहाँ इसीलिए *शिव पद में अनुराग माँगा।पद में अनुराग होना भक्ति है और सतीजी शिव भक्त ही हैं ।*
यहाँ शिवपद भक्त्यात्मक ही है । *अगर मात्र शिव पद होता तो उससे मोक्षादि ज्ञान विषयक अर्थ लगाया भी जा सकता था।* 
सच तो यह है कि *भगवान श्रीराम ने उनके अपराध को क्षमा करते हुए उनके शरीर परित्याग की प्रार्थना को सुन लिया ,अतः यहाँ भी उन्हीं से “हरि सन वरु मागा”।*
यहाँ दूसरा उद्देश्य यह है *चाहे जितना भी जन्म लेना पड़े, हरेक जन्म में भगवान शिव के चरणों में ही अनन्य प्रीति हो।*
सतीजी जानती हैं कि *भगवान शिव श्रीराम के अनन्य प्रिय हैं।भगवान के वचन को वे कभी नहीं टालेंगे। अतः हरि से वर माँगा ।*🙂
*शिव भक्ति भगवान् श्रीराम की कृपा से ही मिलती है ।और उनके चरणों में अनन्य भक्ति तो बिना राम की कृपा से सर्वथा असंभव है ।*
🗣
संत कहते हैं कि *सती विरहानल, यज्ञानल, क्रोधानल और योगानल में जलीं । यही हेतु है कि अत्यंत शीतलालय हिमालय पर आकर अवतरित हुईं ।*🙂
एक बात और है *जब शिव हिमालय में स्वयं तपस्यारत थे तो उन्हें प्राप्त करने के लिए हिमालय के गेह में ही आना सर्वथा अनुकूल था ।*🙃
पंडित विजयानंद त्रिपाठी कहते हैं कि *चैत्र शुक्ल नवमी को त्रेता युग के आदि में अर्ध रात्रि के समय भगवती का जन्म हुआ।*
वैसे यह कहने में कि *शिव पद अनुराग की प्राप्ति के लिए ही भगवती हिमालय पर आयीं और भगवान राम से वर की याचना फलीभूत हुई ,* कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
*उनके हिमालय पर आने से सकल सिद्धि संपत्ति वहाँ छा गईं।* 
भगवती के जन्म के समाचार सुनकर नारद मुनि वहाँ आये। गोस्वामी जी *वहाँ चार बार उनके चरणों का* उल्लेख करते हैं –
*सैलराज बड़ आदर कीन्हा।*
*पद पखारि बर आसनु दीन्हा।।*
*नारि सहित मुनि पद सिरु नावा।*
*चरन सलिल सब भवनु सिंचावा।।*
*निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना।सुता बोलि मेली मुनि चरना।।*
यहाँ मुनि के आगमन पर शैलराज ने पद प्रक्षालन कर उन्हें आसन प्रदान कर आदर दिया ।फिर पति पत्नी ने उनके चरणों में सिर नवाया। पादोदक से पूरे घर को सिंचित किया क्योंकि विप्रचरण तीर्थ सद्गतिदायक होता है । शास्त्रानुसार-
*पृथ्वी में जितने तीर्थ हैं वे सब सागर में रहते हैं और सागर में जितने तीर्थ हैं वे सब विप्र के दाहिने पाँव में रहते हैं-*
पृथिव्यां यानि तीर्थानि तानि सर्वाणि सागरे।
सागरे यानि तीर्थानि पदे विप्रस्य दक्षिणे।।
*महर्षि नारद तो महामुनि, अनन्य हरि भक्त हैं ।इनके चरणोदक से न केवल घर पवित्र होता है वरन वहाँ रहने वाले जीवों का भी परम कल्याण होता है ।*
बाद में हिमालय ने सुता के सर्वविध कल्याण के लिए मुनि के चरणों में डाल दिया ।
        💐🙏🏻💐 जारी
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻
 
ॐ गं गणपतये नमो नम:
श्री सिद्धि विनायक नमो नम: 
अष्ट विनायक नमो नम:
मंगल मूर्ति मोरया।। ⛳

*जय श्री गौरीसुत महाराज की⛳*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०९


🕉 📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०९*📕🐚
💢💢 *उमा प्रसङ्ग -01* 💢💢
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
 🗣
        कथा विराम से आगे बढने से पहले *जरा पुनः उस प्रसंग की ओर लौटते हैं जहां श्री प्रभु राम की परीक्षा लेकर सती वट के वृक्ष के नीचे शिव जी बैठे हैं,* वहां सती जी के पूरे क्रिया से बाबा अवगत हो जाते हैं।
*पूरा सत्य जानने पर भगवान् शिव श्रीराम का स्मरण करते हुए कैलास के लिए प्रस्थान कर गये। रास्ते में आकाश वाणी सुनकर सती ने भगवान् शिव से बहुत प्रकार से पूछा ,परंतु वे मौन रहे । सती अत्यंत चिंतित हो गईं और अपनी करनी को याद करके सोचने लगीं कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं।*
भगवान् शिव उन्हें दुःखी देखकर मार्ग में सुंदर कथाएँ कहते हुए कैलास पहुँचे।वहाँ वटवृक्ष के नीचे पद्मासन में बैठ गए और उनकी अखंड और अपार समाधि लग गई ।
*सती इस घटना से अत्यंत दुःखित होकर कैलास पर रहने लगीं ।सतीजी की ग्लानि कुछ कही नहीं जा सकती। उन्होंने दीनदयाल ,दुःखहर्ता भगवान् श्रीराम से यह प्रार्थना की कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। उन्हें मानो बोध हुआ कि जिन का मैंने अपमान किया है बिना उनकी शरण गये, क्लेश से मुक्ति नहीं मिलेगी ।*
तत्पश्चात यहाँ वे कहती हैं –
*जौं मोरे सिवचरन सनेहू।मन क्रम वचन सत्य ब्रत एहू।।*
अर्थात् इस विपत्ति में सतीजी के पास एक संपत्ति है कि वह पतिव्रता हैं ।उनका शिवजी के चरणों में प्रेम है और यह व्रत मन,वचन और कर्म से सत्य है।
*सतीजी ने यहाँ भगवान श्रीराम को दीनदयाल, आरतिहरण और सर्वदर्शी कहकर विनती तो की ही; अपना सच्चा पातिव्रत्य भी भगवान् को दर्शाते हुए पति पद में अनन्य प्रेम की बात कही,  क्योंकि सती जानती हैं कि मन-वचन-कर्म से पातिव्रत्य का निर्वाह ही नारी का एकमात्र धर्म है* और प्रभु इससे प्रसन्न होते हैं –
*एकइ धर्म एक ब्रत नेमा । कायँ वचन मन पति पद प्रेमा।।*
यहाँ भगवान् को सर्वदर्शी कहने के पीछे का रहस्य यह है कि उन्होंने दंडकारण्य में प्रभु के इस रूप के दर्शन किए और वह छवि अभी भी विद्यमान है ।
*सतीजी इसी अवर्णनीय दारुण पीड़ा के साथ वहाँ समय काट रहीं थी कि सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली और रामनाम का स्मरण करने लगे।तब सतीजी ने जाना कि जगतपति भगवान् शिव जागे ।*
सतीजी को मानो बोध हुआ कि मेरे पति मेरे ही नहीं, वे जगतपति हैं ।
*जाइ संभु पद वंदन कीन्हा।*
*सनमुख संकर आसन दीन्हा।।* 
ऊपर में कहा था कि मेरा शिव चरण में अनन्य प्रेम है और यहाँ उसे व्यावहारिक रूप दिया -
*जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा।*
ध्यान दीजिए यह यहाँ 
*स्वामी प्रज्ञानानंद सरस्वती जी* कहते हैं कि *संभु पद बंदनु कीन्हा-* सूचित किया कि *चरणों पर सिर रखकर, चरण स्पर्श कर,वंदन नहीं किया ।*
💐
*शं-कल्याणं-सुखं-भवति-भविष्यति-होगा इस भावना से जगत्पति के चरणों की वंदना की।*
💐
*सच तो यही है कि सतीजी को बोध हो गया था कि इन्हीं कल्याणकारी चरणों से मेरा कल्याण संभव है ।अन्यत्र और किसी साधन से नहीं ।*
*भगवान शिव के जगने पर सती उनके पास पहुँची और उन्होंने उन्हें अपने सन्मुख आसन दिया और हरि कथा कहने लगे।उसी समय सती जी के पिता दक्ष ने भगवान शिव का अपमान करने के अभिप्राय से द्वेष बुद्धिपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान किया था । पिता के यज्ञ का समाचार सुनकर कुछ मन बहलाने के लिए वे अपने मायके गई। यद्यपि भगवान शिव उन्हें इस कार्य के लिए मना कर रहे थे परंतु सच में वह अपने इस जीवन का परित्याग करना चाहती थीं।जब सती जी ने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिवजी का भाग दिखायी नहीं दिया।वह अत्यंत संतत और विक्षुब्ध हुई। पिता के यज्ञ के उद्देश्य को समझ गईं और उनके इस मंद कृत्य पर उन्हें उन से अत्यंत घृणा एवं अमर्ष उत्पन्न हुआ और उसी समय आवेश में सती जी ने योगाग्नि में दक्ष शुक्र संभूत अपनी देह जला दी ।और भगवान शिव के गणों ने पूरा यज्ञ विध्वंस कर दिया ।*
💐🙏🏻💐
            *अब उमा प्रसङ्ग*

〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻

*_पवनतनय संकट हरण मंगल मूरति रूप!_*
*_राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप !!_* 


⛳पवनपुत्र भगवान बजरंगबली की जय😊💪🏻

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...