Sunday, July 26, 2020

सावन विशेष श्री रामकथा अमृत सुधा 22


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-22*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०८*📖🕉️
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आदरणीय चिन्तनशील बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂
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   *जीवन जबतक मोह, संशय और भ्रम से ग्रस्त रहता है तब तक वह सात्विक भावदशा में नहीं जी सकता । सात्विक भावदशा क्या, सामान्य मानवीय जीवन जीना असंभव है ।*
मानस में गोस्वामीजी ने *सती-शिव प्रसंग में इसके व्यापक कुपरिणाम का वर्णन किया है और मानस के सामान्य श्रोता और पाठकों को सचेत किया है कि संशय और भ्रमग्रस्त जीवन अत्यंत दुःखदायी होता है।वहाँ जीवन जीना दुर्लभ हो जाता है ।*
*पार्वतीजी के जीवन में जो इसकी छाया शेष रह गई थी वह भगवान् शंकर की कृपा से मिट गई ।*
गोस्वामीजी कहते हैं *यह एक ऐसा मानस रोग है कि इसके रहते व्यक्ति क्षण भर भी कल्याण पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता, उल्टे उसका जीवन विनष्ट हो जाता है ।*
*पार्वतीजी ने जिस पीड़ा को सती जन्म से भोगा, उससे वह आज मुक्त हो गई है ।*
गोस्वामीजी इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं –
*सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना मिटि गै सब कुतरक कै रचना।।*
*भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती।दारुन असंभावना बीती।।*
अर्थात् शिवजी के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वतीजी के सब कुतर्कों की रचना मिट गयी ।श्रीरघुनाथजी के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असंभावना मतलब जिसका होना संभव नहीं,ऐसी मिथ्या कल्पना, जाती रही।
भगवान् शिव ने कहा था कि *“सुनु गिरिराजकुमारि भ्रम तम रवि कर वचन मम”।* यही शिवजी का विश्वास रूप है जो यहाँ फलित हो रहा है । पार्वतीजी के सारे भ्रमों का भंजन हो गया। *रघुनाथजी ब्रह्म नहीं हैं, यह भाव ही समाप्त हो गया ।*
यह सच है *जब संशय सर्प मनुष्य को काटता है तब कुतर्क की लहरें उठने लगती हैं।* 
यहाँ भगवान् शिव के वचन से- *मिट गै सब कुतरक कै रचना*।यानी सारे भ्रम नष्ट हो गए। इस प्रसंग में यहाँ भ्रम मिटा ।पुनः *“तुम्ह कृपालु सबु संसउ हरेऊ।”और” मिटा मोह सरदातप भारी।”* से संशय और मोह मिटने की बात कही गई है ।
संत कहते हैं कि *ये सब प्रभु पद प्रीति और प्रतीति के बाधक तत्त्व हैं ।* इसके मिटने पर ही पार्वती जी को भगवान् राम के चरणों में प्रेम और विश्वास हुआ – *“भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती”*
गोस्वामीजी कहते हैं कि
*रामकृपा बिनु सुनु खगराई।जानि न जाइ राम प्रभुताई।।*
*जानें बिनु न होइ परतीती।बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।* 
यहाँ बहुत स्पष्ट कथन है कि *राम की कृपा के बिना उनकी प्रभुता का बोध नहीं होता। बिना प्रभुता जाने विश्वास नहीं होता और बिना विश्वास के प्रीति नहीं होती।*
 पार्वती जी आगे कह रही हैं - *“राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ”।*
इस प्रकार पार्वतीजी के जीवन में ये यह सबकुछ घटित हो रहा है - *स्वरूप की प्रभुता का बोध, विश्वास यानी प्रतीति और प्रेम यानी प्रीति।*
अर्थात् *भ्रम भंजन होने के पश्चात् ही भगवान् श्रीराम के चरणों में प्रीति और प्रतीति होती है ।-जहाँ प्रभु पद में ऐसा भाव उत्पन्न नहीं हो,समझना चाहिए कि मन का भ्रम भंजन नहीं हुआ है। इसके लिए भगवान् शिव के वचन ही वरेण्य हैं, जिससे राम की कृपा होती है।*
*प्रभु पद में प्रीति और प्रतीति के बाद कुछ शेष नहीं रहता है। यह भक्त-जीवन का मानो अंतिम साध्य है ।*
भगवान् श्रीराम के चरणों में प्रीति और प्रतीति होने पर *दारुण असंभावना भी मिट जाती है ।*
 मानस पीयूष में कहा गया है *“दारुण असंभावना से चार वस्तुओं का बोध होता है -एक भावना, दूसरी संभावना, तीसरी असंभावना और चौथी दारुण असंभावना।*
इन चारों के उदाहरण सुनिए- *“भई रघुपति पद प्रीति” रघुपति पद में प्रीति होना भावना है । ”भई••••प्रीति प्रतीती” श्रीरघुनाथजी के चरणों में प्रीति और प्रतीति दोनों का होना संभावना है और इन दोनों का न होना असंभावना है ।श्रीरामजी को अज्ञानी मानना दारुण असंभावना है ।”*
संशय भ्रमादि को दूर कर *भगवान् श्रीराम के चरणों में प्रीति और प्रतीति के लिए भगवती पार्वती को जब इतनी लम्बी यात्रा करनी पड़ी, तो सामान्य प्राणी के लिए यह पथ सचमुच दारुण असंभावना से ग्रस्त है।*
 एतदर्थ शिवजी के सौजन्य से *भगवान् श्रीराम की कृपा प्राप्ति के पश्चात् ही भ्रम भंजन होने पर* यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि *”भई रघुपति पद प्रीति प्रतीती।”*
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*_नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय| नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे न काराय नम: शिवाय:॥ _*

*भगवान भोलेनाथ की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Saturday, July 25, 2020

सावन विशेष श्री रामकथा अमृत सुधा 21


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-21*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग--०७*📖🕉️
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आदरणीय चिन्तनशील बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂
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 *भगवान् शिव पार्वती जी के इस प्रश्न का उत्तर कि राम “अवध नृपतिसुत”हैं कि कोई “अज अगुन अलखगति” हैं, बड़े फटकारपूर्ण शब्दों में देते हैं –*
🗣
*एक बात नहीं मोहि सोहानी।जदपि मोह बस कहेहु भवानी।।*
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना।
जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना।।
कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाखंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच।। 
अग्य अकोविद अंध अभागी।
काई बिषय मुकुर मन लागी।।
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी।
सपनेहुँ संतसभा नहीं देखी।।
कहहिं ते बेद असंमत बानी।
जिन्ह कें सूझ लाभु नहीं हानी।।
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना।
राम रुप देखहिं किमि दीना।
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका ।
जल्पहिं कल्पित बचन अनेका।।
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं।
तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं।।
बातुल भूत बिबस मतवारे।
ते नहीं बोलहिं बचन बिचारे।।
जिन्ह कृत महामोह मद पाना।
तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना।
अस निज हृदय बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम।। 
अर्थात् *ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहने और सुनने वाले अधम नर पाखंडी हैं, हरि पद विमुख हैं, झूठ- सच का ज्ञान नहीं है, अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं, उनके मन रूपी दर्पण पर विषय रूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संत-समाज के दर्शन नहीं किये; जिन्हें अपनी लाभ-हानि नहीं सूझती, जिनका हृदय रूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं वे बेचारे रामचंद्रजी के रूप कैसे देखें? जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ विवेक नहीं, जो अनेक मनगढंत बातें बका करते हैं, जो श्रीहरि की माया के वश में होकर जगत में भ्रमते फिरते हैं, जिन्हें बात या बाई चड़ी है, जो भूत के वश और नशे में चूर हैं वे विचारकर वचन नहीं बोलते और जिन्होंने महामोहरूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए ।*
यहाँ ऐसे वचन बोलने वाले को *भगवान शिव उपर्युक्त 25 दोषों से ग्रस्त बताते हैं ।* निश्चित रूप से ये दोष पार्वतीजी में तो नहीं ही हैं। यह मानस का सामान्य पाठक भी समझ सकता है । 
*इस प्रकार युगीन भ्रमित चेतनाओं को दृष्टि प्रदान करने के उद्देश्य से गोस्वामी जी ने तत्कालीन परिवेश के पाखंड को निर्मूल करने और दाशरथि राम को अवतरित करने के लिए इस प्रसंग को निमित्त बनाया ।*
विशेषतः *इस प्रसंग का “आना” शब्द महत्वपूर्ण है । कबीर के  “राम नाम का मरम है आना” का सीधा संबंध “तुम्ह जो कहा राम कोउ आना” से है। फिर उसके नीचे गोस्वामीजी अन्योक्ति, वंयग्योक्ति के साथ वक्रोक्ति से प्रहार करते दिखते हैं ।*       *गोस्वामीजी ने मानस में प्रायः  व्यंग्यात्मक रूप में ही आना शब्द का प्रयोग किया है।*
यथा--
1- 
*विभीषण को संपूर्ण लंका का राज्य देकर भी श्रीराम सकुचाते हैं तो तुलसीदासजी कहते हैं –*
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना।।
2-
*सती मोह प्रसंग के पूर्व श्रीराम की वन लीला की वियोग विरह दशा को देखकर भगवान् शिव कहते हैं –*
अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन।।
3-
*सेतु बंधन के पश्चात् गोस्वामी जी कहते हैं –*
श्री रघुवीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन।। 
4-
*उत्तरकांड में जब काकभुशुंडि जी भगवान् श्रीराम के अभ्यंतर लोकों की दिव्यता के दर्शन करते हैं तो वहाँ भुशुंडि जी कहते हैं-*
भिन्न भिन्न मैं दीख सबु अति बिचित्र हरिजिन।
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखउँ आन।।
*मानस में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ आन या आना शब्द के माध्यम से व्यंग्य करते हैं ।*
पार्वतीजी, जो यहाँ गिरिराज कुमारी से संबोधित हैं *अर्थात् दृढ़ता को प्रतीकित करती हैं,* को निमित्त बनाकर गोस्वामीजी भगवान शिव के माध्यम से कहते हैं कि *”तजु संसय भजु राम पद”* अर्थात् *राम पद का सेवन करो इसी से भ्रम रुपी अंधकार का नाश होगा।*
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*_ॐ ऐहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजो राशे जगत्पते, अनुकंपयेमां भक्त्या, गृहाणार्घय दिवाकर:॥_*

*भगवान सूर्यदेव की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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Friday, July 24, 2020

सावन विशेष श्री रामकथा अमृत सुधा 20


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-20*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०६*📖🕉️
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आदरणीय चिन्तनशील बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂
*भगवान् शिव जब हर्षित होकर कथा कहने लगते हैं तो वे सर्वप्रथम भगवान् श्रीराम के बाल रूप* की वंदना करते हैं –
*बंदउँ बालरूप सोइ रामू।सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू।*
*मंगल भवन अमंगल हारी ।द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ।।*
यह मानस की सर्वाधिक लोकप्रिय चौपाई है, जिसमें भगवान् श्रीराम के सगुण रूप की वंदना की गई है।
इससे ऊपर की दो चौपाइयों में राम के निर्गुण रूप का गुण कहा गया है । यथा-
*झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें।।*
*जेहि जानें जग जाइ हेराई।जागें जथा सपन भ्रम जाई।।* 
पंडित विजयानंद त्रिपाठी कहते हैं ” *निर्गुण में ही जगत का भ्रम होता है।अतः बालक से निर्गुण ब्रह्म की उपासना कही। निर्गुण-सगुण में अवस्था भेद मात्र है । सगुण को किशोरावस्था मानिए तो निर्गुण बाल्यावस्था है ।जगत् में रहते हुए भी प्रपंच से पृथक होने से बालरूप में निर्गुण उपासना ही कही।”*
मेरी दृष्टि में जो श्रीरघुनाथ रूप हृदय में आया,यहाँ उन्हीं युगल स्वरूप सीताराम का वर्णन है - *मंगल भवन अमंगल हारी।* यहाँ *श्रीराम मंगलभवन हैं और मंगलहारी शब्द सीताजी के लिए है ।*
 क्योंकि तुलसीदास जी के सीताराम न तो राज्याभिषेक के बाद विलग हुए और न साकेत धाम गये। वे दोनों आज भी *“दसरथ अजिर बिहारी” हैं और हम सभी लोगों के लिए “मंगल भवन अमंगल हारी।” हैं ।*
भगवान् शिव कहते हैं कि आपकी कृपा से ही *“सकल लोक जग पावनि गंगा”* रूपी रामकथा आज अवतरित हो रही है ।इसके मूल में आपका राम चरणों में अत्यंत अनुराग है - *तुम्ह रघुबीर चरण अनुरागी।* 
इसी अनुराग का परिणाम है कि भगवान् श्रीराम ने मुझसे पाणिग्रहण हेतु कहा था-
*अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी।।*
*जाइ बिबाहहु सैलजहि•••••।* 
🗣
*यह सार्वभौम सत्य है कि श्रोता के श्रद्धा और सात्विक भाव से ही वक्ता के भाव का प्रस्फुटन होता है ।* 
शिवजी कहते हैं कि मुझे ज्ञात है कि *श्रीराम की कृपा से आपके शोक, मोह ,संदेह, भ्रम सब मिट गए हैं।अब इसका लेशमात्र भी आपमें नहीं है ।*
*जीवन उसी का धन्य है जिनके कान सदा रामकथा का श्रवण और आँखें संत दर्शन के लिए लालायित हों।*
*जिनके सिर श्रीराम और गुरु के चरणतल में नहीं झुकते, वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं-*
ते सिर कटु तुंबरि समतूला।
जे न नमत हरि गुर पद मूला।।
मानस पीयूष के अनुसार-
*“यहाँ पदमूला पद कैसा उत्तम पड़ा है।इसकी विलक्षणता श्रीमद्भागवत के स्कंध-2 अ•3 के 23वें श्लोक से मिलान करने पर स्पष्ट दीख पड़ेगी।पदमूल तलवे को कहते हैं। रज और चरणामृत का तलवों ही से संबंध है। इन्हीं की रज लोग सिर पर धारण करते और तीर्थपान करते हैं ।ध्यान भी चरण चिह्न का ही किया जाता है । पुनः ऊपर के भाग में नूपुरादि और नख का ध्यान होता है । तुलसी ऊपर चढेगी। शीश पर तलवे ही रक्खे जाते हैं । पदमूला में पद का ऊपरी भाग और पदमूल दोनों का अभिप्राय भरा है ।* श्रीमद्भागवत के *‘भागवताड्•घ्रिरेणुं’* अर्थात् रज  और *‘विष्णुपद्या••••न वेद गन्धम्’* अर्थात् चरणों पर चड़ी हुई तुलसी का सूँघना दोनों ही भाव इसमें दर्शा दिये हैं।”
*अतः गोस्वामीजी की दृष्टि वृहत्तम है।*
मध्यकाल में गोस्वामी तुलसीदास जी जिस चौराहे पर खड़े थे वहाँ एक ओर से कृष्ण प्रेम भक्ति प्रचार, दूसरी ओर से कनफटे योगियों का अलख- अलख का उच्चार, तीसरी ओर से सूफी संतों का पैग़ाम और चौथी ओर से निर्गुणियों के अक्खड़पन सुनाई पड़ रहे थे। इसके अतिरिक्त अन्य पंथों,संप्रदायों में मतभिन्नता चरम पर थी।
अर्थात् *तत्कालीन भारतीय समाज धार्मिक,राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक,सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से खंड खंड होकर पतनशील हो गया था।*
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस युगीन वैषम्य को खुलकर देखा था।क्या लोक,क्या वेद, क्या परंपरा, कथा, पुराण, क्या धर्म, क्या जीवन और क्या जगत-प्रत्येक के उलझाव को उन्होंने समझा था।
*रामकथा के संदर्भ में मानो तुलसी की शिव दृष्टि ने कामदेव को भस्मीभूत कर दिया, क्योंकि रामकथा और कामकथा एक साथ नहीं चल सकती थी।अतः गोस्वामी तुलसीदासजी ने कामदेव को रससिंधु कृष्ण का सुवन बना दिया।अपने सामने अत्याचार से पीड़ित मानवों के त्राण के लिए उन्होंने जिस राम का रूप गढ़ा, वे शक्ति, शील, और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति हैं ।*
🗣
*कबीर अपने राम को रूप देने में परहेज करते रहे, उन्हें प्रकट नहीं किया।मानो वे ज्ञान की पोटली में बँधे रह गए। तुलसीदासजी ने ज्ञान के साथ भक्ति की चाशनी देकर राम को प्रकट किया और संत्रस्त मानवता के उद्धार के लिए उनके राम धनुष-बाण धारण कर धरती पर विचरने लगे।*
कबीर ने “दशरथसुत” राम से भिन्न निर्गुण राम को महत्त्व दिया । कबीर ने कहा-
*राम नाम का मरम है आना।दशरथसुत तिहुं लोक बखाना।।*
अर्थात् दशरथ के बेटे राम का बखान तीनों लोकों में होने लगा, जबकि राम नाम का मर्म “आना” यानी दूसरा है ।
*इस कथन से तुलसी मर्माहत हो गए और इसी परिप्रेक्ष्य में शिव-पार्वती संवाद की भूमिका तैयार की गई ।*
इस संवाद में पहले शिवजी ने पार्वती जी की प्रशंसा की और उनके प्रश्नों को सुंदर, सुखद और संत सम्मत कहा परंतु
*“राम सो अवध नृपतिसुत सोई।की अज अगुन अलख गति कोई।।”*
यह उन्हें अच्छा नहीं लगा। *शिवजी को यह बात कितनी असह्य, दुःखद और अरुचिकर लगी, यह उनके उत्तर के कठोर शब्दों से ही ज्ञात होता है ।वक्ता वही उत्तम है जो श्रोता के अंतर्बाह्य भावों को समझकर दुलार और समयानुसार फटकार से उसके संशय और भ्रम को निर्मूल कर दे।*
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🔻🔻जय सिया राम🔻🔻
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*_वैदूर्य कांति रमल:, प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत:।_*
*_अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद:॥_*

*शनिदेव की जय⛳*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

नागपंचमी (श्रावण पंचमी) २५ जुलाई २०२० पर विशेष

*नागपंचमी (श्रावण पंचमी) २५ जुलाई २०२० पर विशेष*
=========================
पूजा मुहूर्त - 
०५:४३ से ०८:२५ 
( २५ जुलाई २०२०)

पंचमी तिथि प्रारंभ - 
१४:३३ (२४ जुलाई २०२०)

पंचमी तिथि समाप्ति - 
१२:०१ (२५ जुलाई २०२० )

श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है। इस पर्व पर प्रमुख नाग मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है और भक्त नागदेवता के दर्शन व पूजा करते हैं। सिर्फ मंदिरों में ही नहीं बल्कि घर-घर में इस दिन नागदेवता की पूजा करने का विधान है।

नाग पंचमी का हिंदू धर्म में बहुत अधिक महत्व माना जाता है। इस दिन उत्तरा फाल्गुनी और हस्त नक्षत्र होने से चंद्रमा की स्थिति कन्या राशिगत है।

परिघ और शिव नामक योग होने से नाग पूजन के लिए यह दिन श्रेष्ठ माना जा रहा है। इस दिन नाग देवता की पूजा की जाती है और सर्पों को दूध पिलाने की भी परंपरा है। यह पर्व श्रावण मास की शुक्ल पक्ष पंचमी को मनाया जाता है।

ऐसी मान्यता है कि जो भी इस दिन श्रद्धा व भक्ति से नागदेवता का पूजन करता है उसे व उसके परिवार को कभी भी सर्प भय नहीं होता। इस बार यह पर्व २५ जुलाई, शनिवार को है। इस दिन नागदेवता की पूजा किस प्रकार करें, इसकी विधि इस प्रकार है।

 *पूजन विधि*
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नागपंचमी पर सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि करने के बाद सबसे पहले भगवान शंकर का ध्यान करें नागों की पूजा शिव के अंश के रूप में और शिव के आभूषण के रूप में ही की जाती है। क्योंकि नागों का कोई अपना अस्तित्व नहीं है। अगर वो शिव के गले में नहीं होते तो उनका क्या होता। इसलिए पहले भगवान शिव का पूजन करेंगे।  शिव का अभिषेक करें, उन्हें बेलपत्र और जल चढ़ाएं।

इसके बाद शिवजी के गले में विराजमान नागों की पूजा करे। नागों को हल्दी, रोली, चावल और फूल अर्पित करें। इसके बाद चने, खील बताशे और जरा सा कच्चा दूध प्रतिकात्मक रूप से अर्पित करेंगे।

घर के मुख्य द्वार पर गोबर, गेरू या मिट्टी से सर्प की आकृति बनाएं और इसकी पूजा करें।

घर के मुख्य द्वार पर सर्प की आकृति बनाने से जहां आर्थिक लाभ होता है, वहीं घर पर आने वाली विपत्तियां भी टल जाती हैं।

इसके बाद 'ऊं कुरु कुल्ले फट् स्वाहा' का जाप करते हुए घर में जल छिड़कें। अगर आप नागपंचमी के दिन आप सामान्य रूप से भी इस मंत्र का उच्चारण करते हैं तो आपको नागों का तो आर्शीवाद मिलेगा ही साथ ही आपको भगवान शंकर का भी आशीष मिलेगा बिना शिव जी की पूजा के कभी भी नागों की पूजा ना करें। क्योंकि शिव की पूजा करके नागों की पूजा करेंगे तो वो कभी अनियंत्रित नहीं होंगे नागों की स्वतंत्र पूजा ना करें, उनकी पूजा शिव जी के आभूषण के रूप में ही करें।

*नाग पंचमी पूजा मन्त्र*:
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सर्वे नागाः प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथ्वीतले।
ये च हेलिमरीचिस्था येऽन्तरे दिवि संस्थिताः॥

ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिनः।
ये च वापीतडगेषु तेषु सर्वेषु वै नमः॥

*अर्थ-*

इस संसार में, आकाश, स्वर्ग, झीलें, कुएँ, तालाब तथा सूर्य-किरणों में निवास करने वाले सर्प, हमें आशीर्वाद देंतथा हम सभी आपको बारम्बार नमन करते हैं।

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शङ्ख पालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियां तथा।। 

एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्।
सायङ्काले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः।
तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्॥

*अर्थ -*
======
नौ नाग देवताओं के नाम अनन्त, वासुकी, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शङ्खपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक तथा कालिया हैं। यदि प्रतिदिन प्रातःकाल नियमित रूप से इनका जप किया जाता है, तो नाग देवता आपको समस्त पापों से सुरक्षित रखेंगे तथा आपको जीवन में विजयी बनायेंगे।
नाग-नागिन के जोड़े की प्रतिमा (सोने, चांदी या तांबे से निर्मित) के सामने यह मंत्र बोलें।

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शंखपाल धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।।
एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्।
सायंकाले पठेन्नित्यं प्रात:काले विशेषत:।।

तस्मै विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।

इसके बाद पूजा व उपवास का संकल्प लें। नाग-नागिन के जोड़े की प्रतिमा को दूध से स्नान करवाएं। इसके बाद शुद्ध जल से स्नान कराकर गंध, फूल, धूप, दीप से पूजा करें व सफेद मिठाई का भोग लगाएं। यह प्रार्थना करें।

सर्वे नागा: प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथिवीतले।।
ये च हेलिमरीचिस्था येन्तरे दिवि संस्थिता।
ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिन:।
ये च वापीतडागेषु तेषु सर्वेषु वै नम:।।

प्रार्थना के बाद नाग गायत्री मंत्र का जाप करें-

ऊँ नागकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि तन्नो सर्प: प्रचोदयात्।

इसके बाद सर्प सूक्त का पाठ करें

ब्रह्मलोकुषु ये सर्पा: शेषनाग पुरोगमा:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासुकि प्रमुखादय:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
कद्रवेयाश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
इंद्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखादय:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखादय:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
पृथिव्यांचैव ये सर्पा: ये साकेत वासिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
ग्रामे वा यदिवारण्ये ये सर्पा प्रचरन्ति च।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
समुद्रतीरे ये सर्पा ये सर्पा जलवासिन:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।
रसातलेषु या सर्पा: अनन्तादि महाबला:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।।

नागदेवता की आरती करें और प्रसाद बांट दें। इस प्रकार पूजा करने से नागदेवता प्रसन्न होते हैं और हर मनोकामना पूरी करते हैं।
 
 *सांपों को लेकर मान्यताएं*
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माना जाता है कि इच्‍छाधारी नाग होते हैं, जो रूप बदल सकते हैं।

कुछ दुर्लभ नागों के सिर पर मणि होती हैं।

नागों की स्मरण शक्ति तेज होती है।

सौ वर्ष की उम्र पूरी करने के बाद नागों में उड़ने की शक्ति हासिल हो जाती है।

सौ वर्ष की उम्र के बाद नागों में दाढ़ी-मूंछ निकल आती है।

नाग खुद का बिल नहीं बनाता, वह चूहों के बिल में रहता है।

नाग जमीन के अंदर गढ़े धन की रक्षा करता है। इसे नाग चौकी कहा जाता है।

नाग संगीत सुनकर झूमने लगते हैं।

नागों को ही सबसे पहले भूकंप, प्रलय या अन्य किसी प्राकृतिक आपता का पता चल जाता है।

नाग की केंचुल दरवाजे के ऊपर रखने से घर को नजर नहीं लगती।

*नागपंचमी*
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महाभारत आदि ग्रंथों में नागों की उत्पत्ति के बारे में बताया गया है। इनमें शेषनाग, वासुकि, तक्षक आदि प्रमुख हैं। नागपंचमी के अवसर पर हम आपको ग्रंथों में वर्णित प्रमुख नागों के बारे में बता रहे हैं।

*तक्षक नाग*
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धर्म ग्रंथों के अनुसार, तक्षक पातालवासी आठ नागों में से एक है। तक्षक के संदर्भ में महाभारत में वर्णन मिलता है। उसके अनुसार, श्रृंगी ऋषि के शाप के कारण तक्षक ने राजा परीक्षित को डसा था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। तक्षक से बदला लेने के उद्देश्य से राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने सर्प यज्ञ किया था। इस यज्ञ में अनेक सर्प आ-आकर गिरने लगे। यह देखकर तक्षक देवराज इंद्र की शरण में गया।

जैसे ही ऋत्विजों (यज्ञ करने वाले ब्राह्मण) ने तक्षक का नाम लेकर यज्ञ में आहुति डाली, तक्षक देवलोक से यज्ञ कुंड में गिरने लगा। तभी आस्तिक ऋषि ने अपने मंत्रों से उन्हें आकाश में ही स्थिर कर दिया। उसी समय आस्तिक मुनि के कहने पर जनमेजय ने सर्प यज्ञ रोक दिया और तक्षक के प्राण बच गए।

*कर्कोटक नाग*
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कर्कोटक शिव के एक गण हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, सर्पों की मां कद्रू ने जब नागों को सर्प यज्ञ में भस्म होने का श्राप दिया तब भयभीत होकर कंबल नाग ब्रह्माजी के लोक में, शंखचूड़ मणिपुर राज्य में, कालिया नाग यमुना में, धृतराष्ट्र नाग प्रयाग में, एलापत्र ब्रह्मलोक में और अन्य कुरुक्षेत्र में तप करने चले गए।

ब्रह्माजी के कहने पर कर्कोटक नाग ने महाकाल वन में महामाया के सामने स्थित लिंग की स्तुति की। शिव ने प्रसन्न होकर कहा- जो नाग धर्म का आचरण करते हैं, उनका विनाश नहीं होगा। इसके बाद कर्कोटक नाग उसी शिवलिंग में प्रवेश कर गया। तब से उस लिंग को कर्कोटेश्वर कहते हैं। मान्यता है कि जो लोग पंचमी, चतुर्दशी और रविवार के दिन कर्कोटेश्वर शिवलिंग की पूजा करते हैं उन्हें सर्प पीड़ा नहीं होती।

*कालिया नाग*
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श्रीमद्भागवत के अनुसार, कालिया नाग यमुना नदी में अपनी पत्नियों के साथ निवास करता था। उसके जहर से यमुना नदी का पानी भी जहरीला हो गया था। श्रीकृष्ण ने जब यह देखा तो वे लीलावश यमुना नदी में कूद गए। यहां कालिया नाग व भगवान श्रीकृष्ण के बीच भयंकर युद्ध हुआ। अंत में श्रीकृष्ण ने कालिया नाग को पराजित कर दिया। तब कालिया नाग की पत्नियों ने श्रीकृष्ण से कालिया नाग को छोडऩे के लिए प्रार्थना की। तब श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि तुम सब यमुना नदी को छोड़कर कहीं और निवास करो। श्रीकृष्ण के कहने पर कालिया नाग परिवार सहित यमुना नदी छोड़कर कहीं और चला गया।

इनके अलावा कंबल, शंखपाल, पद्म व महापद्म आदि नाग भी धर्म ग्रंथों में पूज्यनीय बताए गए हैं।

नागपंचमी पर नागों की पूजा कर आध्यात्मिक शक्ति और धन मिलता है। लेकिन पूजा के दौरान कुछ बातों का ख्याल रखना बेहद जरूरी है।
हिंदू परंपरा में नागों की पूजा क्यों की जाती है और ज्योतिष में नाग पंचमी का क्या महत्व है।

*नाग पंचमी का महत्व: *
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मान्यता है कि इस दिन सर्पों को अर्पित किया जाने वाला पूजन नाग देवताओं के समक्ष पहुंच जाता है। हिंदू धर्म में सर्पों को पूजनीय माना गया है। नाग को भगवान शिव के गले का हार और भगवान विष्णु की शैय्या कहा गया है। 

ऐसे में माना नाग की पूजा करने से कहते हैं भगवान शिव और भगवान विष्णु दोनों प्रसन्न होते हैं। नाग पञ्चमी पूजन के समय बारह नागों की पूजा की जाती है। अनन्त, वासुकि, शेष, पद्म, कम्बल, कर्कोटक, अश्वतर, धृतराष्ट्र, शङ्खपाल, कालिया, तक्षक, पिङ्गल।

अगर कुंडली में राहु-केतु की स्थिति ठीक ना हो तो इस दिन विशेष पूजा का लाभ पाया जा सकता है।

जिनकी कुंडली में विषकन्या या अश्वगंधा योग हो, ऐसे लोगों को भी इस दिन पूजा-उपासना करनी चाहिए. जिनको सांप के सपने आते हों या सर्प से डर लगता हो तो ऐसे लोगों को इस दिन नागों की पूजा विशेष रूप से करना चाहिए।

*नाग पंचमी के दिन क्या करें:*
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इस व्रत के एक दिन पूर्व यानि चतुर्थी को एक समय भोजन कर पंचमी तिथि को उपवास रखा जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, पंचमी तिथि के स्वामी नाग हैं, इसलिए भक्तिभाव के साथ गंध, पुष्प, धूप, कच्चा दूध, खीर, भीगा हुआ बाजरा और घी से नाग देवता का पूजन करें। इस दिन सपेरों और ब्राह्मणों को भी लड्डू और दक्षिणा दान करने की परंपरा है। 

कई लोग इस दिन कालसर्प का पूजन करते हैं। नाग पूजा के लिये नागदेव की तस्वीर या फिर मिट्टी या धातू से बनी उनकी प्रतिमा का पूजन किया जाता है। दूध, धान, खील और दूब चढ़ावे के रूप मे अर्पित की जाती है। सपेरों से किसी नाग को खरीदकर उन्हें मुक्त भी कराया जाता है। इस दिन जीवित सांप को दूध पिलाकर भी नागदेवता को प्रसन्न किया जाता है।

*भूलकर भी ये ना करें*
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०१- जो लोग भी नागों की कृपा पाना चाहते हैं उन्हें नागपंचमी के दिन ना तो भूमि खोदनी चाहिए और ना ही साग काटना चाहिए.।

०२- उपवास करने वाला मनुष्य सांयकाल को भूमि की खुदाई कभी न करे।

०३- नागपंचमी के दिन धरती पर हल न चलाएं।

०४- देश के कई भागों में तो इस दिन सुई धागे से किसी तरह की सिलाई आदि भी नहीं की जाती।

०५- न ही आग पर तवा और लोहे की कड़ाही आदि में भोजन पकाया जाता है।

०६- किसान लोग अपनी नई फसल का तब तक प्रयोग नहीं करते जब तक वह नए अनाज से बाबे को रोट न चढ़ाएं।

*राहु-केतु से परेशान हों तो क्या करें*
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एक बड़ी सी रस्सी में सात गांठें लगाकर प्रतिकात्मक रूप से उसे सर्प बना लें इसे एक आसन पर स्थापित करें। अब इस पर कच्चा दूध, बताशा और फूल अर्पित करें। साथ ही गुग्गल की धूप भी जलाएं! 

इसके पहले राहु के मंत्र 'ऊं रां राहवे नम:' का जाप करना है और फिर केतु के मंत्र 'ऊं कें केतवे नम:' का जाप करें।

जितनी बार राहु का मंत्र जपेंगे उतनी ही बार केतु का मंत्र भी जपना है।

मंत्र का जाप करने के बाद भगवान शिव का स्मरण करते हुए एक-एक करके रस्सी की गांठ खोलते जाएं. फिर रस्सी को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें. राहु और केतु से संबंधित जीवन में कोई समस्या है तो वह समस्या दूर हो जाएगी।

*सांप से डर लगता है या सपने आते हैं।*
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अगर आपको सर्प से डर लगता है या सांप के सपने आते हैं तो चांदी के दो सर्प बनवाएं साथ में एक स्वास्तिक भी बनवाएं। अगर चांदी का नहीं बनवा सकते तो जस्ते का बनवा लीजिए।
अब थाल में रखकर इन दोनों सांपों की पूजा कीजिए और एक दूसरे थाल में स्वास्तिक को रखकर उसकी अलग पूजा कीजिए।

नागों को कच्चा दूध जरा-जरा सा दीजिए और स्वास्तिक पर एक बेलपत्र अर्पित करें. फिर दोनों थाल को सामने रखकर 'ऊं नागेंद्रहाराय नम:' का जाप करें।

इसके बाद नागों को ले जाकर शिवलिंग पर अर्पित करें और स्वास्तिक को गले में धारण करें।

ऐसा करने के बाद आपके सांपों का डर दूर हो जाएगा और सपने में सांप आना बंद हो जाएंगे।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Thursday, July 23, 2020

सावन विशेष श्री रामकथा अमृत सुधा 19


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-19*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०५*📖🕉️
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✍🏻
आदरणीय चिन्तनशील बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂
✍🏻
*पूर्व सती चरित में जितने मोह,भ्रम,संदेहादि थे,वे सब उसी जन्म में भस्मीभूत हो गए।*
 गोस्वामीजी संशय को सर्प की संज्ञा देते हैं-
*संशय सर्प ग्रसन उरगादः।*
यह ऐसा महाकाल है जिसके डसने पर जीवन भस्मीभूत हो जाता है । सती जी मूलतः उसी संशय सर्प के दंशन से भस्मीभूत हो गईं और इसी संशय छिद्र के कारण भगवान् शिव के साथ अगस्त्य ऋषि से सुनी हुई पूरी कथा रिसकर विनष्ट हो गई ।
संत कहते हैं कि *दक्ष पुत्री होने के कारण यह सब घटित हुआ । दक्ष में बौद्धिक चातुर्य है और वही चतुराई सती को शिव से विलग करने का कारण बनी ।*
🗣 ध्यान रखें कि
*व्यक्ति में संस्कार तीन प्रकार से आते हैं-माता -पिता के रज-वीर्य से,पूर्व जन्म के कृत कर्म से  तथा वाल्यावस्था के परिवेश से ।*
*अन्तिम दोनों तो सत्संगति और साधना से सुधर जाते हैं लेकिन माता पिता से आए तत्त्व तो शरीर के मिटने पर ही समाप्त होते हैं ।वैज्ञानिक मानते हैं कि वंशानुगत बीमारी असाध्य है ।*
💐
*दक्ष पुत्री सती भी यज्ञानल में भस्मीभूत होकर पार्वती हुई और फिर भगवान् शिव और भगवान् राम के चरणों में अनन्य अनुराग हुआ और रामकथा श्रवण की प्रीति हुई-*
भगवान् शिव कहते हैं –
*तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी।कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी ।*
दक्ष पुत्री सती तो अपने पितृ संस्कार से इस प्रकार ग्रस्त हैं कि भगवान् शिव के वचन भी अप्रभावी हो गए। 
*आज के परिवेश में तो यह और महत्त्वपूर्ण हो गया है । हमारे यहाँ तो गर्भाधान से लेकर अनेक संतति संस्कारों के वर्णन है ।सचमुच यह एक योग क्रिया है, भोगक्रिया नहीं।*
पार्वती जी ने राम कथा संबंधित 14 प्रश्न किए- *निर्गुण-सगुण संबंधी, राम अवतार, बाल चरित, सीताराम विवाह, राज-परित्याग, वनवास, रावण-वध, रामराज्य प्रसंग ये आठ प्रसंग मानो मूल प्रश्न हैं,*
*जिनके उत्तर भगवान् शिव ने दिये।* 
और छः प्रश्न हैं-
*साकेत गमन, भगवत्तत्त्व, भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य।*
इस पर मतवैभिन्य है । 
*कुछ संत कहते हैं कि भगवान् अपने निज स्वरूप में अयोध्या में ही रह गए। कुछ कहते हैं कि अँवराई वाला प्रसंग ही नारद जी के साथ साकेतधाम गमन का वर्णन है, आदि आदि ।*
गोस्वामी जी ने बड़ी कलात्मकता से इस प्रसंग को वर्णित किया है । *भगवान् शिव के पूछने पर पार्वती जी ने उत्तरकांड में कहा*-
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। *से अपनी बात कह दी और फिर आगे  भुशुंडि चरित आरंभ हुआ ।*
भगवान् शिव पार्वतीजी के श्रद्धा से पूछे गए प्रश्नों से बड़े प्रसन्न हुए और उनके हृदय में रामचरित का प्रकटीकरण हुआ- *“हर हियँ रामचरित सब आए”।* तत्पश्चात्-श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। *यहाँ गोस्वामी जी एक महत्त्वपूर्ण  बात की ओर संकेत करते हैं पहले उनका चरित आता है तब उस चरित के कारण उत्पन्न प्रेम से रूप का प्रकटीकरण होता है ।* 
*भगवान् शिव के हृदय में चरित के बाद रूप का आना भक्त्यात्मक दृष्टि से पार्वती के प्रश्नों के उत्तर हैं। चरित निर्गुण सगुण दोनों हो सकते हैं ।* कबीर और तुलसीदासजी दोनों ने राम चरित के वर्णन किये हैं । परंतु एक का निर्गुण है और दूसरे का सगुण ।
*हाँ, एक बात और है कबीर अपने निर्गुण रामचरित में सगुण चरित को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं । परंतु तुलसीदास दोनों चरित को अभेद मानते हैं ।*
*मानस के प्रायः प्रत्येक श्रोता को यही भ्रांति है कि वह निर्गुण ब्रह्म अलग है और दशरथ नंदन राम अलग हैं।*
 *भगवान् शिव सहित सारे वक्ताओं ने मानस में यही सिद्ध किया है कि दोनों अभेद हैं*-सगुनहिं अगुनहिं नहीं कछु भेदा। *पूरे मानस का यही प्रतिपाद्य है* कि
*“अगुन अलेप अमान एकरस।रामु सगुन भए भगत पेम बस।।* 
यहाँ गोस्वामीजी कहते हैं- *श्रीरघुनाथ रूप उर आवा।*
मेरी दृष्टि में यहाँ *“श्रीरघुनाथ”* शब्द महत्त्वपूर्ण है । *”श्री”* सीताजी के लिए है और *“रघुनाथ”* श्रीराम के लिए ।
*युगल चरित का सम्मिलित स्वरूप ही रामचरित मानस है।*
महाराज मनु ने भी जब कहा कि मुझे उस रूप के दर्शन चाहिए- *“जो सरूप बस सिब मन माहीं”*। तो भगवान् श्रीराम सीताजी सहित प्रकट हुए-
*राम बाम दिसि सीता सोई ।* इससे स्पष्ट है कि *भगवान् शिव के हृदय में युगल रूप का निवास है ।*
इस पर भी संतों के अलग-अलग मत हैं। *कुछ बालक राम को इनका इष्ट मानते हैं तो कुछ भिन्न स्वरूप को।* क्योंकि भगवान् शिव ने बाल लीला से लेकर रण लीला तक जिस चरित को देखा, वहीं अभिभूत हो गए।अतः शिव तो- *“सेवक स्वामी सखा सीय पी के”।*  अतः उनके हृदय में राम समग्रता में निवास करते हैं ।
हाँ,एक बात जो मेरी दृष्टि से  महत्त्वपूर्ण है । *भक्ति में सेव्य (इष्ट) बालक रूप में हों तो यह अति उत्तम है, क्योंकि कलिग्रस्त जीव के लिए ऐसा स्वरूप बड़ा सहज और स्वाभाविक होता है ।अन्यथा सेवक ही बालवत् हो जाए तो किसी भी स्वरूप में वह आनंदित रह सकता है।*
*बालक की सहजता, निष्कलुषता और उसकी अंतर्बाह्य पवित्रता भक्त्यात्मक दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण है ।* फिर कोई भी लीला हो-सर्वत्र आनंद ही आनंद है । भगवान् कहते हैं - *“बालक सुत सम दास अमानी।”*
अतः महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि *हम श्रीराम के किस रूप के उपासक हैं, बल्कि महत्त्वपूर्ण यह है कि जिस दिन हमारे जीवन में बालक सम अमानित्व का भाव जग जाता है हमारे इष्ट हमारे ही हो जाते हैं । रामकृष्ण परमहंस बालवत् जीते थे तो जगदंबा स्वयं पुत्रवत् पालन करती थीं। यहाँ तक कि माँ शारदा में भी उनका यही भाव था। यही है- बालवत् साधना ।*
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℘ *जारी ⏭️* ɮ
🙏🏻जय सियाराम
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*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻
 
*_नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्जसम्भवाम् । श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थिताम् ॥_*

*माता लक्ष्मी की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Wednesday, July 22, 2020

सावन विशेष श्री रामकथा अमृत सुधा 18


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-18*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०४*📖🕉️
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✍🏻
आदरणीय चिन्तनशील बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂
🗣️
*शिव आनंदस्वरूप हैं । गोस्वामी जी कहते हैं कि कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय हैं ,जहाँ शिव -पार्वती जी सदा निवास करते हैं ।देवता, ऋषि, मुनि योगी आदि उनकी सेवा करते हैं ।वे सहज रूप से एक वटवृक्ष के नीचे विराजमान हैं ।*
कुन्द के पुष्प, चंद्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था।बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के से वस्त्र धारण किये हुए थे ।उनके चरण नए  लाल कमल के समान थे,नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अंधकार हरनेवाली थी-
*तरुन अरुन अंबुज सम चरना।नख दुति भगत हृदय तम हरना।।*
मुख शरद पूनम की तरह शोभायमान है। सिर पर जटा-मुकुट और गंगा सुशोभित हैं । नीलकंठ भगवान् शिव बालचंद्र धारण कर ऐसे विराजमान हैं, मानो शांत रस शरीर धारण कर बैठा हो।
*ऐसे अवसर पर भगवती पार्वती के वहाँ पहुँचने पर शिवजी ने उन्हें अपनी बाँयी ओर बैठने के लिए आसन दिया ।* उनके मन में सर्वहित कारी राम कथा पूछने का भाव जगा। पार्वती जी ने कहा- *हे संसार के स्वामी!हे मेरे नाथ!हे त्रिपुरासुर के बध करने वाले! आपकी महिमा तीनों लोकों में विख्यात है ।चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता*  सभी आपके चरणकमलों की सेवा करते हैं –
*बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी।*
*त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी।*
*चर अरु अचर नाग नर देवा।*
*सकल करहिं पद पंकज सेवा।।*
यह प्रसंग सचमुच बड़ा अनुपम है ध्यान दीजिये 
🗣  *जब सती रूपी जिज्ञासा एक जन्म में संशयग्रस्त होकर भस्मीभूत हो गई और वही फिर नवीन जन्म धारण कर कठिन तप से श्रद्धा हो गई ।*             
 *तप में तपकर जिज्ञासा का भस्मांकुरित रूप ही श्रद्धा है।*
⚜   
                                 *आज श्रद्धा और विश्वास के परिणय से रामकथा विश्व कल्याण कारिणी भागीरथी के रूप में प्रवहमान होने वाली है ।यह अत्यंत व्यावहारिक और जीवनोपयोगी तथ्य है । जब रामकथा की भावभूमि के लिए भगवान् शिव और सतीजी को इतनी साधना करनी पड़ी तो हम भवाटवि में भटक रहे जीव का क्या कहना।*
महाकाल का काल भी मानो रूक गया । 87 हजार वर्षों की समाधि और पार्वती की अखण्ड और अनवरत  तपस्या के पश्चात् *श्रद्धा और विश्वास की जो परिणय भूमि तैयार हुई, उसी पर आज रामकथा गंगा धारा प्रवाहित होने वाली है ।*
मानस का यह प्रसंग सचमुच में असाधारण महत्त्व का है ।
*श्रद्धा और विश्वास जीवन के दो ऐसे पहिए हैं जिस पर जगत के बोझ को लादकर हम आनंद से जीवन जी सकते हैं। आज विडंबना यह है कि छोटों को बड़ों पर श्रद्धा नहीं और बड़ों को छोटों पर विश्वास नहीं।फलतः पूरा पारिवारिक और सामाजिक जीवन असंतुलित हो गया है। पिता, पुत्र, पत्नी, माता, भाई आदि के संबंधों में सर्वत्र आप इसका आकलन कर सकते हैं।जहाँ संतुलन है, मतलब वहाँ ये दो पहिए ठीक से धुरी पर घूम रहे हैं ।यह सभी काल और देश के लिए प्रासंगिक है।*
परमपूज्य रामकिंकर जी महाराज कहते हैं कि *सती का जीवन दुःखमय हो गया “क्योंकि स्वयं उनमें श्रद्धा दृष्टि का उदय नहीं हुआ था और शिव की विश्वास दृष्टि पर भरोसा नहीं था।स्वयं के पास दृष्टि न हो और दूसरे की दृष्टि पर विश्वास न हो,ऐसी स्थिति में कल्याण की कल्पना भी बुद्धि की विडंबना है ।”*
*यही पार्वती श्रद्धा रूप में जब विश्वास रूप में विराजमान शिवजी के चरणों में शरणागत हो जाती हैं, तब मात्र उनका ही कल्याण नहीं होता वरन उस रामकथा गंगा धारा में अवगाहन कर संपूर्ण जीवन जगत का कल्याण हो रहा है और अनंत काल तक होता रहेगा ।* 
इस प्रसंग में भगवान् शिव के चरणों की वंदना का वर्णन करते हुए गोस्वामी जी कहते हैं –
(1)
*तरुन अरुन अंबुज सम चरना।नख दुति भगत हृदय तम हरना।।*
भगवान् शिव के बारे में पार्वती जी कहती हैं - *तुम त्रिभुवन गुरु वेद बखाना।* अर्थात् भगवान् शिव त्रिभुवन के गुरु हैं ।गुरु के बारे में कहा गया है- *श्री गुरु पद नख मनि गन ज्योति ।सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।।* 
अतः यह बड़ा सार्थक और सहेतुक वर्णन है ।
(2)
*चर अरु अचर नाग नर देवा।सकल करहिं पद पंकज सेवा।।*
भगवान् शिव महादेव हैं । उनकी सेवा में पाताल लोक के नाग, पृथ्वीलोक के मुनि और स्वर्ग के देवता तो हैं ही जड़ और चेतन भी सम्मिलित हैं । 
*भक्त्यात्मक दृष्टि से विचार करने पर और शास्त्र तथा संत के वचनानुसार भक्त जहाँ जिस योनि में रहता है, वह प्रभु की सेवा में संलग्न रहता है।*  मानस में अधम पात्र बालि की दृष्टि खुली तो भगवान् श्रीराम से कहा- *जेहि जोनि जन्मों कर्म बस तहँ रामपद अनुरागऊँ।।*
मानस में श्रीराम के लिए पृथ्वी का कोमल होना,बादल के द्वारा छाया करना, वृक्ष का पुष्पित फलित होना- *सब तरु फरे रामहित लागी।* आदि से उपर्युक्त प्रसंग की सार्थकता सिद्ध होती है ।
(3)
*बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि।।* 
आज हम बात-बात में वेदादि शास्त्रों की अवहेलना करते हैं इसलिए कि हमें इनका रहस्य पता नहीं है । आज भवानी पार्वती श्रुतियों के सिद्धांतसम्मित  श्री रघुनाथजी के निर्मल यश श्रवण करने हेतु पृथ्वी पर सिर रखकर भगवान् शिव के चरणों में प्रणाम कर रही हैं और हाथ जोड़कर विनती करती हैं ।
*करबद्ध होकर सिर को पृथ्वी पर रखकर घुटने के बल होकर नमन निवेदित करना-* यह विनय की पराकाष्ठा है और यही है श्रद्धा की स्वाभाविक भावदशा। *इसी विनय वश भगवान् शंकर रूप विश्वास  के मुख से स्वतःस्फूर्त रामकथा की गंगोत्री प्रवहमान होने लगी।* 
🗣
*यही है रामकथा के श्रवण की पावन विधि।*
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℘ *जारी ⏭️* ɮ
🙌🏻 सियावर श्री रामचन्द्र की जय🙌🏻
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*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻
 
*_नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम। पाणौ महासायकचारूचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम॥_*

*भगवान सत्यनारायण की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057उ

Tuesday, July 21, 2020

सावन विशेष श्री रामकथा अमृत सुधा भाग 17


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-17*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०३*📖🕉️
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✍🏻
आदरणीय चिन्तनशील बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂

*बालकांड में शिव चरित श्रवण के पश्चात् भरद्वाजजी की अपार श्रद्धा देखकर याज्ञवल्क्यजी कहते हैं –*
अहो धन्य तव जन्म मुनीसा।
तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा।।
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं।
रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं।।
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू।
राम भगत कर लच्छन एहू।।
*यहाँ “गौरीसा”शब्द भावगर्भित सहेतुक है ।अब शिव गौरीशा हैं यानी गौरी के स्वामी हैं ।गौरी अर्थात् भवानी अर्थात् श्रद्धा ।श्रद्धा हिमाचल पुत्री हैं ।यानी पर्वत की पुत्री हैं अतः पार्वती । श्रद्धा पर्वत की तरह अचल होनी चाहिए तभी श्रद्धा । तपस्या में भी एकदम अचल रहीं।सप्तर्षि की भी बात नहीं मानी।*
🗣
*ध्यान दीजिए श्रद्धा का यही स्वरूप भगवत्प्राप्ति में सहायक होता है ।*
संत और शास्त्र का मत है –
*जीवन में श्रद्धा दृढ़ हो तो संदेह,संशय,भ्रम और भ्रान्ति का भय नहीं रहता ।*
संदेह सदा मन में, संशय सदा बुद्धि में और भ्रम सदा चित्त में होता है और भ्रांति सदा अहंकार के कारण होती है ।
*चारों का विनाश श्रद्धा के उत्पन्न होने से ही होता है ।*
यहाँ श्रद्धा और विश्वास के चरित श्रवण से भरद्वाज जी को परम सुख मिला- *भरद्वाज मुनि अति सुख पावा।।*
यही शिव-शिवा चरित का महत्त्व है।
*भारतीय सनातन परंपरा में शिवरात्रि का आध्यात्मिक रहस्य यही है ।गौरीशा की कृपा प्राप्ति का यह पावन व्रत है ।यह व्रत जीवन के तमस को समूलतः विनष्ट कर देता है।*
संतो की दृष्टि में *जीव या जीवन की रात्रि के लिए भी जो प्रकाशस्वरूप परम कल्याणकारी हैं -वही शिव हैं और यह जन्म-जन्मांतर की रात्रि को मिटाने वाला व्रत है, अतः शिवरात्रि है ।*
दुर्गा सप्तशती में माँ दुर्गा की स्तुति करते हुए कहा गया है-
*कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा।*
हे देवि!भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो।
*जीव इन्हीं तीन रात्रियों में भ्रमण करता है। विद्वान् मानते हैं कि कालरात्रि से अभिप्रेत है -होली(हुताशनी),महारात्रि-शिवरात्रि तथा मोहरात्रि-दीपावली अथवा शरत्पूर्णिमा।कुछ विद्वान् दीपावली को कालरात्रि मानते हैं । मताभिन्नता के कारण यह अंतर मिलता है ।*
लेकिन दुर्गा सप्तशती में जिस दारुण रात्रि का वर्णन है, उसका आध्यात्मिक रहस्य कुछ और है।यह अधोलिखित है जो ज्यादा शास्त्रीय और आध्यात्मिक है:-
1- *कालरात्रि-जीव जब एक योनि से दूसरी योनि(मृत्यु और गर्भ में आने के पूर्व) में जाता है तो बीच में जो गहन अंधकार से गुजरना पड़ता है वह रात्रि कालरात्रि है ।*
2- *महारात्रि-जीव जब गर्भ में आता है तो वहाँ योनि अनुसार जितना समय व्यतीत करता है, 9 महीना आदि आदि,वह महारात्रि का तमस है ।अर्थात् वह महारात्रि है ।*
3- *मोहरात्रि-प्राणि जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत जिस अज्ञान रात्रि में सोया रहता है -वह मोहरात्रि है ।*
गोस्वामी जी मानस में कहते हैं –
*मोह निसाँ सबु सोवनिहारा।देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।*
यहाँ ज्ञान रूप सूर्य के अभाव में मोहरात्रि होती है ।इस मोहरात्रि में सोया हुआ जीव अनेक प्रकार का स्वप्न देख रहा है ।
इन रात्रियों(विशेषतः मोह रात्रि) के मूल में जीव का अज्ञान है ।मत्स्य पुराण के अनुसार *मनुष्य को सूर्य से स्वास्थ्य,अग्नि से धन, भगवान् शिव से ज्ञान और जनार्दन से मोक्ष की कामना करनी चाहिए –*
आरोग्यं भास्करदिच्छेद् धनमिच्छेद्धुताशनात् ईश्वरा ज्ज्ञानमिच्छेच्च मोक्षमिच्छे ज्जनार्दनात्।
*इस प्रकार भगवान् शिव की उपासना से ही परम ज्ञान की प्राप्ति कर जीव इस भयंकर त्रिरात्रि से मुक्त हो सकता है । और यह रात्रि पार्वती रूपा दुर्गा का ही स्वरूप है और शिवरात्रि व्रत का संक्षेप में  यही आध्यात्मिक रहस्य है ।*
स्वामी राम भद्राचार्य जी कहते हैं कि *अयोध्या कांड के मंगलाचरण के प्रथम श्लोक में गोस्वामी जी ने भगवान् शंकर के द्वादश ज्योतिर्लिंग की वंदना की है-*
1-
*वामांके च विभाति भूधरसुता* -सोमनाथ
2-
*देवापगा मस्तके*-विश्वनाथ
3-
*भालेबालविधुः*-मल्लिकार्जुन
4-
*गले च गरलं*-ओंकारेश्वर
5-
*यस्योरसि व्यालराट्-* महाकाल
6-
*भूतिविभूषणः*-वैद्यनाथ
7-
*सुरवरः-* भीमशंकर
8-
*सर्वाधिपः सर्वदा*-केदारनाथ
9-
*शर्वः-* त्र्यम्बकेश्वर
10-
*सर्वगतः-* दारुकवने नागेश्वर
11-
*शिवः-* घुष्मेश्वर
12-
*शशिनिभः शंकर*-रामेश्वर
यह मानस के माध्यम से द्वादश ज्योतिर्लिंग का अभिषेक है । *इसी से जीव का सर्वविध कल्याण संभव है ।*
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*सियावर श्रीरामचन्द्र जी की जय*
℘ *जारी ⏭️* ɮ
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*_हे एकदंत विनायकं तुम हो जगत के नायकं।_*
*_बुद्धि के दाता हो तुम माँ पार्वती के जायकं।।_*

‌*लम्बोदर महाराज प्रभु श्री गणपति भगवान की जय⛳*
‌                   आपका अपना
‌             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
‌        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
‌                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
‌           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
‌             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
‌       8120032834/7828657057

Monday, July 20, 2020

कर्मण्येवाधिकारस्ते

🗣️  ⛳ *श्लोक* ⛳

*कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।*
*मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।* ४७

*योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।*
*सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।* ४८
 
*📝 ⛳भावार्थ-*⛳

 *कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है ,फल में कभी नहीं। तुम कर्म फल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।।*

*हे धनञ्जय ! तू आसक्ति का त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।*

*✍🏻 ⛳विवेचना-*⛳

भगवद्गीता की सर्वश्रेष्ठ शिक्षाओं में से एक और सबसे प्रसिद्ध श्लोक है यह- *कर्मण्येवाधिकारस्ते.......*
 _मानव जीवन को सुर दुर्लभ इसीलिए कहा गया है क्योंकि इसमें कर्म करने का अधिकार है।परंतु हमारे प्रयत्न, पुरुषार्थ का परिणाम क्या और कितना होगा ये हम नहीं जानते। *जहाँ आशा है वहीँ निराशा भी होती है। अतः यहाँ एक बात स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि बिना परिणाम पर विचार किये तो कोई कार्य नहीं हो सकता , विचार कर ही कोई कार्य करना भी चाहिए परंतु उसका परिणाम हमारी अपेक्षा के अनुरूप न आये तो उससे हताश निराश न होकर हमें समत्व भाव से उसे स्वीकार भी करना चाहिए।* जिस प्रकार प्रत्येक विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे नंबरों के आने की उम्मीद कर परीक्षा देता है परंतु परीक्षक उसका मूल्यांकन कर उचित अंक प्रदान करता है। परिणामस्वरूप कोई प्रथम, कोई द्वितीय, कोई तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण होता है तो कोई फेल भी हो जाता है। *भगवान श्रीराम जी को जब राजतिलक की सूचना दी गयी, और अगले ही दिन 14 वर्ष वनवास का आदेश हुआ। दोनों ही स्थितियों में उनके ह्रदय में और चेहरे पर समान भाव थे यही समत्व योग है।* साथ ही हमारे हृदय में यह पूर्ण विश्वास बने रहना चाहिए कि वह परमात्मा सर्वव्यापी, समदर्शी और न्यायकारी होने के कारण हमारे द्वारा किये गए प्रयत्न, पुरुषार्थ का निश्चित और उचित फल भी देगा। किसी कवि ने लिखा है:-- *कर्म किये जा फल की चिंता मत कर ओ इंसान,जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान,ये है गीता का ज्ञान,* ये है गीता का ज्ञान।_
*श्रीभगवद्गीता जी के इन दो श्लोकों को ही जिनमें समत्व भाव से कर्म करने की बात भगवान श्रीकृष्ण ने कही हैं इसी को श्रीरामचरित मानस में भगवान राम ने शबरी को भक्ति की सर्वोच्च अवस्था बतलाया है:--*
🗣️
*आठवाँ जथा लाभ संतोषा,सपनेहुँ नहिं देखइ पर दोषा ।*
*नवम सरल सब सन् छल हीना,मम भरोस हिय हरष न दीना ।*

_अर्थात ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था में पूर्ण विश्वास रखते हुए , हमारे प्रयत्न पुरुषार्थ का जो कुछ भी परिणाम प्राप्त हो उस पर संतोष करते हुए ना तो विपरीत परिणाम के लिए किसी की आलोचना करना चाहिए और न ही मनोनुकूल फल प्राप्त होने पर ख़ुशी से पागल हो जाना चाहिए।_

📝  ⛳ *निष्कर्ष:--*⛳

_हम सभी को *अपने जीवन में , ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखते हुए, निष्काम और समत्व भाव से कर्म करते रहना चाहिए।यह निष्काम भाव, समत्व भाव एक दिन में नहीं आएगा परंतु निरंतर मनन, चिंतन, अभ्यास करने से धीरे धीरे हम मानव जीवन कीपूर्णता और सर्वोच्च अवस्था तक जा पहुंचेंगे।*
🙏🏻
*सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की शुभ मंगल कामना 🏵️🌼🙏🌼🏵️*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
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जरा जान लो कि राजा भोज कोन थे ?

जरा जान लो कि राजा भोज कोन थे ?
भोज पंवार या परमार वंश के नवें राजा थे। परमार वंशीय राजाओं ने मालवा की राजधानी धारानगरी (धार) से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। भोज ने बहुत से युद्ध किए और अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की जिससे सिद्ध होता है कि उनमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उनके जीवन का अधिकांश युद्धक्षेत्र में बीता तथापि उन्होंने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। उन्होंने मालवा के नगरों व ग्रामों में बहुत से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है।
कहा जाता है कि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को राजा भोज ने ही बसाया था, तब उसका नाम भोजपाल नगर था, जो कि कालान्तर में भूपाल और फिर भोपाल हो गया। राजा भोज ने भोजपाल नगर के पास ही एक समुद्र के समान विशाल तालाब का निर्माण कराया था, जो पूर्व और दक्षिण में भोजपुर के विशाल शिव मंदिर तक जाता था। आज भी भोजपुर जाते समय रास्ते में शिवमंदिर के पास उस तालाब की पत्थरों की बनी विशाल पाल दिखती है। उस समय उस तालाब का पानी बहुत पवित्र और बीमारियों को ठीक करने वाला माना जाता था। कहा जाता है कि राजा भोज को चर्म रोग हो गया था तब किसी ऋषि या वैद्य ने उन्हें इस तालाब के पानी में स्नान करने और उसे पीने की सलाह दी थी जिससे उनका चर्मरोग ठीक हो गया था। उस विशाल तालाब के पानी से शिवमंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग का अभिषेक भी किया जाता था।
राजा भोज स्वयं बहुत बड़े विद्वान थे और कहा जाता है कि उन्होंने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोशरचना, भवननिर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं जो अब भी विद्यमान हैं। इनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। उन्होने सन् 1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया। इनकी विद्वता के कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित हुई कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तैली।
भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, और गुणग्राही थे। इन्होंने युद्धों में अनेक विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।
जब भोज जीवित थे तो कहा जाता था-
अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥
(आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है; सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है; सभी पंडित आदृत हैं।)
जब उनका देहान्त हुआ तो कहा गया -
अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवं गते॥
(आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी हैं और सभी पंडित खंडित हैं।)

भोज, धारा नगरी के 'सिन्धुल' नामक राजा के पुत्र थे और इनकी माता का नाम सावित्री था। ऐसा माना जाता है, जब ये पाँच वषं के थे, तभी इनके पिता अपना राज्य और इनके पालनपोषण का भार अपने भाई मुंज पर छोड़कर स्वर्गवासी हुए थे। मुंज इनकी हत्या करना चाहता था, इसलिये उसने बंगाल के वत्सराज को बुलाकर उसको इनकी हत्या का भार सौंपा। वत्सराज इन्हें बहाने से देवी के सामने बलि देने के लिये ले गया। बहाँ पहुँचने पर जब भोज को मालूम हुआ कि यहाँ मैं बलि चढ़ाया जाऊँगा, तब उन्होंने अपनी जाँघ चीरकर उसके रक्त से बड़ के एक पत्ते पर दो श्लोक लिखकर वत्सराज को दिए और कहा कि थे मुंज को दे देना। उस समय वत्सराज को इनकी हत्या करने का साहस न हुआ और उसने इन्हें अपने यहाँ ले जाकर छिपा रखा। जब वत्सराज भोज का कृत्रिम कटा हुआ सिर लेकर मुंज के पास गया, और भोज के श्लोक उसने उन्हें दिए, तब मुंज को बहुत पश्चाताप हुआ। मुंज को बहुत विलाप करते देखकर वत्सराज ने उन्हें असल हाल बतला दिया और भोज को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया। मुंज ने सारा राज्य भोज को दे दिया और आप सस्त्रीक वन को चले गए।

कहते हैं, भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, पंडित और गुण-ग्राही थे। इन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। इनका समय १० वीं ११ वीं शताब्दी माना गया है। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकण्ठाभरण, शृंगारमञ्जरी, चम्पूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहार-समुच्चय आदि अनेक ग्रन्थ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पण्डितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।

रोहक इनका प्रधानमंत्री और भुवनपाल मंत्री था। कुलचंद्र, साढ़ तथा तरादित्य इनके सेनापति थे जिनकी सहायता से भोज ने राज्यसंचालन सुचारु रूप से किया। अपने चाचा मुंज की ही भाँति यह भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे और इस इच्छा की पूर्ति के लिये इन्हें अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। मुंज की मृत्यु शोकजनक परिस्थिति में हो जाने से परमार बहुत ही उत्तेजित थे और इसीलिये परमार भोज चालुक्यों से बदला लेन के विचार से दक्षिण की ओर सेना लेकर चढ़ाई करने को प्रेरित हुए। उन्होंने ने दाहल के कलबुरी गांगेयदेव तथा तंजौर (तंच्यावूर) के राजेन्द्र चोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण भी कर दिया, परंतु तत्कालीन राजा चालुक्य जयसिंह द्वितीय सोलंकी ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन् 1044 ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमारों से फिर शत्रुता कर ली और मालवा राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिय। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी, परन्तु कुछ ही दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया। सन् 1018 ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, जो संभवत: कलिंग के गांग राजाओं का सामंत था, हराया था ।

जयसिंह द्वितीय तथा इंद्ररथ के साथ युद्ध समाप्त कर लेने पर भोज ने अपनी सेना भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए देशों की ओर बढ़ाई और पहले लाट नामक राज्य पर, जिसका विस्तार दक्षिण में बंबई राज्य के अंतर्गत सूरत तक था, आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा चालुक्य कीर्तिराज ने आत्मसमर्पण कर दिया और भोज ने कुछ समय तक उसपर अधिकार रखा। 
इसके बाद लगभग सन् 1020 ई. में भोज ने लाट के दक्षिण में स्थित तथा थाना जिले से लेकर मालागार समुद्रतट तक विस्तृत कोंकण पर आक्रमण किया और शिलाहारों के अरिकेशरी नामक राजा को हराया। कोंकण को परमारों के राज्य में मिला लिया गया और उनके सामंतों के रूप में शिलाहारों ने यहाँ कुछ समय तक राज्य किया। सन् 1008 ई. में जब महमूद गज़नबी ने पंजाबे शाही नामक राज्य पर आक्रमण किया, भोज ने भारत के अन्य राज्यों के साथ अपनी सेना भी आक्रमणकारी का विरोध करने तथा शाही आनंदपाल की सहायता करने के हेतु भेजी परंतु हिंदू राजाओं के इस मेल का कोई फल न निकला और इस अवसर पर उनकी हार हो गई। 
सन् 1043 ई. में भोज ने अपने भृतिभोगी सिपाहियों को पंजाब के मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए दिल्ली के राजा के पास भेजा। उस समय पंजाब गज़नी साम्राज्य का ही एक भाग था और महमूद के वंशज ही वहाँ राज्य कर रहे थे। दिल्ली के राजा को भारत के अन्य भागों की सहायता मिली और उसने पंजाब की ओर कूच करके मुसलमानों को हराया और कुछ दिनों तक उस देश के कुछ भाग पर अधिकार रखा परंतु अंत में गज़नी के राजा ने उसे हराकर खोया हुआ भाग पुन: अपने साम्राज्य में मिला लिया।

भोज ने एक बार दाहल के कलचुरी गांगेयदेव के विरुद्ध भी चढ़ाई कर दी जिसने दक्षिण पर आक्रमण करने के समय उसका साथ दिया था। गांगेयदेव हार गया परंतु उसे आत्मसमर्पण नहीं करना पड़ा। सन् 1055 ई. के कुछ ही पहले गांगेय के पुत्र कर्ण ने गुजरात के चौलुक्य भीम प्रथम के साथ एक संधि कर ली और मालव पर पूर्व तथा पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया। 
भोज अपना राज्य बचाने का प्रबंध कर ही रहे थे, कि बीमारी से उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और राज्य सुगमता से आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया।

उत्तर में भोज ने चंदेलों के क्षेत्र पर भी आक्रमण किया था जहाँ विद्याधर नामक राजा राज्य करता था। परंतु उससे कोई लाभ न हुआ। भोज के ग्वालियर पर विजय प्राप्त करने के प्रयत्न का भी कोई अच्छा फल न हुआ क्योंकि वहाँ के राजा कच्छपघाट कीर्तिराज ने उसके आक्रमण का डटकर सामना किया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भोज ने कुछ समय के लिए कन्नौज पर भी विजय पा ली थी जो उस समय प्रतिहारों के पतन के बादवाले परिवर्तन काल में था।

भोज ने राजस्थान में शाकंभरी के चाहमनों के विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा की और तत्कालीन राजा चाहमान वीर्यराम को हराया। इसके बाद उसने चाहमानों के ही कुल के अनहिल द्वारा शालित नदुल नामक राज्य को जीतने की धमकी दी, परंतु युद्ध में परमार हार गए और उनके प्रधान सेनापति साढ़ को जीवन से हाथ धोना पड़ा।

भोज ने गुजरात के चौलुक्यों [सोलंकी ] से भी, जिन्होंने अपनी राजधानी अनहिलपट्टण में बनाई थी, बहुत दिनों तक युद्ध किया। चालुक्य सोलंकी नरेश मूलराज प्रथम के पुत्र चंमुदराज को वाराणसी जाते समय मालवा में परमार भोज के हाँथों अपमानित होना पड़ा था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी बल्लभराज को इसपर बड़ा क्रोध आया और उसने इस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने भोज के विरुद्ध एक बड़ी सेना तैयार की और भोज पर आक्रमण कर दिया, परंतु दुर्भाग्यवश रास्ते में ही चेचक से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद वल्लभराज के छोटे भाई दुर्लभराज ने सत्ता की बागडोर अपन हाथों में ली। 
कुछ समय बाद भाज ने उसे भी युद्ध में हराया। दुर्लभराज के उत्तराधिकारी भीम के राज्यकाल में भोज ने अपने सेनापति कुलचंद्र को गुजरात के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। कुलचंद्र ने पूरे प्रदेश पर विजय प्राप्त की तथा उसकी राजधानी अनहिलपट्टण को लूटा। भीम ने एक बार आबू पर आक्रमण कर उसके राजा परमार ढंडु को हराया था, जब उसे भागकर चित्रकूट में भोज की शरण लेनी पड़ी थी। जैसा ऊपर बताया जा चुका है, सन् 1055 ई. के थोड़े ही पहले भीम ने कलचुरी कर्ण से संधि करके मालवा पर आक्रमण कर दिया था परन्तु भोज के रहते वे उस प्रदेश पर अधिकार न पा सके। *राजा भोज बहुत बड़े वीर और प्रतापी होने के साथ-साथ प्रकाण्ड पंडित और गुणग्राही भी थे। इन्होंने कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे।
सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।
राजा भोज ने ज्ञान के सभी क्षेत्रों में रचनाएँ की हैं। उन्होने कोई ८४ ग्रन्थों की रचना की है। उनमें से प्रमुख हैं-
राजमार्तण्ड (पतंजलि के योगसूत्र की टीका)
सरस्वतीकंठाभरण (व्याकरण)
सरस्वतीकण्ठाभरण (काव्यशास्त्र)
शृंगारप्रकाश (काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र)
तत्त्वप्रकाश (शैवागम पर)
वृहद्राजमार्तण्ड (धर्मशास्त्र)
राजमृगांक (चिकित्सा)
विद्याविनोद युक्तिकल्पतरु - यह ग्रन्थ राजा भोज के समस्त ग्रन्थों में अद्वितीय है। इस एक ग्रन्थ में अनेक विषयों का समाहार है। राजनीति, वास्तु, रत्नपरीक्षा, विभिन्न आयुध, अश्व, गज, वृषभ, महिष, मृग, अज-श्वान आदि पशु-परीक्षा, द्विपदयान, चतुष्पदयान, अष्टदोला, नौका-जहाज आदि के सारभूत तत्त्वों का भी इस ग्रन्थ में संक्षेप में सन्निवेश है। विभिन्न पालकियों और जहाजों का विवरण इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। विभिन्न प्रकार के खड्गों का सर्वाधिक विवरण इस पुस्तक में ही प्राप्त होता है।
डॉ महेश सिंह ने उनकी रचनाओं को विभिन्न विषयों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया है-
संकलन: सुभाषितप्रबन्ध
शिल्प: समरांगणसूत्रधार
खगोल एवं ज्योतिष: आदित्यप्रतापसिद्धान्त, राजमार्तण्ड, राजमृगांक, विद्वज्ञानवल्लभ (प्रश्नविज्ञान)
धर्मशास्त्र, राजधर्म तथा राजनीति: भुजबुल (निबन्ध) , भुपालपद्धति, भुपालसमुच्चय या कृत्यसमुच्चय, चाणक्यनीति दण्डनीति: व्यवहारसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु, पुर्तमार्तण्ड, राजमार्तण्ड।
व्याकरण: शब्दानुशासन
कोश: नाममालिका
चिकित्साविज्ञान: आयुर्वेदसर्वस्व, राजमार्तण्ड या योगसारसंग्रह राजमृगारिका, शालिहोत्र, विश्रान्त विद्याविनोद
संगीत: संगीतप्रकाश
दर्शन: राजमार्तण्ड (योगसूत्र की टीका), राजमार्तण्ड (वेदान्त), सिद्धान्तसंग्रह, सिद्धान्तसारपद्धति, शिवतत्त्व या शिवतत्त्वप्रकाशिका प्राकृत काव्य: कुर्माष्टक
संस्कृत काव्य एवं गद्य : चम्पूरामायण, महाकालीविजय, शृंगारमंजरी, विद्याविनोद
भोज के समय में भारतीय विज्ञान 
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समराङ्गणसूत्रधार का ३१वां अध्याय *‘यंत्रविज्ञान’* से सम्बन्धित है। इस अध्याय में यंत्र, उसके भेद और विविध यंत्रनिर्माण-पद्धति पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यंत्र उसे कहा गया है जो स्वेच्छा से चलते हुए (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि) भूतों को नियम से बांधकर अपनी इच्छानुसार चलाया जाय।
स्वयं वाहकमेकं स्यात्सकृत्प्रेर्यं तथा परम्।
अन्यदन्तरितं बाह्यं बाह्यमन्यत्वदूरत:॥
इन तत्वों से निर्मित यंत्रों के विविध भेद हैं, जैसे :- 
(1) स्वयं चलने वाला, 
(2) एक बार चला देने पर निरंतर चलता रहने वाला, 
(3) दूर से गुप्त शक्ति से चलाया जाने वाला तथा 
(4) समीपस्थ होकर चलाया जाने वाला।
राजा भोज के भोजप्रबन्ध में लिखा है –
घटयेकया कोशदशैकमश्व: सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या।
वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्त्रम॥
भोज ने यंत्रनिर्मित कुछ वस्तुओं का विवरण भी दिया है। यंत्रयुक्त हाथी चिंघाड़ता तथा चलता हुआ प्रतीत होता है। शुक आदि पक्षी भी ताल के अनुसार नृत्य करते हैं तथा पाठ करते है। पुतली, हाथी, घोडा, बन्दर आदि भी अंगसंचालन करते हुए ताल के अनुसार नृत्य करते मनोहर लगते है। उस समय बना एक यंत्रनिर्मित पुतला नियुक्त किया था। वह पुतला वह बात कह देता था जो राजा भोज कहना चाहते थे ।
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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

काकभुशुंडी जी एवं कालियानाग* *पूर्व जन्म की कथा !*

*काकभुशुंडी जी एवं कालियानाग* 
            *पूर्व जन्म की कथा !*
*🔅~~~🔅~~~🔅~~~🔅🔅~~~🔅*
*राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।*
*नाथ कहहुं केहि कारन पायउ काक सरीर॥*

*भावार्थ :-हे नाथ! कहिए, (ऐसे) श्री रामपरायण, ज्ञाननिरत, गुणधाम और धीरबुद्धि भुशुण्डिजी ने कौए का शरीर किस कारण पाया ?॥*

*एक बार विदेह नरेश बहुलाश्व की राजसभा में देवर्षि नारद पहुंचे। बहुत दिनों से उनके मन में उत्कंठा थी, सो उसे उन्होंने नारद जी से पूछ लिया। उन्होंने पूछा कि “देवर्षि ! भगवान के चरण रज की महिमा अपार है। भगवान के राम आदि अवतारों में उनके संस्पर्श से अहिल्यादी का तत्काल ही उद्धार हुआ।*

*योगी जन भी उनके सानिध्य के लिए तरसते हैं, तो फिर मुझे यह बताइये कि कालिया नाग का ऐसा क्या पुण्य था जो भगवान घंटों उनके सिरों पर नृत्य करते रहे। कालिया नाग के मस्तक पर दिव्य मणियाँ सुशोभित थीं जिनके स्पर्श से भगवान के कमल सदृश्य चरणों के तलवे (रक्त से) और भी लाल हो गए होंगे, वे संपूर्ण कलाओं के आदि प्रवर्तक भगवान उनके मस्तक पर नृत्य करने लगे, ऐसा सौभाग्य उन्हें कैसे मिला”।*

*नारद जी ने कहा “बहुत प्राचीन बात है, पहले स्वयंभू मनु के मन्वंतर में वेदशिरा नाम के एक मुनि विंध्याचल के एक भाग में तपस्या कर रहे थे। कुछ दिनों बाद उन्हीं के बगल में तप करने की इच्छा से अश्वशिरा मुनि भी आ गए।*

*इस पर वेदशिरा मुनि को अच्छा नहीं लगा, उन्होंने क्रोध में सांप जैसे फुंफकारते हुए अश्वशिरा मुनि से कहा “ब्राह्मण देव ! क्या सारे विश्व में आपको तपस्या के लिए कहीं और स्थान ही नहीं मिल रहा है जो आप यहाँ आ गए। आप यहां तप करें यह ठीक नहीं होगा क्योंकि इससे मेरा एकांत भंग होगा” | इस पर अश्वशिरा भी बिगड़ गए और कहने लगे “मुनिश्रेष्ठ ! यह सारी भूमि महा विष्णु भगवान नारायण माधव की है और इसीलिए इसका नाम भी माधवी है।*

*यह कोई आपके या मेरे पूर्वजों की भूमि नहीं है। इससे पूर्व के समय में, पता नहीं कितने ऋषियों ने यहां तप किया होगा। यह सब जानते हुए भी आप व्यर्थ ही सर्प की तरह फुफकार रहे हैं यहाँ। आपको तो सांप ही होकर रहना चाहिए। जाइए आप सर्प हो जाइए और भगवान विष्णु के वाहन गरुड से आपका हमेशा भय होगा”।*

*क्रोधावेश में वेदशिरा मुनि कांपने लगे। इसी क्रोधावेश में उन्होंने अश्वशिरा मुनि से कहा कि “तुम तो मानो इसी दुरभिप्राय से ही घुमते हुए यहाँ आए थे। छोटी-छोटी बातों पर इतना क्रोध तथा तपोनाश का यह उद्यम, तुम्हारा यह व्यवहार तो कौवे जैसा है। इसलिए इस धरा पर तुम शब्द कोलाहल करने में कौवे जैसे हो, अतः जाओ अब तुम कौवे जैसे ही हो जाओ”।*
 
*उच्च चेतनात्मक स्तर की आत्माएं होकर, क्रोधावेश में अपना-अपना ही नाश करने में तत्पर उन दोनों मुनियों की बुरी स्थिति देखकर दयालु भगवान वहाँ तुरंत प्रकट हो गए। अपने सामने परमेश्वर को देखकर वे दोनों मुनि उनके चरणों में गिर गए। उन्हें अपनी भूलों का भयंकर पछतावा हो रहा था। आँखों में ग्लानि के अश्रु थे।*

*परमेश्वर ने उन्हें समझाया और सांत्वना दी। उन्होंने वेदशिरा मुनि को अगले जन्म में कालिया नाग होकर स्वचरण लाभ का तथा अश्वशिरा मुनि को काकभुशुंडी होने का आश्वासन दिया। इसके बाद अश्वशिरा मुनि नील पर्वत पर साक्षात् योगीराज काकभुशंडि के रूप में जन्मे, जिन्होंने महात्मा गरुड़ को रामायण की कथा सुनाई थी। और वेदशिरा मुनि का उद्धार उन्होंने भगवान कृष्ण के अवतार रूप में किया था।*

जरा जान लो कि राजा भोज कोन थे ?
भोज पंवार या परमार वंश के नवें राजा थे। परमार वंशीय राजाओं ने मालवा की राजधानी धारानगरी (धार) से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। भोज ने बहुत से युद्ध किए और अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की जिससे सिद्ध होता है कि उनमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उनके जीवन का अधिकांश युद्धक्षेत्र में बीता तथापि उन्होंने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। उन्होंने मालवा के नगरों व ग्रामों में बहुत से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है।
कहा जाता है कि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को राजा भोज ने ही बसाया था, तब उसका नाम भोजपाल नगर था, जो कि कालान्तर में भूपाल और फिर भोपाल हो गया। राजा भोज ने भोजपाल नगर के पास ही एक समुद्र के समान विशाल तालाब का निर्माण कराया था, जो पूर्व और दक्षिण में भोजपुर के विशाल शिव मंदिर तक जाता था। आज भी भोजपुर जाते समय रास्ते में शिवमंदिर के पास उस तालाब की पत्थरों की बनी विशाल पाल दिखती है। उस समय उस तालाब का पानी बहुत पवित्र और बीमारियों को ठीक करने वाला माना जाता था। कहा जाता है कि राजा भोज को चर्म रोग हो गया था तब किसी ऋषि या वैद्य ने उन्हें इस तालाब के पानी में स्नान करने और उसे पीने की सलाह दी थी जिससे उनका चर्मरोग ठीक हो गया था। उस विशाल तालाब के पानी से शिवमंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग का अभिषेक भी किया जाता था।
राजा भोज स्वयं बहुत बड़े विद्वान थे और कहा जाता है कि उन्होंने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोशरचना, भवननिर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं जो अब भी विद्यमान हैं। इनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। उन्होने सन् 1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया। इनकी विद्वता के कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित हुई कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तैली।
भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, और गुणग्राही थे। इन्होंने युद्धों में अनेक विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।
जब भोज जीवित थे तो कहा जाता था-
अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥
(आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है; सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है; सभी पंडित आदृत हैं।)
जब उनका देहान्त हुआ तो कहा गया -
अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवं गते॥
(आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी हैं और सभी पंडित खंडित हैं।)

भोज, धारा नगरी के 'सिन्धुल' नामक राजा के पुत्र थे और इनकी माता का नाम सावित्री था। ऐसा माना जाता है, जब ये पाँच वषं के थे, तभी इनके पिता अपना राज्य और इनके पालनपोषण का भार अपने भाई मुंज पर छोड़कर स्वर्गवासी हुए थे। मुंज इनकी हत्या करना चाहता था, इसलिये उसने बंगाल के वत्सराज को बुलाकर उसको इनकी हत्या का भार सौंपा। वत्सराज इन्हें बहाने से देवी के सामने बलि देने के लिये ले गया। बहाँ पहुँचने पर जब भोज को मालूम हुआ कि यहाँ मैं बलि चढ़ाया जाऊँगा, तब उन्होंने अपनी जाँघ चीरकर उसके रक्त से बड़ के एक पत्ते पर दो श्लोक लिखकर वत्सराज को दिए और कहा कि थे मुंज को दे देना। उस समय वत्सराज को इनकी हत्या करने का साहस न हुआ और उसने इन्हें अपने यहाँ ले जाकर छिपा रखा। जब वत्सराज भोज का कृत्रिम कटा हुआ सिर लेकर मुंज के पास गया, और भोज के श्लोक उसने उन्हें दिए, तब मुंज को बहुत पश्चाताप हुआ। मुंज को बहुत विलाप करते देखकर वत्सराज ने उन्हें असल हाल बतला दिया और भोज को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया। मुंज ने सारा राज्य भोज को दे दिया और आप सस्त्रीक वन को चले गए।

कहते हैं, भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, पंडित और गुण-ग्राही थे। इन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। इनका समय १० वीं ११ वीं शताब्दी माना गया है। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकण्ठाभरण, शृंगारमञ्जरी, चम्पूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहार-समुच्चय आदि अनेक ग्रन्थ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पण्डितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।

रोहक इनका प्रधानमंत्री और भुवनपाल मंत्री था। कुलचंद्र, साढ़ तथा तरादित्य इनके सेनापति थे जिनकी सहायता से भोज ने राज्यसंचालन सुचारु रूप से किया। अपने चाचा मुंज की ही भाँति यह भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे और इस इच्छा की पूर्ति के लिये इन्हें अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। मुंज की मृत्यु शोकजनक परिस्थिति में हो जाने से परमार बहुत ही उत्तेजित थे और इसीलिये परमार भोज चालुक्यों से बदला लेन के विचार से दक्षिण की ओर सेना लेकर चढ़ाई करने को प्रेरित हुए। उन्होंने ने दाहल के कलबुरी गांगेयदेव तथा तंजौर (तंच्यावूर) के राजेन्द्र चोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण भी कर दिया, परंतु तत्कालीन राजा चालुक्य जयसिंह द्वितीय सोलंकी ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन् 1044 ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमारों से फिर शत्रुता कर ली और मालवा राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिय। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी, परन्तु कुछ ही दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया। सन् 1018 ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, जो संभवत: कलिंग के गांग राजाओं का सामंत था, हराया था ।

जयसिंह द्वितीय तथा इंद्ररथ के साथ युद्ध समाप्त कर लेने पर भोज ने अपनी सेना भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए देशों की ओर बढ़ाई और पहले लाट नामक राज्य पर, जिसका विस्तार दक्षिण में बंबई राज्य के अंतर्गत सूरत तक था, आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा चालुक्य कीर्तिराज ने आत्मसमर्पण कर दिया और भोज ने कुछ समय तक उसपर अधिकार रखा। 
इसके बाद लगभग सन् 1020 ई. में भोज ने लाट के दक्षिण में स्थित तथा थाना जिले से लेकर मालागार समुद्रतट तक विस्तृत कोंकण पर आक्रमण किया और शिलाहारों के अरिकेशरी नामक राजा को हराया। कोंकण को परमारों के राज्य में मिला लिया गया और उनके सामंतों के रूप में शिलाहारों ने यहाँ कुछ समय तक राज्य किया। सन् 1008 ई. में जब महमूद गज़नबी ने पंजाबे शाही नामक राज्य पर आक्रमण किया, भोज ने भारत के अन्य राज्यों के साथ अपनी सेना भी आक्रमणकारी का विरोध करने तथा शाही आनंदपाल की सहायता करने के हेतु भेजी परंतु हिंदू राजाओं के इस मेल का कोई फल न निकला और इस अवसर पर उनकी हार हो गई। 
सन् 1043 ई. में भोज ने अपने भृतिभोगी सिपाहियों को पंजाब के मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए दिल्ली के राजा के पास भेजा। उस समय पंजाब गज़नी साम्राज्य का ही एक भाग था और महमूद के वंशज ही वहाँ राज्य कर रहे थे। दिल्ली के राजा को भारत के अन्य भागों की सहायता मिली और उसने पंजाब की ओर कूच करके मुसलमानों को हराया और कुछ दिनों तक उस देश के कुछ भाग पर अधिकार रखा परंतु अंत में गज़नी के राजा ने उसे हराकर खोया हुआ भाग पुन: अपने साम्राज्य में मिला लिया।

भोज ने एक बार दाहल के कलचुरी गांगेयदेव के विरुद्ध भी चढ़ाई कर दी जिसने दक्षिण पर आक्रमण करने के समय उसका साथ दिया था। गांगेयदेव हार गया परंतु उसे आत्मसमर्पण नहीं करना पड़ा। सन् 1055 ई. के कुछ ही पहले गांगेय के पुत्र कर्ण ने गुजरात के चौलुक्य भीम प्रथम के साथ एक संधि कर ली और मालव पर पूर्व तथा पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया। 
भोज अपना राज्य बचाने का प्रबंध कर ही रहे थे, कि बीमारी से उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और राज्य सुगमता से आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया।

उत्तर में भोज ने चंदेलों के क्षेत्र पर भी आक्रमण किया था जहाँ विद्याधर नामक राजा राज्य करता था। परंतु उससे कोई लाभ न हुआ। भोज के ग्वालियर पर विजय प्राप्त करने के प्रयत्न का भी कोई अच्छा फल न हुआ क्योंकि वहाँ के राजा कच्छपघाट कीर्तिराज ने उसके आक्रमण का डटकर सामना किया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भोज ने कुछ समय के लिए कन्नौज पर भी विजय पा ली थी जो उस समय प्रतिहारों के पतन के बादवाले परिवर्तन काल में था।

भोज ने राजस्थान में शाकंभरी के चाहमनों के विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा की और तत्कालीन राजा चाहमान वीर्यराम को हराया। इसके बाद उसने चाहमानों के ही कुल के अनहिल द्वारा शालित नदुल नामक राज्य को जीतने की धमकी दी, परंतु युद्ध में परमार हार गए और उनके प्रधान सेनापति साढ़ को जीवन से हाथ धोना पड़ा।

भोज ने गुजरात के चौलुक्यों [सोलंकी ] से भी, जिन्होंने अपनी राजधानी अनहिलपट्टण में बनाई थी, बहुत दिनों तक युद्ध किया। चालुक्य सोलंकी नरेश मूलराज प्रथम के पुत्र चंमुदराज को वाराणसी जाते समय मालवा में परमार भोज के हाँथों अपमानित होना पड़ा था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी बल्लभराज को इसपर बड़ा क्रोध आया और उसने इस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने भोज के विरुद्ध एक बड़ी सेना तैयार की और भोज पर आक्रमण कर दिया, परंतु दुर्भाग्यवश रास्ते में ही चेचक से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद वल्लभराज के छोटे भाई दुर्लभराज ने सत्ता की बागडोर अपन हाथों में ली। 
कुछ समय बाद भाज ने उसे भी युद्ध में हराया। दुर्लभराज के उत्तराधिकारी भीम के राज्यकाल में भोज ने अपने सेनापति कुलचंद्र को गुजरात के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। कुलचंद्र ने पूरे प्रदेश पर विजय प्राप्त की तथा उसकी राजधानी अनहिलपट्टण को लूटा। भीम ने एक बार आबू पर आक्रमण कर उसके राजा परमार ढंडु को हराया था, जब उसे भागकर चित्रकूट में भोज की शरण लेनी पड़ी थी। जैसा ऊपर बताया जा चुका है, सन् 1055 ई. के थोड़े ही पहले भीम ने कलचुरी कर्ण से संधि करके मालवा पर आक्रमण कर दिया था परन्तु भोज के रहते वे उस प्रदेश पर अधिकार न पा सके। *राजा भोज बहुत बड़े वीर और प्रतापी होने के साथ-साथ प्रकाण्ड पंडित और गुणग्राही भी थे। इन्होंने कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे।
सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।
राजा भोज ने ज्ञान के सभी क्षेत्रों में रचनाएँ की हैं। उन्होने कोई ८४ ग्रन्थों की रचना की है। उनमें से प्रमुख हैं-
राजमार्तण्ड (पतंजलि के योगसूत्र की टीका)
सरस्वतीकंठाभरण (व्याकरण)
सरस्वतीकण्ठाभरण (काव्यशास्त्र)
शृंगारप्रकाश (काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र)
तत्त्वप्रकाश (शैवागम पर)
वृहद्राजमार्तण्ड (धर्मशास्त्र)
राजमृगांक (चिकित्सा)
विद्याविनोद युक्तिकल्पतरु - यह ग्रन्थ राजा भोज के समस्त ग्रन्थों में अद्वितीय है। इस एक ग्रन्थ में अनेक विषयों का समाहार है। राजनीति, वास्तु, रत्नपरीक्षा, विभिन्न आयुध, अश्व, गज, वृषभ, महिष, मृग, अज-श्वान आदि पशु-परीक्षा, द्विपदयान, चतुष्पदयान, अष्टदोला, नौका-जहाज आदि के सारभूत तत्त्वों का भी इस ग्रन्थ में संक्षेप में सन्निवेश है। विभिन्न पालकियों और जहाजों का विवरण इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। विभिन्न प्रकार के खड्गों का सर्वाधिक विवरण इस पुस्तक में ही प्राप्त होता है।
डॉ महेश सिंह ने उनकी रचनाओं को विभिन्न विषयों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया है-
संकलन: सुभाषितप्रबन्ध
शिल्प: समरांगणसूत्रधार
खगोल एवं ज्योतिष: आदित्यप्रतापसिद्धान्त, राजमार्तण्ड, राजमृगांक, विद्वज्ञानवल्लभ (प्रश्नविज्ञान)
धर्मशास्त्र, राजधर्म तथा राजनीति: भुजबुल (निबन्ध) , भुपालपद्धति, भुपालसमुच्चय या कृत्यसमुच्चय, चाणक्यनीति दण्डनीति: व्यवहारसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु, पुर्तमार्तण्ड, राजमार्तण्ड।
व्याकरण: शब्दानुशासन
कोश: नाममालिका
चिकित्साविज्ञान: आयुर्वेदसर्वस्व, राजमार्तण्ड या योगसारसंग्रह राजमृगारिका, शालिहोत्र, विश्रान्त विद्याविनोद
संगीत: संगीतप्रकाश
दर्शन: राजमार्तण्ड (योगसूत्र की टीका), राजमार्तण्ड (वेदान्त), सिद्धान्तसंग्रह, सिद्धान्तसारपद्धति, शिवतत्त्व या शिवतत्त्वप्रकाशिका प्राकृत काव्य: कुर्माष्टक
संस्कृत काव्य एवं गद्य : चम्पूरामायण, महाकालीविजय, शृंगारमंजरी, विद्याविनोद
भोज के समय में भारतीय विज्ञान 
संपादित करें
समराङ्गणसूत्रधार का ३१वां अध्याय *‘यंत्रविज्ञान’* से सम्बन्धित है। इस अध्याय में यंत्र, उसके भेद और विविध यंत्रनिर्माण-पद्धति पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यंत्र उसे कहा गया है जो स्वेच्छा से चलते हुए (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि) भूतों को नियम से बांधकर अपनी इच्छानुसार चलाया जाय।
स्वयं वाहकमेकं स्यात्सकृत्प्रेर्यं तथा परम्।
अन्यदन्तरितं बाह्यं बाह्यमन्यत्वदूरत:॥
इन तत्वों से निर्मित यंत्रों के विविध भेद हैं, जैसे :- 
(1) स्वयं चलने वाला, 
(2) एक बार चला देने पर निरंतर चलता रहने वाला, 
(3) दूर से गुप्त शक्ति से चलाया जाने वाला तथा 
(4) समीपस्थ होकर चलाया जाने वाला।
राजा भोज के भोजप्रबन्ध में लिखा है –
घटयेकया कोशदशैकमश्व: सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या।
वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्त्रम॥
भोज ने यंत्रनिर्मित कुछ वस्तुओं का विवरण भी दिया है। यंत्रयुक्त हाथी चिंघाड़ता तथा चलता हुआ प्रतीत होता है। शुक आदि पक्षी भी ताल के अनुसार नृत्य करते हैं तथा पाठ करते है। पुतली, हाथी, घोडा, बन्दर आदि भी अंगसंचालन करते हुए ताल के अनुसार नृत्य करते मनोहर लगते है। उस समय बना एक यंत्रनिर्मित पुतला नियुक्त किया था। वह पुतला वह बात कह देता था जो राजा भोज कहना चाहते थे ।
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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

कैसे हुआ श्रीगणेश का विवाह ऋद्धि और सिद्धि से"


*"कैसे हुआ श्रीगणेश का विवाह ऋद्धि और सिद्धि से"*
*🔅~~~🔅~~~🔅~~~🔅~~~🔅*
*भगवान गणेश जी का सिर हाथी का था। लेकिन, जब उनका विवाद भगवान परशुराम से हुआ तो युद्ध में उनका एक दांत भी टूट गया। इसलिए उन्हें एक दंत भी कहा जाता है।*

*इन दो कारणों से उनसे कोई भी देव कन्या विवाह के लिए तैयार नहीं थी। इस बात से अमूमन गणेशजी नाराज रहा करते थे। और जब किसी अन्य देवता का विवाह होता तो उन्हें किसी न किसी तरह कष्ट पहुंचाते।*

*इस कार्य में उनका चूहा भी साथी होता, वह विवाह के मंडप में जाकर उसे खोखला कर देता और इस तरह विवाह में किसी न किसी तरह विघ्न हो जाता है। सारे देवता इस बात को लेकर परेशान थे।*

*सभी देवता परेशान हो गए और वह शिवजी के पास गए। शिव-पार्वती ने सलाह दी कि देवगण आपको इस समस्या के समाधान के लिए ब्रह्माजी के पास जाना चाहिए। सभी देवता ब्रह्मा जी के पास पहुंचे तब वह योग में लीन थे।*

*लेकिन कुछ देर बाद योगबल से दो कन्याएं अवतरित हुईं। जिनके नाम ब्रह्मा जी ने ऋद्धि और सिद्धि रखें। यह ब्रह्मा जी की मानस पुत्रियां थीं। उन दोनों को लेकर ब्रह्माजी गणेशजी के पास पहुंचे और कहा वह उन्हें शिक्षा दें।*

*गणेशजी तैयार हो गए। जब भी चूहा गणेशजी के पास किसी के विवाह की सूचना लाता तो ऋद्धि और सिद्धि ध्यान बांटने के लिए कोई न कोई प्रसंग छेड़ देतीं।*

*इस तरह विवाह भी निर्विघ्न होने लगे। एक दिन चूहा आया और उसने देवताओं के निर्विघ्न विवाह के बारे में बताया तब गणेश जी को सारा मामला समझ में आया।*

*गणेशजी के क्रोधित होने से पहले ब्रह्माजी उनके पास ऋद्धि-सिद्धि को लेकर प्रकट हुए। उन्होंने कहा, आपने स्वयं इन्हें शिक्षा दी है। मुझे इनके लिए कोई योग्य वर नहीं मिल रहा है। आप इनसे विवाह कर लें।*

*इस तरह ऋद्धि (बुद्धि- विवेक की देवी) और सिद्धि (सफलता की देवी) से गणेशजी का विवाह हो गया। और फिर बाद में गणेश जी के "शुभ" और" लाभ" दो पुत्र भी हुए।*

जरा जान लो कि राजा भोज कोन थे ?
भोज पंवार या परमार वंश के नवें राजा थे। परमार वंशीय राजाओं ने मालवा की राजधानी धारानगरी (धार) से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। भोज ने बहुत से युद्ध किए और अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की जिससे सिद्ध होता है कि उनमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उनके जीवन का अधिकांश युद्धक्षेत्र में बीता तथापि उन्होंने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। उन्होंने मालवा के नगरों व ग्रामों में बहुत से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है।
कहा जाता है कि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को राजा भोज ने ही बसाया था, तब उसका नाम भोजपाल नगर था, जो कि कालान्तर में भूपाल और फिर भोपाल हो गया। राजा भोज ने भोजपाल नगर के पास ही एक समुद्र के समान विशाल तालाब का निर्माण कराया था, जो पूर्व और दक्षिण में भोजपुर के विशाल शिव मंदिर तक जाता था। आज भी भोजपुर जाते समय रास्ते में शिवमंदिर के पास उस तालाब की पत्थरों की बनी विशाल पाल दिखती है। उस समय उस तालाब का पानी बहुत पवित्र और बीमारियों को ठीक करने वाला माना जाता था। कहा जाता है कि राजा भोज को चर्म रोग हो गया था तब किसी ऋषि या वैद्य ने उन्हें इस तालाब के पानी में स्नान करने और उसे पीने की सलाह दी थी जिससे उनका चर्मरोग ठीक हो गया था। उस विशाल तालाब के पानी से शिवमंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग का अभिषेक भी किया जाता था।
राजा भोज स्वयं बहुत बड़े विद्वान थे और कहा जाता है कि उन्होंने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोशरचना, भवननिर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं जो अब भी विद्यमान हैं। इनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। उन्होने सन् 1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया। इनकी विद्वता के कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित हुई कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तैली।
भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, और गुणग्राही थे। इन्होंने युद्धों में अनेक विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।
जब भोज जीवित थे तो कहा जाता था-
अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥
(आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है; सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है; सभी पंडित आदृत हैं।)
जब उनका देहान्त हुआ तो कहा गया -
अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवं गते॥
(आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी हैं और सभी पंडित खंडित हैं।)

भोज, धारा नगरी के 'सिन्धुल' नामक राजा के पुत्र थे और इनकी माता का नाम सावित्री था। ऐसा माना जाता है, जब ये पाँच वषं के थे, तभी इनके पिता अपना राज्य और इनके पालनपोषण का भार अपने भाई मुंज पर छोड़कर स्वर्गवासी हुए थे। मुंज इनकी हत्या करना चाहता था, इसलिये उसने बंगाल के वत्सराज को बुलाकर उसको इनकी हत्या का भार सौंपा। वत्सराज इन्हें बहाने से देवी के सामने बलि देने के लिये ले गया। बहाँ पहुँचने पर जब भोज को मालूम हुआ कि यहाँ मैं बलि चढ़ाया जाऊँगा, तब उन्होंने अपनी जाँघ चीरकर उसके रक्त से बड़ के एक पत्ते पर दो श्लोक लिखकर वत्सराज को दिए और कहा कि थे मुंज को दे देना। उस समय वत्सराज को इनकी हत्या करने का साहस न हुआ और उसने इन्हें अपने यहाँ ले जाकर छिपा रखा। जब वत्सराज भोज का कृत्रिम कटा हुआ सिर लेकर मुंज के पास गया, और भोज के श्लोक उसने उन्हें दिए, तब मुंज को बहुत पश्चाताप हुआ। मुंज को बहुत विलाप करते देखकर वत्सराज ने उन्हें असल हाल बतला दिया और भोज को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया। मुंज ने सारा राज्य भोज को दे दिया और आप सस्त्रीक वन को चले गए।

कहते हैं, भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, पंडित और गुण-ग्राही थे। इन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। इनका समय १० वीं ११ वीं शताब्दी माना गया है। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकण्ठाभरण, शृंगारमञ्जरी, चम्पूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहार-समुच्चय आदि अनेक ग्रन्थ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पण्डितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।

रोहक इनका प्रधानमंत्री और भुवनपाल मंत्री था। कुलचंद्र, साढ़ तथा तरादित्य इनके सेनापति थे जिनकी सहायता से भोज ने राज्यसंचालन सुचारु रूप से किया। अपने चाचा मुंज की ही भाँति यह भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे और इस इच्छा की पूर्ति के लिये इन्हें अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। मुंज की मृत्यु शोकजनक परिस्थिति में हो जाने से परमार बहुत ही उत्तेजित थे और इसीलिये परमार भोज चालुक्यों से बदला लेन के विचार से दक्षिण की ओर सेना लेकर चढ़ाई करने को प्रेरित हुए। उन्होंने ने दाहल के कलबुरी गांगेयदेव तथा तंजौर (तंच्यावूर) के राजेन्द्र चोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण भी कर दिया, परंतु तत्कालीन राजा चालुक्य जयसिंह द्वितीय सोलंकी ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन् 1044 ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमारों से फिर शत्रुता कर ली और मालवा राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिय। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी, परन्तु कुछ ही दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया। सन् 1018 ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, जो संभवत: कलिंग के गांग राजाओं का सामंत था, हराया था ।

जयसिंह द्वितीय तथा इंद्ररथ के साथ युद्ध समाप्त कर लेने पर भोज ने अपनी सेना भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए देशों की ओर बढ़ाई और पहले लाट नामक राज्य पर, जिसका विस्तार दक्षिण में बंबई राज्य के अंतर्गत सूरत तक था, आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा चालुक्य कीर्तिराज ने आत्मसमर्पण कर दिया और भोज ने कुछ समय तक उसपर अधिकार रखा। 
इसके बाद लगभग सन् 1020 ई. में भोज ने लाट के दक्षिण में स्थित तथा थाना जिले से लेकर मालागार समुद्रतट तक विस्तृत कोंकण पर आक्रमण किया और शिलाहारों के अरिकेशरी नामक राजा को हराया। कोंकण को परमारों के राज्य में मिला लिया गया और उनके सामंतों के रूप में शिलाहारों ने यहाँ कुछ समय तक राज्य किया। सन् 1008 ई. में जब महमूद गज़नबी ने पंजाबे शाही नामक राज्य पर आक्रमण किया, भोज ने भारत के अन्य राज्यों के साथ अपनी सेना भी आक्रमणकारी का विरोध करने तथा शाही आनंदपाल की सहायता करने के हेतु भेजी परंतु हिंदू राजाओं के इस मेल का कोई फल न निकला और इस अवसर पर उनकी हार हो गई। 
सन् 1043 ई. में भोज ने अपने भृतिभोगी सिपाहियों को पंजाब के मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए दिल्ली के राजा के पास भेजा। उस समय पंजाब गज़नी साम्राज्य का ही एक भाग था और महमूद के वंशज ही वहाँ राज्य कर रहे थे। दिल्ली के राजा को भारत के अन्य भागों की सहायता मिली और उसने पंजाब की ओर कूच करके मुसलमानों को हराया और कुछ दिनों तक उस देश के कुछ भाग पर अधिकार रखा परंतु अंत में गज़नी के राजा ने उसे हराकर खोया हुआ भाग पुन: अपने साम्राज्य में मिला लिया।

भोज ने एक बार दाहल के कलचुरी गांगेयदेव के विरुद्ध भी चढ़ाई कर दी जिसने दक्षिण पर आक्रमण करने के समय उसका साथ दिया था। गांगेयदेव हार गया परंतु उसे आत्मसमर्पण नहीं करना पड़ा। सन् 1055 ई. के कुछ ही पहले गांगेय के पुत्र कर्ण ने गुजरात के चौलुक्य भीम प्रथम के साथ एक संधि कर ली और मालव पर पूर्व तथा पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया। 
भोज अपना राज्य बचाने का प्रबंध कर ही रहे थे, कि बीमारी से उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और राज्य सुगमता से आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया।

उत्तर में भोज ने चंदेलों के क्षेत्र पर भी आक्रमण किया था जहाँ विद्याधर नामक राजा राज्य करता था। परंतु उससे कोई लाभ न हुआ। भोज के ग्वालियर पर विजय प्राप्त करने के प्रयत्न का भी कोई अच्छा फल न हुआ क्योंकि वहाँ के राजा कच्छपघाट कीर्तिराज ने उसके आक्रमण का डटकर सामना किया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भोज ने कुछ समय के लिए कन्नौज पर भी विजय पा ली थी जो उस समय प्रतिहारों के पतन के बादवाले परिवर्तन काल में था।

भोज ने राजस्थान में शाकंभरी के चाहमनों के विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा की और तत्कालीन राजा चाहमान वीर्यराम को हराया। इसके बाद उसने चाहमानों के ही कुल के अनहिल द्वारा शालित नदुल नामक राज्य को जीतने की धमकी दी, परंतु युद्ध में परमार हार गए और उनके प्रधान सेनापति साढ़ को जीवन से हाथ धोना पड़ा।

भोज ने गुजरात के चौलुक्यों [सोलंकी ] से भी, जिन्होंने अपनी राजधानी अनहिलपट्टण में बनाई थी, बहुत दिनों तक युद्ध किया। चालुक्य सोलंकी नरेश मूलराज प्रथम के पुत्र चंमुदराज को वाराणसी जाते समय मालवा में परमार भोज के हाँथों अपमानित होना पड़ा था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी बल्लभराज को इसपर बड़ा क्रोध आया और उसने इस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने भोज के विरुद्ध एक बड़ी सेना तैयार की और भोज पर आक्रमण कर दिया, परंतु दुर्भाग्यवश रास्ते में ही चेचक से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद वल्लभराज के छोटे भाई दुर्लभराज ने सत्ता की बागडोर अपन हाथों में ली। 
कुछ समय बाद भाज ने उसे भी युद्ध में हराया। दुर्लभराज के उत्तराधिकारी भीम के राज्यकाल में भोज ने अपने सेनापति कुलचंद्र को गुजरात के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। कुलचंद्र ने पूरे प्रदेश पर विजय प्राप्त की तथा उसकी राजधानी अनहिलपट्टण को लूटा। भीम ने एक बार आबू पर आक्रमण कर उसके राजा परमार ढंडु को हराया था, जब उसे भागकर चित्रकूट में भोज की शरण लेनी पड़ी थी। जैसा ऊपर बताया जा चुका है, सन् 1055 ई. के थोड़े ही पहले भीम ने कलचुरी कर्ण से संधि करके मालवा पर आक्रमण कर दिया था परन्तु भोज के रहते वे उस प्रदेश पर अधिकार न पा सके। *राजा भोज बहुत बड़े वीर और प्रतापी होने के साथ-साथ प्रकाण्ड पंडित और गुणग्राही भी थे। इन्होंने कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे।
सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।
राजा भोज ने ज्ञान के सभी क्षेत्रों में रचनाएँ की हैं। उन्होने कोई ८४ ग्रन्थों की रचना की है। उनमें से प्रमुख हैं-
राजमार्तण्ड (पतंजलि के योगसूत्र की टीका)
सरस्वतीकंठाभरण (व्याकरण)
सरस्वतीकण्ठाभरण (काव्यशास्त्र)
शृंगारप्रकाश (काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र)
तत्त्वप्रकाश (शैवागम पर)
वृहद्राजमार्तण्ड (धर्मशास्त्र)
राजमृगांक (चिकित्सा)
विद्याविनोद युक्तिकल्पतरु - यह ग्रन्थ राजा भोज के समस्त ग्रन्थों में अद्वितीय है। इस एक ग्रन्थ में अनेक विषयों का समाहार है। राजनीति, वास्तु, रत्नपरीक्षा, विभिन्न आयुध, अश्व, गज, वृषभ, महिष, मृग, अज-श्वान आदि पशु-परीक्षा, द्विपदयान, चतुष्पदयान, अष्टदोला, नौका-जहाज आदि के सारभूत तत्त्वों का भी इस ग्रन्थ में संक्षेप में सन्निवेश है। विभिन्न पालकियों और जहाजों का विवरण इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। विभिन्न प्रकार के खड्गों का सर्वाधिक विवरण इस पुस्तक में ही प्राप्त होता है।
डॉ महेश सिंह ने उनकी रचनाओं को विभिन्न विषयों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया है-
संकलन: सुभाषितप्रबन्ध
शिल्प: समरांगणसूत्रधार
खगोल एवं ज्योतिष: आदित्यप्रतापसिद्धान्त, राजमार्तण्ड, राजमृगांक, विद्वज्ञानवल्लभ (प्रश्नविज्ञान)
धर्मशास्त्र, राजधर्म तथा राजनीति: भुजबुल (निबन्ध) , भुपालपद्धति, भुपालसमुच्चय या कृत्यसमुच्चय, चाणक्यनीति दण्डनीति: व्यवहारसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु, पुर्तमार्तण्ड, राजमार्तण्ड।
व्याकरण: शब्दानुशासन
कोश: नाममालिका
चिकित्साविज्ञान: आयुर्वेदसर्वस्व, राजमार्तण्ड या योगसारसंग्रह राजमृगारिका, शालिहोत्र, विश्रान्त विद्याविनोद
संगीत: संगीतप्रकाश
दर्शन: राजमार्तण्ड (योगसूत्र की टीका), राजमार्तण्ड (वेदान्त), सिद्धान्तसंग्रह, सिद्धान्तसारपद्धति, शिवतत्त्व या शिवतत्त्वप्रकाशिका प्राकृत काव्य: कुर्माष्टक
संस्कृत काव्य एवं गद्य : चम्पूरामायण, महाकालीविजय, शृंगारमंजरी, विद्याविनोद
भोज के समय में भारतीय विज्ञान 
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समराङ्गणसूत्रधार का ३१वां अध्याय *‘यंत्रविज्ञान’* से सम्बन्धित है। इस अध्याय में यंत्र, उसके भेद और विविध यंत्रनिर्माण-पद्धति पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यंत्र उसे कहा गया है जो स्वेच्छा से चलते हुए (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि) भूतों को नियम से बांधकर अपनी इच्छानुसार चलाया जाय।
स्वयं वाहकमेकं स्यात्सकृत्प्रेर्यं तथा परम्।
अन्यदन्तरितं बाह्यं बाह्यमन्यत्वदूरत:॥
इन तत्वों से निर्मित यंत्रों के विविध भेद हैं, जैसे :- 
(1) स्वयं चलने वाला, 
(2) एक बार चला देने पर निरंतर चलता रहने वाला, 
(3) दूर से गुप्त शक्ति से चलाया जाने वाला तथा 
(4) समीपस्थ होकर चलाया जाने वाला।
राजा भोज के भोजप्रबन्ध में लिखा है –
घटयेकया कोशदशैकमश्व: सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या।
वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्त्रम॥
भोज ने यंत्रनिर्मित कुछ वस्तुओं का विवरण भी दिया है। यंत्रयुक्त हाथी चिंघाड़ता तथा चलता हुआ प्रतीत होता है। शुक आदि पक्षी भी ताल के अनुसार नृत्य करते हैं तथा पाठ करते है। पुतली, हाथी, घोडा, बन्दर आदि भी अंगसंचालन करते हुए ताल के अनुसार नृत्य करते मनोहर लगते है। उस समय बना एक यंत्रनिर्मित पुतला नियुक्त किया था। वह पुतला वह बात कह देता था जो राजा भोज कहना चाहते थे ।
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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

श्री रामकथा अमृत सुधा सावन विशेष भाग 16


🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
                  *सावन विशेष- भाग-16*
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          🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०२*📖🕉️
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✍🏻
आदरणीय चिन्तनशील मातृ-बन्धु जन,
   ༂ *जय जय सियाराम* ༂
🗣️
*जब संपूर्ण मानस में शिव चरित पर एक विहंगम दृष्टि डालते हैं तो हम पाते हैं कि पूरे मानस में मात्र सुंदरकांड के मंगलाचरण में शिव से संबद्ध श्लोक नहीं मिलता है और सभी कांडों के मंगलाचरण में उनकी उपस्थिति है ।*
पर यहाँ भी वे एकादश रूद्र हनुमान के रूप में उपस्थित हैं - *जयति मंगलागार संसारभारापहार वानराकारविग्रह पुरारि।*
स्वामी प्रज्ञानानंद सरस्वती जी महाराज कहते हैं कि अरण्यकांड मंगल श्लोक में *स्वःसंभवम् शंकरम्* शब्द है ।
*स्वःसंभव=वात।* इस तरह वातजात=शंकरजात।
*इस तरह मानस में भी शंकरावतार सिद्ध हुआ ।* अर्थात् सुंदरकांड के मंगलाचरण में  हनुमानजी की वंदना शिव की ही वंदना है।
*उन्होंने अतुलितबलधामं श्लोक में भगवान् शिव के सभी गुणों का विनियोग किया है ।* यथा-
1- *अतुलितबलधामं-संकरु जगतबंद्य जगदीसा।सुर नर मुनि सब नावहिं सीसा।।*
2- *स्वर्णशैलाभदेहं-तुषाराद्रि संकाशगौरंगभीरं,प्रचंडं,करालं* 
3- *दनुजवनकृशानुं-खलानां दण्डकृद् योऽसौ शंकरः शं तनोतु मे।* 
4- *ज्ञानिनां अग्रगण्यं-शिव भगवान ग्यान गुन रासी।*
5- *सकलगुणनिधानं-गुणनिधिं कन्दर्पहं शंकरम्।* 
*गुणागार संसारपारं* 
6- *रघुपतिप्रियभक्तं-श्रीरामभूप प्रियं।* *मंगल ।.... कोउ नहीं सिव समान प्रिय मोरें।*
7- *वातजातं-शंकर जी स्वयं वात हैं ।आकाशवासं, स्वःसंभवं।*
इस प्रकार सात गुणों में उनकी समानता शिवजी से की गई है ।
संतो की दृष्टि में *वानरानामधीशं का विनियोग इस रूप में किया गया है कि -रुद्र देह तजि नेह बस बानर भे हनुमान ।* 
 वानर रूप में हनुमान स्वयं शंकर ही हैं ।
*इस प्रकार हनुमानजी और शंकरजी में अभिन्नता  स्थापित की गई है ।*
उत्तर कांड में काकभुशुंडि प्रसंग में शिवजी का बड़ा ही रोचक वर्णन मिलता है जिसे मानस में शिवजी का उत्तर चरित कहा जा सकता है । यहाँ भी व्यष्टि अहंकार ही कथा के केन्द्र में है।
कागभुशुण्डि जी पूर्व जन्म में गुरु से शिव मंत्र लेकर-
*जपौं मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदय दंभ अहमिति अधिकाई।।*
यद्यपि वे पहले से ही दंभी थे-
*धन मद मत्त परम बाचाला।उग्रबुद्धि उर दंभ विसाला।।* 
अब शंभु मंत्र से दीक्षित होकर वह अत्यंत अहंकारी होकर शिव मंदिर में जाकर जाप और पूजन करते थे । एक बार की घटना का वर्णन करते हुए वे कहते हैं –
*एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।गुरु आयउ अभिमान तें उठि नहीं कीन्ह प्रनाम।।* 
गुरु तो दयालु थे उन्हें लेशमात्र भी क्रोध नहीं हुआ,परंतु- *अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस।।*
गुरु का अपमान अति अघ है और श्रुतिविरोधी भी । भगवान् शिव ने उसे यह कहकर शापित किया –
*जौं नहिं दंड करौं खल तोरा।भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा।।*
यद्यपि यह शाप भी गुरु कृपा से सिमित हो गया और आगे के जन्म में उनका परम कल्याण हुआ ।
*इस प्रकार करुणामूर्ति दयालु शिव से लेकर उनके रौद्ररूप का वर्णन मानस में मिलता है। यद्यपि उनका क्रोध अंततः करुणा ही सिद्ध होता है ।*
भगवान शिव तो *करुणावतारं* तो हैं ही।
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*सियावर श्रीरामचन्द्र जी की जय*
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*_निश्चय प्रेम प्रतीति ते, बिनय करैं सनमान ।_*
*_तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान॥_*

*अंजनि के लाल, पवनतनय भगवान राम के अनन्य भक्त बजरंगबली महाराज की जय⛳*
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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...