🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
*सावन विशेष- भाग-16*
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🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०२*📖🕉️
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आदरणीय चिन्तनशील मातृ-बन्धु जन,
༂ *जय जय सियाराम* ༂
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*जब संपूर्ण मानस में शिव चरित पर एक विहंगम दृष्टि डालते हैं तो हम पाते हैं कि पूरे मानस में मात्र सुंदरकांड के मंगलाचरण में शिव से संबद्ध श्लोक नहीं मिलता है और सभी कांडों के मंगलाचरण में उनकी उपस्थिति है ।*
पर यहाँ भी वे एकादश रूद्र हनुमान के रूप में उपस्थित हैं - *जयति मंगलागार संसारभारापहार वानराकारविग्रह पुरारि।*
स्वामी प्रज्ञानानंद सरस्वती जी महाराज कहते हैं कि अरण्यकांड मंगल श्लोक में *स्वःसंभवम् शंकरम्* शब्द है ।
*स्वःसंभव=वात।* इस तरह वातजात=शंकरजात।
*इस तरह मानस में भी शंकरावतार सिद्ध हुआ ।* अर्थात् सुंदरकांड के मंगलाचरण में हनुमानजी की वंदना शिव की ही वंदना है।
*उन्होंने अतुलितबलधामं श्लोक में भगवान् शिव के सभी गुणों का विनियोग किया है ।* यथा-
1- *अतुलितबलधामं-संकरु जगतबंद्य जगदीसा।सुर नर मुनि सब नावहिं सीसा।।*
2- *स्वर्णशैलाभदेहं-तुषाराद्रि संकाशगौरंगभीरं,प्रचंडं,करालं*
3- *दनुजवनकृशानुं-खलानां दण्डकृद् योऽसौ शंकरः शं तनोतु मे।*
4- *ज्ञानिनां अग्रगण्यं-शिव भगवान ग्यान गुन रासी।*
5- *सकलगुणनिधानं-गुणनिधिं कन्दर्पहं शंकरम्।*
*गुणागार संसारपारं*
6- *रघुपतिप्रियभक्तं-श्रीरामभूप प्रियं।* *मंगल ।.... कोउ नहीं सिव समान प्रिय मोरें।*
7- *वातजातं-शंकर जी स्वयं वात हैं ।आकाशवासं, स्वःसंभवं।*
इस प्रकार सात गुणों में उनकी समानता शिवजी से की गई है ।
संतो की दृष्टि में *वानरानामधीशं का विनियोग इस रूप में किया गया है कि -रुद्र देह तजि नेह बस बानर भे हनुमान ।*
वानर रूप में हनुमान स्वयं शंकर ही हैं ।
*इस प्रकार हनुमानजी और शंकरजी में अभिन्नता स्थापित की गई है ।*
उत्तर कांड में काकभुशुंडि प्रसंग में शिवजी का बड़ा ही रोचक वर्णन मिलता है जिसे मानस में शिवजी का उत्तर चरित कहा जा सकता है । यहाँ भी व्यष्टि अहंकार ही कथा के केन्द्र में है।
कागभुशुण्डि जी पूर्व जन्म में गुरु से शिव मंत्र लेकर-
*जपौं मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदय दंभ अहमिति अधिकाई।।*
यद्यपि वे पहले से ही दंभी थे-
*धन मद मत्त परम बाचाला।उग्रबुद्धि उर दंभ विसाला।।*
अब शंभु मंत्र से दीक्षित होकर वह अत्यंत अहंकारी होकर शिव मंदिर में जाकर जाप और पूजन करते थे । एक बार की घटना का वर्णन करते हुए वे कहते हैं –
*एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।गुरु आयउ अभिमान तें उठि नहीं कीन्ह प्रनाम।।*
गुरु तो दयालु थे उन्हें लेशमात्र भी क्रोध नहीं हुआ,परंतु- *अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस।।*
गुरु का अपमान अति अघ है और श्रुतिविरोधी भी । भगवान् शिव ने उसे यह कहकर शापित किया –
*जौं नहिं दंड करौं खल तोरा।भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा।।*
यद्यपि यह शाप भी गुरु कृपा से सिमित हो गया और आगे के जन्म में उनका परम कल्याण हुआ ।
*इस प्रकार करुणामूर्ति दयालु शिव से लेकर उनके रौद्ररूप का वर्णन मानस में मिलता है। यद्यपि उनका क्रोध अंततः करुणा ही सिद्ध होता है ।*
भगवान शिव तो *करुणावतारं* तो हैं ही।
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*सियावर श्रीरामचन्द्र जी की जय*
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*_निश्चय प्रेम प्रतीति ते, बिनय करैं सनमान ।_*
*_तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान॥_*
*अंजनि के लाल, पवनतनय भगवान राम के अनन्य भक्त बजरंगबली महाराज की जय⛳*
आपका अपना
"पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
राष्ट्रीय प्रवक्ता
राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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