Tuesday, March 17, 2020

मांसाहार पर लेख


मेरा तीन वर्ष पूर्व लिखा यह लेख आज के कोरोनावायरस जैसे इसी प्रकरण की एक आहट के संदर्भ मे था ।

*मांसाहार की आस्था - मानव अस्तित्व पर वास्तविक संकट*

 *विश्व की प्रत्येक सभ्यता एवं संस्कृति में मांसाहार हजारों वर्षों से चली आ रही सतत प्रक्रिया है* । विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यताएं समाप्त हो चुकी हैं जिनमें मिस्र, मेसोपोटामिया, बेबिलोनिया, सुमेरिया, दजला एवं फरात तथा माया सभ्यता मुख्य रूप से स्थान रखती हैं । इन सभ्यताओं में मांसाहार के अनेक स्पष्ट उदाहरण देखने को मिलते हैं, लेकिन यह विचारणीय तथ्य है कि मानव जाति की मांसाहारी प्रवृत्ति तो आज भी सतत अस्तित्व में हैं लेकिन मांसाहार पर पोषित होने वाली ये सभ्यताएं तो आज अस्तित्व में नहीं है । इन सभ्यताओं के अंत के पीछे मांसाहार एक सबसे बड़ा कारण रहा है भले ही मेरे इस विचार को पूर्वाग्रह से ग्रसित माना जाए या कोई आस्तिक अथवा मांसाहार एवं बलि प्रथा को अपनी आस्था से जोड़ने वाला अपने प्रति मेरे लेख को दुर्भावना से ग्रसित समझे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, अपितु अंतर इस बात से पड़ता है कि हम सभी सभ्यताओं के समाप्त होने के पीछे मांसाहार एक कारण हो सकता है इसका विश्लेषण अवश्य करें ।

 *वर्तमान में विश्व में भारत की आर्य एवं अन्य भारत उपमहाद्वीप की जातियां जो वैदिक संस्कृति का नवोन्मेष हैं भी अस्तित्व में है और सबसे प्राचीन सभ्यता होने का गर्वित करने वाला अलंकरण अपने साथ सुरक्षित कर रखे हुए हैं* । भारत की वैदिक संस्कृति भी कई उदाहरणों में मांसाहार करने वाली समझी जाती है जिसका उदाहरण प्रारंभिक वैदिक एवं उत्तरवैदिक तथा वेदांगों में और उपनिषदों में कहीं नहीं देखने को मिलता । केवल कुछ एक मुट्ठी भर वामपंथी इतिहासकार ही अपनी दुर्भावना गस्त विचारण के कारण वैदिक सभ्यता के स्थापकों को भी मांसाहारी बताती रही है जिसका साक्ष्य उपलब्ध नहीं है ।

 *भारत में मांसाहार पर स्वैच्छिक प्रतिबंध भारतीय युग प्रणाली के प्रमुख त्रेता युग में या उससे भी पूर्व सतयुग के प्रारंभ में स्थापित किया हुआ समझा जाना चाहिए* । _इसका उदाहरण विदेह राजऋषि जनक की राजसभा में बुलाई गई धर्म संसद में सबसे पहले देखने को मिला जिसका उदाहरण विभिन्न उपनिषदों में भी है।_ इस प्रकरण में यह कहा गया है कि मानव सभ्यता एवं संस्कृति को मांसाहार से न केवल स्थाई अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो सकता है अपितु अनेक महामारियां उत्पन्न हो सकती है, और भविष्य में कभी भी मांसाहार से कोई ऐसी महामारी उत्पन्न हो सकती है जिससे मानव समाज का इस पृथ्वी से अस्तित्व समाप्त हो सकता है, साथ ही ऋषि गण तथा सतयुग एवं त्रेता युग के अनुसंधानकर्ताओं ने यह विचार स्पष्ट रुप से अंगीकार किया था कि विभिन्न तरह के अनुसंधान कार्यों, शोधन कार्यों, वैज्ञानिक अन्वेषण तथा आध्यात्मिक क्रियाकलापों को संपन्न करने में मांसाहार से उत्पन्न होने वाले तामसी गुण, आलस्य, अकर्मण्यता, स्फूर्ति का विनाश तथा बौद्धिक रुप से मानव की तेजस्विता का कुंठित होना पाया गया, इसीलिए मांसाहार को तत्समय त्याज्य घोषित किया गया । लेकिन अनेक शताब्दियों तक मांसाहार को बहुत अधिक घृणित भारतीय सभ्यता द्वारा मानने के पश्चात भी विश्व के अनेक भागों में मांसाहार प्रचलित रहा है, यहां तक कि भारत में भी सभी जातियां एवं समुदाय तथा वर्णों के लोग भारत के मनीषियों द्वारा स्थापित मांसाहार से दूर रहने की व्यवस्था को भूलकर पुनः मांसाहार में लगे हैं तथा मानव अस्तित्व पर जो मांसाहार के कारण किसी महामारी के उत्पन्न होने से संकट आ सकता है उसके लिए स्वयं को उत्तरदाई बनाने पर तुले हुए हैं ।

 *प्रायः निकट वर्तमान में अनेक मांसाहार से उत्पन्न होने वाली महामारियों को देखा एवं अनुभव किया गया है जिनको देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि अगर कोई महामारी मांसाहारियों के मांसाहार करने की आदत के कारण प्रसारित होकर इस तरह से मानव सभ्यता एवं संस्कृति को अपनी चपेट में ले ले की आधुनिकतम चिकित्सा पद्धति मे अनेक असाध्य बीमारियों के तरह ही वह महामारी भी असाध्य ही रहे और कोई उपाय खोजने से पहले ही मानव सभ्यता एवं संस्कृति समाप्त हो जाए तो क्या होगा* । मांसाहारियों को होने वाले विभिन्न प्रकार की महामारियाँ छोटे रुप में इस युग में भी देखने को मिली हैं जिनमें एंथ्रेक्स, चिकन पॉक्स, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू, कैंसर, जीका वायरस आदि कुछ प्रमुख उदाहरण है । सोचिए अगर इनमें से कोई भी एक इस सीमा तक असाध्य हो जाए की उसका संपूर्ण मानव जाति में विस्तार हो जाए यहां तक कि शाकाहारियों में भी और कोई भी उपाय इस पर प्रतिबंध लगाने का खोजने से पहले ही पृथ्वी ग्रह के सभी मनुष्य इस में से किसी भी एक बीमारी के चपेट में आ जाएं तो क्या होगा अर्थात मानव अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, यह कोई बताने वाली बात नहीं है केवल समझने वाली बात है और जिसको मानव को अपने अस्तित्व से जोड़ते हुए समझना आवश्यक है ।

 *जहां तक आस्था एवं विश्वास से जुड़े परंपराओं के पालन करने की बात है तो यह कोई छुपा हुआ रहस्य नहीं है की अनेक परंपराएं मनुष्य की तत्कालिक आवश्यकता एवं लाभ के लिए धर्म एवं आस्था के साथ उनके पूर्वजों ने जोड़ दिए, उन्ही में से ईद भी एक तत्कालिक आवश्यकता के अनुरूप पशु वध को आस्था के साथ जोड़ने वाली धार्मिक क्रिया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । मैं समस्त मुस्लिम जगत के समूह एक प्रश्न रखना चाहता हूं* ??? कि अगर अल्लाह निर्विकार, निराकार, एवं निर्विकल्प है तब जबकि वह भोजन करने, जल का पान करने से भी परे है, तब भी कुर्बानी जैसा शब्द उसी निर्विकार, निराकार एवं निर्विकल्प अल्लाह के लिए किया जाना है हास्यास्पद कृत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । भला जो मानव की तरह अस्तित्व में ही नहीं है निर्विकार है उसको पशुओं की कुर्बानी से क्या प्रयोजन है । दोनों बातें अर्थात कुर्बानी एवं अल्लाह के निर्विकार एवं निराकार होने के तथ्य एक दूसरे के प्रति पूर्णतया विरोधाभासी है और सहज मानवीय विचार एवं वैज्ञानिक तथ्यों पर खरे नहीं उतरते । अर्थात जिसका उपयोग करने का अंग नहीं है जो निराकार एवं निर्विकार है वह आप की कुर्बानी स्वीकार करने के लिए भी उपस्थित नहीं है ।

 *ईद पर कुर्बानी के संदर्भ में प्राचीन अरब क्षेत्र की भौगोलिक एवं पर्यावरण की स्थिति को ठीक से समझना आवश्यक है* । वास्तव में अधिकांश अरब प्रायद्वीप का क्षेत्र जो आज मुस्लिम पंथ का गढ़ है तथा मानवीय अस्तित्व के संकट और संघर्ष से गुजर रहा है एक विस्तृत रेगिस्तान में परिवर्तित हो चुका है । यह प्रक्रिया धीरे-धीरे लेकिन हजारों वर्षों में सम्पन्न हुई है । प्रारंभ के वर्षों में उन क्षेत्रों में बड़े स्तर पर कृषि किए जाने के उदाहरण मिलते हैं तथा वहां वन्य क्षेत्र रहे हैं लेकिन आज वहां ना तो विस्तृत मात्रा में खेती की जा सकती है और ना ही वन क्षेत्र बचे हैं उसका कारण वहां की भौगोलिक एवं पर्यावरण तंत्र को सुरक्षित ना रख पाना रहा हैब  अरब क्षेत्रों की भूमि के नीचे अत्यधिक पेट्रोलियम पदार्थों एवं गैस और ज्वलनशील तैलीय तरल का पाए जाना वहां पर प्राचीनकाल में समस्त भूभाग पर भयंकर वन्य क्षेत्रों के अस्तित्व का उदाहरण है । क्योंकि वृक्ष ही हजारों वर्षों की प्रक्रिया के बाद भूमि के नीचे दबकर अंततः कोयला एवं पेट्रोलियम पदार्थों के रूप में परिवर्तित होते हैं । लेकिन आज अरब क्षेत्र में हरियाली नाम की कोई चीज नहीं है, इस पर्यावरण की विनाश लीला के बाद मनुष्य को जब अपना अस्तित्व संकट में दिखाई पड़ा तब अरब क्षेत्र के मुस्लिमों के पूर्वजों ने जो बचे खुचे जानवर थे उन पर गुजारे के लिए मांसाहार एवं बलि की प्रथा को, कुर्बानी की प्रथा को आस्था से एवं धर्म से जोड़ते हुए अवश्यक बना दिया और मांसाहार की प्रक्रिया बच्चों से लेकर वृद्ध एवं महिलाओं में चल निकली जिसको अज्ञानतावश आज भी मनुष्य आस्था से जोड़े हुए हैं । मुस्लिमो के अतिरिक्त अन्य धर्मों समुदायों के लोग जो भी मांसाहार करते हैं उनके पीछे तो यह आस्था का प्रश्न भी नही है बस स्वाद के लिए मांसाहार करके अपने ही बौद्धिक उन्नयन पर कुठाराघात करते हैं । आस्था एवं परंपरा के नाम पर पशुवद्ध मुस्लिमों के ही धर्म एवं कुरान में दिए गए तथ्यों के विपरीत एक कृत्य है । अरब क्षेत्र के समस्त मुस्लिम देशों में हरियाली को विशेष महत्व दिया गया है, अब हरियाली तो वहां बची नहीं इसीलिए हरे रंग को धर्म से जोड़ दिया गया, उसके पीछे निश्चित रूप से दूरदर्शी मुस्लिम आध्यात्मिक व्यक्तियों द्वारा यह स्थापित करने का प्रयास किया कि इस पृथ्वी के अस्तित्व के लिए हरियाली अत्यधिक आवश्यक है, अतः हरे रंग से प्रेम करो एवं वृक्षों को लगाओ । लेकिन मुस्लिम मौलवियों ने मुल्लाओं ने पर्यावरण की सुरक्षा का जो संदेश उनके पूर्वजों के द्वारा दिया गया हरे रंग को ग्रहण करवाकर, उसको तो अपने मन मस्तिष्क में नहीं उतारा उलटे अपने घर, दीवारें तथा कपड़े अवश्य ही हरे रंग के पहनने का प्रचलन शुरू किया, यह तब हुआ जब की वास्तविक संदेश को उन्होंने प्रचलन में नहीं लिया और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए वृक्षों के रोपण की ओर ध्यान नहीं दिया । अब हरे रंग से तो प्राण वायु (ऑक्सीजन) निकलेगी नही, वो तो वृक्ष से निकलेगी वह आप लगाते नही । समस्त विश्व में समस्त मुस्लिम समुदाय के हर एक वर्ग द्वारा हरे रंग का ध्वज एवं कपड़े तथा घरों एवं दीवारों में रंग रोगन लगाया तो जाता है लेकिन वृक्षारोपण का जो वास्तविक संदेश है वही उनके द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता । अपितु सबसे अधिक विश्व के सभी हिस्सों में वृक्षों को अगर कोई नुकसान पहुंचाता है तो लकड़ी के कारोबारी मुस्लिम ही इस कार्य में संलग्न है । उनकी इस तरह की कार्य विधियां भविष्य में विश्व के अनेक स्थानों में भी अरब क्षेत्र जैसी स्थिति पैदा कर सकती है जो कि हरियाली के समाप्त होने का कारण सिद्ध होंगे । मुस्लिम धर्म के पूर्वजों द्वारा जो बलिदान एवं कुर्बानी की प्रथा शुरू की गई थी उसको ही ईद पर ईश्वर के प्रति कुर्बानी के रूप में जोड़ दिया गया और वह विश्व के प्रत्येक हिस्से में अनियंत्रित एवं अव्यवस्थित रुप में आज देखने को मिलती है । करोड़ों पशु विश्व के विभिन्न हिस्से में कत्ल किए जाते हैं जिससे निकलने वाला रक्त और उनके सड़े हुए, बचे हुए मांस से उठने वाली दुर्गंध इस पृथ्वी के संपूर्ण वायुमंडल को दूषित करती हैं, बीमारियों को जन्म देती है जल एवं मिट्टी को भी विभिन्न हानिकारक तत्वों से भरकर हानि पहुंचाती है । एक ओर जहां मांसाहार से विभिन्न प्रकार की महामारियां उत्पन्न हो रही है दूसरी ओर कुर्बानी जैसे अनावश्यक प्रथाओं से पृथ्वी का पर्यावरण एवं वायुमंडल धीरे-धीरे मनुष्य के रहने लायक कठिन होता जा रहा है । अब क्योंकि विश्व में शाकाहार द्वारा भी अपने अस्तित्व को बचाए रखा जा सकता है, अनेक वैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा पर्याप्त मात्रा में दालें, सब्जियां एवं अनाज उत्पन्न किया जा सकता है, इसीलिए मुस्लिम जीव जगत को तथा सभी मांसाहारी हिंदू, मुस्लिम, सिख इसाई को यह समझना होगा कि मानव अस्तित्व की सुरक्षा के लिए और इस ग्रह के पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र को बचाए रखने के लिए उन्हें मांसाहार छोड़ देना चाहिए । ईद पर कुर्बानी एवं मांसाहार किसी भी प्रकार से आस्था एवं धर्म से जुड़ा नहीं है और ना ही उनकी कुर्बानी निर्विकार एवं निराकार अल्लाह द्वारा स्वीकार की जा सकती है । अनेक सभ्यताओं में मानव अस्तित्व के हित में अनेक त्याज्य परंपराओं को छोड़ दिया है तथा मानव हित में मांसाहारियों को भी अपना मांसाहार छोड़कर, जनसंख्या पर नियंत्रण लगाकर शाकाहार की ओर लौटना चाहिए तथा वैदिक संस्कृति एवं सभ्यता और उपनिषदों में दिए गए भारतीय संदेश को ग्रहण करके एक स्वस्थ, स्वच्छ तथा उन्नत बौद्धिक मानवीय समाज के विकास में योगदान देना चाहिए । 
 *ईद पर विश्व भर के मुस्लिमों को मेरा आज यही संदेश है* ।

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आज का संदेश


           🔴 *आज का संदेश* 🔴

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                                *इस संसार का सृजन करने वाले परमपिता परमात्मा ने मनुष्य को सब कुछ दिया है , ईश्वर समदर्शी है उसने न किसी को कम दिया है और न किसी को ज्यादा | इस सृष्टि में मनुष्य के पास जो भी है ईश्वर का ही प्रदान किया हुआ है ,  भले ही लोग यह कहते हो कि हमारे पास जो संपत्ति है उसका हमने अपने श्रम और बुद्धि से प्राप्त किया है परंतु उनको यह विचार करना चाहिए कि श्रम करने के लिए बल एवं बुद्धि तो ईश्वर की ही प्रदत्त की हुई है | इस संसार में सब के पास बुद्धि हैं सबके पास काम करने के लिए बल है परंतु फिर भी सब की संपत्ति बराबर नहीं होती , यदि सब कुछ श्रम एवं बुद्धि से ही संभव होता तो सब की संपत्ति , शक्ति एवं कमाई समान होनी चाहिए थी परंतु ऐसा देखने को नहीं मिलता है , इससे स्पष्ट हो जाता है कि देने वाला कोई और ही है जिसे ईश्वर कहा जाता है |  सभी के जीवन में प्राय: एक समय ऐसा आता है जब उसका बुद्धिबल धनबल एवं श्रमबल खत्म हो जाता है तब मनुष्य ईश्वर से मांगना प्रारंभ करता है और ईश्वर उसकी मांग को पूरी भी करता है | विचारणीय बात यह है कि संसार का पालन जब ईश्वर ही कर रहा है तो मांगो चाहे ना मांगो देना उसका काम है | यदि वह देने वाला ना होता तो जीव के पैदा होने के पहले मां के स्तनों में दूध ना आता | विचार कीजिए यदि ईश्वर मां के स्तनों में दूध का अनुदान ना देता तो क्या कोई ऐसी प्रक्रिया थी जो कि मां के स्तनों को दूध से भर सकती थी ?  शायद आज तक वैज्ञानिक भी ऐसा कोई आविष्कार नहीं कर पाए हैं जिससे कि ऐसा कर पाना संभव हो पाता , इससे सिद्ध हो जाता है कि ईश्वर के द्वारा मनुष्य को असीम अनुदान दिया जाता है | अब उसका उपयोग मनुष्य कैसे करता है उसके ऊपर निर्भर है क्योंकि भगवान ने प्रत्येक व्यक्ति को जीवन एवं जीवन शक्तियां बीज रूप में प्रदान की है यदि मनुष्य उसका उपयोग ही ना करें तो बीज अंकुरित नहीं हो सकता है | चौरासी लाख योनियों में ईश्वर ने मनुष्य को जितना दे दिया है वह अनंत है परंतु मनुष्य ईश्वर के द्वारा दी हुई शक्तियों को ना जागृत करके मूर्छित अवस्था में पड़ा रहता है जिससे कि ईश्वर की दी हुई शक्तियां पंगु हो जाती हैं |  मनुष्य को ईश्वर का ही अंश कहा गया है अर्थात जितनी शक्तियां भगवान में हैं लगभग वह सारी शक्तियां बीज रूप में मनुष्य में भी विद्यमान हैं और वह बीज है कर्म एवं ज्ञान का | मनुष्य अपनी इस ज्ञान शक्ति को जान नहीं पाता है एवं उसका उपयोग न कर पाने के कारण जीवन भर शिकायत करता रहता है कि ईश्वर ने आखिर हमें दिया क्या है ? ईश्वर के असीम अनुदान को जानने का प्रयास प्रत्येक मनुष्य को अवश्य करना चाहिए क्योंकि यदि ईश्वर के द्वारा प्रदत्त असीम शक्तियों का उपयोग मनुष्य नहीं कर पाता है तो उसका मानव जीवन अंधकार के अंधेरे में भटकते हुए समाप्त हो जाता है |*

*आज प्रायः लोग कहते हुए सुने जा सकते हैं कि ईश्वर ने दूसरों को ज्यादा दिया हमें कम ,  यह भी लोग कहते हैं  की आखिर ईश्वर ने हमको दिया क्या है ? ईश्वर पर मनुष्य के द्वारा लगाया गया यह मिथ्या आरोप है , क्योंकि ईश्वर ने बिना भेदभाव के सबको समान रूप से शक्तियां वितरित की हैं | मैं बताना चाहूंगा कि जिस प्रकार एक पिता के कई पुत्र होते हैं तो पिता अपनी संपत्ति का बंटवारा सभी पुत्रों में समान रूप से करता है | उन्हीं पुत्रों में से कोई उस संपत्ति को दुगनी चौगुनी बढ़ा लेता है तो कोई अपनी कर्म - कुकर्मों के द्वारा उसे संपत्ति को नष्ट कर देता है और अपना पतन कर देता है | ठीक उसी प्रकार ईश्वर ने मनुष्य को असीम शक्तियां समान रूप से दी हैं परंतु कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो ईश्वर द्वारा प्रदत्त शक्तियों को निरंतर जागृत करते हुए निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होते हैं उन्हीं में से कुछ ऐसे होते हैं जो कि अपनी शक्तियों का अनुचित प्रयोग करके उसको नष्ट करते हुए पतित हो जाते हैं | कहने का तात्पर्य है कि ईश्वर ने हमें क्या दिया है यह विचार करने का प्रश्न नहीं है बल्कि मनुष्य को विचार करना चाहिए कि ईश्वर ने हमको जो कुछ दे दिया है हम उसका उपयोग किस प्रकार कर रहे हैं ?  ईश्वर समदर्शी है और किसी के साथ भेदभाव नहीं करता है परंतु मनुष्स उसकी समदर्शिता को नहीं देख पाता और उस पर मिथ्यारोपण किया करता है | ईश्वर ने मनुष्य को जो दे दिया है और शायद अन्य किसी प्राणी को नहीं प्राप्त है इसलिए ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए यह विचार करना चाहिए कि ईश्वर ने मनुष्य को अपार आनंद शक्ति का दान दिया है , परंतु मनुष्य अपनी मूर्खता के कारण उसका वितरण नहीं कर पाता है और बिना वितरण किए आनंद का अनुभव नहीं हो पाता | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर द्वारा प्रदत शक्तियों का समुचित प्रयोग लोक कल्याण में करते हुए अपने जीवन को निरंतर उन्नतशील बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए |*

*इस संसार में ईश्वर ने सब कुछ भर दिया है उसका उपयोग मनुष्य किस प्रकार करता है यह मनुष्य की वैचारिक शक्ति पर निर्भर करता है | वही मनुष्य अपने लक्ष्य तक पहुंच पाता है जो ईश्वर को कभी ना भूल कर भी उसके द्वारा दिए गए अनुदान को सकारात्मकता से ग्रहण करते हुए निरंतर अपने कर्म पथ पर अग्रसर रहता है |*

     🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना-----*🙏🏻🙏🏻🌹

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             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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आज का संदेश


          ‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼

              🏹 *खेमेश्वर के तीर* 🏹

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                *सनातन धर्म में ब्रह्मा , विष्णु एवं भगवान शिव को सर्वश्रेष्ठ देव माना गया है परंतु इनसे भी ऊँची पदवी है सद्गुरु की | बिना सद्गुरु के न तो मनुष्य को ज्ञान प्राप्त हो सकता है और न ही मोक्ष | हमारे सद्गुरु कैसे हैं यह देखने की अपेक्षा हम कैसे हैं यह देखने का प्रयास करना चाहिए , परंतु आज लोग त्रिदेवों के भी ऊपर के पद पर पदासीन गुरुसत्ता में भी दोष ढूँढ़ते दिख रहे हैं जो कि कदापि उचित नहीं कहा जा सकता | यदि शिष्य गुरु के प्रति पूर्ण समर्पित भाव से आता है तो गुरु के अनदेखा करने पर भी वह "एकलव्य" की भाँति सर्वश्रेष्ठ बन सकता है | अत: यह भ्रान्ति मस्तिष्क में बिल्कुल नहीं रखना चाहिए कि हमने जो गुरु किया है उसके माध्यम से हमारा उद्धार होगा कि नहीं ? अत: पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ गुरुसत्ता का सामीप्य प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए |*

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                  *शुभम् करोति कल्याणम्*

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कोरोनावायरस


*// केरोना //*
 माना कि आप परुष ही नहीं साहब !महापुरुष है, आत्मा नहीं प्यारे महात्मा हैं, सर्वसुख ऐश्वर्य सम्पन्न हैं, सारा जगत आपकी मुट्ठी में कैद है, आप तो महाविज्ञानी और महाशूरवीर हैं, चन्द्रमा और मंगल जैसे ग्रहों पर भी जाने का सामर्थ्य रखते हैं और क्या कहें साहब ! *"अस सब भाँति अलौकिक करनी महिमा जासु जाइ नहीं बरनी"---आपकी महिमा ही अलौकिक है, भला आपकी महिमा का बखान करने का सामर्थ्य कौन कर सकता है? जी हाँ यही सत्य है, किन्तु महोदय एक वायरस ने आपको तो क्या समस्त विश्व को ही प्रभावित कर दिया, सारी शूरवीरता, भौतिक बल और ज्ञान को परास्त कर दिया, जबकि ऐसे एक-दो नहीं महात्मन ! करोड़ों वायरस हैं इस जगत में, जो शनैः  शनैः इस अनमोल मानव जीवन को प्रभावित कर रहे हैं, जिनका नाम आज भी बड़े-बड़े मनीषी जन भी नहीं जानते हैं और जान भी नहीं सकते हैं क्योंकि बिना रामकृपा के जानना भी दुष्कर और असम्भव है--- *"जेहि जानहु सो देहि जनाई l"* सोच रहा था यदि--- *"करहिं आहार साक फल कंदा सुमिरहिं ब्रम्ह सच्चिदानंदा"*---जैसे सिद्धांत का पालन किया होता तो नि:संदेह आज भारत तो क्या सम्पूर्ण विश्व केरोना जैसे वायरस से इतना भयभीत न होता l 
केरोना जैसे प्राण घातक वायरस से सुरक्षित रहने का एक ही शाश्वत साधन है रामत्व धारण करना, रामत्व की सानिध्यता में रहना, रामत्व को ही स्वजीवनाधार, आत्माधार और प्राणाधार बनाना--- *"करहिं आहार साक फल कंदा सुमिरहिं ब्रम्ह सच्चिदानंदा l"* मानवता की सानिध्यता में रहना l जिसे आज सम्पूर्ण विश्व मान रहा है l क्या विचार हैं आपके?
*🙏🚩जय सियाराम जय श्री परशुराम*


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Monday, March 16, 2020

सम्पूर्ण महाभारत कथा !

 

सम्पूर्ण महाभारत कथा !

 महाभारत हिंदू संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर है। शास्त्रों में इसे पांचवां वेद भी कहा गया है। इसके रचयिता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास हैं। महर्षि वेदव्यास ने इस ग्रंथ के बारे में स्वयं कहा है- यन्नेहास्ति न कुत्रचित्। अर्थात जिस विषय की चर्चा इस ग्रंथ में नहीं की गई है, उसकी चर्चा अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है। श्रीमद्भागवतगीता जैसा अमूल्य रत्न भी इसी महासागर की देन है।

महाभारत की रचना महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने की है, लेकिन इसका लेखन भगवान श्रीगणेश ने किया है। इस ग्रंथ में चंद्रवंश का वर्णन है। महाभारत में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। यह महाकाव्य ‘जय’, ‘भारत’ और ‘महाभारत’ इन तीन नामों से प्रसिद्ध है।

इस ग्रंथ में कुल मिलाकर एक लाख श्लोक हैं, इसलिए इसे शतसाहस्त्री संहिता भी कहा जाता है। यह ग्रंथ स्मृति वर्ग में आता है। 

इसमें कुल 18 पर्व हैं जो इस प्रकार हैं- आदिपर्व, सभा पर्व, वनपर्व, विराट पर्व, उद्योग पर्व, भीष्म पर्व, द्रोण पर्व, कर्ण पर्व, शल्य पर्व, सौप्तिक पर्व, स्त्री पर्व, शांति पर्व, अनुशासन पर्व, आश्वमेधिक पर्व, आश्रमवासिक पर्व, मौसल पर्व, महाप्रास्थनिक पर्व व स्वर्गारोहण पर्व। आइए इस लेख में हम इन 18 पर्वों के माध्यम से जानते है सम्पूर्ण महाभारत।

1. आदिपर्व : - चंद्रवंश में शांतनु नाम के प्रतापी राजा हुए। शांतनु का विवाह देवी गंगा से हुआ। शांतनु व गंगा के पुत्र देवव्रत (भीष्म) हुए। अपने पिता की प्रसन्नता के लिए देवव्रत ने उनका विवाह सत्यवती से करवा दिया और स्वयं आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर ली। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उन्हें भीष्म कहा गया। शांतनु को सत्यवती से दो पुत्र हुए- चित्रांगद व विचित्रवीर्य। राजा शांतनु की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजा बने। चित्रांगद के बाद विचित्रवीर्य गद्दी पर बैठे। विचित्रवीर्य का विवाह अंबिका एवं अंबालिका से हुआ। अंबिका से धृतराष्ट्र तथा अंबालिका से पांडु पैदा हुए। धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे, इसलिए पांडु को राजगद्दी पर बिठाया गया।

धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से तथा पांडु का विवाह कुंती व माद्री से हुआ। धृतराष्ट्र से गांधारी को सौ पुत्र हुए। इनमें सबसे बड़ा दुर्योधन था। पांडु को कुंती से युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन तथा माद्री से नकुल व सहदेव नामक पुत्र हुए। असमय पांडु की मृत्यु होने पर धृतराष्ट्र को राजा बनाया गया। कौरव (धृतराष्ट्र के पुत्र) तथा पांडव (पांडु के पुत्र) को द्रोणाचार्य ने शस्त्र विद्या सिखाई। एक बार जब सभी राजकुमार शस्त्र विद्या का प्रदर्शन कर रहे थे, तब कर्ण (यह कुंती का सबसे बड़ा पुत्र था, जिसे कुंती ने पैदा होते ही नदी में बहा दिया था।) ने अर्जुन से प्रतिस्पर्धा करनी चाही, लेकिन सूतपुत्र होने के कारण उसे मौका नहीं दिया गया। तब दुर्योधन ने उसे अंगदेश का राजा बना दिया।

एक बार दुर्योधन ने पांडवों को समाप्त करने के उद्देश्य से लाक्षागृह का निर्माण करवाया। दुर्योधन ने षड्यंत्रपूर्वक पांडवों को वहां भेज दिया। रात के समय दुर्योधन ने लाक्षागृह में आग लगवा दी, लेकिन पांडव वहां से बच निकले। जब पांडव जंगल में आराम कर रहे थे, तब हिंडिब नामक राक्षस उन्हें खाने के लिए आया, लेकिन भीम ने उसका वध कर दिया। हिंडिब की बहन हिडिंबा भीम पर मोहित हो गई। भीम ने उसके साथ विवाह किया। हिडिंबा को भीम से घटोत्कच नामक पुत्र हुआ। 

एक बार पांडव घूमते-घूमते पांचाल देश के राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर में गए। यहां अर्जुन ने स्वयंवर जीत कर द्रौपदी का वरण किया। जब अर्जुन द्रौपदी को अपनी माता कुंती के पास ले गए तो उन्होंने बिना देखे ही कह दिया कि पांचों भाई आपस में बांट लो। तब श्रीकृष्ण ने कहने पर पांचों भाइयों ने द्रौपदी से विवाह किया।

जब भीष्म, विदुर आदि को पता चला कि पांडव जीवित हैं तो उन्हें वापस हस्तिनापुर बुलाया गया। यहां आकर पांडवों ने अपना अलग राज्य बसाया, जिसका नाम इंद्रप्रस्थ रखा। एक बार नियम भंग होने के कारण अर्जुन को 12 वर्ष के वनवास पर जाना पड़ा।

वनवास के दौरान अर्जुन ने नागकन्या उलूपी, मणिपुर की राजकुमारी चित्रांगदा व श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह किया। अर्जुन को सुभद्रा से अभिमन्यु तथा द्रौपदी से पांडवों को पांच पुत्र हुए। वनवास पूर्ण कर अर्जुन जब पुन: इंद्रप्रस्थ पहुंचे तो सभी बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन व श्रीकृष्ण के कहने पर ही मयासुर नामक दैत्य ने इंद्रप्रस्थ में एक सुंदर सभा भवन का निर्माण किया।

2. सभा पर्व : - मयासुर द्वारा निर्मित सभा भवन बहुत ही सुंदर व विचित्र था। एक बार नारद मुनि युधिष्ठिर के पास आए और उन्हें राजसूय यज्ञ करने की सलाह दी। युधिष्ठिर ने ऐसा ही किया। भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव चारों दिशाओं में गए तथा सभी राजाओं को युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया। इसके बाद युधिष्ठिर ने समारोह पूर्वक राजसूय यज्ञ किया। इस समारोह में श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का वध कर दिया। युधिष्ठिर का ऐश्वर्य देखकर दुर्योधन के मन में ईष्र्या होने लगी। दुर्योधन ने पांडवों का राज-पाठ हथियाने के उद्देश्य से उन्हें हस्तिनापुर जुआ खेलने के लिए बुलाया।

पांडव जुए में अपना राज-पाठ व धन आदि सबकुछ हार गए। इसके बाद युधिष्ठिर स्वयं के साथ अपने भाइयों व द्रौपदी को भी हार गए। भरी सभा में दु:शासन द्रौपदी को बालों से पकड़कर लाया और उसके वस्त्र खींचने लगा। किंतु श्रीकृष्ण की कृपा से द्रौपदी की लाज बच गई। द्रौपदी का अपमान देख भीम ने दु:शासन के हाथ उखाड़ कर उसका खून पीने और दुर्योधन की जंघा तोडऩे की प्रतिज्ञा की। यह देख धृतराष्ट्र डर गए और उन्होंने पांडवों को कौरवों के दासत्व से मुक्त कर दिया। इसके बाद धृतराष्ट्र ने पांडवों को उनका राज-पाठ भी लौटा दिया।

इसके बाद दुर्योधन ने पांडवों को दोबारा जुआ खेलने के लिए बुलाया। इस बार शर्त रखी कि जो जुए में हारेगा, वह अपने भाइयों के साथ तेरह वर्ष वन में बिताएगा, जिसमें अंतिम वर्ष अज्ञातवास होगा। इस बार भी दुर्योधन की ओर से शकुनि ने पासा फेंका तथा युधिष्ठिर को हरा दिया। शर्त के अनुसार पांडव तेरह वर्ष वनवास जाने के लिए विवश हुए और राज्य भी उनके हाथ से चला गया।

3. वन पर्व : - जुए की शर्त के अनुसार युधिष्ठिर को अपने भाइयों के साथ बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास पर जाना पड़ा। पांडव वन में अपना जीवन बिताने लगे। वन में ही व्यासजी पांडवों से मिले तथा अर्जुन को दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए कहा। अर्जुन ने भगवान शिव से पाशुपास्त्र तथा अन्य देवताओं से भी दिव्यास्त्र प्राप्त किए। इसके लिए अर्जुन स्वर्ग भी गए। यहां किसी बात पर क्रोधित होकर उर्वशी नामक अप्सरा ने अर्जुन को नपुंसक होने का श्राप दे दिया।

तब इंद्र ने कहा कि अज्ञातवास के समय यह श्राप तुम्हारे लिए वरदान साबित होगा। इधर युधिष्ठिर आदि पांडव तीर्थयात्रा करते हुए बदरिका आश्रम आकर रहने लगे। यहीं गंधमादन पर्वत पर भीम की भेंट हनुमानजी से हुई। हनुमानजी ने प्रसन्न होकर भीम को वरदान दिया कि युद्ध के समय वे अर्जुन के रथ की ध्वजा पर बैठकर शत्रुओं को डराएंगे।

कुछ दिनों बाद अर्जुन स्वर्ग से लौट आए। एक दिन जब द्रौपदी आश्रम में अकेली थी, तब राजा जयद्रथ (दुर्योधन की बहन दु:शला का पति) उसे बलपूर्वक उठा ले गया। पांडवों को जब पता चला तो उन्होंने उसे पकड़ लिया। जयद्रथ को दंड देने के लिए भीम ने उसका सिर मूंड दिया व पांच चोटियां रख कर छोड़ दिया।

एक बार यमराज ने पांडवों की परीक्षा ली। यमराज ने यक्ष बन कर भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव से अपने प्रश्नों के उत्तर जानने चाहे, लेकिन अभिमान वश इनमें से किसी ने भी यमराज के प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए। जिसके कारण यमराज ने इन सभी को मृतप्राय: कर दिया। अंत में युधिष्ठिर ने यमराज के सभी प्रश्नों के उत्तर दिए। प्रसन्न होकर यमराज ने सभी को पुनर्जीवित कर दिया।

4. विराट पर्व : - 12 वर्ष के वनवास के बाद पांडवों ने अज्ञातवास बिताने के लिए विराट नगर में रहने की योजना बनाई। सबसे पहले पांडवों ने अपने शस्त्र नगर के बाहर एक विशाल वृक्ष पर छिपा दिए। युधिष्ठिर राजा विराट के सभासद बन गए। भीम रसोइए के रूप में विराट नगर में रहने लगे। नकुल घोड़ों को देख-रेख करने लगे तथा सहदेव गायों की। अर्जुन बृहन्नला बनकर राजा विराट की पुत्री उत्तरा को नृत्य की शिक्षा देने लगे। द्रौपदी दासी बनकर राजा विराट की पत्नी की सेवा करने लगी।

राजा विराट का साला कीचक द्रौपदी का रूप देखकर उस पर मोहित हो गया और उसके साथ दुराचार करना चाहा। प्रतिशोध स्वरूप भीम ने षड्यंत्रपूर्वक उसका वध कर दिया। एक बार कौरवों ने विराट नगर पर हमले की योजना बनाई। पहले त्रिगर्तदेश के राजा सुशर्मा ने विराट नगर पर हमला किया। राजा विराट जब उससे युद्ध करने चला गया, उसी समय कौरवों ने भी विराट नगर पर हमला कर दिया। तब राजा विराट का पुत्र उत्तर बृहन्नला (अर्जुन) को सारथी बनाकर युद्ध करने आया।

उत्तर ने जब कौरवों की सेना देखी तो वह डर कर भागने लगा। उस समय अर्जुन ने उसे सारथी बनाया और स्वयं युद्ध किया। देखते ही देखते अर्जुन ने कौरवों को हरा दिया। तब तक पांडवों का अज्ञातवास समाप्त हो चुका था। अगले दिन सभी पांडव अपने वास्तविक स्वरूप में राजा विराट से मिले। पांडवों से मिलकर राजा विराट बहुत प्रसन्न हुए। राजा विराट ने अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से करवा दिया।

5. उद्योग पर्व : - अज्ञातवास के बाद जब पांडव अपने वास्तविक स्वरूप में आए तो श्रीकृष्ण आदि सभी ने मिलकर ये निर्णय लिया कि शर्त के अनुसार अब कौरवों का पांडवों का राज्य लौटा देना चाहिए। तब पांडवों ने अपना एक दूत हस्तिनापुर भेजा, लेकिन दुर्योधन ने राज्य देने से इनकार कर दिया। भीष्म, द्रोणाचार्य आदि ने भी दुर्योधन को समझाने का प्रयास किया, लेकिन वह नहीं माना।

तब पांडवों ने श्रीकृष्ण को अपना दूत बना कर भेजा, लेकिन दुर्योधन ने उनका भी अपमान कर दिया। जब कौरव व पांडवों में युद्ध होना तय हो गया तब पांडवों ने अपने सेनापति धृष्टद्युम्न (द्रौपदी का भाई) को बनाया। दुर्योधन ने अपना सेनापति पितामह भीष्म को नियुक्त किया। कौरव व पांडवों की सेनाएं कुरुक्षेत्र में आ गईं।

भीष्म पितामह ने दुर्योधन को बताया कि पांडवों की सेना में शिखंडी नाम का जो योद्धा है वह जन्म के समय एक स्त्री था इसलिए मैं उसके साथ युद्ध नहीं करूंगा। तब भीष्म पितामह ने ये भी बताया कि शिखंडी पूर्व जन्म में अंबा नामक राजकुमारी थी, जिसे मैं बलपूर्वक हर लाया था। उसी ने बदला लेने के उद्देश्य से पुन: जन्म लिया है।

6. भीष्म पर्व : - जब युद्ध प्रारंभ होने वाला था, उस समय शत्रुओं के दल में अपने परिजनों को देखकर अर्जुन हताश हो गए। तब श्रीकृष्ण ने उसे गीता का उपदेश दिया और अपना धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। देखते-ही देखते कौरव व पांडवों में घमासान युद्ध छिड़ गया। भीष्म लगातार 9 दिनों तक पांडव सेना का संहार करते रहे।

तब श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा कि भीष्म की मृत्यु असंभव है इसलिए उन्हें युद्ध से हटाने का उपाय वे स्वयं ही बता सकते हैं। पांडवों के पूछने पर भीष्म ने बताया कि शिखंडी अगर मुझसे युद्ध करने आया तो मैं उस पर शस्त्र नहीं चलाऊंगा।

दसवें दिन के युद्ध में शिखंडी पांडवों की ओर से भीष्म पितामह के सामने आकर डट गया, जिसे देखते ही भीष्म ने अपने अस्त्रों का त्याग कर दिया। श्रीकृष्ण के कहने पर शिखंडी की आड़ लेकर अर्जुन ने अपने बाणों से भीष्म को घायल कर दिया।

अत्यधिक घायल होने के कारण भीष्म अपने रथ से नीचे गिर पड़े। शरीर में धंसे तीर ही उनके लिए शय्या बन गए। जब भीष्म ने देखा कि इस समय सूर्य दक्षिणायन है तो उन्हें प्राण नहीं त्यागे और तीरों की शय्या पर ही सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करने लगे।

7. द्रोण पर्व : - भीष्म पितामह के बाद दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को अपनी सेना का सेनापति नियुक्त किया। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को जीवित पकडऩे के योजना बनाई। इसके लिए द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की और अर्जुन को युद्धभूमि से दूर ले गए। अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु चक्रव्यूह में घुस गया और वीरतापूर्वक लड़ते-लड़ते मृत्यु को प्राप्त हुआ।

तब यह बात अर्जुन को पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और उसने जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा की क्योंकि जयद्रथ ने अभिमन्यु के चक्रव्यूह में प्रवेश करने के बाद उसका मार्ग बंद कर दिया था। युद्ध के चौदहवें दिन अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करते हुए जयद्रथ का वध कर दिया। भीम का पुत्र घटोत्कच भी अपनी माया से युद्ध करते हुए कौरवों का विनाश करने लगा। जब दुर्योधन ने देखा कि यदि घटोत्कच को रोका न गया तो ये आज ही कौरव सेना को हरा देगा, तब उसने कर्ण से उसे रोकने के लिए कहा।

कर्ण ने अपनी दिव्य शक्ति, जो उसने अर्जुन के वध के लिए बचा रखी थी, का प्रहार घटोत्कच पर कर उसका वध कर दिया। युद्ध के पंद्रहवें दिन धृष्टद्युम्न ने षड्यंत्रपूर्वक द्रोणाचार्य का वध कर दिया। जब यह बात अश्वत्थामा को पता चली तो उसने नारायण अस्त्र का प्रहार किया, लेकिन श्रीकृष्ण के कारण पांडव बच गए।

8. कर्ण पर्व : - द्रोणाचार्य के बाद दुर्योधन ने कर्ण को सेनापति बनाया। दो दिनों तक कर्ण ने पराक्रमपूर्वक पांडवों की सेना का विनाश किया। सत्रहवे दिन कर्ण राजा शल्य को अपना सारथि बना कर युद्ध करने आया। कर्ण जब अर्जुन से युद्ध कर रहा था उस समय भीम कौरव सेना का नाश कर रहा था। भीम ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हुए दु:शासन के दोनों हाथ उखाड़ दिए।

यह देख कर्ण ने युधिष्ठिर को घायल कर दिया। जब यह बात अर्जुन को पता चली तो वह कर्ण से युद्ध करने आए। अर्जुन और कर्ण के बीच भयंकर युद्ध होने लगा। तभी अचानक कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धंस गया। जब कर्ण अपने रथ का पहिया जमीन से निकालने के लिए उतरे, उसी समय अर्जुन ने उनका वध कर दिया।

9. शल्य पर्व : - कर्ण की मृत्यु के बाद कृपाचार्य ने दुर्योधन को पांडवों से संधि करने के लिए समझाया, लेकिन वह नहीं माना। अगले दिन दुर्योधन ने राजा शल्य को सेनापति बनाया। राजा शल्य सेनापति बनते ही पांडवों की सेना पर टूट पड़े। यह युद्ध का 18वां दिन था। राजा शल्य ने युधिष्ठिर को बीच भयंकर युद्ध हुआ। अंत में युधिष्ठिर ने राजा शल्य का वध कर दिया।

यह देख कौरव सेना भागने लगी। उसी समय सहदेव ने शकुनि तथा उसके पुत्र उलूक का वध कर दिया। यह देख दुर्योधन रणभूमि से भाग कर दूर एक सरोवर में जाकर छिप गया। पांडवों को जब पता चला कि दुर्योधन सरोवर में छिपा है तो उन्होंने जाकर उसे युद्ध के लिए ललकारा। दुर्योधन और भीम में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में भीम ने दुर्योधन को पराजित कर दिया और मरणासन्न अवस्था में छोड़कर वहां से चले गए।

उस समय कौरवों के केवल तीन ही महारथी बचे थे-अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। संध्या के समय जब उन्हें पता चला कि दुर्योधन मरणासन्न अवस्था में सरोवर के किनारे पड़े हैं, तो वे तीनों वहां पहुंचे। दुर्योधन उन्हें देखकर अपने अपमान से क्षुब्ध होकर विलाप कर रहा था। अश्वत्थामा ने प्रतिज्ञा की कि मैं चाहे जैसे भी हो, पांडवों का वध अवश्य करूंगा। दुर्योधन ने वहीं अश्वत्थामा को सेनापति बना दिया।

10. सौप्तिक पर्व : - अश्वत्थामा, कृपाचार्य व कृतवर्मा रात के अंधेरे में पांडवों के शिविर में गए, लेकिन उन्हें ये नहीं पता था कि उस समय पांडव अपने शिविर में नहीं हैं। रात में उचित अवसर देखकर अश्वत्थामा हाथ में तलवार लेकर पांडवों के शिविर में घुस गया, उसने कृतवर्मा और कृपाचार्य से कहा कि यदि कोई शिविर से जीवित निकले तो तुम उसका वध कर देना। अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न, शिखंडी, उत्तमौजा आदि वीरों के साथ द्रौपदी के पांचों पुत्रों का भी वध कर दिया और शिविर में आग लगा दी।

जब यह बात अश्वत्थामा ने जाकर दुर्योधन को बताई तो वह उसके मन को शांति मिली और तभी उसके प्राण पखेरु उड़ गए। इस प्रकार दुर्योधन का अंत हो गया। जब पांडवों को पता चला कि अश्वत्थामा ने छल पूर्वक सोते हुए हमारे पुत्रों व परिजनों का वध कर दिया है तो उन्हें बहुत क्रोध आया। पांडव अश्वत्थामा को ढूंढने निकल पड़े। अश्वत्थामा को ढूंढते-ढूंढते पांडव महर्षि व्यास के आश्रम तक आ गए। तभी उन्हें यहां अश्वत्थामा दिखाई दिया। पांडवों को आता देख अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया।

उससे बचने के लिए अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चलाया। दोनों अस्त्रों को टकराव से सृष्टि का नाश होने लगा। तभी महर्षि वेदव्यास ने अर्जुन और अश्वत्थामा को अपने-अपने शस्त्र लौटाने के लिए कहा। अर्जुन ने ऐसा ही किया किंतु अश्वत्थामा को अस्त्र लौटाने का विद्या नहीं आती थी। तब उसने अपने अस्त्र की दिशा बदल कर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी। ताकि पांडवों के वंश का नाश हो जाए। तब श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को सदियों तक पृथ्वी पर भटकते रहने का श्राप दिया और उसके मस्तक की मणि निकाल ली।

11. स्त्री पर्व : - जब कौरवों की हार और दुर्योधन की मृत्यु के बारे में धृतराष्ट्र, गांधारी आदि को पता चला तो हस्तिनापुर के महल में शोक छा गया। युद्ध में मृत्यु को प्राप्त वीरों की पत्नियां बिलख-बिलख कर रोने लगी। विदुर तथा संजय ने राजा धृतराष्ट्र को सांत्वना दी। अपने पुत्रों का संहार देखकर धृतराष्ट्र बेहोश हो गए। तब महर्षि वेदव्यास ने आकर उन्हें समझाया और सांत्वना प्रदान की। विदुरजी के कहने पर धृतराष्ट्र, गांधारी आदि कुरुकुल की स्त्रियां कुरुक्षेत्र चली गईं।

कुरुक्षेत्र में आकर श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र को समझाया तथा पांडव भी उनसे मिलने आए। धृतराष्ट्र ने कहा कि वह भीम को गले लगाना चाहते हैं जिसने अकेले ही मेरे पुत्रों को मार दिया। श्रीकृष्ण ने समझ लिया कि धृतराष्ट्र के मन में भीम के प्रति द्वेष है। इसलिए उन्होंने पहले ही भीम की लोहे की मूर्ति सामने खड़ी कर दी। धृतराष्ट्र ने उस मूर्ति को हृदय से लगाया तथा इतनी ज़ोर से दबाया कि वह चूर्ण हो गई। धृतराष्ट्र भीम को मरा समझकर रोने लगे, तब श्रीकृष्ण ने कहा कि वह भीम नहीं था, भीम की मूर्ति थी। यह जानकर धृतराष्ट्र बड़े लज्जित हुए।

श्रीकृष्ण पांडवों के साथ गांधारी के पास पहुंचे। वह दुर्योधन के शव से लिपट-लिपट कर रो रही थी। गांधारी ने श्रीकृष्ण को शाप दिया कि जिस तरह तुमने हमारे वंश का नाश कराया है, उसी तरह तुम्हारा भी परिवार नष्ट हो जाएगा। धृतराष्ट्र की आज्ञा से कौरव तथा पांडव वंश के सभी मृतकों का दाह-संस्कार कराया।

12. शान्ति पर्व : - मृतकों का अंतिम संस्कार करने के बाद युधिष्ठिर आदि सभी एक महीने तक गंगा तट पर ही रुके। इसके बाद सर्वसम्मति से युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया गया।
राज्याभिषेक होने के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को अलग-अलग दायित्व दिए तथा विदुर, संजय और युयुत्सु को धृतराष्ट्र की सेवा में रहने के लिए कहा। इसके बाद श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को बाणों की शय्या पर लेटे भीष्म पितामह के पास ले गए। यहां भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर के धर्म, राजनीति, राजकार्य व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि जुड़े अनेक प्रश्नों के उत्तर दिए।

13. अनुशासन पर्व : - इस पर्व में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को न्यायपूर्वक शासन करने का उपदेश दिया। सूर्य के उत्तरायण होने के बाद भीष्म अपनी इच्छा से मृत्यु का वरण करते हैं। पांडव पूरे विधि-विधान से भीष्म पितामह का अंतिम संस्कार करते हैं पुन: हस्तिनापुर लौट आते हैं।

14. आश्वमेधिक पर्व : - पितामह भीष्म की मृत्यु से युधिष्ठिर जब बहुत व्याकुल हो गए, तब महर्षि वेदव्यास युधिष्ठिर को अश्वमेध यज्ञ करने की सलाह देते हैं। तब युधिष्ठिर कहते हैं कि इस समय यज्ञ के लिए मेरे पास पर्याप्त धन नहीं है, तब महर्षि वेदव्यास ने बताया कि सत्ययुग में राजा मरुत्त थे। उनका धन आज भी हिमालय पर रखा है, यदि तुम वह धन ले आओ तो अश्वमेध यज्ञ कर सकते हो।

युधिष्ठिर ऐसा ही करने का निर्णय करते हैं। शुभ मुहूर्त देखकर युधिष्ठिर अपने भाइयों व सेना के साथ राजा मरुत्त का धन लेने हिमालय जाते हैं। जब पांडव धन ला रहे होते हैं, उसी समय अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा एक मृत शिशु को जन्म देती है। जब यह बात श्रीकृष्ण को पता चलती है तो वह उस मृत शिशु को जीवित कर देते हैं। श्रीकृष्ण उस बालक का नाम परीक्षित रखते हैं।

जब पांडव धन लेकर लौटते हैं और उन्हें परीक्षित के जन्म का समाचार मिलता है तो वे बहुत प्रसन्न होते हैं। इसके बाद राजा युधिष्ठिर समारोहपूर्वक अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ करते हैं। युधिष्ठिर अर्जुन को यज्ञ के घोड़े का रक्षक नियुक्त करते हैं। अंत में बिना किसी रूकावट के राजा युधिष्ठिर का अश्वमेध यज्ञ पूर्ण होता है।

15. आश्रमवासिक पर्व : - लगभग 15 वर्षों तक युधिष्ठिर के साथ रहने के बाद धृतराष्ट्र के मन में वैराग्य की उत्पत्ति होती है। तब धृतराष्ट्र के साथ गांधारी, कुंती, विदुर व संजय भी वन में तप करने चले जाते हैं। वन में रहते हुए धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती घोर तप करते हैं और विदुर तथा संजय इनकी सेवा करते थे। बहुत समय बीतने पर राजा युधिष्ठिर सपरिवार धृतराष्ट्र, गांधारी व अपनी माता कुंती से मिलने आते हैं। उसी समय वहां महर्षि वेदव्यास भी आते हैं। महर्षि वेदव्यास अपने तपोबल से एक रात के लिए युद्ध में मारे गए सभी वीरों को जीवित करते हैं।

रात भर अपने परिजनों के साथ रहकर वे सभी पुन: अपने-अपने लोकों में लौट जाते हैं। कुछ दिन वन में रहकर युधिष्ठिर आदि सभी पुन: हस्तिनापुर लौट आते हैं। इस घटना के करीब दो वर्ष बाद नारद मुनि युधिष्ठिर के पास आते हैं और बताते हैं कि धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती की मृत्यु जंगल में लगी आग के कारण हो गई है। यह सुनकर पांडवों को बहुत दुख होता है और वे धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती की आत्मशांति के लिए तर्पण आदि करते हैं।

16. मौसल पर्व : --एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व आदि ऋषि द्वारिका आते हैं। वहां श्रीकृष्ण के पुत्र व अन्य युवक उनका अपमान कर देते हैं। क्रोधित होकर मुनि यदुवंशियों का नाश होने का श्राप देते हैं। एक दिन जब सभी यदुवंशी प्रभास क्षेत्र में एकत्रित होते हैं, तब वहां वे आपस में ही लड़कर मर जाते हैं। बलराम भी योगबल से अपना शरीर त्याग देते हैं। तब श्रीकृष्ण वन में एक पेड़ के नीचे बैठे होते हैं, तब एक शिकारी उनके पैर पर बाण चला देता है, जिससे श्रीकृष्ण भी शरीर त्याग कर स्वधाम चले जाते हैं।

जब यह बात अर्जुन को पता चलती है तो वह द्वारिका आते हैं और यदुवंशियों के परिवार को अपने साथ हस्तिनापुर ले जाते हैं। मार्ग में उन पर लुटेरे हमला कर देते हैं और बहुत सा धन व स्त्रियों को अपने साथ ले जाते हैं। यह देखकर अर्जुन बहुत लज्जित होते हैं। जब अर्जुन ये बात जाकर महर्षि वेदव्यास को बताते हैं तो वे पांडवों को परलोक यात्रा पर जाने के लिए कहते हैं।

17. महाप्रास्थानिक पर्व : --श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद पांडव भी अत्यंत उदासीन रहने लगे तथा उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने हिमालय की यात्रा करने का निश्चय किया। अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राजगद्दी सौंपकर युधिष्ठिर अपने चारों भाइयों और द्रौपदी के साथ चले गए तथा हिमालय पहुंचे। उनके साथ एक कुत्ता भी था। कुछ दूर चलने पर द्रौपदी गिर पड़ी। इसके बाद नकुल, सहदेव, अर्जुन व भीम भी गिर गए। युधिष्ठिर तथा वह कुत्ता आगे बढ़ते रहे।

युधिष्ठिर थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि स्वयं देवराज इंद्र अपने रथ पर सवार होकर युधिष्ठिर को सशरीर स्वर्ग ले जाने आए। तब युधिष्ठिर ने कहा कि यह कुत्ता भी मेरे साथ यहां तक आया है। इसलिए यह भी मेरे साथ स्वर्ग जाएगा। देवराज इंद्र कुत्ते को अपने साथ ले जाने को तैयार नहीं हुए तो युधिष्ठिर ने भी स्वर्ग जाने से इनकार कर दिया। युधिष्ठिर को अपने धर्म में स्थित देख वह यमराज अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए (कुत्ते के रूप में यमराज ही युधिष्ठिर के साथ थे)। इस प्रकार देवराज इंद्र युधिष्ठिर को सशरीर स्वर्ग ले गए।

18. स्वर्गारोहण पर्व : -  देवराज इंद्र युधिष्ठिर को स्वर्ग ले गए, तब वहां उन्हें दुर्योधन तो दिखाई दिया, लेकिन अपने भाई नजर नहीं आए। तब युधिष्ठिर ने इंद्र से कहा कि मैं वहीं जाना चाहता हूं, जहां मेरे भाई हैं। तब इंद्र ने उन्हें एक बहुत ही दुर्गम स्थान पर भेज दिया। वहां जाकर युधिष्ठिर ने देखा कि भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव व द्रौपदी वहां नरक में हैं तो उन्होंने भी उसी स्थान पर रहने का निश्चय किया। तभी वहां देवराज इंद्र आते हैं और बताते हैं कि तुमने अश्वत्थामा के मरने की बात कहकर छल से द्रोणाचार्य को उनके पुत्र की मृत्यु का विश्वास दिलाया था।

इसी के परिणाम स्वरूप तुम्हें भी छल से ही कुछ देर नरक देखना पड़ा। इसके बाद युधिष्ठिर देवराज इंद्र के कहने पर गंगा नदी में स्नान कर, अपना शरीर त्यागते हैं और इसके बाद उस स्थान पर जाते हैं, जहां उनके चारों भाई, कर्ण, भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रौपदी आदि आनंदपूर्वक विराजमान थे (वह भगवान का परमधाम था)। युधिष्ठिर को वहां भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं। इस प्रकार महाभारत कथा का अंत होता है।
         
                  आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

भगवान शब्द की परिभाषा क्या है ?

 
भगवान  शब्द की परिभाषा क्या है ? 

इसे जानने के लिए हमें उस शब्द पर विचार धारा करना है,उसमें प्रकृति और प्रत्यय रूप 2 शब्द हैं–भग + वान् ,भग का अर्थ विष्णु पुराण ,६/५/७४ में बताया गया हैं:

“ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।।”

अर्थात सम्पूर्ण ऐश्वर्य , वीर्य ( जगत् को धारण करने की शक्ति विशेष ) , यश ,श्री ,सारा ज्ञान , और परिपूर्ण वैराग्य के समुच्चय को भग कहते हैं. इस तरह से भगवान शब्द से तात्पर्य हुआ उक्त छह गुणवाला, और कई शब्दों में ये6 गुण जिसमे हमेशा रहते हैं, उन्हें भगवान कहते हैं,

भगोस्ति अस्मिन् इति भगवान्,

यहाँ भग शब्द से मतुप् प्रत्यय नित्य सम्बन्ध बतलाने के लिए हुआ है .अथवा पूर्वोक्त 6 गुण जिसमे हमेशा रहते हैं, उन्हें भगवान् कहा जाता है मतुप् प्रत्यय नित्य योग (सम्बन्ध) बतलाने के लिए होता है – यह तथ्य वैयाकरण अच्छी तरह  से जानते है—

यदि भगवान शब्द को अक्षरश:  सन्धि विच्छेद करे तो: भ्+अ+ग्+अ+व्+आ+न्+अ

भ धोतक हैं भूमि तत्व का, अ से अग्नि तत्व सिद्द होता है. ग से गगन का भाव मानना चाहिये. वायू तत्व का उद्घोषक है वा (व्+आ) तथा न से नीर तत्व की सिद्दी माननी चाहिये. ऐसे पंचभूत सिद्द होते है. यानि कि यह पंच महाभोतिक शक्तिया ही भगवान है जो चेतना (शिव) से संयुक्त होने पर दृश्यमान होती हैं.

भगवान शब्द की अन्यत्र भी व्यांख्याये प्राप्त होती रहती  है जो सन्दर्भार्थ उल्लेखनीय हैं:

यही भगवान् उपनिषदों में ब्रह्म शब्द से अभिहित किये जाते हैं और यही सभी कारणों के कारण होते है। किन्तु इनका कारण कोई नही। ये सम्पूर्ण जगत या अनंतानंत ब्रह्माण्ड के कारण परब्रह्म कहे जाते है । इन्ही के लिये वस्तुतः भगवान् शब्द का प्रयोग होता है—

“शुद्धे महाविभूत्याख्ये परे ब्रह्मणि शब्द्यते । मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे ।।” – विष्णुपुराण ६/५/७२
यह भगवान् जैसा महान शब्द केवल परब्रह्म परमात्मा के लिए ही प्रयुक्त होता है ,अन्य के लिए नही

“एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति । परमब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ।।”

इन परब्रह्म में ही यह भगवान् शब्द अपनी परिभाषा के अनुसार उनकी सर्वश्रेष्ठता और छहों गुणों को व्यक्त करता हुआ अभिधा शक्त्या प्रयुक्त होता है,लक्षणया नहीं । और अन्यत्र जैसे–भगवान् पाणिनि , भगवान् भाष्यकार आदि ।

इसी तथ्य का उद्घाटन विष्णु पुराण में किया गया है—
“तत्र पूज्यपदार्थोक्तिपरिभाषासमन्वितः । शब्दोयं नोपचारेण त्वन्यत्र ह्युपचारतः ।।”–६/५/७७,

ओर ये भगवान् अनेक गुण वाले हैं –ऐसा वर्णन भगवती श्रुति भी डिमडिम घोष से कर रही हैं–
“परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलाक्रिया च”—श्वेताश्वतरोपनिषद , ६/८,

इन्हें जहाँ निर्गुण कहा गया है –निर्गुणं , निरञ्जनम् आदि,
उसका तात्पर्य इतना ही है कि भगवान् में प्रकृति के कोई गुण नहीं हैं । अर्थात सगुण श्रुतियों का अपमान होगा।

जो सर्वज्ञ –सभी वस्तुओं का ज्ञाता, तथा सभी वस्तुओं के आतंरिक रहस्यों का वेत्ता है । इसलिए वे प्रकृति –माया के गुणों से रहित होने के कारण निर्गुण और स्वाभाविक ज्ञान ,बल , क्रिया ,वात्सल्य ,कृपा ,करुणा आदि अनंत गुणों के आश्रय होने से सगुण भी हैं।

ऐसे भगवान् को ही परमात्मा परब्रह्म ,श्रीराम ,कृष्ण, नारायण,शि ,दुर्गा, सरस्वती आदि भिन्न भिन्न नामों से पुकारे जाते है । इसीलिये वेद वाक्य है कि ” एक सत्य तत्त्व भगवान् को विद्वान अनेक प्रकार से कहते हैं–
“एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति .”

ऐसे भगवान् की भक्ति करने वाले को भक्त कहते है । जैसे भक्त भगवान के दर्शन के लिए वयाकुल रहता है और उनका दर्शन करने भी जाता है । वैसे ही भगवान् भी भक्त के दर्शन हेतु जाते हैं | भगवान ध्रुव जी के दर्शन की इच्छा से मधुवन गए थे–
“मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः “–भागवत पुराण ,४/९/१

जिस तरह  भक्त भगवान की भक्ति करता है वैसे ही भगवान् भी भक्तों की भक्ति करते हैं  इसीलिये उन्हे भक्तों की भक्ति करने वाला कहा गया है।

                  आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

भगवान परशुराम की पौराणिक कथा!

 
भगवान परशुराम की पौराणिक कथा!

*मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥

पूर्वकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। 

राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्वसुर  को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। 

सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। 

इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। 

इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योग शक्ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा।

 इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। 

समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। 

रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्*वानस और परशुराम। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। 

आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। 

शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

श्रीमद्भागवत में दृष्टान्त है कि गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा तट पर जल लेने गई रेणुका आसक्त हो गयी और कुछ देर तक वहीं रुक गयीं। हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के दण्डस्वरूप सभी पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी।

रुक्मवान, सुखेण, वसु और विश्*वानस ने माता के मोहवश अपने पिता की आज्ञा नहीं मानी, अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेद एवं उन्हें बचाने हेतु आगे आये अपने समस्त भाइयों का वध कर डाला।

 उनके इस कार्य से प्रसन्न जमदग्नि ने जब उनसे वर माँगने का आग्रह किया इस पर परशुराम बोले कि हे पिताजी! मेरी माता जीवित हो जाये और उन्हें अपने मरने की घटना का स्मरण न रहे। 

परशुराम जी ने यह वर भी माँगा कि मेरे अन्य चारों भाई भी पुनः चेतन हो जायें और मैं युद्ध में किसी से परास्त न होता हुआ दीर्घजीवी रहूँ। जमदग्नि जी ने परशुराम को उनके माँगे वर दे दिये।

कथानक है कि इस घटना के कुछ काल पश्चात एक दिन संयोगवश वन में आखेट करते हैहय वंशाधिपति कार्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) जमदग्नि ऋषि के आश्रम में जा पहुँचा। सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त।

 महिष्मन्त ने ही नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को सम्हाला। 

भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ॠषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर सम्बन्ध थे। कृतवीर्य के पुत्र का नाम भी अर्जुन था। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण ही उन्हें कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता है। 

कार्त्तवीर्यार्जुन ने अपनी अराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्त्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन या सहस्रबाहु कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था।

जमदग्निमुनि ने देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल का अद्भुत आतिथ्य सत्कार किया। पर ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्त्रार्जुन की मति मारी गई थी।  कामधेनु गौ की विशेषतायें देखकर लोभवश जमदग्नि से कामधेनु गौ की माँग की, किन्तु जमदग्नि ने उन्हें कामधेनु गौ को देना स्वीकार नहीं किया।

 इस पर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने क्रोध में आकर जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर अपने साथ ले जाने लगा। किन्तु कामधेनु गौ तत्काल कार्त्तवीर्य अर्जुन के हाथ से छूट कर स्वर्ग चली गई और कार्त्तवीर्य अर्जुन को बिना कामधेनु गौ के वापस लौटना पड़ा। 

इस घटना के समय वहाँ पर परशुराम उपस्थित नहीं थे। जब परशुराम वहाँ आये तो उनकी माता विलाप कर रही थीं। अपने पिता के आश्रम की दुर्दशा देखकर और अपनी माता के दुःख भरे विलाप सुन कर,कुपित परशुराम ने कार्त्तवीर्य अर्जुन से युद्ध करके  फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया। 

तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं।

 इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया-"मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूँगा"। कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। 

इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक 21 बार भयानक लम्बी चली लड़ाई चली, अहंकारी और दुष्ट प्रकृति हैहयवंशी क्षत्रियों से 21 बार युद्ध करना पड़ा था। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका दिया।

इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दि,केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर तप करने हेतु आश्रम बनाकर रहने लगे।

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