Wednesday, May 6, 2020

डाक घर (मत्तगयंद सवैया)


डाक लिए वह आवत देखत
नाच उठी मन मोद छुपाती,
श्याम लिखे इक आखर सुंदर
बाँच रही मन ही मन पाती।
प्रीति भरी हिय माहि निहारत
आँचल ओट रही मदमाती,
पीय हमें लिख भेजत पावन
प्रेम पियूष सुहावन थाती।।

डाक लिए वह डाकत-कूदत
धावत-आवत गेह किनारे,
बोलत बोल सुनावत सुंदर
द्वार रहा वह सोह सुआ रे।
पीय लिखे खत पाठ करो अब
नेह दिखावत प्राण पिया रे,
आकुल खोल रही खत आपन
प्राण पिया लखु तोहि पुकारे।

         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

जागरूक (कुण्डलिनी)


जागो जागो राष्ट्र के,मेरे वीर जवान,
जागरूक रहना सदा,समय करे आह्वान।
समय करे आह्वान,नींद की इच्छा त्यागो,
हर सीमा पर आज, सदा चौकन्ने जागो।

नेता गण सोये बहुत,इस क्षण लें अब जाग,
नींद निगोड़ी चाहती, छोड़ें वह अनुराग।
छोडें वह अनुराग,कहें सारे अध्येता,
सिर पर चढ़ता सूर्य,भला क्यों सोये नेता।

सोया सो खोया कहें,अपने जन जो ज्येष्ठ,
जिसे कहावत यह लगे,सचमुच में ही श्रेष्ठ।
सचमुच में ही श्रेष्ठ,वही तन-मन का धोया,
और सभी मृत देह,जानिए जो है सोया।

पानी अपने देश का,उससे रक्षित जान,
जागरूक रहना सदा,जिसमें उपजा ज्ञान।
जिसमें उपजा ज्ञान,उसी से धरती धानी,
बहे उसी में रक्त,और गंगा का पानी।

माथा उनको अब झुका,सोये हैं जो मस्त,
जिनके जीवन का अहो,सूर्य हो गया अस्त।
सूर्य हो गया अस्त,शून्य है उनकी गाथा,
उपजे हाय कपूत,झुका यह जिनसे माथा।

होता क्यों ब्यभिचार है,प्रश्न बड़ा गम्भीर,
इसका क्या उपचार है,कहो दाँव आखीर।
कहो दाँव आखीर,बहन का धीरज खोता,
जागरूक यजमान,बोल दें कितने होता।

         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

पाखंड (कुण्डलिया)


पंडित-मुल्ला-पादरी,नेता के पाखंड,
क्यों समाज को भोगना,पड़ता इसका दंड।
पड़ता इसका दंड,विवेकी उत्तर दीजे,
समाधान की माँग,करे जो आदर कीजे।
खेमेश्वर हठ त्याग,ढोंग को करिए खंडित,
फिर-फिर यह आह्वान,सुनें ज्ञानी जन पंडित।

ज्ञानी अब भी जगत में,जिनमें जगे विवेक,
जिनसे शास्वत है जगत,मूल धर्म का नेक।
मूल धर्म का नेक,बहुत गहरे है साधो,
दया दृष्टि रघुनाथ,सगुन केवल आराधो।
करें वही शत खंड,मरे पाखंडी नानी,
सदा यही संदेश,वेद देते हैं ज्ञानी।

जगती जागे रात-दिन,सदा रहे पर मौन,
संतति भू के जन सभी,उत्तम-मध्यम कौन।
उत्तम-मध्यम कौन,और निकृष्ट बताओ,
हो प्रमाण जो श्रेष्ठ,वही पन्ने अब लाओ।
ढोंगी या उत्कृष्ट,लोग को कैसी लगती,
प्राण प्रिया यह विष्णु,प्यार करती नित जगती।

अच्छा तुमको जो लगे,नेक वही ब्योहार,
इस धरती पर नित्य हो,बस वैसा त्योहार।
बस वैसा त्योहार,पर्व हो खुल्लम खुल्ला,
दो दिन का संसार,फुटे पानी का बुल्ला।
खेमेश्वर भू-गाय,और हम इसके बच्छा,
करती है यह प्यार,भला इससे क्या अच्छा।

कोई पाखंडी नहीं,सीधा-सरल विचार,
जीवन में जो रिक्तता,हो पूरित उद्गार।
हो पूरित उद्गार,यही सब की अभिलाषा,
पाखंडी जो लोग,बूझिए उनकी भाषा।
दूध दुहें जब गाय,लगाते सब जन नोई,
खंड-खंड पाखंड,करे ज्ञानी ही कोई।

मारे-मारे शब्द हैं,पाखंडी के जोर,
शब्दों की इज्जत गयी,हुआ चतुर्दिक शोर।
हुआ चतुर्दिक शोर,सत्य पर डंडे बरसे,
खुला अर्थ का द्वार,निकल भागे ये घर से।
न्याय-दया अनिकेत,हुए हैं हरि के प्यारे,
खेमेश्वर ये घूम, रहे नित मारे-मारे।

         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

माटी(मुक्तक)


माटी जननी जगत की,करना इसे प्रणाम,
माटी के कोखी हुए,कृष्ण और श्री राम।
माटी के आधार पर,मुक्तक रचना नित्य,
सृजन विवेकी जन करें,हरि के सुंदर धाम।

महिमा माटी की बड़ी,जीवन हुआ ललाम,
माटी के आधार पर,सृजित तीर्थ हैं धाम।
उपजे फिर उनन्त बने,रचना विविध प्रकार,
माटी के ही गर्भ में,फिर पाये विश्राम।

माटी रचना रुचिर है,लोचन लालच नित्य,
कविर्मनीषी लिख रहे,मंगलमय साहित्य।
धरती के हर छंद में,केवल माटी जान,
माटी को करता नमन, किरणों से आदित्य।

माटी और कुम्हार का, शास्वत है सम्बंध,
निज सिंहासन बैठ कर,रचता नित्य प्रबंध।
मायामय मूरख हृदय,सदा रहे अनभिज्ञ,
निज लोचन रहते हुए,फिर भी जैसे अंध।

चर्म देह जिसको कहें,माटी का ही जान,
आकर्षण में दृग बँधे,ज्ञान कहें अज्ञान।
पंडित-ज्ञानी-संत सब,फँसे मृत्तिका जाल,
माटी से माटी मिले,यही पतन-उत्थान।

जल से जल जाकर मिले,मिले तेज से तेज,
यह सिद्धान्त अपेल है,राखें इसे सहेज।
खेमेश्वर मत चौंकिए,देख यहाँ का खेल,
पतन और उत्थान का,यह माटी ही सेज।

         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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राष्ट्र भाषा (घनाक्षरी छंद)


हिन्दी का विशाल पाट,दूर-दूर लौ दिखात,
बाढ़ की विभीषिका सी, रंग मोद लासिनी,
घाट-घाट बाट-बाट,तीरथ प्रयाग राज,
संतन सुसंतन के,मेल सो सुहासिनी।
हिम से निकषि धाइ,सागर से मिलि जात
अंक में लपेट निज,प्यार की प्रकाशिनी,
एहिं भाँति हिंदी आज,बनी माथ बिंदी सी है
भारत की भाषन सों,बनी मृदु भाषिनी।

         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

खिले थे गुल चाहत की तुम्हें याद हो के न हो।1।

मिले थे हमतुम कभी  तुम्हें  याद  हो के न हो!
खिले थे गुल चाहत की तुम्हें याद हो के न हो।1।

बिखरी बिखरी थी उल्फत का रंग फजाओं में!
मिलने आये थे तभी  तुम्हें  याद हो के न हो।2।

लगी थी आग इसकदर दोनों तरफ महब्बत का!
कसमें खाये थे सभी तुम्हें याद हो के न हो।3।

निभाये प्यार को रखना यही कहते थे सदा!
जुदा ना हों जीते जी तुम्हें याद हो के न हो।4।

तोड़कर चल दिये फिर क्यूं कस्म ए वादे तूने!
सजाये ख्वाब उल्फत की तुम्हें याद हो के न हो।5।

मिले थे हमतुम कभी  तुम्हें  याद  हो के न हो!
खिले थे गुल चाहत की तुम्हें याद हो के न हो।1।


         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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बहक जाऊं न कहीं आपकी सदा लेकर!

ग़ज़ल

बहक जाऊं न कहीं आपकी सदा लेकर!
रूबरू आये हो यूँ हमनवा अदा लेकर।

मिलाकर चल कदमों को मिलाये दिल भी!
रुत सजा रह ए उल्फत का रस्मे वफ़ा लेकर।

धड़कता है धड़कन और हलचल सी मची!
जता जा चाह दर्द ए दिल का दवा लेकर।

चले आओ हसरत और खिलने से लगे!
के गुजरता जाये सफर भी वास्ता लेकर।

हमसफर यूँ हमसे मुहब्बत कीजिए फिर!
ढले आयें दिलसे दिल का राब्ता लेकर।

बहक जाऊं न कहीं आपकी सदा लेकर!
रूबरू आये हो यूँ हमनवा अदा लेकर।

         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...