•» *जाति या वर्ण नहीं ज्ञान है सर्वोपरि* «•
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🗣↤ आदरणीय चिन्तनशील मित्रों, ↦
*भारतीय संस्कृति में सदा से जाति को नहीं,योग्यता को ही सर्वोपरि माना गया है | जाति को मूल्य देने से मानव और उसकी मानवता की उपेक्षा होती है|जो जातिवादी होते हैं,वे समग्र मानव जाति की महत्ता का अवमूल्यन करते हैं| वे मानव अस्तित्व में अविश्वास और उसके प्रति अनास्था की भावना से ग्रस्त होते हैं,फलत: मानवता के उच्च आदर्शो के प्रति वे कभी आस्थाशील नहीं होते |*
*जाति के आधार पर योग्यता का मूल्यांकन संकीर्ण दृष्टि का परिचायक है | सच पूछिए तो मनुष्य,जाति के आधार पर नहीं वरन् योग्यता के आधार पूजनीय होता है, बस आपस में लड़ें न इसलिए वर्ण व उनमें जातिगत व्यवस्था व परंपरा तथा कुछ अंतर व दायित्वों का निर्माण किया गया है*
कबीर दास ने कहा है, *जाति न पूछो साधु की,पूछ लीजिए ज्ञान |*
कबीर जी स्वंय जुलाहा थे,परन्तु ज्ञान के कारण वे सर्वजन पूजनीय बन गये | रविदास या रैदास जी जाति के चमार थे,पर ज्ञानदीप्त होने के कारण सर्वजनप्रणम्य हो गये | *पूजनीयता के लिए शर्त है ,साधु या ज्ञानी बनने की ,न कि उच्च जाति या वर्ण से ताल्लुकात होने की|* लोक में भी कहावत प्रचलित है, *जो ज्ञान का चमत्कार दिखलाता है,वही नमस्कार प्राप्त करता है |*
साधु वही होता है,जो ज्ञान का साधक होता है,धार्मिक,दयालु, शुद्धाचार और शिष्टाचार से सम्पन्न धर्मपरायण होता है, *जिसके समस्त कार्य विधि के अनुकूल और शास्त्रसम्मत होते हैं |*
गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि *उन्होने चार वर्णो की सृष्टि गुण और कर्म के आधार पर की है,न कि जन्म के आधार पर:*
चातुर्वर्ण्यं मया सृृष्टं गुणकर्मविभागश: |
*भगवान् महावीर ने भी *उत्तराध्ययनसूत्र* में लिखा है कि कर्म से ही कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य,और शूद्र होता है | भगवान् बुद्ध ने भी *धम्मपद* के ब्राह्मण वर्ग में ब्राह्मण की परिभाषा करते हुए जाति को मूल्य न देकर ज्ञान को मूल्य दिया है | उन्होने कहा है : *जो गम्भीर प्रज्ञावाला,मेधावी,सत्,और असत् का विवेक रखनेवाला तथा परमार्थ का ज्ञाता है,वही ब्राह्मण है |*
जब ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित होती है,तब जाति,वर्ण,लिंग आदि सब कुछ भस्म हो जाता है,जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि लकड़ियो को जलाकर राख कर देता है | श्रीमद्भागवद्गीता के अध्याय ४ श्लोक ३७ मे भगवान् कहते हैं-
*यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन |ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ||*
इससे स्पष्ट है कि *अगर कोई हिन्दु व्यक्ति,चाहे वह अनुसूचित जाति या जनजाति का ही सदस्य क्यो न हो,सबसे पहले वह मानव है और मानव होने के साथ ही यदि साधु या ज्ञानी है,तो वह सर्वजन के लिए आदरणीय किसी भी उच्चासन पर विराचमान हो सकता है |*
*भारतवर्ष की यही सांस्कृतिक विशिष्टता रही है कि वह परम्परागत या कुलक्रमागत जाति,वर्ग,वर्ण या लिंग को मूल्य न देकर ज्ञान को मूल्य देता आ रहा है | इसलिए इस देश मे प्राचीन और अर्वाचीन काल में भी अनेक ऐसे व्यक्ति उच्चपदो पर या समाज मे सर्व मान्य और पूजनीय हुए हैं,जो अनुसूचित जाति और जन जाति के सदस्य रहें हैं |*
हम श्रीमद्भागवद्गीता 4-38 के अनुसार कह सकते है कि *ज्ञान से बढकर कोई पवित्र वस्तु नही है - न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते* गीता के अध्याय ५ श्लोक १८ के अनुसार *ज्ञानी वही होता है जो विद्या विनय सम्पन्न ब्राह्मण,गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल को समान दृष्टि से देखता है |*
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*इसलिए हम कह सकते हैं कि किसी भी व्यक्ति की योग्यता की श्रेष्ठता उसका जन्मना या जात्या तथाकथित ब्राह्मण या उच्चवर्ण का होना नही वरन् उसका पवित्रात्मा या ज्ञान विज्ञान तृप्तात्मा होना है | ज्ञान यज्ञ से भगवान् की उपासना का अधिकार किसी भी मनुष्य को स्वंय भगवान् द्वारा ही प्राप्त है |ज्ञानयज्ञ की योग्यता से सम्पन्न कोई भी विधिज्ञ और शास्त्रज्ञ हिन्दु श्रेष्ठ है फिर चाहे वह किसी वर्ण का हो जन्म से |*
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आपका अपना
"पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
राष्ट्रीय प्रवक्ता
राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
8120032834/7828657057