Monday, July 20, 2020

श्री रामकथा अमृत सुधा सावन विशेष भाग 16


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-16*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०२*📖🕉️
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आदरणीय चिन्तनशील मातृ-बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂
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*जब संपूर्ण मानस में शिव चरित पर एक विहंगम दृष्टि डालते हैं तो हम पाते हैं कि पूरे मानस में मात्र सुंदरकांड के मंगलाचरण में शिव से संबद्ध श्लोक नहीं मिलता है और सभी कांडों के मंगलाचरण में उनकी उपस्थिति है ।*
पर यहाँ भी वे एकादश रूद्र हनुमान के रूप में उपस्थित हैं - *जयति मंगलागार संसारभारापहार वानराकारविग्रह पुरारि।*
स्वामी प्रज्ञानानंद सरस्वती जी महाराज कहते हैं कि अरण्यकांड मंगल श्लोक में *स्वःसंभवम् शंकरम्* शब्द है ।
*स्वःसंभव=वात।* इस तरह वातजात=शंकरजात।
*इस तरह मानस में भी शंकरावतार सिद्ध हुआ ।* अर्थात् सुंदरकांड के मंगलाचरण में  हनुमानजी की वंदना शिव की ही वंदना है।
*उन्होंने अतुलितबलधामं श्लोक में भगवान् शिव के सभी गुणों का विनियोग किया है ।* यथा-
1- *अतुलितबलधामं-संकरु जगतबंद्य जगदीसा।सुर नर मुनि सब नावहिं सीसा।।*
2- *स्वर्णशैलाभदेहं-तुषाराद्रि संकाशगौरंगभीरं,प्रचंडं,करालं* 
3- *दनुजवनकृशानुं-खलानां दण्डकृद् योऽसौ शंकरः शं तनोतु मे।* 
4- *ज्ञानिनां अग्रगण्यं-शिव भगवान ग्यान गुन रासी।*
5- *सकलगुणनिधानं-गुणनिधिं कन्दर्पहं शंकरम्।* 
*गुणागार संसारपारं* 
6- *रघुपतिप्रियभक्तं-श्रीरामभूप प्रियं।* *मंगल ।.... कोउ नहीं सिव समान प्रिय मोरें।*
7- *वातजातं-शंकर जी स्वयं वात हैं ।आकाशवासं, स्वःसंभवं।*
इस प्रकार सात गुणों में उनकी समानता शिवजी से की गई है ।
संतो की दृष्टि में *वानरानामधीशं का विनियोग इस रूप में किया गया है कि -रुद्र देह तजि नेह बस बानर भे हनुमान ।* 
 वानर रूप में हनुमान स्वयं शंकर ही हैं ।
*इस प्रकार हनुमानजी और शंकरजी में अभिन्नता  स्थापित की गई है ।*
उत्तर कांड में काकभुशुंडि प्रसंग में शिवजी का बड़ा ही रोचक वर्णन मिलता है जिसे मानस में शिवजी का उत्तर चरित कहा जा सकता है । यहाँ भी व्यष्टि अहंकार ही कथा के केन्द्र में है।
कागभुशुण्डि जी पूर्व जन्म में गुरु से शिव मंत्र लेकर-
*जपौं मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदय दंभ अहमिति अधिकाई।।*
यद्यपि वे पहले से ही दंभी थे-
*धन मद मत्त परम बाचाला।उग्रबुद्धि उर दंभ विसाला।।* 
अब शंभु मंत्र से दीक्षित होकर वह अत्यंत अहंकारी होकर शिव मंदिर में जाकर जाप और पूजन करते थे । एक बार की घटना का वर्णन करते हुए वे कहते हैं –
*एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।गुरु आयउ अभिमान तें उठि नहीं कीन्ह प्रनाम।।* 
गुरु तो दयालु थे उन्हें लेशमात्र भी क्रोध नहीं हुआ,परंतु- *अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस।।*
गुरु का अपमान अति अघ है और श्रुतिविरोधी भी । भगवान् शिव ने उसे यह कहकर शापित किया –
*जौं नहिं दंड करौं खल तोरा।भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा।।*
यद्यपि यह शाप भी गुरु कृपा से सिमित हो गया और आगे के जन्म में उनका परम कल्याण हुआ ।
*इस प्रकार करुणामूर्ति दयालु शिव से लेकर उनके रौद्ररूप का वर्णन मानस में मिलता है। यद्यपि उनका क्रोध अंततः करुणा ही सिद्ध होता है ।*
भगवान शिव तो *करुणावतारं* तो हैं ही।
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*सियावर श्रीरामचन्द्र जी की जय*
℘ *जारी ⏭️* ɮ
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*_निश्चय प्रेम प्रतीति ते, बिनय करैं सनमान ।_*
*_तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान॥_*

*अंजनि के लाल, पवनतनय भगवान राम के अनन्य भक्त बजरंगबली महाराज की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Sunday, July 19, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-15


🕉 📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-15*📕🐚

💢💢 *मानस में शिव प्रसंग-०१* 💢💢 
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     *श्रीरामचरितमानस में भगवान् शिव और भवानी पार्वती की अतिशय महत्ता स्थापित करने के लिए* बालकांड के मंगलाचरण में गोस्वामी जी कहते हैं –
*भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्।।*
अर्थात् श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्रीपार्वतीजी और श्रीशंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अंतःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते ।
*गोस्वामीजी ने यहाँ भवानी पार्वती और भगवान् शंकर को क्रमशः श्रद्धा और विश्वास के रूप में प्रतीकित किया है । हम जानते हैं कि मानस की  पूरी रामकथा भगवान् शंकर के मुख से कही गई है और भवानी पार्वती ने सुनी है ।*
इसका तात्पर्य यह है कि *जब कथा विश्वास के मुख से यानी विश्वासपूर्वक कही जाए और श्रद्धा के कान से यानी श्रद्धापूर्वक सुनी जाए तब पूर्ण फलवती होती है ।*
मानस के आरंभ में गोस्वामीजी कथा के लिए ये दो शर्त निर्धारित करते हैं ।
सचमुच में ये दोनों अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं ।हम जानते हैं कि मानस में भवानी पार्वती के जन्म का वर्णन है परंतु शंकर का नहीं ।परमपूज्य रामकिंकर जी महाराज कहते हैं *“श्रद्धा का जन्म होता है, किन्तु विश्वास का नहीं ।श्रद्धा का जन्म बुद्धि में होता है पर विश्वास हृदय का सहज स्वभाव है । बुद्धि प्रत्येक वस्तु को कार्य-कारण के आधार पर ही स्वीकार करती है,किन्तु हृदय की स्वीकृति के पीछे कोई तर्क नहीं होता।”*
भगवान् कृष्ण गीता में कहते हैं- *श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्।* अर्थात् श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान को प्राप्त होते हैं । अतः *श्रद्धा और विश्वास के आधार पर ही अज्ञान का नाश और ज्ञान की प्राप्ति संभव है ।*
 गोस्वामी जी मानस में कहते हैं कि इन दोनों की सहायता से ही मानस के रहस्य और श्रीराम की कृपा दोनों प्राप्त किये जा सकते हैं -
*जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन कर साथ।तिन्ह कहँ मानस अगम अति ••••••।*
*बिनु बिस्वास भगति नहि तेहि बिनु द्रबहिं न राम ।*
यहाँ यह बताया गया है कि *रामचरितमानस पथ के लिए श्रद्धा संबल यानी पाथेय है ।* बिना विश्वास के भक्ति असंभव है । विश्वास यानी शिव अर्थात् शंकर की कृपा के बिना राम की भक्ति नहीं होती -
*जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी।सो न पाव मुनि भगति हमारी ।।*
*संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।*
अर्थात् सर्वविध कल्याणकारी भक्ति की प्राप्ति कल्याण स्वरूप भगवान् शंकर की कृपा से ही संभव है ।
अयोध्याकांड के मंगलाचरण में - *“यस्यांके च विभाति भूधरसुता”* का तात्पर्य यह है कि *विश्वास की गोद में ही श्रद्धा विराजमान रहती है । विश्वास के अस्तित्व पर ही श्रद्धा विराजमान होती है । अर्थात् विश्वास पहले होता है। संत मानते हैं यह श्लोक (भवानीशंकर वन्दे••) अयोध्याकांड का प्रतिनिधि है।*
यहाँ श्रद्धा और विश्वास भवानी पार्वती और भगवान शंकर का विशेषण है और *इतना महत्त्वपूर्ण है तो संत कहते हैं कि विशेष्य कितना महत्त्वपूर्ण होगा ।*
श्रद्धा को आसीन होने के लिए विश्वास का आधार चाहिए । *इसी विश्वास यानी शिव के चरणों में अनुराग से ही राम की भक्ति प्राप्त होती है।*
*श्रीरामचरितमानस में शिव चरित का पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है । बालकांड के आरंभ में शिव चरित का पूर्व पक्ष है और उत्तर कांड के अंत में शिव चरित का उत्तर पक्ष।*
पूर्व चरित में सती और उमा चरित के साथ पूरा शिवचरित वर्णित हुआ है ,जिसे विस्तार से विश्लेषित किया गया है ।
बालकांड में ही भगवान् शंकर एक ज्योतिषी के रूप में अवध आते हैं । यह चरित अत्यंत गुप्त है। गोस्वामी जी कहते हैं-
*यह सुभ चरित जान पै सोई।कृपा राम कै जापर होई।*
अर्थात् राम चरित का बोध शिव कृपा से होता है और शिव चरित का ज्ञान राम की कृपा से ।
*मानस में शिव को विश्वास कहा गया है और अहंकार भी। विश्वास व्याख्यायित हो चुका है। गोस्वामी जी लंका कांड में कहते हैं-
*अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान ।* 
अर्थात् उस विराट पुरुष के  शिव अहंकार हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चंद्रमा मन हैं और महान विष्णु ही चित्त हैं ।
दूसरी ओर विनय पत्रिका में कहते हैं - *मोह दसमौलि तदभ्रात अहंकार ।*
अर्थात् रावण मोह है और उसका भाई कुंभकरण अहंकार है ।
इन दोनों अहंकारों को स्पष्ट करते हुए परमपूज्य रामकिंकर जी महाराज कहते हैं *“अहंकार दो प्रकार के हैं-एक तो समष्टि अहंकार और दूसरा व्यष्टि अहंकार।एक समग्र विराट का “मैं” और दूसरा हर व्यक्ति का अलग-अलग खण्ड-खण्ड “मैं”।इस खण्ड “मैं” के साथ “तू” जुड़ा हुआ है अर्थात् मैं अच्छा तू बुरा,मैं बुद्धिमान तू मूर्ख, मैं उच्च तू नीच।अखण्ड “मैं” यह है,जहाँ “तू” है ही नहीं, केवल मैं एकमात्र ब्रह्म!शिव वह”मैं” है जहाँ कोई खण्ड नहीं है , जहाँ व्यक्ति-व्यक्ति का, अलग-अलग,खण्ड-खण्ड, ”मैं”समाप्त हो जाता है ,जहाँ सारा ब्रह्मांड अपना ही स्वरूप दिखाई देने लगता है ,ऐसा बोध होता है कि विविध रूपों में मैं ही हूँ ,यह विराट अहं की अनुभूति ही शिव का स्वरूप है ”* 
जनकपुर में शिव धनुष का प्रसंग भी इससे संबद्ध है । समष्टि अहंकार के प्रतीक वह धनुष जब व्यष्टि अहंकार के हाथों में आता है तो वह हिलता नहीं - *टारि न सकहिं चाप तम भारी।*
इतना ही नहीं गोस्वामी जी कहते हैं कि –
*तमकि धरहिं धनु मूढ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।*
*मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ।।*
*भूप सहस दस एकहि बारा।लगे उठावन टरइ न टारा।।*
*डगइ न संभु सरासन कैसे ।कामी बचन सती मनु जैसे ।।*
अर्थात् एक स्थिति यह है जहाँ स्वार्थ लोलुप व्यष्टि अहंकार के प्रतीक राजा हतप्रभ हो जाते हैं, यह है समष्टि अहंकार का प्रभाव। वहीं दूसरी ओर श्रीराम धनुष के पास सहज रूप में जाते हैं- *“सहजहिं चले सकल जग स्वामी”।* अर्थात् समष्टि अहंकार के स्वरूप शिव जिस विराट पुरुष के अंश हैं उन्होंने शिव धनुष को ऐसे खंडित किया –
*लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें।काहु न लखा देख सबु ठाढ़ें।।*
यही है व्यष्टि और समष्टि अहंकार में अंतर।
*मानस का यह प्रसंग इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि व्यष्टि अहंकार से युक्त प्राणी भवचाप यानी जागतिक बंधन को खंडित कर सहज ही मुक्त नहीं हो सकता ।आवश्यकता है कि हम समष्टि अहंकार के प्रतीक शिव स्वरूप में अपने व्यष्टि अहंकार को विगलित कर दें*
अर्थात् भक्त्यात्मक दृष्टि से शिव चरणों के शरणागत हो जाएँ - *मुमुक्षुरस्मात् संसारात् प्रपद्ये शरणं शिवम्।*
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*_ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुव: स्व: ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्व: भुव: भू: ॐ स: जूं हौं ॐ !!_*

*कालो के काल मेरे भोले महाकाल , बाबा अमरनाथ की जय⛳*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Saturday, July 18, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-14


🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-14*📕🐚
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💢 *मानस की बहुयामी विशेषता* 💢
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       भारतीय मनीषियों का मानना है कि *श्रीराम अनुकरणीय हैं, श्रीकृष्ण चिंतनीय हैं और भगवान् शिव पूजनीय हैं ।यह बहुत ही व्यावहारिक और सात्विक चिंतन है ।एक ऐसी चिंतन धारा जहाँ सारे सांप्रदायिक विवाद शमित हो जाते हैं और आर्ष परंपरा की पवित्र गंगा धारा निरंतर प्रवहमान होती दिखती है ।*
यह दृष्टि हमारे ऋषियों की अंतश्चेतना में युगों पूर्व आयी थी।आज भी यह अत्यंत प्रासंगिक है । *भारत में राम, कृष्ण और शिव के इस त्रिवेणी संगम में जो स्नान कर लेता है, मेरी दृष्टि में वह सभी संशयों से मुक्त होकर आनंद को प्राप्त करता है ।*
मानस में शिव पूजनीय हैं, इसका सुंदर विनियोग हुआ है। *गोस्वामीजी की सनातन समझ सचमुच में असाधारण है,जहाँ जगदंबा सीता जगजननी पार्वती की पूजा और प्रार्थना श्रीराम को प्राप्त करने के लिए करती हैं –*
जय जय गिरिवरराज किसोरी।•••••• मंदिर चली।
*भगवान् श्रीराम भी रावण द्वारा अपहृत सीताजी को प्राप्त करने के लिए जब समुद्र पर सेतु तैयार करते हैं तो रामेश्वरम् में शिवलिंग की विधिवत स्थापना करते हैं और अत्यंत विश्वासपूर्वक उनकी पूजा और प्रार्थना करते हैं और यह उद्घोषित करते हैं –*
सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।
*मानस में भगवान श्रीराम और जगदंबा सीता द्वारा भगवान् शिव और भवानी पार्वती की विधिवत पूजा का प्रसंग उपर्युक्त कथन की सत्यता के लिए यथेष्ट है ।*
उपर्युक्त प्रसंग से यह सिद्ध होता है कि भगवान् शिव और भवानी पार्वती की चरण पूजा कितनी महत्त्वपूर्ण है ।
*सतीजी सीताजी के उस अलौकिक स्वरूप को राम के साथ देखकर वन में आँख मूँदकर बैठ गईं।यह एक चरित सती और सीताजी का है।*
एक चरित सीताजी का और पार्वती जी का है। कुछ लोग भ्रांतिवश यह समझ लेते हैं कि ये दोनों कथाएँ एक ही अवतार में घट रही हैं ।परंतु हमें यह जानना चाहिए कि जिस कल्प में भगवान् शिव और सतीजी अगस्त्य ऋषि के पास कथा सुनने जाते हैं वह कथा किसी और कल्प की है ।गोस्वामी जी कहते हैं - *कलप भेद हरि चरित सुहाए।*
सीता जी जब गिरिजा मंदिर में गईं तो वहाँ पार्वती जी की प्रार्थना में सीता जी ने जिस विनय और प्रेम भाव से उनकी प्रार्थना की,वह अद्भुत है ।इस बार जब दुहराकर गयीं तो उनके पास कोई पूजन सामग्री भी नहीं है।
*भवानी पार्वती जी उनके विनय और प्रेम से प्रसन्न ही गईं*
-विनय प्रेम बस भई भवानी । *क्योंकि उन्होंने अपनी प्रार्थना में पार्वती जी के चरणों में अपना संपूर्ण अनुराग उड़ेल दिया –*
देवि पूजि पद कमल तुम्हारे ।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।
मोर मनोरथ जानहु नीकें।
बसहु सदा उर पुर सबही कें।।
कीन्हेउँ प्रगट न कारण तेहीं।
अस कहि चरन गहे बेदैहीं।।
*यहाँ पार्वती जी के प्रति जिस उपासक भावना का प्रदर्शन  सीता जी के द्वारा किया गया है, वह अद्भुत है ।*
गोस्वामी जी यहाँ भवानी पार्वती जी के महत्त्व को दर्शाते हैं ।
*भगवान् राम भी इसी प्रकार अनन्य निष्ठा से रामेश्वरम् में शिवलिंग की विधिवत स्थापना करते हैं ।*’
*सीता और राम का भगवती पार्वती और भगवान् शिव के प्रति श्रद्धा और  विश्वास का यह भाव असाधारण है ।*
*शिव और पार्वती का यह प्रसंग मानस जैसे वैष्णव महाकाव्य में अपनी अद्वितीय इयत्ता के साथ प्रस्तुत होता है और यह युगीन परिप्रेक्ष्य में अपना अलग महत्त्व रखता है।*
*गोस्वामी तुलसीदास जी मानस की संरचना में जिस कौशल का परिचय देते हैं वह भारतीय आर्ष परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । उन्होंने अपने सम्मुख जिस शास्त्रीय विराट फलक को देखा था उससे खास-खास मणियों को चुनकर सजाना यह गोस्वामी जी जैसे विचक्षण युगपुरुष से ही संभव था ।सबसे बड़ी बात है कि उन्होंने अकारण किसी प्रसंग को मानस में स्थान नहीं दिया ।मेरी दृष्टि में मानस में  ग्रहण से  ज्यादा निषेध पक्ष ध्यातव्य है ।*
यह अलग बात है कि विश्वविद्यालयी भाष्य के क्रम में विद्वान् कहते हैं कि *गोस्वामी जी बालकांड में “बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू” की बात करते हैं परंतु जब काशी के पंडितों का त्रास उनके प्रति कम नहीं हुआ तो उत्तर कांड में उन्होंने शिव की प्रार्थना के लिए अपना स्थान बदल लिया और वे उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में पहुँच गये और वहाँ जिस “नमामिशमीशान निर्वाणरूपं••स्तोत्र का पाठ किया,वह संपूर्ण शैव जगत में छा गया और उस पूरे पाठ में कहीं भी “विश्वनाथ” पद नहीं आया ।*
मानो गोस्वामी जी कहते हैं कि तुम मुझे काशी से बहिष्कृत कर दो, परंतु मुझे कोई काल और दिक् बाधित नहीं कर सकता और वे महाकाल के मंदिर में जो ईशान दिशा के ईश हैं उनकी प्रार्थना करते हैं और उन्हें प्रसन्न करते हैं ।मानो काल और दिक् उनके हस्तामलक हैं।
*यह एक अपना साहित्यिक-सामाजिक विश्लेषण है,जो युगीन भित्ति पर आधृत है और यही मानस की बहुआयामी विशेषता भी है ।*
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*सियावर श्रीरामचन्द्र जी की जय*
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*_ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: शशि भूमि सुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु_*

*भगवान सूर्यदेव की जय⛳*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Friday, July 17, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-13


🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-13*📕🐚
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💢💢 *उमा शिव विवाह महत्व-०२* 💢💢 विश्राम भाग
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       *शिव पार्वती का विवाह हो चुका है,और इस मिलन से एक तरफ तो सकाम कर्म की प्रेरणा से युक्त देवताओ के अभीष्ट की सिद्धि हुई और स्वामी कार्तिक जैसे पुरुषार्थ परायण सेनापति को पाकर उनकी सुख सम्पति लौट आई,वही दूसरी तरफ ज्ञानी और भक्तो के लिए भी यह मिलन कल्याणकारी सिद्ध हुआ |*
*जहॉ सकाम कर्मियो के लिए उनके शारीरिक मिलन की अपेक्षा थी, वही भक्तो की दृष्टि मे उनके मानसिक मिलन का महत्व है |*
भगवान् भोले भंडारी के मन मे श्रीरामचरितमानस की रचना युगो पूर्व हो चुकी थी और *उसके प्रथम संस्करण को वो लोमश ऋषि द्वारा काकभूषुण्डि जी को प्रदत्त कर चुके थे* पर यह पूरी तरह प्रचलित नही हो पायी थी | *सती जो पार्वती से पहले थी,उनमे बौद्धिक अंहकार होने के कारण इसकी अधिकारिणी  नही बन सकी थी |*
दक्ष तन्या के सामने श्रीसरकारजी के कथा का प्राकट्य नही हो पाया पर *अब वही सती अपनी त्रुटियो को समझकर अटल हिमाचल के यहॉ श्रद्धा बनकर पार्वती रुप मे आयी और शिव की अर्धांगिनि बन गयी है |* एक दिन कैलास के शिखर पर बैठे भोले भंडारी से क्या कह रही है देखे-
*है दक्षसुता की देह नही,अब तो सेवा मे गिरिजा है | फिर पूर्व जन्म की उलझन को प्रभु सुलझा दे तो अच्छा है ||*
यही पर नही रुकती आगे भी कहती हैं-
*हो भक्त भगीरथ पर प्रसन्न,तत्क्षण उसको गंगा दी थी|तो मैने भी की देह भस्म,मेरी इस बलि पर ध्यान करे |*
*श्रीरामकथा रुपी गंगा अब मेरे लिए प्रदान करे ||*
देवो के देव महादेव यह सुनकर मुस्काए और देखे कि 
*भक्ति गीत से बंजर मन मे, नव नव अंकुर आए | भक्ति प्रेम की रस वर्षा से,चमन मे फूल उग आए ||*
बाबा ने सोचा कि माता पार्वती के अन्त:करण मे श्रीसरकारजी की कथा श्रवण की असीम उत्कंठा जागृत है यही सु समय है -
*जब भाव समर्पण मन से है,वहॉ तर्क विवेक नही होता | आस्था का जहॉ विसर्जन है,वहॉ खंडित विश्वास नही होता ||*
अब भोले भंडारी कहते है कि ध्यान से कथा सुने पार्वती जी आप , पर यह भी ध्यान रखे-
*सम्पूर्ण नही अपूर्ण होता,सूरज न कभी आधा होता | जो चक्षु दोष से पीडित हो,उसे सत्य का आभास ही नही होता ||*
यह कहते हूए शिव जी ने मानस का विवरण मईया को दिए |
*क्योकि रामचरितमानस का अवतरण विश्वास युक्त ह्रदय मे ही संभव है और उसे श्रवण करने के लिए ह्रदय मे सच्ची श्रद्धा भावना की आवश्यकता है |* 
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*अत: शिव पार्वती का मिलन न केवल स्वार्थपरायण देवताओ के हित के लिए हुआ; अपितु उसके द्वारा समाज के देशकालातीत सत्य रुपी मानस की उपलब्धि हुई |*
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*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻
 
*_कोणस्थ पिंगलो बभ्रु: कृष्णो रौद्रोन्तको यम:।_*

*सूर्यपुत्र शनिदेव की जय⛳*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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Thursday, July 16, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-12

🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-12*📕🐚
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💢💢 *उमा शिव विवाह महत्व-०१* 💢💢
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      *शिव-पार्वती विवाह का बड़ा ही आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व है । दोनों  विदा होकर कैलास आ गये । समय पाकर षडानन का जन्म हुआ, जिन्होंने तारकासुर का वध किया ।*
गोस्वामी तुलसीदासजी इस प्रसंग की फलश्रुति बताते हुए कहते हैं –
*यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहिं। कल्याण काज बिबाह मंगल सर्वदा सुख पावहीं।।*
*चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु। बरनै तुलसीदास किमि अति मतिमंद गवाँरु।।*
अर्थात् शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गायेंगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पावेंगे।
गिरिजापति महादेव जी का चरित्र समुद्र के समान अपार है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यंत मंदबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है।
*शक्ति और शक्तिमान की सर्वात्मसत्ता का संबंध अभिन्न है ।उपर्युक्त कथा में श्रीपार्वती को हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ से उत्पन्न कहा गया है । वैदिक कोश में ‘निघंटु’ के अनुसार मैना,मेनका शब्दों का अर्थ ‘वाणी’और ‘गिरि’, पर्वत आदि शब्दों का अर्थ मेघ होता है ।अमर सिंह ने -‘अपर्णा पार्वती दुर्गा मृडानी चण्डिकाम्बिका’ में सबको एक सा ही कहा है।वे जगन्माता हैं। वे जगत का पालन करती हैं ,इस काम में मेघ भी उनका सहायक हुआ। हिमालय का एक अर्थ मेघ भी है ।यास्क ने निरुक्त के छठे अध्याय के अंत में हिम का अर्थ जल लिया है -‘हिमेन उदकेन'(नि•अ•6)।*
ऋग्वेद का कथन है-‘गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षती
*माता से संतति का आविर्भाव होता है । मेनका(मैना)-वेदवाणी ने उनका ज्ञान लोगों को कराया ।वेदों ने हमें सिखाया है कि परमात्मा अपने को स्त्री और पुरुष -दो रूपों में रखते हैं,जिससे प्राणियों को ईश्वर के मातृत्व -पितृत्व दोनों का सुख प्राप्त हो।’त्र्यम्बकं यजामहे’ (यजुर्वेद)।इसका अर्थ है कि हम दुर्गा सहित महादेव की पूजा करते हैं ।*
भारतीय सनातन परंपरा में शिव विवाह शक्ति और शक्तिमान का सम्यक सम्मिलन है ।शक्ति और शक्तिमान का यह मिलन मूलतः अभिन्न है ।
परंतु लीला हेतु *शिव-पार्वती, सीता-राम, कृष्ण-रुक्मिणी आदि के विवाह संस्कार शास्त्रों में वर्णित हैं ।*
शिव-पार्वती के इस *अभिन्न सम्मिलन को ही अर्द्धनारीश्वर कहा गया है । यानी ऐसा शरीर जिसमें आधा भाग स्त्री का हो और आधा ही पुरुष का।*
ध्यान दीजिये👀👁️
*अब यह वैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य साबित किया गया है। चिकित्सा विज्ञान इसे हर्मीफ्रोडाइट कहते हैं ।*
“शैव सिद्धांत के अनुसार *शिव की दो शक्तियाँ हैं -समवायनी और परिग्रहरूपा।समवायनी शक्ति चिद्रूपा, निर्विकारा और परिणामिनी है ।इसे शक्ति तत्त्व के नाम से कहते हैं ।वह शक्ति परम शिव में नित्य समभाव से रहती है। अतः शिव-शक्ति का संबंध तादात्म्य-संबंध है ।वही शक्ति शिव की स्वरूपा शक्ति है । इससे भिन्न जो परिग्रह शक्ति है वह अचेतन और परिणामिनी है ।वह परिग्रह शक्ति शुद्ध और अशुद्ध-भेद से दो प्रकार की है।शुद्ध शक्ति का नाम महामाया और अशुद्ध शक्ति का नाम माया है । महामाया सात्विक जगत का उपादान कारण है और माया प्राकृत जगत का उपादान कारण है।”* 
दर्शन सिद्धांत के अनुसार *शिव के बिना शक्ति असित (काली) और शक्ति के बिना शिव शव हो जाते हैं ।काली  की प्रतिमा का प्रतीकार्थ यही है।जब शिव शक्ति के बिना शव हो गए तो शक्ति आश्चर्य मुद्रा में जिह्वा बाहर कर शिव रहित काले वर्ण की (असित)   काली हो गई।*
यह लोक के लिए मानो प्रतीकात्मक बोध कथा है कि *जीवन के सर्वविध कल्याण के लिए शिव और शक्ति का सम्यक मिलन अनिवार्य है अन्यथा सृष्टि असंतुलित हो जाती है ।*
आज के युग में नर-नारी का संघर्ष,असमानता आदि की व्यथा कथा इसी मूल दर्शन पर आधारित है । *हमें समझना होगा कि दोनों का सम्यक सहयोग दर्शन ही सृष्टि को सत्यं-शिवं-सुंदरम् का स्वरूप प्रदान कर सकता है ।*
     💐🙏🏻💐 प्रसङ्ग जारी⏭️
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*_ॐ नमो लक्ष्मी दैवये नमः_*

*माता लक्ष्मी की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

जाति या वर्ण नहीं ज्ञान है सर्वोपरि


•» *जाति या वर्ण नहीं ज्ञान है सर्वोपरि* «•
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 🗣↤ आदरणीय चिन्तनशील मित्रों, ↦
        *भारतीय संस्कृति में सदा से जाति को नहीं,योग्यता को ही सर्वोपरि माना गया है | जाति को मूल्य देने से मानव और उसकी मानवता की उपेक्षा होती है|जो जातिवादी होते हैं,वे समग्र मानव जाति की महत्ता का अवमूल्यन करते हैं| वे मानव अस्तित्व में अविश्वास और उसके प्रति अनास्था की भावना से ग्रस्त होते हैं,फलत: मानवता के उच्च आदर्शो के प्रति वे कभी आस्थाशील नहीं होते |*
*जाति के आधार पर योग्यता का मूल्यांकन संकीर्ण दृष्टि का परिचायक है | सच पूछिए तो मनुष्य,जाति के आधार पर नहीं वरन् योग्यता के आधार पूजनीय होता है, बस आपस में लड़ें न इसलिए वर्ण व उनमें जातिगत व्यवस्था व परंपरा तथा कुछ अंतर व दायित्वों का निर्माण किया गया है*
कबीर दास ने कहा है, *जाति न पूछो साधु की,पूछ लीजिए ज्ञान |*
कबीर जी स्वंय जुलाहा थे,परन्तु ज्ञान के कारण वे सर्वजन पूजनीय बन गये | रविदास या रैदास जी जाति के चमार थे,पर ज्ञानदीप्त होने के कारण सर्वजनप्रणम्य हो गये | *पूजनीयता के लिए शर्त है ,साधु या ज्ञानी बनने की ,न कि उच्च जाति या वर्ण से ताल्लुकात होने की|* लोक में भी कहावत प्रचलित है, *जो ज्ञान का चमत्कार दिखलाता है,वही नमस्कार प्राप्त करता है |* 
साधु वही होता है,जो ज्ञान का साधक होता है,धार्मिक,दयालु, शुद्धाचार और शिष्टाचार से सम्पन्न धर्मपरायण होता है, *जिसके समस्त कार्य विधि के अनुकूल और शास्त्रसम्मत होते हैं |*
गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि *उन्होने चार वर्णो की सृष्टि गुण और कर्म के आधार पर की है,न कि जन्म के आधार पर:* 
चातुर्वर्ण्यं मया सृृष्टं गुणकर्मविभागश: |
*भगवान् महावीर ने भी *उत्तराध्ययनसूत्र* में लिखा है कि कर्म से ही कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य,और शूद्र होता है | भगवान् बुद्ध ने भी *धम्मपद* के ब्राह्मण वर्ग में ब्राह्मण की परिभाषा करते हुए जाति को मूल्य न देकर ज्ञान को मूल्य दिया है | उन्होने कहा है : *जो गम्भीर प्रज्ञावाला,मेधावी,सत्,और असत् का विवेक रखनेवाला तथा परमार्थ का ज्ञाता है,वही ब्राह्मण है |* 
जब ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित होती है,तब जाति,वर्ण,लिंग आदि सब कुछ भस्म हो जाता है,जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि लकड़ियो को जलाकर राख कर देता है | श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय ४ श्लोक ३७ मे भगवान् कहते हैं-
*यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ||*
इससे स्पष्ट है कि *अगर कोई हिन्दु व्यक्ति,चाहे वह अनुसूचित जाति या जनजाति का ही सदस्य क्यो न हो,सबसे पहले वह मानव है और मानव होने के साथ ही यदि साधु या ज्ञानी है,तो वह सर्वजन के लिए आदरणीय किसी भी उच्चासन पर विराचमान हो सकता है |*
*भारतवर्ष की यही सांस्कृतिक विशिष्टता रही है कि वह परम्परागत या कुलक्रमागत जाति,वर्ग,वर्ण या लिंग को मूल्य न देकर ज्ञान को मूल्य देता आ रहा है | इसलिए इस देश मे प्राचीन और अर्वाचीन काल में भी अनेक ऐसे व्यक्ति उच्चपदो पर या समाज मे सर्व मान्य और पूजनीय हुए हैं,जो अनुसूचित जाति और जन जाति के सदस्य रहें हैं |*
हम श्रीमद्भागवद्गीता 4-38 के अनुसार कह सकते है कि *ज्ञान से बढकर कोई पवित्र वस्तु नही है - न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते* गीता के अध्याय ५ श्लोक १८ के अनुसार *ज्ञानी वही होता है जो विद्या विनय सम्पन्न ब्राह्मण,गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल को समान दृष्टि से देखता है |*
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 *इसलिए हम कह सकते हैं कि किसी भी व्यक्ति की योग्यता की श्रेष्ठता उसका जन्मना या जात्या तथाकथित ब्राह्मण या उच्चवर्ण का होना नही वरन् उसका पवित्रात्मा या ज्ञान विज्ञान तृप्तात्मा होना है | ज्ञान यज्ञ से भगवान् की उपासना का अधिकार किसी भी मनुष्य को स्वंय भगवान् द्वारा ही प्राप्त है |ज्ञानयज्ञ की योग्यता से सम्पन्न कोई भी विधिज्ञ और शास्त्रज्ञ हिन्दु श्रेष्ठ है फिर चाहे वह किसी वर्ण का हो जन्म से |*
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*मनन कीजिएगा जरुर*
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╰☆☆ *सुप्रभात* ☆☆╮
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Wednesday, July 15, 2020

एकादशी उत्पत्ति कथा प्रसंग

*कामिका एकादशी व्रत* (१६-०७-२०२०) पर विशेष
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*एकादशी उत्पत्ति कथा प्रसंग*
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*ஜ۩۞۩ஜ* 
*एकादशी एक ऐसा नाम जो वैष्णव समाज के लिए सुपरिचित है।*
यह एक ऐसा त्योहार है जिसके फल का विवरण कुछ इस तरह से मिलता है -
*काशी सेवै अब्द शत, अचवै वारि केदार। उभय सहस गो दान दे, तीरथ अटै अपार।।*
*होम यज्ञ करि शत सहस्र, विप्र जिमावै कोय। एकादशी ब्रत के रहे, सम नहिं ताके होय।।*
एकादशी व्रत के फल पर इतना ही नही कहा गया, यह भी कहा गया है -
 *जो ब्रत सहित विधान, रहै राखि विश्वास उर। आवा अन्त विमान, वसै विष्णु पुर जाइ सो।।*
इसके अलावे भी इस व्रत पर बाते कही गयी हैं। यह व्रत एक वर्ष मे चौबीस बार किया जाता है,अर्थात प्रत्येक महीने के दोनो पक्षों में और सब का अपना अपना माहात्म्य है।
*एेसे महत्वपूर्ण व्रत की अर्थात एकादशी की उत्पत्ति कथा हम सभी को जाननी चाहिए*
तो आए पढते हैं एकादशी उत्पति वर्णन----
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सतयुग मे शंखासुर का पुत्र *मुर* अपने पिता के वध होने पर वन मे तपस्या करके ब्रह्मा जी से वर प्राप्त किया कि सुरलोक,विष्णु लोक,मुनिलोक,जितनी सृष्टि रची गयी है, उससे अजयेता हासिल हो।
*इस वर के प्रभाव से अपनी भुजाओं द्वारा सब राजाओ को जीत करके मानवो पर विजय हासिल करने के बाद  इंद्र पर भी विजय प्राप्त कर वह 'मुर" अत्याचार करने लगा और उन सभी विजित प्रदेश पर अपना शासन जमाया| इससे घबराकर देवताओ सहित इंद्र महादेव के पास गए जहॉ महादेव ने श्वेत लोक मे विष्णु जी के पास जाने को कहा। जहॉ पहुच कर देवताओ ने श्रीविष्णु की स्तुति की और अपने कष्ट को बतलाया। तब विष्णु ने मुर से युद्ध करना स्वीकार किया, सभी देव इन्द्र सहित युद्ध के लिए भगवान के साथ निकल पडे, यह सुनकर वह राक्षश मुर भी अपनी सेना के साथ सन्मुख आ गया। दोनो दल के बीच युद्ध शुरु हो गया, युद्ध मे मुर भारी पड़ने लगा, यह देख इन्द्र भाग चलें। अब मुर श्री विष्णु भगवान के साथ युद्ध करने लगा, जो सहस्र वर्ष चला जिससे कोई परिणाम नही निकला, तब श्रीविष्णु जी युद्ध छोड़कर भाग खडे हूए और बद्रीवन मे सिह नामक गुफा मे जाकर छिप गए जिसका विस्तार योजन भर था और प्रवेश द्वार एक ही था। श्रीविष्णु जी को प्रवेश करते देख कर मुर भी सेना सहित उसमे घुस गया। यह देखकर भगवान माया वश निद्रावश होकर सो गए |तब भगवान के वक्ष से एक कन्या उत्पन्न हुयी। जिसमे अपार बल और तेज था,चार भुजाओं से युक्त दिव्य शरीर सुन्दर वस्त्र धारी देवी को देखकर राक्षसो ने इन्ही से युद्ध करना चालू कर दिया | देखते देखते वहॉ चारो ओर अग्नि प्रकट हुयी। बाहर निकलने का मार्ग अवरोध हो गया और सभी राक्षस मुर सहित उसमे जल कर मर गए | गुफा के बाहर इन्द्र आदि देव खडे थे, उन सबको गुफा से बहुत अधिक सुगंध निकली,जिसे शुभ संकेत समझ कर वे सभी खुश होकर गुफा मे प्रवेश किए और देवी को देखकर स्तुति करना चालू किए। स्तुति समाप्त होने पर भगवान जाग पड़े और उस देवी से यू कहा - आपने देवताओं का कल्याण किया है जो इच्छा हो मांग लीजिए, पर उस देवी ने कुछ भी मांगने से इंकार कर दिया और बोलीं कि आपकी जो इच्छा हो वह दे दीजिए। तब श्री विष्णु जी ने इस देवी को एकादशी नाम दिया और अपने लोक मे वास करने का अधिकार दिया साथ साथ नवों निधि तथा सिद्धि देने वाली,सर्वमनोकामना पूर्ण करने वाली और भय हरने वाली बताते हूए कहा कि जो भक्त आपका व्रत करेगा उन्हे कभी कष्ट नही होगा।*
ऐसा कह कर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए। 
*तो यही है एकादशी उत्पति की कथा* 
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*_ॐ सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितंच सत्ये ।_*
*_सत्यस्य सत्यामृत सत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥⛳_*

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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...