Saturday, November 30, 2019

डाॅ. प्रियंका रेड्डी बलात्कार काण्ड पर

सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो,अब गोविंद ना आएंगे कब तक आस लगाओगी तुम,बिक़े हुए मिडिया, सेक्यूलर नेताओ से कैसी रक्षा मांग रही हो,दुशासन दरबारो से स्वयं जो लज्जा हीन पड़े है,वे क्या लाज बचाएंगे सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो,अब गोविंद ना आएंगे

मैं एक ज़र्रा बुलंदी को छूने निकला था 
हवा ने थम के ज़मीं पर गिरा दिया मुझ को...

सफ़ेद रंग की चादर लपेट कर मुझ पर 
फ़सील-ए-शहर पे किस ने सजा दिया मुझ को...

              पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी
                   मुंगेली छत्तीसगढ़
                   ८१२००३२८३४

यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से कुछ मन्त्र ले लो

हर परीक्षा दे चुका अब आग में इसको न ठेलो ।।
यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से कुछ मन्त्र ले लो ।।

कौन कहता शांति से बिन ढाल आज़ादी मिली,
कौन कहता बिन गँवाये लाल आज़ादी मिली,
बुझ गए हैं दीप लाखों तब उजाला पा सका,
दे दिया बलिदान सर्वस तब प्रभाती गा सका,

है धरा यह प्रेम की तुम कृष्ण बनकर रास खेलो ।।(1)
यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से,,,,,,,,

राष्ट्र की चिर भक्ति में है बाँधता परचम हमें,
लड़खड़ाते जब कदम है साधता परचम हमें,
एकता का मन्त्र देकर दे रहा अधिकार सब,
एक आँगन में मना लो एक हो त्योहार सब,

राष्ट्र है आज़ाद अब तो राष्ट्र को सम्मान दे लो ।।(2)
यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से,,,,,,,,

दुष्ट शकुनी रच रहे गृह-युद्ध की नव नीतियाँ,
देखकर बारूद फौरन जल उठी सब तीलियाँ,
मुक्त मन से निज समर्थन दे रहीं हैं आँधियाँ,
रौद्र होकर चढ़ रही हैं शीर्ष पर सब व्याधियाँ,

भारती के लाल हो तुम वीर हर तूफान झेलो ।।(3)
यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से,,,,,,,,

एक हम धृतराष्ट्र बनकर सुन रहे सारी कथा,
एक वह जो भीष्म बनकर पी रहा सारी व्यथा,
बाँसुरी को त्याग दो अब शंख की धुत्कार हो,
जो न मानें बात से फिर लात से सत्कार हो,

लक्ष्य साधे रिपु खड़े हैं खेमेश्वर तीर झेलो ।।(4)
यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से,,,,,,,

          ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Friday, November 29, 2019

मंदिर का घंटा स्टेटिक डिस्चार्ज यंत्र

*मंदिर का घंटा स्टेटिक डिस्चार्ज यंत्र*

किसी भी मंदिर में प्रवेश करते समय आरम्भ में ही एक बड़ा घंटा बंधा होता है. मंदिर में प्रवेश करने वाला प्रत्येक भक्त पहले घंटानाद करता है और फिर मंदिर में प्रवेश करता है.

क्या कारण है इसके पीछे?

इसका एक वैज्ञानिक कारण है..

जब हम बृहद घंटे के नीचे खड़े होकर सर ऊँचा करके हाथ उठाकर घंटा बजाते हैं, तब प्रचंड घंटानाद होता है.

यह ध्वनि 330 मीटर प्रति सेकंड के वेग से अपने उद्गम स्थान से दूर जाती है, ध्वनि की यही शक्ति कंपन के माध्यम से प्रवास करती है. आप उस वक्त घंटे के नीचे खडे़ होते हैं. अतः ध्वनि का नाद आपके सहस्रारचक्र  
(ब्रम्हरंध्र,सिर के ठीक ऊपर) में प्रवेश कर शरीरमार्ग से  
भूमि में प्रवेश करता है.

यह ध्वनि प्रवास करते समय आपके मन में (मस्तिष्क में) चलने वाले असंख्य विचार, चिंता, तनाव, उदासी, मनोविकार आदि इन समस्त नकारात्मक विचारों को अपने साथ ले जाती हैं, और आप निर्विकार अवस्था में परमेश्वर के सामने जाते हैं. तब आपके भाव शुद्धतापूर्वक परमेश्वर को समर्पित होते हैं.

घंटे के नाद की तरंगों के अत्यंत तीव्र के आघात से आस-पास के वातावरण के व हमारे शरीर के सूक्ष्म कीटाणुओं का नाश होता है, जिससे वातावरण मे शुद्धता रहती है, और हमें स्वास्थ्य लाभ होता है.

इसीलिए मंदिर मे प्रवेश करते समय घंटानाद अवश्य करें, और थोड़ा समय घंटे के नीचे खडे़ रह कर घंटानाद का आनंद अवश्य लें. आप चिंतामुक्त व शुचिर्भूत बनेगें.

ईश्वर की दिव्य ऊर्जा व मंदिर गर्भ की दिव्य ऊर्जाशक्ति आपका मस्तिष्क ग्रहण करेगा. आप प्रसन्न होंगे और शांति मिलेगी.

अतः आत्म-ज्ञान ,आत्म-जागरण, और दिव्यजीवन के परम आनंद की अनुभूति के लिये मंदिर जाएं व घंटानाद अवश्य करें.  
       🙏🏻हरि ॐ🙏🏻

Thursday, November 28, 2019

आज का संदेश


*ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय |*

*सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय ||*

*अर्थात 👉 कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म तो ले लिया लेकिन अगर कर्म ऊँचे नहीं है तो ये तो वही बात हुई जैसे सोने के लोटे में जहर भरा हो, इसकी चारों ओर निंदा ही होती है।*

*जाती जन्म से कोई ज्ञानी नहीं होती ज्ञान प्राप्ति स्वयं करना पड़ता है*

🕉🌏🕉🌏🕉🌏🕉🌏
*🌴 शुभ प्रभात शुभ दिवस🌴*
       *☀जय श्री राम☀*
     *🏔 हर हर महादेव🏔*
  🙏🏻🙏🙏🏻🙏🙏🏻🙏🙏🏻🙏

Wednesday, November 27, 2019

आज की वाणी

*🎯आज की वाणी👉*

🌹
*केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः*
      *न स्नानं न विलोपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः।*
*वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता र्धायते*
      *क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥*
*भावार्थ👉*
           _बाजुबंद पुरुष को शोभित नहीं करते और न ही चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, न स्नान, न चन्दन, न फूल और न सजे हुए केश ही शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत प्रकार से धारण की हुई एक वाणी ही उसकी सुन्दर प्रकार से शोभा बढ़ाती है। साधारण आभूषण नष्ट हो जाते हैं, वाणी ही सनातन आभूषण है।_
🌹

Monday, November 25, 2019

महाभारत:- चक्रव्यूह


*महाभारत : चक्रव्यूह*

विश्व का सबसे बड़ा युद्ध था महाभारत का कुरुक्षेत्र युद्ध, इतिहास में इतना भयंकर युद्ध केवल एक बार ही घटित हुआ था; अनुमान है कि महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध में परमाणू हथियारों का उपयॊग भी किया गया था, *चक्र* यानी पहिया और *व्यूह* यानी गठन *.*. *पहिए के जैसे घूमता हुआ व्यूह है '''चक्रव्यूह''' …*..

कुरुक्षेत्र युद्ध का सबसे खतरनाक रण तंत्र था *चक्रव्यूह* यद्दपि आज का आधुनिक जगत भी चक्रव्यूह जैसे रण तंत्र से अनभिज्ञ हैं, चक्रव्यू या पद्मव्यूह को बेधना असंभव था, द्वापरयुग में केवल सात लोग ही इसे बेधना जानते थे; भगवान कृष्ण के अलावा अर्जुन, भीष्म, द्रॊणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थाम और प्रद्युम्न ही व्यूह को बेध सकते थे जानते हैं, अभिमन्यु केवल चक्रव्यूह के अंदर प्रवेश करना जानता था *…*..

चक्रव्यूह में कुल सात परत होती थी, सबसे अंदरूनी परत में सबसे शौर्यवान सैनिक तैनात होते थे, यह परत इस प्रकार बनाये जाते थे कि बाहरी परत के सैनिकों से अंदर की परत के सैनिक शारीरिक और मानसिक रूप से ज्यादा बलशाली होते थे, सबसे बाहरी परत में पैदल सैन्य के सैनिक तैनात हुआ करते थे, अंदरूनी परत में अस्र शस्त्र से सुसज्जित हाथियों की सेना हुआ करती थी; चक्रव्यूह की रचना एक भूल भुलैय्या के जैसे हॊती थी जिसमें एक बार शत्रू फंस गया तो घन चक्कर बनकर रह जाता था;
चक्रव्यूह में हर परत की सेना घड़ी के कांटे के जैसे ही हर पल घूमता रहता था, इससे व्यूह के अंदर प्रवेश करने वाला व्यक्ति अंदर ही खॊ जाता और बाहर जाने का रास्ता भूल जाता था, *महाभारत में व्यूह की रचना गुरु द्रॊणाचार्य ही करते थे*, चक्रव्यूह को युग का सबसे सर्वेष्ठ सैन्य दलदल माना जाता था, इस व्यूह का गठन युधिष्टिर को बंदी बनाने के लिए ही किया गया था, माना जाता है कि 48.128 किलॊमीटर के क्षेत्र फल में कुरुक्षेत्र नामक जगह पर युद्ध हुआ था जिसमें भाग लेने वाले सैनिकों की संख्या 1.8 मिलियन था *…*..

चक्रव्यूह को घुमता हुआ मौत का पहिया भी कहा जाता था, क्यों कि एक बार जो इस व्यूह के अंदर गया वह कभी बाहर नहीं आ सकता था, यह पृथ्वी की ही तरह अपने अक्स में घूमता था साथ ही साथ हर परत भी परिक्रमा करती हुई घूमती थी; इसी कारण से बाहर जाने का द्वार हर वक्त अलग दिशा में बदल जाता था जो शत्रु को भ्रमित करता था, अद्'भूत और अकल्पनीय युद्ध तंत्र था चक्रव्यूह; आज का आधुनिक जगत भी इतने उलझे हुए और असामान्य रण तंत्र को युद्ध में नहीं अपना सकता है, ज़रा सॊचिये कि सहस्र सहस्र वर्ष पूर्व चक्रव्यूह जैसे घातक युद्ध तकनीक को अपनाने वाले कितने बुद्धिवान रहें होंगे *…*..

चक्रव्यूह ठीक उस आंधी की तरह था जो अपने मार्ग में आने वाले हरेक चीज को तिनके की तरह उड़ाकर नष्ट कर देता था, इस व्यूह को बेधने की जानकारी केवल सात लोगों के ही पास थी, अभिमन्यू व्यूह के भीतर प्रवेश करना जानता था लेकिन बाहर निकलना नहीं जानता था, इसी कारणवश कौरवों ने छल से अभिमन्यू की हत्या कर दी थी, माना जाता है कि चक्रव्यूह का गठन शत्रु सैन्य को मनोवैज्ञानिक और मानसिक रूप से इतना जर्जर बनाता था कि एक ही पल में हज़ारों शत्रु सैनिक प्राण त्याग देते थे; कृष्ण, अर्जुन, भीष्म, द्रॊणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थाम और प्रद्युम्न के अलावा चक्रव्यूह से बाहर निकलने की रणनीति किसी के भी पास नहीं थी *…*..

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि संगीत या शंख के नाद के अनुसार ही चक्रव्यूह के सैनिक अपने स्थिति को बदल सकते थे, कॊई भी सेनापति या सैनिक अपनी मन मर्ज़ी से अपनी स्थिति को बदल नहीं सकता था, अद्'भूत अकल्पनीय; सदियों पूर्व ही इतने वैज्ञानिक रीति से अनुशासित रण नीति का गठन करना सामान्य विषय नहीं है, महाभारत के युद्ध में कुल तीन बार चक्रव्यूह का गठन किया था, जिनमें से एक में अभिमन्यू की मृत्यू हुई थी, केवल अर्जुन ने कृष्ण की कृपा से चक्रव्यूह को बेध कर जयद्रथ का वध किया था, हमें गर्व होना चाहिए कि हम उस देश के वासी है जिस देश में सदियों पूर्व के विज्ञान और तकनीक का अद्'भूत निदर्शन देखने को मिलता है, निस्संदेह चक्रव्यूह *'''न भूतो न भविष्यती'''* युद्ध तकनीक था *न भूत काल में किसी ने देखा और ना भविष्य में कॊई इसे देख पायेगा …*..

मध्य प्रदेश के एक स्थान और कर्नाटक के शिवमंदिर में आज भी चक्रव्यूह बना हुआ है *…*!!
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Sunday, November 24, 2019

भगवान शिव द्वारा शंखचूड़ संहार की कथा

भगवान शिव द्वारा शंखचूड़ संहार की कथा!!!!!

प्रजापति महर्षि कश्यप की कई पत्नियां थीं। उनमें से एक नाम दनु था। दनु की संतान दानव कहलाई। उसी दनु के बड़े पुत्र का नाम दंभ था। दंभ बहुत ही सदाचारी और धार्मिक प्रवृति का था। अन्य दानवों की भांति उनमें न तो ईर्ष्या ही थी और न ही देवताओं से विद्वेष भावना। वह विष्णु का भक्त था और उन्हीं की आराधना किया करता था।

लेकिन उसे एक ही चिंता सताती रहती थी कि उसके कोई पुत्र न था। आचार्य शुक्र ने उसे श्री कृष्ण मंत्र की दीक्षा दी। दंभ ने दीक्षा पाकर पुष्कर में महान अनुष्ठान किया। अनुष्ठान सफल हुआ| उसके अनुष्ठान से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु प्रकट होकर बोले – “वत्स! मैं तुम्हारे अनुष्ठान से प्रसन्न हूं| वर मांगो|”

दंभ बोला – “भगवन! यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसा पुत्र दें जो आपका भक्त हो और त्रिलोकजयी हो| उसे देवता भी युद्ध में न जीत सकें|”

भगवान विष्णु ने ‘तथास्तु’ कहा और अंतर्धान हो गए और दंभ प्रसन्नचित अपने घर लौट आया|

गोलोक में श्री राधा ने श्री कृष्ण-पार्षद श्रीदामा को असुर होने का शाप दिया था| शाप मिलने पर वही दंभ की पत्नी के गर्भ में आया| जन्म होने के पश्चात दंभ ने अपने उस पुत्र का नाम शंखचूड़ रखा| जब वह कुछ बड़ा हुआ तो दंभ ने उसे मुनि जैगीषिव्य की देख-रेख में रख दिया| मुनि जैगीषिव्य ने उसे शिक्षा दीक्षा दी| अपनी कुमार अवस्था में ही शंखचूड़ पुष्कर में पहुंचा और उस महान धार्मिक तपस्थली में ध्यान मग्न रहकर वर्षों तक ब्रह्मा जी की तपस्या करता रहा| उसकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट होकर बोले – “वत्स! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं| वर मांगो|”

“पितामह! मुझे ऐसा वरदान दीजिए कि मुझे देवता पराजित न कर सकें|” शंखचूड़ ने कहा|

ब्रह्मा जी ने उसे ऐसा ही वरदान दिया और श्री कृष्ण कवच प्रदान करते हुए उसे आदेश दिया – “शंखचूड़! तुम बद्रिकाश्रम चले जाओ| वहां तुम्हारा भाग्य का सितारा उदय होने की प्रतीक्षा कर रहा है|”

आदेश मानकर शंखचूड़ बद्रिकाक्षम पहुंचा| वहां महाराज धर्मध्वज की पुत्री तुलसी भी तपस्या कर रही थी| दोनों का आपस में परिचय हुआ और ब्रह्मा जी की इच्छानुसार दोनों का विवाह हो गया| अपनी पत्नी को लेकर शंखचूड़, पुनः दैत्यपुरी लौट गया| शुक्राचार्य ने उसे दानवों का अधिपति बना दिया| सिंहासन पर बैठते ही उसने अपना साम्राज्य बढ़ाने के लिए देवलोक पर चढ़ाई कर दी| ब्रह्मा जी के वरदान के कारण वह अजेय हो चुका था, अतः उसे देवों को हराने में कोई कठिनाई नहीं हुई| उसने अमरावती पर कब्जा जमा लिया| इंद्र अमरावती छोड़कर भाग निकले| देवता उसके डर से कंदराओं में जा छुपे|

शंखचूड़ तीनों लोकों का शासक हो गया और सब लोकपालों का कार्य भी उसने संभाल लिया| उसने अपनी प्रजा की भलाई के लिए अनेक कार्य किए| प्रजा उससे बहुत प्रसन्न थी| सर्वत्र सुख और शांति थी| क्योंकि शंखचूड़ स्वयं भी कृष्ण भक्त था| अतः उसकी प्रजा भी भगवान कृष्ण पर पूरी आस्था रखने लगी| उसके राज्य से अधर्म का नाश हो गया| प्रजा इंद्र और देवताओं को भूलने लगी| इससे देवताओं को बहुत क्षोभ हुआ| इंद्र पितामह ब्रह्मा के पास पहुंचकर बोले – “पितामह! आपने शंखचूड़ को अभय होने का वरदान देकर उसे निरंकुश बना दिया है| वह अमरावती पर कब्जा जमाए बैठा है| देवता दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं| हमें बताइए हम क्या करें|”

पितामह बोले – “सुरेंद्र! शंखचूड़ धार्मिक और रीति से अपना शासन चला रहा है| प्रजा उससे प्रसन्न है| उसके राज्य में प्रजा सुखी और संपन्न है, हमें उससे कोई शिकायत नहीं है|”

इंद्र बोलें – “यह सब तो ठीक है पितामह! लेकिन क्या हम यूं ही भटकते रहेंगे| आखिर अमरावती है तो देवताओं का ही|”

पितामह बोले – “अवश्य है| किंतु शंखचूड़ ने तुम्हें युद्ध में पराजित करके उसे प्राप्त किया है| उसने तुम्हारी प्रजा को भी कोई कष्ट नहीं पहुंचाया है| सिर्फ सिंहासनों का ही फेरबदल हुआ है न|”

इंद्र बोला – “लेकिन पितामह! हम आपकी संतानें हैं| क्या आप चाहेंगे कि आपकी संतानें यूं ही दर-बदर भटकती रहें| कुछ उपाय कीजिए पितामह!”

पितामह बोले – “मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता देवेंद्र! जब तक शंखचूंड़ के भाग्य में अमरावती का ऐश्वर्य भोगना है, वह भोगेगा ही| तुम भगवान विष्णु के पास चले जाओ| वे अवश्य कोई उपाय तुम्हें सुझा देंगे|”

वहां से निराश होकर इंद्र श्रीविष्णु के पास पहुंचा और उनकी स्तुति करके बोला – “भगवन! देवता इस समय भारी संकट में हैं| ब्रह्मा जी ने अपनी असमर्थता जाहिर करके मुझे आपके पास भेज दिया है| कुछ कीजिए प्रभु! अन्यथा संपूर्ण देव जाति ही नष्ट हो जाएगी|”

विष्णु बोले – “पितामह का कहना ठीक है| मैं भी अकारण शंखचूड़ के संबंधों में हस्तक्षेप करना पसंद नहीं करता| उसकी सारी प्रजा कृष्ण भक्त है और कृष्ण मेरा ही प्रतिरूप है| मैं अपने भक्त पर कष्ट होते नहीं देख सकता| लेकिन निराश होने की आवश्यकता नहीं सुरराज! तुम भगवान शिव के पास चले जाओ और उन्हीं से कोई उपाय पूछो| वे अवश्य तुम्हारे कष्ट का निवारण कर देंगे|”

विष्णु की बात सुनकर इंद्र निराश भाव से बैकुंठ से निकल आया| अंत में वह भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत न जाकर शिवलोक पहुंचा और भगवान शिव की स्तुति करके अपने आने का प्रयोजन बताया| भगवान शिव ने उसकी बात सुनी और उसे आश्वस्त किया – “धैर्य रखो सुरराज! तुम्हारा सिंहासन तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा| मैं गंधर्वराज चित्ररथ को अभी दूत बनाकर शंखचूड़ के पास रवाना करता हूं|”

शिव के आदेशानुसार गंधर्वराज चित्ररथ शंखचूड़ की राजधानी पहुंचा| उस समय शंखचूड़ अपने सिंहासन पर विराजमान था| चित्ररथ ने उसका अभिवादन करने के पश्चात अपने आने का कारण बताया – “दैत्यराज! मैं गंधर्वराज चित्ररथ हूं और भगवान शिव का एक संदेश लेकर आपके पास आया हूं|”

यह सुनकर शंखचूड़ के चेहरे पर आश्चर्य झलक आया| शिव के दूत को सामने पाकर वह सिंहासन से उठकर बोला – “मेरा अहोभाग्य है कि भगवान शिव ने मुझे किसी योग्य समझा| आप संदेश सुनाइए| क्या संदेश भेजा है भगवान रुद्र ने?”

गंधर्वराज बोला – “दैत्यराज! भगवान शिव का संदेश है कि तुम देवताओं का राज्य उन्हें वापस लौटा दो और उनकी अधिकार उन्हें दे दो| भगवान शिव ने देवों को अभय होने का वचन दिया है|”

शंखचूड़ बोला – “गंधर्वराज! भगवान शिव से मेरा प्रणाम कहना और उनसे कह देना कि शंखचूड़ के हृदय में आपके लिए बहुत ही ज्यादा श्रद्धा है| परंतु यदि उन्होंने इंद्र के बहकावे में आकर मुझे दंडित करने का निश्चय किया तो मैं उनकी बात नहीं मानूंगा और उनसे भी युद्ध करने के लिए तैयार हो जाऊंगा|”

चित्ररथ वापस लौटा और उसने भगवान शंकर को शंखचूड़ का उत्तर सुनाया| यह सुनकर शिव क्रोधित हो गए और अपने गणों को युद्ध का आदेश दे दिया|

उधर शंखचूड़ ने अपने पुत्र का अभिषेक कर उसे दानवाधिपति बना दिया और अपनी पत्नी से बोला – “मैंने युद्ध स्वीकार कर लिया है देवी! ईश्वर करे युद्ध में हमारी विजय हो| अब मुझे अनुमति दो| मेरी सेनाएं तैयार हैं|”

शंखचूड़ अपनी सेनाएं लेकर युद्ध भूमि में जा पहुंचा| दोनों सेनाएं गोमत्रक पर्वत के समीप एक दूसरे के आमने-सामने आ खड़ी हुईं| भगवान शिव ने शंखचूड़ के पास एक बार फिर संदेश भेजा कि वह नादानी न करे और युद्ध से दूर रहकर उनकी बात मान ले| किंतु शंखचूड़ न माना और दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध छिड़ गया| भगवान शिव और शंखचूड़ आमने-सामने डट गए| दोनों में अनेक अस्त्र-शस्त्रों से युद्ध होने लगा| फिर भगवान शिव ने ज्योंही शंखचूड़ का वध करने के लिए त्रिशूल उठाया तो आकाशवाणी हुई – “देवाधिदेव! आप प्रलयंकर हैं| सर्व समर्थ हैं किंतु आपको मर्यादा की रक्षा करनी चाहिए| श्रुति की मर्यादा को नष्ट न करें| जब तक शंखचूड़ के पास हरि का कवच है और जब तक उसकी पतिव्रता पत्नी मौजूद है, तब तक उस पर बुढ़ापा नहीं आ सकता और न ही उसकी मृत्यु हो सकती है|”

आकाशवाणी के खत्म होते ही शिव का त्रिशूल अपने आप रुक गया| तभी भगवान विष्णु प्रकट हुए| शिव बोले – “भगवन! आपने तो मुझे बड़े धर्म संकट में डाल दिया है| आप ही ने तो इंद्र को मेरे पास भेजा और जब मैंने उसे अभय करने के लिए युद्ध आरंभ किया तो अब आप ही का कवच आड़े आ रहा है| अब आप ही कोई उपाय सोचिए|”

विष्णु बोले – “शंखचूड़ के शाप का समय अब समाप्त होने ही वाला है भगवन! अब इसे असुर योनि से मुक्त करके गोलोक भेजना पड़ेगा| यह कृष्ण भक्त है और कृष्ण मेरा ही प्रतिरूप है अतः इसे वापस गोलोक में भेजना होगा|”

फिर विष्णु ने एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और शंखचूड़ के पास पहुंचकर बोले – “दानवराज! मैं एक निर्धन ब्राह्मण हूं| कुछ पाने की आस लिए आपके पास आया हूं|”

शंखचूड़ बोला – “मांगो विप्रवर! जो भी मेरे पास है उसे दे देने में मुझे किंचित भी विलंब नहीं लगेगा| मेरा सिर भी मांगोगे तो वह भी दे देने में इंकार नहीं करूंगा| आप आदेश तो दें|”

ब्राह्मण वेशधारी विष्णु बोले – “दैत्यराज! मुझे आपका सिर नहीं आपका कवच चाहिए| बोलिए – देंगे अपना-कवच|”

शंखचूड़ ने अपना कवच उतारकर ब्राह्मण वेशधारी विष्णु को सौंपते हुए कहा – “अवश्य! यदि भगवान कृष्ण की ऐसी ही इच्छा है तो ऐसा ही होगा| आप कवच ले जाइए|”

ब्राह्मण वेशधारी विष्णु कवच लेकर दैत्यपुरी पहुंचे| फिर उन्होंने शंखचूड़ का वेश धारण किया और राजमहल में जाकर शंखचूड़ की पत्नी तुलसी के पास पहुंचे| तुलसी ने उन्हें अपना पति ही समझा और उनका स्वागत किया| उस रात विष्णु शंखचूड़ के महल में ही ठहरे| अचानक ही पतिव्रता तुलसी को धोखे का आभास हुआ| वह चौंककर बिस्तर से उठी| बोली – “कौन है तू और मेरे साथ छल करने का तुझमें साहस कैसे हुआ? जल्दी बोल अन्यथा अपने पतिव्रत तेज से अभी भस्म करती हूं|”

विष्णु अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गए| उन्होंने तुलसी को समझाते हुए कहा – “सुनो तुलसी! तुम्हारे पति का समय पूरा हुआ| एक शाप के कारण ही उसे असुर योनि में आना पड़ा था| अब से वह गोलोक में रहेगा| क्योंकि तुम्हारा पतिव्रत धर्म ही उसकी रक्षा कर रहा था| इसलिए मुझे छल करके तुम्हें कलुषित करना पड़ा|”

तुलसी रोते हुए बोली – “यह आपने अच्छा नहीं किया भगवन! यूं मेरे साथ छल करके मेरा सतीत्व नष्ट किया| मैं शाप देती हूं कि आज से आपको भी पत्थर बन जाना पड़ेगा| आपमें दया ममता नहीं है| आप पत्थर हैं पत्थर|”

विष्णु बोले – “और मैं तुम्हें वर देता हूं तुलसी कि मेरे पत्थर बन जाने पर तुम्हें भी मेरे पास ही स्थान मिलेगा| भविष्य में लोग तुलसी और शालग्राम की पूजा करेंगे| तुलसी के बगैर शालग्राम की पूजा अधूरी रहेगी|”

उसके बाद विष्णु अंतर्धान हो गए और युद्ध भूमि में खड़े शिव को अपनी दिव्य शक्ति से सब कुछ बता दिया| शंखचूड़ और शिव में पुनः युद्ध आरंभ हो गया किंतु तुलसी के पतिव्रत धर्म नष्ट हो जाने से शंखचूड़ की शक्ति घट गई थी| अतः शिव ने अपना त्रिशूल उसकी ओर फेंका तो वह सीधा शंखचूड़ के हृदयस्थल को वेध गया| वातावरण में हजारों बिजलियां एक साथ क्रौंध गईं| चारों दिशाएं कांप उठीं और देखते ही देखते शंखचूंड धरती पर जा गिरा| गिरते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए|

शाप से मुक्ति मिलते ही श्रीदामा गोलोक जा पहुंचा| उसकी भस्म से एक शंख प्रकट हुआ जो कालांतर में भगवान शिव के हाथों की शोभा बना| देवताओं ने शिव की ‘जय-जयकार’ की और इंद्र को अपना सिंहासन पुनः प्राप्त हो गया|

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

पतन का कारण

*पतन का कारण* 

_श्रीकृष्ण ने एक रात को स्वप्न में देखा कि, एक गाय अपने नवजात बछड़े को प्रेम से चाट रही है।  चाटते-चाटते वह गाय, उस बछड़े की कोमल खाल को छील देती है । उसके शरीर से रक्त निकलने लगता है । और वह बेहोश होकर, नीचे गिर जाता है। श्रीकृष्ण प्रातः यह स्वप्न,जब अपने पिता वसूदेव  को बताते हैं । तो, वसुदेवजी  कहते हैं कि :-_

```यह स्वप्न,  (कलियुग) का लक्षण है ।```

*कलियुग में माता-पिता, अपनी संतान को,इतना प्रेम करेंगे, उन्हें सुविधाओं का इतना व्यसनी बना देंगे कि, वे उनमें डूबकर, अपनी ही हानि कर बैठेंगे। सुविधा, भोगी और कुमार्ग - गामी बनकर विभिन्न अज्ञानताओं में फंसकर अपने होश गँवा देंगे।*

```आजकल हो भी यही रहा है। माता पिता अपने बच्चों को, मोबाइल, बाइक, कार, कपड़े, फैशन की सामग्री और पैसे उपलब्ध करा देते हैं । बच्चों का चिंतन, इतना विषाक्त हो जाता है कि, वो माता-पिता से झूठ बोलना, बातें छिपाना,बड़ों का अपमान करना आदि सीख जाते हैं ।```

☝🏼 *याद रखियेगा !* 👇🏽

 *संस्कार दिये बिना सुविधायें देना, पतन का कारण है।*
*सुविधाएं अगर आप ने बच्चों को नहीं दिए तो हो सकता है वह थोड़ी देर के लिए रोए।* 
*पर संस्कार नहीं दिए तो वे जिंदगी भर रोएंगे।*
                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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Monday, November 18, 2019

आज का संदेश


………… 
*ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो*
*ज्ञानस्योपशम: श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रो व्यय: ।*
*अक्रोधस्तपस: क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निर्व्याजता*
*सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ।।७८।।*

*भावार्थ―* धन-सम्पत्ति की शोभा सज्जनता, शूरवीरता की शोभा वाक् संयम(बढ़-चढ़कर बातें न करना), ज्ञान की शोभा शान्ति, नम्रता, धन की शोभा सुपात्र में दान, तप की शोभा क्रोध न करना, प्रभुता की शोभा क्षमा और धर्म का भूषण निश्छल व्यवहार है। परन्तु इन सबका कारणरूप *शील=सदाचार* सर्वश्रेष्ठ भूषण है।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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Sunday, November 17, 2019

आज का सुविचार

*"अगर तुम उड़ नहीं सकते तो, दौड़ो ! अगर तुम दौड़ नहीं सकते तो, चलो !*
*अगर तुम चल नहीं सकते तो, रेंगो !*
*पर आगे बढ़ते रहो"*
अपनी सोच ओर दिशा बदलो
सफलता आपका स्वागत करेंगी... रास्ते पर कंकड़ ही कंकड़ हो तो भी एक अच्छा जूता पहनकर उस पर चला जा सकता है। लेकिन यदि एक अच्छे जूते के अंदर एक भी कंकड़ हो तो एक अच्छी सड़क पर भी कुछ कदम भी चलना मुश्किल है। 
यानी - *"बाहर की चुनौतियों से नहीं*
*हम अपनी अंदर की कमजोरियों*
*से हारते हैं"*....
_हमारे विचार ही हमारा भविष्य तय करते हैं..!

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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आज का संदेश


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आप मालिक मत बनिये , आप माली बनिये !
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आप किसके मालिक हॅं ? आप किसी के मालिक नहीं हॅं , मालिक तो सबका भगवान हॅ ! आप सिर्फ माली हॅं , भगवान ने अपनी बगिया की देखभाल के लिये हमे माली बना कर भेजा हॅ !
आप माली के तरीके से काम कीजिये ! आप स्त्री के मालिक नही हॅं , आप यह मत कहना कि मॅं तेरा मालिक हूं , वरना यह कहना कि मॅं तेरा माली हूं! तेरी सेहत को अच्छा रखने के लिये , तुझे खुश रखने के लिये माली की तरह खयाल रखूंगा ! बच्चों के माली , मां बाप के माली , समाज के माली , धन संपदा के माली, व्यापार के माली बनिये मालिक नहीं !
माली बनकर रहोगे तो हर चीज का बेहतरीन उपयोग करोगे ! मालिक होंगे तो जमा करेंगे , अहंकार पॅदा होगा, चिंता पॅदा होगी , ब्लड प्रॅशर होगा हार्ट अटॅक होगा ! जो जमा करोगे , उसका इस्तेमाल सही लोग नही करेगे , उसका दुरुपयोग होगा , जिसके पाप के भागिदार भी आप होंगे !
इसलिये मालिक नहीं माली बनिये !

*वन्दे मातरम्*🚩🚩
*शुभ प्रभात, आपका दिन मंगलमय हो*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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Saturday, November 16, 2019

वानर


*वानर …*..

राजा दक्ष के यज्ञ में जब गुप्त उष्मा या लैटेंट हीट मतलब उमा दु:खी हो सती या भस्म हुईं तो बहुत कुछ और हुआ :

तीन मुखों वाले (वीरभद्र + भद्रकाली) चरम ताप की बल व शक्ति या त्रिविध ताप प्रकट हुए-
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

*आध्यात्मिक ताप =* अर्ध-आत्मा या sub atomic particles को बनाने वाले quark + anti quark का  annihilation. जहाँ विष्णु व ब्रम्हा या electron-proton भी पिघल कर लुप्त हो जाते हैं, केवल चहुँ ओर शिव गण ही रह जाते हैं!

*आधिदैविक ताप =* अर्ध-देव या sub atomic particles, जिसमें अर्ध - दानव भी छुपा है [particles + anti particles] annihilation.

*आधिभौतिक ताप=* अर्ध-भौतिक या आधा परमाणु या सिर्फ नाभिक या nuclear annihilation जिससे पूरा फिजिक्स भरा-पड़ा है!

Nuclear fission annihilation, Nuclear fusion annihilation और दोनों को मिलाने से बना Thermonuclear annihilation.

इन तीन ताप से पूरा ब्रम्हाण्ड जलने लगा जिसे वेदों में वैश्वानर अग्नि और पुराणों में वानरराज केसरी कहा गया है!

उमा ने भस्म होने से पूर्व [अग्नि+वायु] = प्लाज्मा = वानर उत्पन्न किया!

> 49 मरुत [vibration + swing] 
> 49 पवन [gaseous state] 
> 49 अग्नि fire [cold + heat] 
> 49 वानर [plasma]

*Gangsanatan.*

*वानर और बन्दर*
*में अन्तर का भी पता होना चाहिए* !!

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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आज का सुविचार


*दिवसेनैव तत् कुर्याद्*
        *येन रात्रौ सुखं वसेत् ।*
*यावज्जीवं च तत्कुर्याद्*
        *येन प्रेत्य सुखं वसेत् ॥*
               *➖विदुरनीतिः*
*भावार्थ👉*
          _दिनभर ऐसा काम कीजिए जिससे रात में चैन की नींद आ सके । और जीवनभर ऐसे ही कर्म करो जिससे मृत्यु के पश्चात् सुख अर्थात् सद्गति प्राप्त हो ।_

*शुभ प्रभात शुभ दिवस*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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Thursday, November 14, 2019

आज का संदेश


*🙏जय श्री राम🙏*
*विद्यार्थी सेवकः पान्थः*
*क्षुधार्तो   भयकातरः ।*
*भाण्डारी  प्रतिहारी  च*
*सप्त सुप्तान् प्रबोधयेत्।।९/६।।*
*अहिं  नृपं  च  शार्दूलं*
*बर्बटीं  बालकं तथा ।*
*परश्वानं  च  मूर्खं   च*
*सप्त सुप्तान्न बोधयेत् ।।९/७।।*                                                                                                                                          
*भावार्थ👉*
           _विद्यार्थी, सेवक, यात्री, भूख से परेशान, बहुत भयभीत, भंडार का स्वामी और पहरेदार- इन सात सोए हुए लोगों को जगा देना चाहिए। साँप, राजा, शेर, वेश्या, बच्चा, पराया कुत्ता और मूर्ख- इन सात को नहीं जगाना चाहिए।_
🌻आपका दिन *_मंगलमय_*  हो जी ।🌻

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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Wednesday, November 13, 2019

आज का संदेश


           🔴 *आज का  संदेश* 🔴


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                   *मानव जीवन में षट्कर्मों का विशेष स्थान है | जिस प्रकार प्रकृति की षडरितुयें , मनुष्यों के षडरिपुओं का वर्णन प्राप्त होता है उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में षट्कर्म भी बताये गये हैं | सर्वप्रथम तो मानवमात्र के जीवन में छह व्यवस्थाओं का वर्णन बाबा जी ने किया है जिससे कोई भी नहीं बच सकता | यथा :- जन्म , मृत्यु , हानि , लाभ , यश एवं अपयश | इसके अतिरिक्त सनातन धर्म के प्रत्येक अंगों के लिए भिन्न - भिन्न षट्कर्मों का उल्लेख प्राप्त होता है | ब्राह्मणों के षट्कर्म :- अध्यापनं अध्ययन चैव , यजनं याजनं तथा ! दानं प्रतिग्रहं चैव , ब्राह्मणानां अकल्पयत् !! अर्थात :- ब्राह्मणों के मुख्य छ: कर्म पढ़ना , पढ़ाना , यज्ञ करना , यज्ञ कराना , दान लेना एवं दान देना बताया है | तांत्रिकों के षट्कर्म :- मारण , मोहन , उच्चाटन , स्तंभन , विद्वेषण एवं शांति ! योगियों के लिए जिन षट्कर्मों की व्याख्या योगशास्त्र में मिलती है उसके अनुसार :- धौति , वस्ति , नेति , नौलिक , त्राटक एवं कपाल भारती आदि हैं | इन सभी क्रियाओं से अलग प्रत्येक साधारण से साधारण मनुष्यों के लिए भी षट्कर्मों की नितान्त आवश्यकता बताई गयी है जिसे प्रत्येक सनातन धर्मी को अवश्य करनी चाहिए | ये साधारण षट्कर्म हैं :- स्नान , संध्या , तर्पण , पूजन , जप एवं होम | सनातन धर्म की यही दिव्यता है कि यहाँ यदि कठिन साधनायें बतायी गयी हैं तो मानव जीवन को धन्य बनाने के लिए सरल से सरल विधियाँ भी उपलब्ध हैं | इन्हीं विधियों के निर्देशानुसार ही हमारे देश में ब्राह्मणों , तांत्रिकों , योगियों एवं साधारण से दिखने वाले मनुष्यों ने भी समय समय पर उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सनातन की धर्मध्वजा फहराई है | मानव जीवन में प्रत्येक वर्ग के लिए षट्कर्मों का विधान है आवश्यकता है उसे जानने की | इन्हीं विभिन्न षट्कर्मों में समस्त मानव जीवन समाहित है |*

*आज प्राय: चारों ओर यह सुनने को मिल ही जाता है कि "ब्राह्मण अपने कर्मों का त्याग कर चुका है" | आज जब पृथ्वी पर रहने वाले सभी मनुष्यों ने अपने कर्मों का त्याग कर दिया है तो मात्र ब्राह्मण को लक्ष्य करके यह टिप्पणी करना विचारणीय है | कुछ लोग तो यहाँ तक कह देते हैं कि ब्राह्मण को सिर्फ उपरवर्णित कर्म ही करना चाहिए | ब्राह्मण अध्ययन - अध्यापन करे , यज्ञ करे एवं कराये , दान ले तथा दान दे | इसके अतिरिक्त ब्राह्मण को कोई कर्म नहीं करना चाहिए | ऐसा कहने वालों को आगे जो निर्देश दिया गया है उस पर भी ध्यान देना चाहिए कि स्मृतियों में लिखा है कि आपातकाल में अपना निर्वाह करने के लिए भिक्षा व दान तो लेना ही चाहिए साथ ही कृषि , व्यापार , महाजनी (लेन देन) भी करना चाहिए | कुछ लोग ब्राह्मणों को कर्मच्युत भी कह देते हैं | यह सत्य भी कहा जा सकता है | परंतु मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ऐसा कहने वाले धर्म व समाज के ठेकेदारों से पूछना चाहिए कि क्या क्षत्रिय एवं वैश्य आज अपने लिए बताये गये षट्कर्मों का पालन कर रहा है | क्षत्रियों के लिए बताये गये षटकर्मों :- शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनं ! दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावज: !! अर्थात :- शौर्य , तेज , धैर्य , सजगता , शत्रु को पीठ न दिखाना , दान और स्वामी भाव में से कितने का पालन क्षत्रिय समाज कर रहा है | अन्य वर्णों के लिए भी कहा गया है कि :- कृषि गौरक्ष्य वाणिज्यं वैश्य कर्म स्वभावज: ! परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजं !! अर्थात :- खेती , पशुपालन , व्यापार , बैंकिंग , कर व्यवसाय तथा शालीनता वैश्य के षट्कर्म हैं | कौन आज कितना अपने लिए निर्धारित कर्मों का पालन कर पा रहा है ?? लक्ष्य मात्र ब्राह्मणों को किया जाता है | आज समस्त मानव जाति अपने कर्मों से विमुख हो गयी है | ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य एवं शूद्र चारों ही वर्णों को अपने स्वाभाविक कर्म का ज्ञान ही नहीं रह गया है | ऐसा नहीं है कि पृथ्वी वीरों से खाली है , अभी भी चारों ही वर्णों में ऐसे व्यक्तित्व हैं जो अपने कर्मों का ज्ञान रखते हुए उसके पालन में तत्पर हैं |*

*हम क्या हैं हमारे षट्कर्म क्या होने चाहिए इसका निर्धारण स्वयं करना है | यदि किसी भी विधा का पालन न कर पाने की स्थिति हो तो साधारण मनुष्यों के लिए बताये गये षट्कर्मों का पालन अवश्य करना चाहिए |*
               *शुभ प्रभात शुभ दिवस*

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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Tuesday, November 12, 2019

13 नवम्बर / जन्मदिवस – वनवासियों के सच्चे मित्र भोगीलाल पण्ड्या

*13 नवम्बर / जन्मदिवस – वनवासियों के सच्चे मित्र भोगीलाल पण्ड्या* 

राजस्थान के वनवासी क्षेत्र में भोगीलाल पंड्या का नाम जन-जन के लिये एक सच्चे मित्र की भाँति सुपरिचित है. उनका जन्म 13 नवम्बर, 1904 को ग्राम सीमलवाड़ा में श्री पीताम्बर पंड्या के घर में माँ नाथीबाई की कोख से हुआ था. उनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव में ही हुई. इसके बाद डूँगरपुर और फिर अजमेर से उच्च-शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने राजकीय हाईस्कूल, डूँगरपुर में अध्यापन को अपनी जीविका का आधार बनाया. 1920 में मणिबेन से विवाह कर उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया.

भोगीलाल जी की रुचि छात्र जीवन से ही सामाजिक कार्यों में थी. गृहस्थ जीवन अपनाने के बाद भी उनकी सक्रियता इस दिशा में कम नहीं हुई. उनकी पत्नी ने भी हर कदम पर उनका साथ दिया. 1935 में जब गांधी जी ने देश में हरिजन उद्धार का आन्दोलन छेड़ा, तो उसकी आग राजस्थान में भी पहुँची. भोगीलाल जी इस आन्दोलन में कूद पड़े. उनका समर्पण देखकर जब डूँगरपुर में ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की गयी, तो भोगीलाल जी को उसका संस्थापक महामन्त्री बनाया गया.

समाज सेवा के लिये एक समुचित राष्ट्रीय मंच मिल जाने से भोगीलाल जी का अधिकांश समय अब इसी में लगने लगा. धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैलने लगी. अतः उनका कार्यक्षेत्र भी क्रमशः बढ़ने लगा. हरिजन बन्धुओं के साथ ही जनजातीय समाज में भी उनकी व्यापक पहुँच हो गयी. वनवासी लोग उन्हें अपना सच्चा मित्र मानते थे. उनके सेवा और समर्पण भाव को देखकर लोग उन्हें देवता की तरह सम्मान देने लगे.

भोगीलाल जी का विचार था कि किसी भी व्यक्ति और समाज की स्थायी उन्नति का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम शिक्षा है. इसलिये उन्होंने जनजातीय बहुल वागड़ अंचल में शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार किया. इससे सब ओर उनकी प्रसिद्धि ‘वागड़ के गांधी’ के रूप में हो गयी. गांधी जी द्वारा स्थापित भारतीय आदिम जाति सेवक संघ, राजस्थान हरिजन सेवक संघ आदि अनेक संस्थाओं में उन्होंने मेरुदण्ड बनकर काम किया.

भोगीलाल जी की कार्यशैली की विशेषता यह थी कि काम करते हुए उन्होंने सेवाव्रतियों की विशाल टोली भी तैयार की. इससे सेवा के नये कामों के लिये कभी लोगों की कमी नहीं पड़ी. 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय राजकीय सेवा से त्यागपत्र देकर वे पूरी तरह इसमें कूद पड़े. वागड़ अंचल में उनका विस्तृत परिचय और अत्यधिक सम्मान था. उन्होंने उस क्षेत्र में सघन प्रवास कर स्वतन्त्रता की अग्नि को दूर-दूर तक फैलाया.

1942 से उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः राजनीतिक हो गया; फिर भी प्राथमिकता वे वनवासी कल्याण के काम को ही देते थे. 1944 में उन्होंने प्रजामंडल की स्थापना की. रियासतों के विलीनीकरण के दौर में जब पूर्व राजस्थान का गठन हुआ, तो भोगीलाल जी उसके पहले मन्त्री बनाये गये. स्वतन्त्रता के बाद भी राज्य शासन में वे अनेक बार मन्त्री रहे. 1969 में उन्हें राजस्थान खादी ग्रामोद्योग बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया.

समाज सेवा के प्रति उनकी लगन के कारण 1976 में शासन ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया. 31 मार्च, 1981 को वनवासियों का यह सच्चा मित्र अनन्त की यात्रा पर चला गया.
                    प्रस्तुतकर्ता
                   आपका अपना
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Monday, November 11, 2019

देव दीपावली कार्तिक पूर्णिमा महात्म्य

देवदीपावली कार्तिक पूर्णिमा महात्मय
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कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है इस पुर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। इसलिए इस दिन देवता अपनी प्रसन्नता को दर्शाने के लिए गंगा घाट पर आकर दीपक जलाते हैं। इसी कारण से इस दिन को देव दीपावली के रूप मनाया जाता है। इस वर्ष कार्तिक पूर्णिमा 11 नवम्बर और देवदीपावली का पर्व 12 नवम्बर के दिन मनाया जाएगा। श्रद्धालु भक्तगण 11 नवम्बर के दिन पूर्णिमा व्रत रखकर अगले दिन 12 नवम्बर के दिन गंगाघाट एवं अन्य धार्मिक स्थलों पर दीप दान करेंगे। ऐसी मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन कृतिका नक्षत्र में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है।

मान्यता यह भी है कि इस दिन पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में वृषदान यानी बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है जो व्यक्ति इस दिन उपवास करके भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है इस पूर्णिमा को शैव मत में जितनी मान्यता मिली है उतनी ही वैष्णव मत में भी।

वैष्णव मत में इस कार्तिक पूर्णिमा को बहुत अधिक मान्यता मिली है क्योंकि इस दिन ही भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था इस पूर्णिमा को महाकार्तिकी भी कहा गया है यदि इस पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है इस दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह महापूर्णिमा कहलाती है कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो “पद्मक योग” बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है। 

इसके अलावा देव दिपावली की एक और मान्याता भी है। माना जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु चर्तुमास की निद्रा से जागते हैं और चतुर्दशी के दिन भगवान शिव और सभी देवी देवता काशी में आकर दीप जलाते हैं। इसी कारण से काशी में इस दिन दीपदान का अधिक महत्त्व माना गया है।

देवदीपावली कार्तिक पूर्णिमा विधि विधान
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कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है अन्न, धन एव वस्त्र दान का बहुत महत्व बताया गया है इस दिन जो भी आप दान करते हैं उसका आपको कई गुणा लाभ मिलता है मान्यता यह भी है कि आप जो कुछ इस दिन दान करते हैं वह आपके लिए स्वर्ग में सरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में आपको प्राप्त होता है।

शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है महर्षि अंगिरा ने स्नान के प्रसंग में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय हाथ में जल लेकर दान करें आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तो पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें।

कार्तिक पूर्णिमा का दिन सिख सम्प्रदाय के लोगों के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था सिख सम्प्रदाय को मानने वाले सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलने की सौगंध लेते है।

कार्तिक पूर्णिमा की कथा
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पौराणिक कथा के अनुसार तारकासुर नाम का एक राक्षस था। उसके तीन पुत्र थे - तारकक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली। भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिक ने तारकासुर का वध किया। अपने पिता की हत्या की खबर सुन तीनों पुत्र बहुत दुखी हुए। तीनों ने मिलकर ब्रह्माजी से वरदान मांगने के लिए घोर तपस्या की। ब्रह्मजी तीनों की तपस्या से प्रसन्न हुए और बोले कि मांगों क्या वरदान मांगना चाहते हो। तीनों ने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने को कहा। 
तीनों ने मिलकर फिर सोचा और इस बार ब्रह्माजी से तीन अलग नगरों का निर्माण करवाने के लिए कहा, जिसमें सभी बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में घूमा जा सके। एक हज़ार साल बाद जब हम मिलें और हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाएं, और जो देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो, वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया।

तीनों वरदान पाकर बहुत खुश हुए। ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। तारकक्ष के लिए सोने का, कमला के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे का नगर बनाया गया। तीनों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। इंद्र देवता इन तीनों राक्षसों से भयभीत हुए और भगवान शंकर की शरण में गए। इंद्र की बात सुन भगवान शिव ने इन दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया। 

इस दिव्य रथ की हर एक चीज़ देवताओं से बनीं। चंद्रमा और सूर्य से पहिए बने। इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के चाल घोड़े बनें। हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बनें। भगवान शिव खुद बाण बनें और बाण की नोक बने अग्निदेव। इस दिव्य रथ पर सवार हुए खुद भगवान शिव। 
भगवानों से बनें इस रथ और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जैसे ही ये तीनों रथ एक सीध में आए, भगवान शिव ने बाण छोड़ तीनों का नाश कर दिया। इसी वध के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा जाने लगा। यह वध कार्तिक मास की पूर्णिमा को हुआ, इसीलिए इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से भी जाना जाने लगा।

कार्तिक पूर्णिमा और कपाल मोचन तीर्थ का संबंध
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कपाल मोचन, भारत के पवित्र स्थलों में से एक है। हरियाणा प्रान्त के यमुनानगर ज़िले में स्थित इस तीर्थ के बारे में मान्यता है कि कपाल मोचन स्थित सोम सरोवर में स्नान करने से भगवान शिव ब्रह्मादोष से मुक्त हुए थे। वहीं इस मेले को लेकर यहऐसी मिथ्या भी बनी हुई है कि कोई भी विधायक या फिर मंत्री कपालमोचन में मेले के दौरान आता है तो वह दोबारा चुनाव में नहीं जीतता और न ही सत्ता में आता है। डुबकी लगाकर भगवान शिव हुए थे श्राप मुक्त स्कंद महापुराण के अनुसार कलयुग के प्रभाव से ब्रह्मा अपनी पुत्री सरस्वती के प्रति मन में बुरे विचार रखने लगे। इससे बचने के लिए सरस्वती ने द्वैतवन में भगवान शंकर से शरण मांगी। सरस्वती की रक्षा के लिए भगवान शंकर ने ब्रह्मा का सिर काट दिया, जिससे उन्हें ब्रह्मा हत्या का पाप लगा। इससे शंकर भगवान के हाथ में ब्रह्मा कपाली का निशान बन गया। सब तीर्थों में स्नान और दान करने के बाद भी वह ब्रह्मा कपाली का चिन्ह दूर नहीं हुआ। घूमते-घूमते भोलेनाथ पार्वती सहित सोमसर (कपाल मोचन) तालाब के निकट देव शर्मा नामक एक ब्राह्मण के घर ठहरे। किवदंती के अनुसार रात के समय ब्राह्मण देव शर्मा के आश्रम में गाय का बछड़ा गौ माता से बात कर रहा था कि सुबह ब्राह्मण उसे बधिया करेगा। इससे क्रोधित बछड़े ने कहा कि वह ब्राह्मण की हत्या कर देगा। इस पर गौ माता ने बछड़े को ऐसा करने से मना कर दिया, क्योंकि बछड़े को ब्रह्मा हत्या का पाप लग जाता। इस पर बछड़े ने गौ माता को ब्रह्मा हत्या दोष से छुटकारा पाने का उपाय बताया। दोष मुक्त होने के उपाय मां पार्वती ने भी सुने। दूसरे ही दिन सुबह होने पर ब्राह्मण ने बछड़े को बधिया करने का कार्य शुरू किया और बछड़े ने ब्राह्मण की हत्या कर दी, जिससे उसे ब्रह्मा हत्या का पाप लग गया। बछड़े और गाय का रंग काला हो गया। इससे गौ माता बहुत दुखी हुई। इस पर बछड़े ने गौ माता को अपने पीछे आने को कहा और दोनों सोमसर तालाब में स्नान किया, जिससे उनका रंग पुन: सफेद हो गया। इस प्रकार वे ब्रह्म दोष से मुक्त हो गए। इस सारे दृश्य को देखने के बाद मां पार्वती के कहने पर भगवान शंकर ने सरोवर में स्नान किया। इससे उनका बह्मा कपाली दोष दूर हो गया। इसलिए सोम सरोवर के इस क्षेत्र का नाम कपाल मोचन हो गया।

पूर्णिमा तिथि आरंभ:👉 11 नवंबर शाम 06 बजकर 02 मिनट से 

पूर्णिमा तिथि समाप्‍त:👉 12 नवंबर शाम 07 बजकर 04 मिनट तक 

देव दीपावली प्रदोष काल शुभ मुहूर्त👉 12 नवम्बर शाम 5 बजकर 11 मिनट से 7 बजकर 48 मिनट तक
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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Sunday, November 10, 2019

अट्ठारह पुराणों का संक्षिप्त परिचय

जानिये अठारह पुराणों के बारे में!!!!!!

मित्रों,आज हम सभी अट्ठारह पुराणों के कुछ पहलुओं को संक्षिप्त में समझने की कोशिश करेंगे,  पुराण शब्द का अर्थ ही है प्राचीन कथा, पुराण विश्व साहित्य के सबसे प्राचीन ग्रँथ हैं, उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं, वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है, पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। 

उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है, पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य बहुत से विषय हैं, विशेष तथ्य यह है कि पुराणों में देवी-देवताओं, राजाओं, और ऋषि-मुनियों के साथ साथ जन साधारण की कथाओं का भी उल्लेख किया गया हैं,  जिस से पौराणिक काल के सभी पहलूओं का चित्रण मिलता है।

महृर्षि वेदव्यासजी ने अट्ठारह पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है, ब्रह्मदेव,श्री हरि विष्णु भगवान् तथा भगवान् महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं, त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः पुराण समर्पित किये गये हैं,  इन अट्ठारह पुराणों के अतिरिक्त सोलह उप-पुराण भी हैं, किन्तु विषय को सीमित रखने के लिये केवल मुख्य पुराणों का संक्षिप्त परिचय ही दे रहा हूंँ।

ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है, इस पुराण में दो सौ छियालीस अध्याय  तथा चौदह हजार श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में ब्रह्माजी की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा अवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं, इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

दूसरा हैं पद्म पुराण, जिसमें हैं पचपन हजार श्र्लोक और यह ग्रन्थ पाँच खण्डों में विभाजित किया गया है, जिनके नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं, इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में विस्तार से उल्लेख किया गया है, चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणी में रखा गया है, यह वर्गीकरण पूर्णतया वैज्ञानिक आधार पर है। 

भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तार से वर्णन है, इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है, शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और उस के बाद भारत पडा था, यह पद्म पुराण हम सभी भाई-बहनों को पढ़ना चाहियें, क्योंकि इस पुराण में हमारे भूगौलिक और आध्यात्मिक वातावरण का विस्तृत वर्णन मिलता है।

तिसरा पुराण हैं विष्णु पुराण, जिसमें छः अँश तथा तेइस हजार श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में भगवान् श्री विष्णुजी, बालक ध्रुवजी, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं, इस के अतिरिक्त सम्राट पृथुजी की कथा भी शामिल है, जिसके कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था, इस पुराण में सू्र्यवँशीयों तथा चन्द्रवँशीयों राजाओं का सम्पूर्ण इतिहास है। 

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।

भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है, जिसका प्रमाण विष्णु पुराण के इस श्लोक में मिलता है, साधारण शब्दों में इस का अर्थ होता है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से जो घिरा हुआ है, यही भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले हम सभी जन भारत देश की ही संतान हैं, भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।

चौथा पुराण हैं शिव पुराण जिसे आदर से शिव महापुराण भी कहते हैं, इस महापुराण में चौबीस हजार श्र्लोक हैं, तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है, इस ग्रंथ में भगवान् शिवजी की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है, इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं, इसमें कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व विस्तार से दर्शाया गया है।

सप्ताह के सातों दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों का वर्णन तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है, सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं, और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं, भगवान् शिवजी के भक्तों को श्रद्धा और भक्ति से शिवमहापुराण का नियमित पाठ करना चाहिये, भगवान् शंकरजी बहुत दयालु और भोले है, जो भी इस शीव पुराण को भाव से पढ़ता है उसका कल्याण निश्चित हैं। 

पाँचवा है भागवत पुराण, जिसमें अट्ठारह हजार श्र्लोक हैं, तथा बारह  स्कंध हैं, इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है, भागवत् पुराण में भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है, भगवान्  विष्णुजी और भगवान् गोविन्द के अवतार की कथाओं को विसतार से दर्शाया गया हैं,  इसके अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। 

इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, दूारिका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है।

नारद पुराण छठा पुराण हैं जो पच्चीस हजार श्र्लोकों से अलंकृत है, तथा इस के भी भी दो भाग हैं, दोनों भागो में सभी अट्ठारह पुराणों का सार दिया गया है, प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम और विधान हैं, गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक बतायी गयी है, दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध एवम् कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। 

संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है, जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं, उनके लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे, तथा संगीत की थ्योरी का विकास शून्य के बराबर था, मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने हैं, सभी संगीत के प्रेमी, जो संगीत को ही अपना केरियर समझ लिया हो, या संगीत और अध्यात्म को साथ में देखने वाले ब्रह्म पुरूष को नारद पुराण को जरूर पढ़ना चाहियें।

साँतवा है मार्कण्डेय पुराण, जो अन्य पुराणों की अपेक्षा सबसे छोटा पुराण है, मार्कण्डेय पुराण में नौ हजार श्र्लोक हैं तथा एक सो सडतीस अध्याय हैं, इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषिमार्कण्डेयजी तथा ऋषि जैमिनिजी के मध्य वार्तालाप है; इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गाजी तथा भगवान् श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं, सभी ब्रह्म समाज को यह पुराण पढ़नी चाहिये, कम से कम मार्कण्डेयजी ऋषि के वंशज इस पुराण को थोड़ा-थोड़ा करके पढ़ने की कोशिश करनी चाहिये, मार्कण्डेय पुराण के अध्ययन से आध्यात्मिक अक्षय सुख की प्राप्ति होती है।

आठवाँ है अग्नि पुराण, अग्नि पुराण में तीन सौ तैयासी अध्याय तथा पन्द्रह हजार श्र्लोक हैं, इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष या आज की भाषा में विकीपीडिया कह सकते है, इस ग्रंथ में भगवान् मत्स्यावतार का अवतार लेकर पधारें थे, उसका वर्णन है,  रामायण तथा महाभारत काल की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं, इसके अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं, धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।

नवमा है भविष्य पुराण, भविष्य पुराण में एक सौ उनतीस अध्याय तथा अट्ठाईस श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में सूर्य देवता का महत्व, वर्ष के बारह महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों और भी कई विषयों पर वार्तालाप है, इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है, इस भविष्य पुराण की कई कथायें बाईबल की कथाओं से भी मेल खाती हैं, भविष्य पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले  नन्द वँश, मौर्य वँशों का भी वर्णन है।

इस के अतिरिक्त विक्रम बेताल तथा बेताल पच्चीसी की कथाओं का विवरण भी है, भगवान् श्रीसत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है, यह भविष्य पुराण भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है, जिस पर शोध कार्य करना चाहिये, और इसके उपदेश हर आज के क्षात्र-क्षात्राओं को पढ़ाना चाहिये, और प्रथम क्लास से ही, शिक्षा से जुड़े समस्त अध्यापक एवम् अध्यापिका को इस भविष्य पुराण नामक पुराण को अवश्य पढ़ना चाहियें, ताकि आपकी समझ बढे, और समाज में अध्यात्म जागृति लायें।

दसवाँ है ब्रह्मावैवर्ता पुराण, जो अट्ठारह हजार  श्र्लोकों से अलंकृत है,  तथा दो सौ अट्ठारह अध्याय हैं, इस ग्रंथ में ब्रह्माजी, गणेशजी, तुल्सी भाता, सावित्री माता, लक्ष्मी माता, सरस्वती माता तथा भगवान् श्रीकृष्ण की महानता को दर्शाया गया है, तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं, इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है, जो आयुर्वेद और भारतीय परम्परा में निरोगी काया के विषय पर गंभीर है, उसे यह ब्रह्मावैवर्ता पुराण आपका पथ प्रदर्शक बनेगा।

अगला ग्यारहवा है लिंग पुराण, इस पावन लिंग पुराण में ग्यारह हजार  श्र्लोक और एक सौ तरसठ अध्याय हैं, सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प की तालिका का वर्णन है, भगवान् सूर्यदेव के सूर्य  के वंशजों में राजा अम्बरीषजी हुयें, रामजी इन्हीं राजा अम्बरीषजी के कूल में मानव अवतार हुआ था, राजा अम्बरीषजी की कथा भी इसी पुराण में लिखित है, इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।

बाहरवां पुराण हैं वराह पुराण, वराह पुराण में दो सौ सत्रह स्कन्ध तथा दस हजार श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में भगवान् श्री हरि के वराह अवतार की कथा, तथा इसके अतिरिक्त भागवत् गीता महात्म्य का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है, श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। 

महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे, सभी सनातन धर्म को मानने वाले भाई-बहनों को यह वराह पुराण को अवश्य पढ़ना चाहियें, जो भक्त अपने जीवन में जीते जी स्वर्ग की कल्पना करता है, उसके लिये वराह पुराण अतुल्य है, इसमें स्वर्ग-नरक का भगवान् श्री वेदव्यासजी ने बखूबी वर्णन किया है। 

तेहरवां पुराण हैं सकन्द पुराण, सकन्द पुराण सब से विशाल पुराण है, तथा इस पुराण में अक्यासी हजार  श्र्लोक और छः खण्ड हैं, सकन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है, जिस में सत्ताईस  नक्षत्रों, अट्ठारह नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित भगवान् भोलेनाथ के बारह ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं, इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है, इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।

चौदहवां पुराण है वामन पुराण, वामन पुराण में निन्यानवें अध्याय तथा दस हजार श्र्लोक हैं, एवम् दो खण्ड हैं, इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है,  इस पुराण में भगवान् के वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं, जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था, इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूदूीप तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।

पन्द्रहवां पुराण है कुर्मा पुराण, कुर्मा पुराण में अट्ठारह हजार श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं, इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है, कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा  विस्तार पूर्वक लिखी गयी है, इस में ब्रह्माजी, शिवजी, विष्णुजी, पृथ्वी माता, गंगा मैया की उत्पत्ति, चारों युगों के बारे में सटीक जानकारी, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी विस्तार से वर्णन है।

सोलहवां पुराण है मतस्य पुराण, मतस्य पुराण में दो सौ नब्बे अध्याय तथा चौदह हजार  श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है, सृष्टि की उत्पत्ति और हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है, कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी मतस्य पुराण में है, सामाजिक विषयों के जानकारी के इच्छुक भाई-बहनों को मतस्य पुराण को जरूर पढ़ना चाहियें।

सत्रहवां पुराण है गरुड़ पुराण,  गरुड़ पुराण में दो सौ उनअस्सी  अध्याय तथा अट्ठारह हजार श्र्लोक हैं; इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा चौरासी लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन के बारे में विस्तार से बताया गया है, इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है, साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं, क्योंकि? इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। 

वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है, जिसे वैतरणी नदी की संज्ञा दी गयी है, उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी, तब हमारे इसी गरूड पुराण ने विज्ञान और वैज्ञानिकों को दिशा दी, इस पुराण को पढ़ कर कोई भी मानव नरक में जाने से बच सकता है।

अट्ठारहवां और अंतिम पुराण हैं ब्रह्माण्ड पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण में बारह हजार श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं, मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है, इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है, कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है, सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। 

भगवान् श्री परशुरामजी की कथा भी इस पुराण में दी गयी है, इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है, भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को पूरे ब्रह्माण्ड तक ले कर गये थे, जिसके प्रमाण हमें मिलते रहे है, हिन्दू पौराणिक इतिहास की तरह अन्य देशों में भी महामानवों, दैत्यों, देवों, राजाओं तथा साधारण नागरिकों की कथायें प्रचिलित हैं, कईयों के नाम उच्चारण तथा भाषाओं की विभिन्नता के कारण बिगड़ भी चुके हैं जैसे कि हरिकुल ईश से हरकुलिस, कश्यप सागर से केस्पियन सी, तथा शम्भूसिहं से शिन बू सिन आदि बन गये। 

तक्षक के नाम से तक्षशिला और तक्षकखण्ड से ताशकन्द बन गये, यह विवरण अवश्य ही किसी ना किसी ऐतिहासिक घटना कई ओर संकेत करते हैं, प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था, इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था,  राजाओ नें कल्पना शक्तियों से भी अपनी वंशावलियों को सूर्य और चन्द्र वंशों से जोडा है, इस कारण पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं।

रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं, जिनको केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है, इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा, पढ़े-लिखे आज की युवा पीढ़ी को यह आव्हान है, जो छुट गया उसे जाने दो, जो अध्यात्म विरासत बची है, उसे समझने की कोशिश करों, पुराणों में अंकीत उपदेशों को अपने जीवन में आत्मसात करें।

आपको  सभी अट्ठारह पुराणों का संक्षिप्त परिचय करवाया, मुझे आशा है कि जरूर ये जानकारी आपको पसंद आयी होगी आप हमें कमेंट्स के माध्यम से हमें बता सकते हैं, आपके पास इस पोस्ट के सम्बन्धित कोई जानकारी हो, और आप मुझे बताना चाहते हो, तो कमेंट्स के द्वारा आप बेझिझक लिख सकते हो, आप सभी की कोई न कोई जानकारी मेरा मार्ग प्रशस्त करेगी, और मुझे कुछ नया सिखने को मिलेगा, आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

हरि ओऊम् तत्सत्!
हरि ओऊम् तत्सत्
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             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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अहिंसा परमो धर्म:



*सनातन धर्म के ग्रंथों वेद से लेकर पुराण तक में "अहिंसा परमो धर्म:" का उद्घोष किया गया है |*

*जब संसार में ईसाई एवं मुस्लिम धर्म बना तब सबको अपने समान बनाने के लिए यह प्रथा बनायी क्योंकि जब कोई अंधा होता है तो सोचता है कि सभी अंधे हो जाये और यही कारण था कि पश्चिमी सभ्यता ने जब भारतीय सभ्यता पर अतिक्रमण करना शुरू किया तो सबसे पहले उसने हमारी संस्कृति और सभ्यता को दूषित करना शुरू किया | पश्चिमी सभ्यता में बलिदान या बलि प्रथा का मतलब होता है किसी का वध करना जबकि वैदिक साहित्य में आपको बलि का मतलब उपहार देना या कर देना मिलेगा |*

*संस्कृत में बलि शब्द का अर्थ सर्वथा मार देना ऐसा नहीं होता | उसका अर्थ दान के रूप में भी उल्लेखित किया गया है |*

*यथा:--*

*प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिम् अग्रहीत् !*
*सहस्रगुणमुत्स्रष्टुम् आदत्ते हि रसं रविः !!*
 
              *रघुवंश महाकाव्यम्*

*अर्थात्: प्रजा के क्षेम के लिये ही वह राजा दिलीप उन से कर लेता था, जैसे कि सहस्रगुणा बरसाने के लिये ही सूर्य जल लेता है |*

*मतलब साफ है कि बलि देना उपहार देने से आशय था लोगों के किसी को मार देने से नही  |*

*वैदिक साहित्यों में पशुबलि या हिंसा निषेध का उल्लेख और अहिंसा को पुष्ठ करते अनेक वेदमंत्र प्राप्त होते हैं :---*

*अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि स इद देवेषु गच्छति* 
  
           *ऋग्वेद- १:१:४*

*अर्थात :- हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त ‘हिंसा रहित’ यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य गुणों से युक्त है तथा विद्वान मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है |*

*ऋग्वेद संहिता के पहले ही मण्डल के प्रथम सुक्त के चौथे ही मंत्र में यह साफ साफ कह दिया गया है कि यज्ञ हिंसा रहित ही हों | ऋग्वेद में सर्वत्र यज्ञ को हिंसा रहित कहा गया है इसी तरह अन्य तीनों वेदों में भी अहिंसा वर्णित हैं | फिर यह कैसे माना जा सकता है कि वेदों में हिंसा या पशु वध की आज्ञा है ?*

*अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय*

           *ऋग्वेद-१:१६४:२६* 

*अर्थात: अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं*

*इस प्रकार अनेकों उदाहरण हमारे धर्म ग्रंथों में देखने को मिलते हैं | आधुनिक काल में बलि प्रथा का कारण सिर्फ मनुष्य की ज्ञान शून्यता एवं अपने उदर भरण के साधन के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता*

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             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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आज का संदेश


                                  *इस संसार में मनुष्य एक चेतन प्राणी है , उसके सारे क्रियाकलाप में चैतन्यता स्पष्ट दिखाई पड़ती है | मनुष्य को चैतन्य रखने में मनुष्य के मन का महत्वपूर्ण स्थान है | मनुष्य का यह मन एक तरफ तो ज्ञान का भंडार है वहीं दूसरी ओर अंधकार का गहरा समुद्र भी कहा जा सकता है | मन के अनेक क्रियाकलापों में सबसे महत्वपूर्ण है मन के उपादान को जानना | मन का उपादान क्या है ? और इसका ज्ञाता कौन है ? इसे कौन समझ पाया है ? यह समझ लेने के बाद कुछ भी समझना शेष नहीं रह जाता है |  मन के उपादान के विषय में हमारे महापुरुषों ने बताया है कि किसी वस्तु की तृष्णा से उसे ग्रहण करने की जो प्रवृत्ति होती है उसे ही उपादान कहा जाता है |  "प्रत्यीयसमुत्पादन" या " तण्हापच्चया उपादानं" इसी का प्रतिपादन करती है | मानव जीवन में यदि उपादान अर्थात तृष्णा ना होती तो मनुष्य का जीवन बड़ा शांत होता , क्योंकि इसी उपादान के ही कारण प्राणी के जीवन की सारी भागदौड़ होती है और इसी को भव भी कहा गया है | मनुष्य दिन रात शूकर - कूकर की तरह इसी उपादान के कारण दौड़ता रहता है | तृष्णा के ना होने से उपादान भी नहीं होता और उपादान के निरोध से भव का निरोध हो जाता है , और जिसने भव का निरोध कर लिया उसका मोक्ष प्राप्त करना सरल हो जाता है | कई बार लोगों के सामने एक समस्या बार-बार आती है और वह कहते हैं कि जब हम ध्यान करने बैठते हैं तो अचानक ध्यान छूट जाता है और मन संकल्प विकल्पों में उलझ जाता है , क्योंकि ध्यान के समय बहुत सारे विचार और स्मृतियां मन में आती रहती हैं जिसके कारण ध्यान भंग हो जाता है | ध्यान के समय संकल्प - विकल्पों के आने का एकमात्र कारण है मनुष्य के अंदर बैठी हुई तृष्णा अर्थात एक प्यास है जो इन संकल्प विकल्पों को बार-बार मस्तिष्क पर उत्केरित करती है इसे ही मन का उपादान कहा जाता है | इस मन के उपादान को वही जान सकता है जो अपने मन के अंदर बैठी हुई तृष्णा को शांत करने में सक्षम हो | इसको जानने के लिए सबसे पहले यह जानने का प्रयास करना होगा तृष्णा का कार्य क्या है ? तृष्णा ही मनुष्य के मन में पदार्थों के प्रति प्रियता और अप्रियता कू स्थित पैदा करती है | इसी तृष्णा के भव जाल में फंस कर मनुष्य कर्म करता रहता है | मन के उपादान का होना भी बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके बिना संसार का कोई भी कार्य नहीं हो सकता है , परंतु जहां मनुष्य का संयम थोड़ा ढीला होता है वही मनुष्य डगमगाने लगता है |*

*आज संसार में जितने भी अनाचार , पापाचार , अत्याचार हो रहे हैं उसका कारण मानव हृदय में बैठी हुई बेलगाम तृष्णा ही है | आज मनुष्य तृष्णा इतना ज्यादा बढ़ गई है कि वह स्वयं नहीं विचार कर पाता कि क्या प्राप्त करना उचित है और क्या अनुचित | लोग कहते हैं कि कितना भी प्रयास करो परंतु इस तृष्णा से मन नहीं हटता है | तृष्णा के विषय में जानकर उसको संयमित करने के लिए मनुष्य को अध्यात्म पथ का पथिक बनना पड़ेगा , क्योंकि यह विस्तृत विषय है और इसे जानने के लिए मनुष्य को चिंतन करना होगा | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि मनुष्य को सदैव अपने हृदय में उत्पन्न हो रहे संकल्प और विकल्पों का चयन करना चाहिए , क्योंकि कल्पना से ही जीवन है परंतु कल्पना ऐसी नहीं होनी चाहिए कि वह मनुष्य को जीवन से ही च्युत कर दे |  निष्क्रिय एवं नकारात्मक कल्पना को वहीं पर समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि नकारात्मक कल्पना ही जीवन में सबसे ज्यादा घातक होती है | यह सत्य समझने की आवश्यकता है कि मानव जीवन से तृष्णा तो जीवन भर नहीं समाप्त हो सकती परंतु हमारे जीवन में सबसे ज्यादा बाधक नकारात्मक संकल्प विकल्पों का उदय होना है | इनसे मुक्ति पाने का एक ही उपाय है कि मन के उपादान अर्थात तृष्णा का क्षय करना | तृष्णा का क्षय तब होगा जब मानव हृदय में समता का अभ्यास बढ़ेगा | समता का अभ्यास करने से मन में उत्पन्न हो रहे संकल्प विकल्पों का आपस में विलय होगा और इस तृष्णा से मुक्ति मिल सकती है | परंतु इसके लिए मनुष्य को प्रतिदिन कुछ साधना अवश्य करनी पड़ेगी |*

*मन के उपादान को जानना और जानने के बाद उस पर विचार करने के उपरांत उसे साधने का प्रयास करने से ही इस भव से मुक्ति संभव है , अन्यथा जीवन भर शूकर - कूकर की तरह भागदौड़ में ही जीवन व्यतीत हो जायेगा |*                                 

                 आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
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जनेऊ (यज्ञोपवीत)



#जनेऊ -- 

जनेऊ का नाम सुनते ही सबसे पहले जो चीज़ मन मे आती है वो है धागा दूसरी चीज है ब्राम्हण ।। जनेऊ का संबंध क्या सिर्फ ब्राम्हण से है , ये जनेऊ पहनाए क्यों है , क्या इसका कोई लाभ है, जनेऊ क्या ,क्यों ,कैसे आज आपका परिचय इससे ही करवाते है ----

#जनेऊ_को_उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र के नाम से भी जाना जाता है ।।

हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों (आप सभी को 16 संस्कार पता होंगे लेकिन वो प्रधान संस्कार है 8 उप संस्कार है जिनके विषय मे आगे आपको जानकारी दूँगा ) में से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे ‘यज्ञोपवीतधारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है "सन्निकट ले जाना" और उपनयन संस्कार का अर्थ है --
"ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना"

#हिन्दू_धर्म_में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। हर हिन्दू जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।ब्राह्मण ही नहीं समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म। मतलब सीधा है जनेऊ संस्कार के बाद ही शिक्षा का अधिकार मिलता था और जो शिक्षा नही ग्रहण करता था उसे शूद्र की श्रेणी में रखा जाता था(वर्ण व्यवस्था)।।

#लड़की_जिसे_आजीवन_ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।

#जनेऊ_का_आध्यात्मिक_महत्व -- 

#जनेऊ_में_तीन-सूत्र –  त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक – देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक – सत्व, रज और तम के प्रतीक होते है। साथ ही ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक है तो तीन आश्रमों के प्रतीक भी। जनेऊ के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। अत: कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। इनमे एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। इनका मतलब है – हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने। जनेऊ में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। ये पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के भी प्रतीक है।

#जनेऊ_की_लंबाई : जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है क्यूंकि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। 32 विद्याएं चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर होती है। 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि आती हैं।

#जनेऊ_के_लाभ -- 

#प्रत्यक्ष_लाभ जो आज के लोग समझते है - 

""जनेऊ बाएं कंधे से दाये कमर पर पहनना चाहिये""।।

#जनेऊ_में_नियम_है_कि - 
मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका मूल भाव यह है कि जनेऊ कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। यह बेहद जरूरी होता है।

मतलब साफ है कि जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति ये ध्यान रखता है कि मलमूत्र करने के बाद खुद को साफ करना है इससे उसको इंफेक्शन का खतरा कम से कम हो जाता है 

#वो_लाभ_जो_अप्रत्यक्ष_है जिसे कम लोग जानते है -

शरीर में कुल 365 एनर्जी पॉइंट होते हैं। अलग-अलग बीमारी में अलग-अलग पॉइंट असर करते हैं। कुछ पॉइंट कॉमन भी होते हैं। एक्युप्रेशर में हर पॉइंट को दो-तीन मिनट दबाना होता है। और जनेऊ से हम यही काम करते है उस point को हम एक्युप्रेश करते है ।।
 कैसे आइये समझते है 

#कान_के_नीचे_वाले_हिस्से (इयर लोब) की रोजाना पांच मिनट मसाज करने से याददाश्त बेहतर होती है। यह टिप पढ़नेवाले बच्चों के लिए बहुत उपयोगी है।अगर भूख कम करनी है तो खाने से आधा घंटा पहले कान के बाहर छोटेवाले हिस्से (ट्राइगस) को दो मिनट उंगली से दबाएं। भूख कम लगेगी। यहीं पर प्यास का भी पॉइंट होता है। निर्जला व्रत में लोग इसे दबाएं तो प्यास कम लगेगी।

एक्युप्रेशर की शब्दवली में इसे  point जीवी 20 या डीयू 20 - 
इसका लाभ आप देखे  -
#जीबी 20 - 
कहां : कान के पीछे के झुकाव में। 
उपयोग: डिप्रेशन, सिरदर्द, चक्कर और सेंस ऑर्गन यानी नाक, कान और आंख से जुड़ी बीमारियों में राहत। दिमागी असंतुलन, लकवा, और यूटरस की बीमारियों में असरदार।(दिए गए पिक में समझे)

इसके अलावा इसके कुछ अन्य लाभ जो क्लीनिकली प्रोव है - 

1. #बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से ऐसे स्वप्न नहीं आते।
2. #जनेऊ_के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।
3. #जनेऊ_पहनने वाला व्यक्ति सफाई नियमों में बंधा होता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है।
4. #जनेऊ_को_दायें कान पर धारण करने से कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।
5. #दाएं_कान_की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।
6. #कान_में_जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है।
7. #कान_पर_जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।


                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
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श्रीमद्भागवत गीता क्यों पढ़ें



हम श्रीमद्भागवत गीता क्यों पढ़ें?????

मित्रो, जीव जिसका प्रतिनिधत्व अर्जुन श्रीमद्भागवत गीता में कर रहा है, उसका स्वरूप यह है कि वह परमेश्वर के आदेशानुसार कर्म करे, संतों का कहना है कि जीव का स्वरूप परमेश्वर के नित्य दास के रुप में है, इस नियम को भूल जाने के कारण जीव प्रकृति द्वारा बद्ध हो जाता है, लेकिन परमेश्वर की सेवा करने से वह ईश्वर का मुक्त दास बनता है, जीव का स्वरूप सेवक के रुप में है, उसे माया या परमेश्वर में से किसी एक की सेवा करनी होती है, यदि वह परमेश्वर की सेवा करता है, तो वह अपनी सामान्य स्थिति में रहता है, लेकिन यदि वह बाह्यशक्ति माया की सेवा करना पसन्द करता है, तो वह निश्चित रुप से बन्धन में पड़ जाता है। 

इस भौतिक जगत् में जीव मोहवश सेवा कर रहा है, वह काम तथा इच्छाओं से बँधा हुआ है, फिर भी वह अपने को जगत् का स्वामी मानता है, यही मोह कहलाता है, मुक्त होने पर पुरुष का मोह दूर हो जाता है और वह स्वेच्छा से भगवान् की इच्छानुसार कर्म करने के लिये परमेश्वर की शरण ग्रहण करता है, जीव को फाँसने का माया का अन्तिम पाश यह धारणा है कि वह ईश्वर है, जीव सोचता है कि अब वह बद्धजीव नहीं रहा, अब तो वह ईश्वर है, वह इतना मूर्ख होता है कि वह यह नहीं सोच पाता कि यदि वह ईश्वर होता तो इतना संशयग्रस्त क्यों रहता, वह इस पर विचार नहीं करता, इसलिये यही माया का अन्तिम पाश होता हैं।

सज्जनों! माया से मुक्त होना भगवान् श्रीकॄष्ण को समझना है और उनके आदेशानुसार कर्म करने के लिये सहमत होना है, गीता में मोह शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है, मोह ज्ञान का विरोधी होता है, वास्तविक ज्ञान तो यह समझना है कि प्रत्येक जीव भगवान् का शाश्वत सेवक है, लेकिन जीव अपने को इस स्थिति में न समझकर सोचता है कि वह सेवक नहीं, अपितु इस जगत् का स्वामी है, क्योंकि वह प्रकृति पर प्रभुत्व जताना चाहता है, वह मोह भगवत्कृपा से या शुद्ध भक्त की कृपा से जीता जा सकता है, इस मोह के दूर होने पर मनुष्य भगवद्भक्ति में कर्म करने के लिये राजी हो जाता है।

भगवान् के आदेशानुसार कर्म करना भगवद्भक्ति है, बद्धजीव माया द्वारा मोहित होने के कारण यह नहीं जान पाता कि परमेश्वर स्वामी है, जो ज्ञानमय है और सर्वसम्पत्तिवान हैं, वे अपने भक्तों को जो कुछ चाहे दे सकते है, वे सब के मित्र है और भक्तों पर विशेष कृपालु रहते है, वे प्रकृति तथा समस्त जीवों के अधीक्षक हैं, वे अक्षयकाल के नियन्त्रक है और समस्त ऐश्वर्यों एवम शक्तियों से पूर्ण हैं, भगवान् भक्त को आत्मसमर्पण भी कर सकते है, जो उन्हें नहीं जानता वह मोह के वश में है, वह भक्त नहीं बल्कि माया का सेवक बन जाता हैं।

लेकिन अर्जुन भगवान् से भगवद्गीता सुनकर समस्त मोह से मुक्त हो गया, वह यह समझ गया कि श्रीकॄष्ण उसके मित्र नहीं बल्कि भगवान् है और अर्जुन श्रीकॄष्ण को वास्तव में समझ गया, इसलिये भगवद्गीता का पाठ करने का अर्थ है श्रीकॄष्ण को वास्तविकता के साथ जानना, जब वयक्ति को पूर्ण ज्ञान होता है तो वह स्वभावत: श्रीकॄष्ण को आत्मसमर्पण करता है, जब अर्जुन समझ गया कि यह तो जनसंख्या की अनावश्यक वृद्धि को कम करने के लिये श्रीकॄष्ण की योजना थी, तो उसने श्रीकॄष्ण की इच्छानुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया, अर्जुन ने पुन: भगवान् के आदेशानुसार युद्ध करने के लिये अपना धनुष-बाण ग्रहण कर लिया।

भगवद्गीता संसार का आदर्श ग्रन्थ‌ है, जिसमें गृहस्थ और वानप्रस्थ दोनों के लिये मार्गदर्शन है, यदि हम गुणानुरागिता की दृष्टि से धर्म-महजब का आग्रह रखे बगैर गीता और भागवत् या अन्य आदर्श धर्मग्रन्थों तथा शास्त्रों का नित्य सवाध्याय और चिन्तन मनन करें, तो चित्त परिवर्तन का चमत्कार घटित हो सकता है तथा जीवन को नई दिशायें दी जा सकती हैं, हम सबको चाहिये कि हम अपने भीतर चल रहे महाभारत के आत्म-विजेता बनें, जितेन्द्रिय बने, वयक्ति और समाज के अभ्युत्थान के लिये हर वयक्ति को श्रमशील होना चाहिये, ज्ञान जीवन के अभ्युत्थान के लिये, अन्तर्मन में घर कर चुकी परतन्त्रता की बेड़ियों से मुक्त होने के लिये हैं।

भाई-बहनों, वयक्ति कर्ता-भाव से मुक्त हो, आसक्तियों का छेदन करे और एक अप्रमत कर्मयोगी होकर जीवन में श्रम श्रामण्य का सर्वोदय होने का अवसर प्राप्त करे, सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता में यही भाव-भूमिका नि:सृत और विस्तृत हुई है, भगवद्गीता के रहस्यों को आत्मसात् करने के लिये भगवद्गीता के मार्गदर्शन को आत्मसात् कर लिया जाय, तो भगवद्गीता के मार्ग और गन्तव्य तक पहुँचने में बड़ी सुविधा रहेगी, भगवद्गीता को अगर आज के परिप्पेक्ष्य में समझना हो, तो भगवद्गीता के उपदेश प्रवेश-द्वार की तरह हैं, पहले हम इसे पढ़े फिर भगवद्गीता खुद ही आत्मसात् हो जायेगी और हम जीवन की मंजिल प्राप्त कर लेंगे।

जय श्री कॄष्ण!
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्

                  आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
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प्रात: संदेश



*एक बार दुर्वासा जी भगवान विष्णु से मिल करके लौट रहे थे उनके हाथ में एक पुष्प था | मार्ग में उनको देवराज इंद्र मिल गए , इंद्र ने जब उस पुष्प का रहस्य पूछा तो दुर्वासा जी ने बताया कि यह पुष्प जिसके सर पर रहेगा वह सृष्टि में प्रथम पूज्य होगा | इंद्र ने वह पुष्प दुर्वासा जी से मांग लिया और देवराज होने के अभिमान में उस पुष्प को स्वयं के ऊपर न रखकर के हाथी के ऊपर रख दिया  | उस पुष्प को स्वयं के सर पर रखे जाने पर हाथी मदमस्त एवं अहंकारी हो गया | कालांतर में जब भगवान शिव के द्वारा पुत्र गणेश का शीश काटा गया तब हाथी के अभिमान के कारण तथा दुर्वासा जी के कथन अनुसार उस पुष्प को हाथी के सर पर रखने के कारण हाथी के बच्चे का सर काट कर के भगवान गणेश को लगाया गया , और वे उस पुष्प के प्रभाव से प्रथम पूज्य बने | इसमें उस हाथी का दोष उसमें उत्पन्न अहंकार के अतिरिक्त और कुछ नहीं था |*

*हाथी का सर तो भगवान गणेश को लगकर के प्रथम पूज्य बन गया परंतु शेष शरीर केकड़े के रूप में उत्पन्न हुआ | जो कि आज तक सर विहीन है |*

*ध्यान देने योग्य बात यह है कि केकड़े को सर नहीं होता है*

*स्रोत :- वाराहपुराण का कुछ अंश एव सन्तों का सतसंग*

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             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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भगवान शिव की आराधना से मनुष्य के पास आती है यह शक्तियां



भगवान शिव की आराधना करने से मनुष्य के पास आती हैं यह शक्तियाँ!!!!!!

इस कलयुग के समय में अगर किसी व्यक्ति से बोला जाए कि भगवान शिव की पूजा किया कर तो वह साफ़ बोलता है कि कुछ मिलना तो है नहीं, इसलिए हम बिना पूजा किये हुए ही सही हैं।

लेकिन आपको बता दें कि भगवान शिव की पूजा करने से व्यक्ति के पास कई तरह की शक्तियां आ जाती हैं किन्तु उन शक्तियों को बहुत ही कम लोग अनुभव कर पाते हैं।

आपको बताते हैं कि भगवान शिव की पूजा करने से व्यक्ति के पास कौन-सी शक्तियां आ जाती हैं.....

व्यक्ति का मृत्यु डर खत्म हो जाता है...

हर इंसान अपनी मृत्यु से डरता है. जीवन के अंतिम समय से हर कोई डरता है. आप खुद एक बार को सोचिये कि आपको भी एक दिन मरना है और यही सोचते ही आप डरने लगेंगे. लेकिन जो शिव का भक्त होता है उसको कभी भी मृत्यु का डर नहीं लगता है. यह खास शक्ति आज के समय में कुछ ही लोगों के पास होती है।

सफलता कदम चूमने लगती है.....

ऐसा व्यक्ति जो शिव का परम भक्त होता है उसके पास ऐसी शक्ति होती है कि वह किसी भी हालात में सफलता को प्राप्त कर सकता है. यदि शिव भक्त के सामने पहाड़ भी होगा तो वह चुटकियों में उसको भी पार कर सकता है।

नहीं होती है मोह माया......

इंसान की जब इच्छायें खत्म होने लगती हैं तो वह वाकई एक खुशहाल इंसान बनने लगता है. शिव के भक्त ही यही सबसे बड़ी ताकत बनने लगती है कि वह हमेशा खुश रहने लगता है. दुनिया में एक तरफ जहाँ सब दुखी हैं वहीं दूसरी तरफ शिव के भक्त हमेशा खुश रहते हैं।

इन्सान को पहचाने की शक्ति.....

शिव के भक्त के पास सबसे बड़ी शक्ति यही आ जाती है कि वह सामने वाले इंसान को अच्छी तरह से पहचानने लगता है. कौन व्यक्ति किस तरह के भाव मन में रखता है यह शिव का भक्त तुरंत जानने लगता है. ऐसा जब होता है तो फिर कभी शिव का भक्त बेवकूफ नहीं बन पाता है.

बुरे समय को पहले भी भांप लेता है शिव भक्त......

ऐसा नहीं है कि शिव भक्त के जीवन में दुःख नहीं आता है. यह सुख और दुःख तो जीवन की सच्चाई है. बस शिव की भक्ति करने वाला अपने बुरे समय को पहले ही भांप लेता है और वह उस दुःख के लिए तैयार हो जाता है. साथ ही साथ शिव भक्त को हमेशा फांसी जैसे दुःख की सजा कंकड़ में बदलकर दी जाती है।

इस तरह से आप यह देख सकते हैं कि भगवान शिव की पूजा करने से किस तरह की शक्तियों से समृद्ध किया जाता है शिव भक्त. आप भी यदि भगवान शिव की पूजा बिना किसी पाप और मतलब के करते हैं तो एक निश्चित समय बाद आपके पास भी इस तरह की शक्तियाँ आने लगती हैं।

!!शिव का दास कभी ना उदास!!

!!ॐ नमः शिवाय्!! हर हर महादेव!!

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
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मानव शरीर में त्रिदेव निवास




                *प्रत्येक शरीर में एक आत्मा निवास करती है जिस प्रकार भगवान शिव के हाथ में सुशोभित त्रिशूल में ती शूल होते हैं उसी प्रकार आत्मा की तुलना भी एक त्रिशूल से की जा सकती है, जिसमें तीन भाग होते हैं- मन, बुद्धि और संस्कार | इनको त्रिदेव भी कहा जा सकता है | मन सृजनकर्ता ब्रह्मा , बुद्धि संहारकारी शिव तथा संस्कार को पालनकर्ता विष्णु कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | आत्मारूपी त्रिशूल में मन एवं संस्कार दायें और बायें शूल हैं, जबकि बुद्धि मध्य में स्थित है, जो कि कुछ लम्बा और अन्य दो शूलों अर्थात् मन एवं संस्कार से अधिक महत्वपूर्ण होता है | मन आत्मा की चिंतन शक्ति है जो कि विभिन्न प्रकार के विचार उत्पन्न करती है |  अच्छे - बुरे , व्यर्थ , साधारण, इत्यादि | कुछ विचार स्वैच्छिक होते हैं, और कुछ अनियंत्रित, जो कि पिछले जन्मों के कर्मों के हिसाब-किताब के कारण उत्पन्न होते हैं | कुछ विचार शब्दों तथा कर्मों में परिवर्तित हो जाते हैं, जबकि कुछ विचार मात्र विचार ही रह जाते हैं |  विचार बीज की तरह होते हैं- शब्दों और कर्मों रूपी वृक्ष से कहीं अधिक शक्तिशाली | जब शरीर-रहित आत्माएं शांतिधाम या परमधाम में होती हैं तो वे विचार-शून्य होती हैं | मन एक समुद्र या झील की भांति है, जो विभिन्न प्रकार की लहरें उत्पन्न करता है- कभी ऊंची, कभी नीची, और कभी कोई लहरें नहीं होती. केवल शांति होती है | इसीलिए मन की तुलना ब्रह्मा (स्थापनाकर्ता) से की जा सकती है | बुद्धि आत्मा की निर्णय शक्ति है | कोई आत्मा सारे दिन या सारी रात में विभिन्न प्रकार के विचार उत्पन्न कर सकती है, किन्तु केवल बुद्धि द्वारा निर्णय लिये जाने पर ही आत्मा उन विचारों को शब्दों या कर्मों में ढ़ालती है |  सकारात्मक - नकारात्मक या व्यर्थ विचारों को उत्पन्न करना या केवल विचार-शून्य अवस्था में रहने का निर्णय भी बुद्धि द्वारा ही लिया जाता है |*

*आज इस विषय पर यदि विचार किया जाय तो बुद्धि उस जौहरी की तरह है, जो कि शुद्धता और मूल्य के लिए रत्नों और हीरों को परखता है |  बुद्धि की तुलना भगवान शंकर (विनाशकर्ता) से की जा सकती है , जो कि पुरातन संस्कारों, विकारों और पुरातन सृष्टि का विनाश करके नई दुनिया की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करते हैं | किये हुए अच्छे बुरे कर्मों का जो मन बुद्धि रूपी आत्मा के ऊपर प्रभाव पड़ता है उसको संस्कार शक्ति कहा जाता है | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का यह मानना है कि यदि बुद्धि अपने शरीर का उपयोग बारंबार परिश्रम करने के लिए करती है, तो आत्मा परिश्रमी व्यक्ति के संस्कार धारण कर लेती है | यदि बुद्धि बारंबार सोने और आराम करने का निर्णय लेती है और परिश्रम एवं कसरत से बचती है, तो आत्मा आलस्य का संस्कार धारण कर लेती है | अतः, यह आत्मा पर निर्भर करता है कि वह अच्छे या बुरे संस्कार धारण करे | आत्मा अपनी संकल्प तथा निर्णय शक्ति (अर्थात् मन तथा बुद्धि) के आधार पर जो भी संस्कार प्राप्त करती है, वो आत्मा में उसी प्रकार जमा हो जाते हैं | ये संस्कार आत्मा के अगले जन्म में भी उसके साथ रहते हैं, और अगले जन्म में भी कुछ हद तक उसके विचारों, वाणी और कर्मों को प्रभावित करते हैं | किसी आत्मा के अंदर पिछले जन्म में हासिल किये गये बुरे संस्कार होने के बावजूद, वह अच्छी संगत, मार्गदर्शन, भोजन, वातावरण, इत्यादि के द्वारा इन संस्कारों को बदल सकती है | आत्मा के संस्कारों की तुलना पालनकर्ता श्री हरि विष्णु से की जा सकती है |*

*इस प्रकार मानव शरीर का यदि सूक्ष्मावलोकन किया जाय तो तीनों प्रमुख देवता इसी शरीर में निवास करते हैं |*                                 

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आज का संदेश



*तत्र पूर्वश्चतुर्वर्गो दम्भार्थम् अपि सेव्यते ।*
 *उत्तरस्तु चतुर्वर्गो महात्मन्य् एव तिष्ठति ।।*
                  *भावार्थः--*

‘‘धर्म के आठ प्रकारों के मार्ग में प्रथम चार- यज्ञ, अध्ययन, दान और तपस्या  दम्भ के लिये भी किये जाते हैं । परन्तु पिछले चार- मार्ग सत्य, सन्तोष, सहनशीलता और लोभ न करना तो महापुरूष में ही रहते हैं ।
यह विचार कर स्वतः का अवलोकन करना चाहिए कि हम जो कुछ भी धार्मिक कार्य कर रहे हैं, उसके पीछे मेरा भाव उद्देश्य क्या है ।  दुनिया को दिखाकर झूठी प्रशंशा प्राप्त करने के लिए या भगवत्प्राप्ति के लिए कर रहे हैं । जो उद्देश्य होगा वही फल प्राप्त होगा ।।
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आछ का संदेश



_सुखी जीवन जीने का सिर्फ एक ही रास्ता है वह है अभाव की तरफ दृष्टि ना डालना। आज हमारी स्थिति यह है जो हमे प्राप्त है उसका आनंद तो लेते नहीं, वरन जो प्राप्त नहीं है उसका चिन्तन करके जीवन को शोकमय कर लेते हैं।_

_दुःख का मूल कारण हमारी आवश्कताएं नहीं हमारी इच्छाएं हैं। हमारी आवश्यकताएं तो कभी पूर्ण भी हो सकती हैं मगर इच्छाएं नहीं। इच्छाएं कभी पूरी नहीं हो सकती और ना ही किसी की हुई आज तक। एक इच्छा पूरी होती है तभी दूसरी खड़ी हो जाती है।_
 
_इसलिए शास्त्रकारों ने लिख दिया_
_आशा हि परमं दुखं नैराश्यं परमं सुखं_
_दुःख का मूल हमारी आशा ही हैं। हमे संसार में कोई दुखी नहीं कर सकता, हमारी अपेक्षाएं ही हमे रुलाती हैं। यह भी सत्य है कि इच्छायें ना होंगी तो कर्म कैसे होंगे ? इच्छा रहित जीवन में नैराश्य आ जाता है। लेकिन अति इच्छा रखने वाले और असंतोषी हमेशा दुखी ही रहते हैं।_ 
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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चिन्तन



             *मनुष्य इस धरा धाम पर जन्म लेकर के जीवन भर अनेकों कृत्य करते हुए अपनी जीवन यात्रा पूर्ण करता है | इस जीवन अनेक बार ऐसी स्थितियां प्रकट हो जाती है मनुष्य किसी वस्तु , विषय या किसी व्यक्ति के प्रति इतना आकर्षित लगने लगता है कि उस वस्तु विशेष के लिए कई बार संसार को भी ठुकराने का संकल्प ले लेता है | आखिर यह मन किसी के प्रति इतना आकर्षित क्यों और कैसे हो जाता है ? यह स्वयं में एक रहस्य है | किसी के प्रति लगाव क्यों और कैसे उत्पन्न हो जाता है कभी-कभी मनुष्य स्वयं नहीं जान पाता | यही आकर्षण के सिद्धांत का रहस्य है | हमारे मनीषियों का मन के ऊपर बहुत ही विस्तृत वर्णन पढ़ने को प्राप्त होता है | किसी के प्रति लगाव या आकर्षण ऐसे ही नहीं पैदा हो जाता है , यह स्थिति प्रकट होने का एक विशेष कारण यह होता है कि मनुष्य जिस विषय , वस्तु या व्यक्ति के प्रति बारंबार अपने मन में चिंतन करता है , दिन रात उसी के विषय में विचार किया करता है तो उस व्यक्ति विशेष , विषय विशेष या वस्तु विशेष से उसका सहज लगाव हो जाता है | आकर्षण और लगाव का एक रहस्य यह भी कि किसी के प्रति यह लगाव या आकर्षण यदि सकारात्मक होता है तो मनुष्य नित्य नई उर्जा प्राप्त करते हुए उन्नति के पथ पर अग्रसर हो जाता है , परंतु यही लगाव जब नकारात्मकता का लबादा ओढ़कर के मन में घूमा करता है तो मनुष्य का पतन प्रारंभ हो जाता है | किसी के प्रति मन में उत्पन्न हुए प्रेम का सहज कारण यह आकर्षण ही होता है | मन का लगाव कब किससे हो जाएगा यह शायद मन भी नहीं जानता | मनुष्य को संचालित करने की शक्ति रखने वाला मन कभी-कभी इस आकर्षण के चक्रव्यूह में फंसकर इतना विवश हो जाता है कि इससे निकलने का मार्ग नहीं ढूंढ पाता | इससे निकलने का एक ही मार्ग है कि उस व्यक्ति या वस्तु के विषय में सोचना बंद कर दिया जाए अन्यथा जब बार-बार किसी का चिंतन किया जाएगा तो यह मन चुंबक की भांति उसी और दौड़ता रहेगा |*

*आज इस आकर्षण और लगाओ का अर्थ ही बदल कर रह गया है | आज समाज में जिस प्रकार का वातावरण देखा जा रहा है उसके अनुसार मनुष्य का लगाव आत्मिक कम शारीरिक ज्यादा ही दिखाई पड़ रहा है |  आज अधिकतर लोग किसी के शारीरिक आकर्षण के जाल में फस कर के स्वयं की मर्यादा एवं पद को भी भूलने को तैयार है |  बड़े-बड़े ज्ञानी - ध्यानी मन के इस रहस्य को समझ पाने में असफल ही रहे हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" सद्गुरुओं से अब तक प्राप्त ज्ञानप्रसाद के आधार पर यह कह सकता हूं कि मन बड़ा चंचल होता है इसको सदैव एक बिगड़े हुए घोड़े की तरह लगाम लगा कर रखना ही उचित है | प्राय: लोग बाबा तुलसीदास जी की एक चौपाई का उद्धरण देते हैं कि बाबा जी ने लिखा है :- कलि कर एक पुनीत प्रतापा ! मानस पुण्य होंहिं नहिं पापा !! लोग तर्क देते हैं कि कलयुग में मन से किए हुए पाप का फल नहीं मिलता है |  परंतु विचार कीजिए यदि बार-बार मन को पाप की ओर जाने की छूट दे दी जाएगी , पाप के प्रति आकर्षित होने दिया जाएगा तो मानसिक पाप धरातल पर उतरने में बहुत ज्यादा समय नहीं लगेगा | इसलिए मन का लगाव सकारात्मक एवं नियंत्रित होना चाहिए | यद्यपि कभी-कभी इस पर मनुष्य का बस नहीं रह जाता है परंतु विवश हो जाने के बाद भी मनुष्य को धीरे-धीरे स्थिति नियंत्रित करने का प्रयास करना चाहिए |*

*किसी के विषय में कब , क्यों और कैसे यह मन आकर्षित हो गया यह जान पाना कठिन भी नहीं है | जब मनुष्य बार-बार किसी का चिंतन करेगा तो उसके प्रति लगाव और आकर्षण स्वमेव बढ़ ही जाता है |*                                       

                  आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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मंत्र व नाम जाप


           मन्त्र एक प्रकार से इस ब्रह्मांड को संचारित करने वाले  की ऊर्जा का दूसरा रूप है।शब्दों एवं शब्द समूहों के उर्जावान समूह को मन्त्र कहते हैं।क्योंकि मंत्रोच्चारण से एक अद्भुत तरंगात्मक ऊर्जा का आविर्भाव होता है।जिससे सम्पूर्ण वातावरण ऊर्जावान हो जाता है।
इस पूरे ब्रह्मांड में केवल दो ही चींजे व्याप्त हैं।एक ऊर्जा एवं दूसरा पदार्थ।
पदार्थ तो हमारा लौकिक पंचभौतिक शरीर है और मन्त्र रूपी वाक्य ऊर्जान्वित शक्ति।हमारे द्वारा कहे गए वाक्य साधारण होते हैं किंतु जब हम उस वाक्य में मन्त्रों का प्रयोग करते हैं तो एक अद्भुत शक्तिशाली ऊर्जा का समावेश हो जाता है जिससे प्रकृति का तो परे ही रख दीजिए,मनुष्य स्वयं में ही ऊर्जावान आभास करता है।उसमें नैसर्गिक शक्तियों का आभास होने लगता है।
मन्त्र की बात आप छोड़ दीजिए,केवल *ॐ* का जाप करने मात्र से ही आप निरोगी हो जाएंगे।

*नाम*
        नाम जप को सीधे सीधे भगवन्नाम जप कहा जा सकता है।यह भी ऊर्जान्वित होने का एक विशेष जप है।
नाम जप मनुष्य के अंदर व्याप्त श्रद्धा एवं विश्वास की अद्भुत शक्ति का संचयन करता है।जिससे वह स्वयं ही ऊर्जावान हो जाता है।उसमें इतनी शक्ति आ जाती है कि उसे लगने लगता है कि उसकी कृपा से 
*मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं।*
*यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्।*
अर्थात उसके नाम लेने मात्र से ही मेरे समस्त कार्य स्वयं संपादित हो जाएंगे।ऐसा भाव जागृत होता है कि
*मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है।*


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जब भगवान शंकर ने ली श्रीराम की मर्यादा की परीक्षा


*जब भगवान शंकर ने ली श्रीराम की मर्यादा की परीक्षा???????*

भगवान (शंकर (विश्वनाथ) की अर्धांगिनी हैं माता अन्नपूर्णा । माता पार्वती ही सृष्टिकाल में महामाया, पालन करते समय अन्नपूर्णा और संहार करते समय कालरात्रि कहलाती हैं । भगवान शंकर का परिवार बहुत लम्बा है—स्वयं शंकरजी पंचानन, पुत्र गजानन और षडानन, तीन बहुएं, दो पोते फिर इन सबके वाहन; इसके अलावा नन्दी-भृंगी एवं श्रृंगी और बहुत खाने वाले भूत-प्रेतों का समुदाय । इन सबकी क्षुधा-पिपासा शान्त करने का जिम्मा माता अन्नपूर्णा का है ।

माता अन्नपूर्णा की आराधना करने से मनुष्य को कभी अन्न का दु:ख नहीं होता है क्योंकि वे नित्य अन्न-दान करती हैं । यदि माता अन्नपूर्णा अपनी कृपादृष्टि हटा लें तो मनुष्य दर-दर अन्न-जल के लिए भटकता फिरे लेकिन उसे चार दाने चने के भी प्राप्त नहीं होते हैं । एक बार भगवान शंकर की आज्ञा से माता अन्नपूर्णा ने महर्षि वेदव्यास की तरफ से दृष्टि फेर ली, वेदव्यासजी अपने शिष्यों सहित दो दिनों तक काशी की गलियों में भिक्षा के लिए आवाज लगाते रहे थे किन्तु उनको और उनके शिष्यों को कहीं से भी कुछ भी भिक्षा न मिल सकी ।

जब श्रीरामजी द्वारा किए जा रहे श्राद्ध में भोजन करने आए भगवान शंकर!!!!!!

भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश की लीलाएं अत्यन्त न्यारी हैं । अपने भक्तों की परीक्षा वे अद्भुत तरीके से लेते रहते हैं । ऐसी ही परीक्षा भगवान शंकर ने अपने भक्त भगवान श्रीराम की ली थी ।

एक बार अयोध्या में राघवेंद्र भगवान श्रीराम ने अपने पितरों का श्राद्ध करने के लिए ब्राह्मण-भोजन का आयोजन किया । ब्राह्मण-भोजन में सम्मिलित होने के लिए दूर-दूर से ब्राह्मणों की टोलियां आने लगीं । भगवान शंकर को जब यह मालूम हुआ तो वे कौतुहलवश एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धर कर ब्राह्मणों की टोली में शामिल होकर वहां पहुंच गए और श्रीरामजी से बोले—‘मुझे भी भोजन करना है।

अन्तर्यामी भगवान श्रीराम बूढ़े ब्राह्मण को पहचान गए और समझ गए कि भगवान शंकर ही मेरी परीक्षा करने यहां पधारे हैं । ब्राह्मण-भोजन के लिए जैसे ही पंगत पड़ी, भगवान श्रीराम ने स्वयं उस वृद्ध ब्राह्मण के चरणों को अपने करकमलों से धोया और आसन पर बिठाकर भोजन-सामग्री परोसना शुरु कर दिया । छोटे भाई लक्ष्मणजी भगवान शंकर को जो भी वस्तु परोसते, शंकरजी उसे एक ही ग्रास में खत्म कर देते । उनकी पत्तल पर कोई सामान बचता ही नहीं था । सभी परोसने वाले उस बूढ़े ब्राह्मण की पत्तल में सामग्री भरने में लग गए, पर पत्तल तो खाली-की-खाली ही नजर आती । श्रीरामजी मन-ही-मन मुस्कराते हुए शंकरजी की यह लीला देख रहे थे । 

भोजन समाप्त होते देख महल में चिंता होने लगी गयी । माता सीता के पास भी यह समाचार पहुंचा कि श्राद्ध में एक ऐसे वृद्ध ब्राह्मण पधारे हैं, जिनकी पत्तल पर सामग्री परोसते ही साफ हो जाती है । श्राद्ध में आमन्त्रित सभी ब्राह्मणों को भोजन कराना भगवान श्रीराम की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया । माता सीता भी चिन्तित होने लगीं ।

जब बनाया गया सारा भोजन समाप्त हो गया फिर भी शंकरजी तृप्त नहीं हुए तो श्रीराम ने माता अन्नपूर्णा का स्मरण कर उनका आह्वान किया । सभी परोसने वाले व्यक्ति वहां से हटा दिये गये । माता अन्नपूर्णा वहां प्रकट हो गयीं ।

शंकरजी की क्षुधा केवल माता अन्नपूर्णा ही कर सकती हैं शान्त!!!!!!!

श्रीरामजी ने माता अन्नपूर्णा से कहा—‘अपने स्वामी को आप ही भोजन कराइए, इन्हें आपके अतिरिक्त और कोई तृप्त नहीं कर सकता है ।’ 

मां अन्नपूर्णा ने जब अपने हाथ में भोजन पात्र लिया तो उसमें भोजन अक्षय हो गया । अब वे स्वयं विश्वनाथ को भोजन कराने लगीं । मां अन्नपूर्णा ने पत्तल में एक लड्डू परोसा । भगवान विश्वनाथ खाते-खाते थक गये पर वह समाप्त ही नहीं होता था । मां ने दोबारा परोसना चाहा तो भगवान शंकर ने मना कर दिया । शंकरजी हंसते हुए डकार लेने लगे और बोले—‘तुम्हें आना पड़ा, अब तो मैं तृप्त हो गया ।’

मां अन्नपूर्णा काशी की अधीश्वरी हैं इसलिए वहां एक कहावत प्रचलित है—

‘बाबा-बाबा सब कहै,  माई कहे न कोय। 
बाबा के दरबार में माई कहैं सो होय ।।

जिस प्रकार भगवती अन्नपूर्णा द्वारा भगवान शिव की पत्तल में परोसी गयी मिठाई बार-बार खाने पर भी कभी घटती नहीं, उसी प्रकार अच्छी नीयत से कमाया हुआ धन कितना भी खर्च करने पर घटता नहीं और खराब नीयत से अर्जित धन कभी ठहरता नहीं, साथ ही दु:ख का कारण भी बनता है । सत्यता और ईमानदारी से कमाया गया धन कभी घटता नहीं और चोरी, बेईमानी व अन्य गलत तरीकों से कमाये हुए धन की बरकत भी वैसी ही होती है । इसलिए अच्छे धन की अच्छी बरकत होती है ।

शंकरजी ने ली भगवान श्रीराम-सीता की मर्यादा की परीक्षा!!!!!!!

अब शंकरजी श्रीरामजी से बोले—‘मैं इतना खा गया हूँ कि मुझसे अपने आप उठा नहीं जा रहा है । मुझे जरा उठाओ ।’ हनुमानजी अपने स्वामी का कार्य करने के लिए आगे बढ़े और शंकरजी को उठाने लगे परन्तु वे उन्हें उठा नहीं सके । श्रीरामजी ने लक्ष्मणजी से शंकरजी को उठाने के लिए कहा ।

अनन्त के अवतार की शक्ति भी अनन्त होती है । लक्ष्मणजी ने शंकरजी को उठाकर एक पलंग पर लिटा दिया । अब शंकरजी ने कहा—‘मेरा मुख और हाथ धो दो ।’

माता सीता ने जैसे ही मुख धोने के लिए जल दिया, शंकरजी ने मुख में पानी भरकर माता सीता पर कुल्ला कर दिया । माता सीता क्रुद्ध होने के बजाय हाथ जोड़कर शंकरजी से बोली—‘आपके उच्छिष्ट जल के मेरे ऊपर गिरने से मेरा शरीर पवित्र हो गया, मैं आपकी बहुत आभारी हूँ ।’

अब भगवान शंकर ने श्रीराम को चरण दबाने की आज्ञा दी । श्रीराम और लक्ष्मण दोनों शंकरजी के चरण दबाने लगे और माता सीता पंखा झलने लगीं।

प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने कहा—‘मैंने तुम्हारी मर्यादा की परीक्षा ली जिसमें तुम सफल रहे । तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे मांग लो ।’

श्रीराम ने कहा—‘यद्यपि आपके पास जो चीजें हैं (विष का भोजन, विषधर सर्प, गजचर्म, बूढ़ा बैल, भूत-प्रेत पिशाच) वे हमारे किसी काम की नहीं हैं, इसलिए आप अपने चरणों की भक्ति दें और मेरी सभा में कथा सुनाया करें ।’

तब से शंकरजी राम सभा के कथावाचक बन गए और पूर्व कल्पों की कथाएं सुनाया करते थे।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...