Tuesday, July 7, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा -०३


🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा -०३*
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*मैया सती जी के भ्रम की शुरुआत*  02
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         कल हम सभी *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा*  के *दैनिक कथा पाठ* में *दूसरेें दिन* प्रसङ्ग  *मैया सती जी के मोह की शुरुआत* पर आधारित कथा रस के *पहले भाग  का* आनंद लिए जिसमे यह देखे कि *भगवान शंकर जी अगस्त्य जी के पास मैया सती के साथ कथा सुनने के लिए चल पड़े है ।*
अब *तीसरे दिन* इस कथा प्रसंग को आगे बढ़ाने से पहले जरा घ्यान दीजिये ।
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    *कथा का पूरा आनन्द और लाभ उठाने के लिए वक्ता और श्रोता के बीच सामंजस्य होना चाहिये ।*
            *यदि वक्ता सोचे कि ये श्रोता मुझसे नीचे बैठे होने के कारण मुझसे छोटे हैं ,तो उसमे अभिमान आये बिना नही रहेगा । इसीप्रकार यदि श्रोता सोचे कि वक्ता ऊपर बैठा है तो क्या हुआ ,मैं तो उससे अधिक बुद्धिमान हूँ तो वह भी कभी सामनेवाले की बात को आदर पूर्वक नही सुन सकेगा । श्रोता के मन में यह आना चाहिए कि जो वक्ता के रूप में हमारे सामने विराजमान हैं, वह पूजनीय है, वंदनीय है, उनका ज्ञान हमारी अपेक्षा अधिक है और मैं उनसे ज्ञान ग्रहण करने के लिए आया हूं। वैसे ही वक्ता के मन में भी यह वृति आनी चाहिए कि यह तो भगवान की कृपा है जो उन्होंने मुझे निमित्त बनाकर श्रेष्ठ से श्रेष्ठ लोगों के समक्ष कथा कहने का अवसर दिया है । जो सुनने के लिए आए हैं ,ओ छोटे नहीं हैं अपितु उन्होंने हमें यह अवसर दिया है जिससे हम अपनी वाणी को पवित्र कर सकें।*
 श्रीमानस में वक्ता और श्रोता का ऐसा सामंजस्य काग भुसुंडि जी और गरुड़ जी में मिलता है।
*जब वक्ता और श्रोता में विनम्रता और कृतज्ञता का सामंजस्य होता है तो कथा रस का प्रवाह ठीक चलता है । शंकर जी और अगस्त्य जी के साथ तो यह प्रवाह ठीक चलता रहा पर सती जी के साथ यह ठीक नहीं चल पाया।*
अब कथा प्रसङ्ग को आगे बढ़ाते हैं ----😊
*भोले बाबा सती जी के साथ मुनि के आश्रम पहुँच गए। यहाँ मुनि उन दोनों को देखते ही क्या किये,* 
तो बाबा जी लिखते हैं -
*संग सती जगजननि भवानी । पूजे ऋषि अखिलेश्वर जानी।।*
पर इस पूजन का प्रभाव *शंकर जी और सती जी के अंतः कारणों पर अलग अलग प्रकार से पड़ता है।* शंकर जी ने जब देखा कि अगस्त्य जी मेरी पूजा कर रहे हैं तो उन्होंने तो हांथ जोड़ लिया और कहने लगे - *महाराज अन्य वक्ता तो वाणी द्वारा उपदेश देते होंगे पर आपका तो पूरा जीवन ही उपदेश है।वक्ता यही तो कहता है कि अभिमान छोड़ देना चाहिए, पर आपने तो यह स्वयं अपनी क्रिया से दिखा दिया ।* मैं तो सुनने आया हूँ,अतः कहाँ मुझे आपका पूजन करना चाहिए था ,उल्टे आपने मेरा पूजन किया । इसी से लगता है कि आप कितने विनम्र हैं, कितने निराभिमानी हैं। *आपका जीवन ही कथा का रूप है।* पर सती जी ने ऋषि के पूजन का ऐसा अर्थ नही लिया । 
ध्यान दीजिए *जीवन मे घटने वाली घटनाओं का सही अर्थ लेना भी एक कला है जो लोग सही अर्थ लेना जानते हैं वे सुखी होते हैं और जो नही जानते वे सती जी के समान कष्ट का भोग करते हैं।* 
सती जी ने सोचा कि *जब ऋषि मेरा पूजन कर रहे हैं तो इससे यही सिद्ध हुआ कि वे मुझसे कम बुद्धिमान हैं और जब मुझसे कम बुद्धिमान हैं तब मैं इनसे क्या सुनु ? पूजन का ऐसा उल्टा प्रभाव सती जी पर पड़ गया कि उनके अन्तःकरण में अवांछनीय संस्कार जाग्रत हो गए ।*
💐🌷💐🙏🏼💐🙏🏼
⏯ *जारी रहेगा यह प्रसंग* ⏯
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Monday, July 6, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा* ०२


🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा*  ०२
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*संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।।* से आगे का प्रसङ्ग
*मैया सती जी के भ्रम की शुरुआत*  01
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      भगवान शंकर कथा सुनने के लिए चले । *यह विश्वास का स्वरूप है।बुद्धिमता का लक्षण है देखना और विश्वास का सुनना ।ईश्वर ने हमारे जीवन मे इन दोनों का सामंजस्य किया है।*
ध्यान दीजिए *दण्डकारण्य में श्री भगवान भी विजमान हैं और अगस्त्य जी भी ।  पर जैसा कि मानस से यह विदित है कि पहले अगस्त्यमुनि के पास शिव जी जाते हैं ,बाद में भगवान का प्रसंग आया है । बड़ा ही सुंदर सीख है इस प्रसंग से वह यह कि पहले भक्त के पास जाना चाहिये । पहले सुनना चाहिय बाद में भगवान को देखना ।*
 इसका अभिप्राय यह कि *संसार की वस्तुओ में तो दृष्टि की प्रमुखता है,पर जो ईश्वर का विषय है वह मुखयतः श्रुति का विषय है। संसार की वस्तुओं को तो आंखे देखकर प्रमाणित करेंगी ,लेकिन जो प्रत्यक्ष रूप से नही दिखाई देता उसके विषय मे यदि केवल दृष्टि पर ही आग्रह करते रहें तो भ्रमित हो जाएंगे ।इसलिए हमारे यहाँ ईश्वर के संदर्भ में परम प्रमाण श्रुति का मानते हैं। श्रुति का अर्थ वेद भी है और कान भी ।*

*शिव जी कथा सुनने चलने लगे तो उनके साथ सती जी भी साथ हो गयी। इस बात पर गोस्वामी जी खुश बहुत हुए ,उन्होंने शंकर जी को तो कुछ ही विशेषण इस प्रसंग पर दिए पर सतीजी के लिए विशेषणो की भरमार कर दिए।* शंकर जी के लिए तो केवल इतना ही कहा -
*एक बार त्रेता जुग माहीं।संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।।*
ये शम्भू हैं ।पर जब सती जी की बारी आई तो  
*संग सती जगजननि भवानी।*
ये सती हैं,जगजननि हैं,भवानी हैं। 
ध्यान दीजिए *ये विशेषण किसी भी नारी जीवन की परिपूर्णता की ओर इंगित करते हैं। नारी जीवन की परिपूर्णता उसके तीनो रूपों के सामंजस्य में समाहित है -एक ओर तो वह पुत्री है,दूसरी ओर पत्नी और तीसरी ओर मां। पुत्री के रूप में वह समर्पण की प्रेरणा देती है,तो पत्नी के रूप में स्नेह की और माता रूप में वात्सल्यमयी सेवा की। स्नेह,सेवा और समर्पण की मंजुल त्रिवेणी में नारी जीवन की परिपूर्णता और सार्थकता है। इस लिए ही बाबा ने कहा कि दक्ष पुत्री के रूप में सती हैं,शंकर जी की पत्नी रूप में भवानी और सृष्टि के माता के नाते वात्सल्यमयी जगजननि ।उनके तीनो रूपों में सुंदर सामंजस्य है।* 
ऐसी सती शंकर जी के पीछे पीछे भगवत कथा सुनने के लिए दण्डकारण्य आती हैं।
     🙏🏼💐🙏🏼
जारी रहेगा यह प्रसङ्ग
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*श्रीरामकथा से संबंधित इस प्रसङ्ग पर या अन्य किसी प्रसङ्ग पर शंका समाधान या चर्चा हेतु व्हाट्सएप के माध्यम से सम्पर्क करें - 8120032834* 
 आपकी जिज्ञासा का यथा संभव सटीक और प्रामाणिक आर्ष सिद्धान्तों पर आधारित समाधान प्रेषित किया जाएगा।
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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा* १


🕉 📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा* १
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**एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।।*
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 प्रसङ्ग बाल कांड ,प्रथम सोपान श्रीरामचरितमानस जी का है-
*एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाही।।*
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एक बार त्रेता युग मे शिव जी कुंभज (अगस्त्य) ऋषी जी के पास गए।
यहाँ यह भाव है कि *आना जाना तो लगा रहता था ,पर यह प्रसंग एक बार किसी उस त्रेता का है जिसमे परब्रह्म श्रीरामजी का अवतार हुआ था।*
*त्रेता जुग* में सभी मानस कथा वाचक अपने अपने भाव से अपने तर्कों द्वारा अपने मत को पुष्ट करते हैं।  कोई प्रथम कल्प कहते हैं तो कोई चौबीसवाँ तो कोई सत्ताईसवाँ और कोई अठाइसवां ।
*जो भी हो परन्तु यह निश्चय है कि यह किसी उस कल्प के त्रेता युग की बात है,जिसमे परात्पर परब्रह्म का प्रादुर्भाव हुआ कि जो मनु जी के सामने प्रकट हुए थे और जिनके स्वरुप का वर्णन उस प्रसंग में स्वयं मानसकार ने किया है।* यथा -
*अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥*
*जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥*
तो अब हम सभी कथा प्रसंग में आगे बढ़ते हैं जो इसप्रकार प्रारम्भ होती है कि 
*भोले शंकर कैलास पर्वत पर हैं ।एक दिन वो निर्णय किये कि दण्डकारण्य में जाएंगे । यह एक विलक्षण चुनाव है क्यो कैलास तो सर्वोच्च चोटी है और दण्डकारण्य नीचे अवस्थित है । भगवान शंकर के मन मे यह बात है कि जब हमारे भगवान नीचे उतरे हुए हैं तब हमें भी नीचे उतारना चाहिय । क्यो उतारना है तो कथा सुनने के लिए ।*
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यहाँ बहुत ही ध्यान दीजिये और याद रखिये , *कथा सुनने के लिए आपको, हमको ऊपर से नीचे उतारना ही पड़ेगा।आप या हम चाहे जिस पद पर हों, चाहे जितनी  सामर्थ्य हो ,जब तक ऊपर से नीचे उतरने की कला नही जानेंगे तब तक कथा का लाभ नही ले पाएंगे । जैसे वक्ता को ऊपर बैठा दिया जाता है ,अब हो सकता है कि श्रोताओं में ऐसे अनगिनत व्यक्ति हों जो वक्ता से अधिक योग्य हों,पर इतना होते हुए भी जब श्रोता वक्ता को ऊपर बैठाकर स्वयं नीचे बैठता है तो इसका अभिप्राय यह है कि उसके अन्तःकरण में ज्ञान को पाने की सच्ची और तीव्र अभिलाषा है, तभी तो वह विनत भाव से नीचे बैठकर उसे पाना चाहता है।*
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यहाँ एक दूसरा संकेत भी है ।
*भगवान शंकर हिमालय पर्वत पर रहते हैं,और हिमालय वह है जो डिगाने पर भी न डिगे,न हिले,अर्थात वह अचल और अडिग है । तो,अडिग विश्वास ही हिमालय के रूप में विद्यमान हैं। ऐसे अडिग विश्वास रूप हिमालय की चोटी पर रहने वाले शिव, विश्वास के शिखर पर रहने वाले परम विश्वास के साक्षात विग्रह शिव दण्डकारण्य रूप संशय की भूमि में जा रहे हैं।अब प्रश्न उठा सकते हैं कि विश्वास संशय के तरफ क्यो जा रहे हैं तो कथा के माध्यम से संशय निवारण को जा रहे हैं, भले ही दण्डकारण्य संशय भूमि हो पर वहा अगस्त्य जी जैसे संत भी तो रहते हैं।*
अब वक्ता हैं श्रीअगस्त्य कुंभज जी , और श्रोता श्री शंकर जी । शंकर जी के लिए कहा गया है -
*चरित सिंधु गिरजा रमन वेद न पावहिं पार।*
शंकर जी साक्षात समुद्र हैं और अगस्त्य जी का तो नाम ही बड़ा अटपटा है - *घड़ा नहीं घड़े का बेटा ।* यह तो अटपटा है न कि *घरा सुनाये और समुद्र सुने ।* पर तात्पर्य है कि *समुद्र को घड़े में ला देना ही कथा है।* जैसे हम कहीं विशाल सरोवर को देखते हैं ।जल की अगधता देख हमें प्रसनता तो होती है ,उसकी सार्थकता इसमें है कि हमारी प्यास मिटे। प्यास मिटाने के लिए हम जल को किसी बर्तन में लेते हैं और पीते हैं। सरोवर में जल तो बहुत है पर पात्र में जल लेने पर ही प्यास बुझती है । *इसीप्रकार ईश्वर का चरित्र तो अनंत असीम सागर के समान है ।वह हमारे काम का तभी होता है,जब हम कथा के पात्र द्वारा उसे सीमित कर अपने अन्तःकरण में ग्रहण करते हैं। भगवत कथा असीम ईश्वर के रहस्य की ऐसा बना देती है कि जिससे सुनने वाले के अन्तःकरण में परितृप्ति हो। उसे रस का बोध हो। इस प्रकार दण्डकारण्य की भूमि में घटसंभव और समुद्र का मिलन अनोखा है।*
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 आपके शंका का यथा संभव सटीक और प्रामाणिक आर्ष सिद्धान्तों पर आधारित समाधान प्रेषित किया जाएगा।
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*सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की शुभ मंगल कामना 🏵️🌼🙏🌼🏵️*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
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श्रावण सोमवार विशेष

*श्रावण सोमवार विशेष*
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*श्रावण सोमवार का महत्त्व*
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श्रावण का सम्पूर्ण मास मनुष्यों में ही नही अपितु पशु पक्षियों में भी एक नव चेतना का संचार करता है जब प्रकृति अपने पुरे यौवन पर होती है और रिमझिम फुहारे साधारण व्यक्ति को भी कवि हृदय बना देती है। सावन में मौसम का परिवर्तन होने लगता है।प्रकृति हरियाली और फूलो से धरती का श्रुंगार देती है परन्तु धार्मिक परिदृश्य से सावन मास भगवान शिव को ही समर्पित रहता है।

मान्यता है कि शिव आराधना से इस मास में विशेष फल प्राप्त होता है। इस महीने में हमारे सभी ज्योतिर्लिंगों की विशेष पूजा,अर्चना और अनुष्ठान की बड़ी प्राचीन एवं पौराणिक परम्परा रही है। रुद्राभिषेक के साथ साथ महामृत्युंजय का पाठ तथा काल सर्प दोष निवारण की विशेष पूजा का महत्वपूर्ण समय रहता है।यह वह मास है जब कहा जाता है जो मांगोगे वही मिलेगा।भोलेनाथ सबका भला करते है।

श्रावण महीने में हर सोमवार को शिवजी का व्रत या उपवास रखा जाता है।श्रावण मास में पुरे माह भी व्रत रखा जाता है। इस महीने में प्रत्येक दिन स्कन्ध पुराण के एक अध्याय को अवश्य पढना चाहिए। यह महीना मनोकामनाओ का इच्छित फल प्रदान करने वाला माना जाता है। पुरे महीने शिव परिवार की विशेष पूजा की जाती है।

*सावन के सोमवार २०२० मे*
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इस वर्ष में ०६ जुलाई को श्रावण मास की शुरुवात सोमवार से ही होगी। इसके बाद से 
१३ जुलाई को दूसरा सोमवार, 
२० जुलाई को तीसरा सोमवार, 
२७ जुलाई को चौथा सोमवार और 
०३ अगस्त को पांचवा सोमवार पड़ेगा। सावन का अंतिम दिन भी 
०३ अगस्त को ही राखी के त्योहार पर होगा। ये सब उत्तरी भारत के पंचागों के अनुसार मान्य है 

दक्षिण भारत मे श्रावण में २१ जुलाई से शुरू होकर १९ अगस्त को समाप्त होता है ।
श्रावण सोमवर व्रत के दिन आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, गोवा, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और तमिलनाडु के लिए-

०१. जुलाई २७, २०२० सोमवार
०२. अगस्त ०३, २०२० सोमवार
०३. अगस्त १०, २०२० सोमवार
०४. अगस्त १७, २०२० सोमवार

इस मास के सोमवार के उपवास रखे जाते है। कुछ श्रद्धालु १६ सोमवार का व्रत रखते है। श्रावण मास में मंगलवार के व्रत को मंगला गौरी व्रत कहा जाता है। जिन कन्याओं के विवाह में विलम्ब हो रहा है उन्हें सावन में मंगला गौरी का व्रत रखना लाभदायक रहता है।सावन की महीने में सावन शिवरात्रि और हरियाली अमावस का भी अपना अलग अलग महत्व है।

*श्रावण की विशेषता*
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सावन के सोमवार  पर रखे गये व्रतो की महिमा अपरम्पार है।जब सती ने अपने पिता दक्ष के निवास पर शरीर त्याग दिया था उससे पूर्व महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। पार्वती ने सावन के महीने में ही निराहार रहकर कठोर तप किया था और भगवान शंकर को पा लिया था। इसलिए यह मास विशेष हो गया और सारा वातावरण शिवमय हो गया।

इस अवधि में विवाह योग्य लडकियाँ इच्छित वर पाने के लिए सावन के सोमवारों पर व्रत रखती है इसमें भगवान शंकर के अलावा शिव परिवार अर्थात माता पार्वती , कार्तिकेय , नन्दी और गणेश जी की भी पूजा की जाती है। सोमवार को उपवास रखना श्रेष्ट माना जाता है परन्तु जो नही रख सकते है वे सूर्यास्त के बाद एक समय भोजन ग्रहण कर सकते है।

*श्रावण मास में शिव उपासना विधि*
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श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र होने से मास का नाम श्रावण हुआ और वैसे तो प्रतिदिन ही भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए।

लेकिन श्रावण मास में भगवान शिव के कैलाश में आगमन के कारण व श्रावण मास भगवान शिव को प्रिय होने से की गई समस्त आराधना शीघ्र फलदाई होती है।

पद्म पुराण के पाताल खंड के अष्टम अध्याय में ज्योतिर्लिंगों के बारे में कहा गया है कि जो मनुष्य इन द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करता है, उनकी समस्त कामनाओं की इच्छा पूर्ति होती है। स्वर्ग और मोक्ष का वैभव जिनकी कृपा से प्राप्त होता है।

शिव के त्रिशूल की एक नोक पर काशी विश्वनाथ की नगरी का भार है। पुराणों में ऐसा वर्णित है कि प्रलय आने पर भी काशी को किसी प्रकार की क्षति नहीं होगी।

भारत में शिव संबंधी अनेक पर्व तथा उत्सव मनाए जाते हैं। उनमें श्रावण मास भी अपना विशेष महत्व रखता है। संपूर्ण महीने में चार सोमवार, एक प्रदोष तथा एक शिवरात्रि, ये योग एकसाथ श्रावण महीने में मिलते हैं। इसलिए श्रावण का महीना अधिक फल देने वाला होता है। इस मास के प्रत्येक सोमवार को शिवलिंग पर शिवामूठ च़ढ़ाई जाती है। 

*वह क्रमशः इस प्रकार है*
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प्रथम सोमवार को कच्चे चावल एक मुट्ठी।

दूसरे सोमवार को सफेद तिल्ली एक मुट्ठी।

तीसरे सोमवार को  ख़ड़े मूँग एक मुट्ठी।

चौथे सोमवार को  जौ एक मुट्ठी 
और 
यदि पाँचवाँ सोमवार आए तो एक मुट्ठी सत्तू च़ढ़ाया जाता है।

महिलाएँ श्रावण मास में विशेष पूजा-अर्चना एवं व्रत अपने पति की लंबी आयु के लिए करती हैं। सभी व्रतों में सोलह सोमवार का व्रत श्रेष्ठ है। इस व्रत को वैशाख, श्रावण, कार्तिक और माघ मास में किसी भी सोमवार को प्रारंभ किया जा सकता है। इस व्रत की समाप्ति सत्रहवें सोमवार को सोलह दम्पति (जो़ड़ों) को भोजन एवं किसी वस्तु का दान देकर उद्यापन किया जाता है।
शिव की पूजा में बिल्वपत्र अधिक महत्व रखता है। शिव द्वारा विषपान करने के कारण शिव के मस्तक पर जल की धारा से जलाभिषेक शिव भक्तों द्वारा किया जाता है। शिव भोलेनाथ ने गंगा को शिरोशार्य किया है।
श्रावण मासमें आशुतोष भगवान्‌ शंकरकी पूजाका विशेष महत्व है। जो प्रतिदिन पूजन न कर सकें उन्हें सोमवारको शिवपूजा अवश्य करनी चाहिये और व्रत रखना चाहिये। सोमवार भगवान्‌ शंकरका प्रिय दिन है, अत: सोमवारको शिवाराधन करना चाहिये।
श्रावणमें पार्थिव शिवपूजाका विशेष महत्व है। अत: प्रतिदिन अथवा प्रति सोमवार तथा प्रदोषको शिवपूजा या पार्थिव शिवपूजा अवश्य करनी चाहिये।

सोमवार के व्रत के दिन प्रातःकाल ही स्नान ध्यान के उपरांत मंदिर देवालय या घर पर श्री गणेश जी की पूजा के साथ शिव-पार्वती और नंदी की पूजा की जाती है। इस दिन प्रसाद के रूप में जल , दूध , दही , शहद , घी , चीनी , जने‌ऊ , चंदन , रोली , बेल पत्र , भांग , धतूरा , धूप , दीप और दक्षिणा के साथ ही नंदी के लि‌ए चारा या आटे की पिन्नी बनाकर भगवान पशुपतिनाथ का पूजन किया जाता है। रात्रिकाल में घी और कपूर सहित गुगल, धूप की आरती करके शिव महिमा का गुणगान किया जाता है। लगभग श्रावण मास के सभी सोमवारों को यही प्रक्रिया अपना‌ई जाती है। इस मास में लघुरुद्र, महारुद्र अथवा अतिरुद्र पाठ करानेका भी विधान है।

*अमोघ फलदाई है सोमवार व्रत*
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शास्त्रों और पुराणों में श्रावण सोमवार व्रत को अमोघ फलदाई कहा गया है। विवाहित महिलाओं को श्रावण सोमवार का व्रत करने से परिवार में खुशियां, समृद्घि और सम्मान प्राप्त होता है, जबकि पुरूषों को इस व्रत से कार्य-व्यवसाय में उन्नति, शैक्षणिक गतिविधियों में सफलता और आर्थिक रूप से मजबूती मिलती है। अविवाहित लड़कियां यदि श्रावण के प्रत्येक सोमवार को शिव परिवार का विधि-विधान से पूजन करती हैं तो उन्हें अच्छा घर और वर मिलता है।

*श्रावण सोमवार व्रत कथा*
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श्राव ण सोमवार की  कथा के अनुसार अमरपुर नगर में एक धनी व्यापारी रहता था। दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। नगर में उस व्यापारी का सभी लोग मान-सम्मान करते थे। इतना सबकुछ होने पर भी वह व्यापारी अंतर्मन से बहुत दुखी था क्योंकि उस व्यापारी का कोई पुत्र नहीं था। 

दिन-रात उसे एक ही चिंता सताती रहती थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके इतने बड़े व्यापार और धन-संपत्ति को कौन संभालेगा। 

पुत्र पाने की इच्छा से वह व्यापारी प्रति सोमवार भगवान शिव की व्रत-पूजा किया करता था। सायंकाल को व्यापारी शिव मंदिर में जाकर भगवान शिव के सामने घी का दीपक जलाया करता था। 

उस व्यापारी की भक्ति देखकर एक दिन पार्वती ने भगवान शिव से कहा- 'हे प्राणनाथ, यह व्यापारी आपका सच्चा भक्त है। कितने दिनों से यह सोमवार का व्रत और पूजा नियमित कर रहा है। भगवान, आप इस व्यापारी की मनोकामना अवश्य पूर्ण करें।' 

भगवान शिव ने मुस्कराते हुए कहा- 'हे पार्वती! इस संसार में सबको उसके कर्म के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। प्राणी जैसा कर्म करते हैं, उन्हें वैसा ही फल प्राप्त होता है।' 

इसके बावजूद पार्वतीजी नहीं मानीं। उन्होंने आग्रह करते हुए कहा- 'नहीं प्राणनाथ! आपको इस व्यापारी की इच्छा पूरी करनी ही पड़ेगी। यह आपका अनन्य भक्त है। प्रति सोमवार आपका विधिवत व्रत रखता है और पूजा-अर्चना के बाद आपको भोग लगाकर एक समय भोजन ग्रहण करता है। आपको इसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान देना ही होगा।' 

पार्वती का इतना आग्रह देखकर भगवान शिव ने कहा- 'तुम्हारे आग्रह पर मैं इस व्यापारी को पुत्र-प्राप्ति का वरदान देता हूं। लेकिन इसका पुत्र सोलह वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहेगा।' 

उसी रात भगवान शिव ने स्वप्न में उस व्यापारी को दर्शन देकर उसे पुत्र-प्राप्ति का वरदान दिया और उसके पुत्र के सोलह वर्ष तक जीवित रहने की बात भी बताई। 

भगवान के वरदान से व्यापारी को खुशी तो हुई, लेकिन पुत्र की अल्पायु की चिंता ने उस खुशी को नष्ट कर दिया। व्यापारी पहले की तरह सोमवार का विधिवत व्रत करता रहा। कुछ महीने पश्चात उसके घर अति सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र जन्म से व्यापारी के घर में खुशियां भर गईं। बहुत धूमधाम से पुत्र-जन्म का समारोह मनाया गया। 

व्यापारी को पुत्र-जन्म की अधिक खुशी नहीं हुई क्योंकि उसे पुत्र की अल्प आयु के रहस्य का पता था। यह रहस्य घर में किसी को नहीं मालूम था। विद्वान ब्राह्मणों ने उस पुत्र का नाम अमर रखा। 

जब अमर बारह वर्ष का हुआ तो शिक्षा के लिए उसे वाराणसी भेजने का निश्चय हुआ। व्यापारी ने अमर के मामा दीपचंद को बुलाया और कहा कि अमर को शिक्षा प्राप्त करने के लिए वाराणसी छोड़ आओ। अमर अपने मामा के साथ शिक्षा प्राप्त करने के लिए चल दिया। रास्ते में जहां भी अमर और दीपचंद रात्रि विश्राम के लिए ठहरते, वहीं यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे। 

लंबी यात्रा के बाद अमर और दीपचंद एक नगर में पहुंचे। उस नगर के राजा की कन्या के विवाह की खुशी में पूरे नगर को सजाया गया था। निश्चित समय पर बारात आ गई लेकिन वर का पिता अपने बेटे के एक आंख से काने होने के कारण बहुत चिंतित था। उसे इस बात का भय सता रहा था कि राजा को इस बात का पता चलने पर कहीं वह विवाह से इनकार न कर दें। इससे उसकी बदनामी होगी। 

वर के पिता ने अमर को देखा तो उसके मस्तिष्क में एक विचार आया। उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर में ले जाऊंगा। 

वर के पिता ने इसी संबंध में अमर और दीपचंद से बात की। दीपचंद ने धन मिलने के लालच में वर के पिता की बात स्वीकार कर ली। अमर को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी चंद्रिका से विवाह करा दिया गया। राजा ने बहुत-सा धन देकर राजकुमारी को विदा किया। 

अमर जब लौट रहा था तो सच नहीं छिपा सका और उसने राजकुमारी की ओढ़नी पर लिख दिया- 'राजकुमारी चंद्रिका, तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ था, मैं तो वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने जा रहा हूं। अब तुम्हें जिस नवयुवक की पत्नी बनना पड़ेगा, वह काना है।' 

जब राजकुमारी ने अपनी ओढ़नी पर लिखा हुआ पढ़ा तो उसने काने लड़के के साथ जाने से इनकार कर दिया। राजा ने सब बातें जानकर राजकुमारी को महल में रख लिया। उधर अमर अपने मामा दीपचंद के साथ वाराणसी पहुंच गया। अमर ने गुरुकुल में पढ़ना शुरू कर दिया। 

जब अमर की आयु १६ वर्ष पूरी हुई तो उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को भोजन कराया और खूब अन्न, वस्त्र दान किए। रात को अमर अपने शयनकक्ष में सो गया। शिव के वरदान के अनुसार शयनावस्था में ही अमर के प्राण-पखेरू उड़ गए। सूर्योदय पर मामा अमर को मृत देखकर रोने-पीटने लगा। आसपास के लोग भी एकत्र होकर दुःख प्रकट करने लगे। 

मामा के रोने, विलाप करने के स्वर समीप से गुजरते हुए भगवान शिव और माता पार्वती ने भी सुने। पार्वतीजी ने भगवान से कहा- 'प्राणनाथ! मुझसे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहे। आप इस व्यक्ति के कष्ट अवश्य दूर करें।' 

भगवान शिव ने पार्वतीजी के साथ अदृश्य रूप में समीप जाकर अमर को देखा तो पार्वतीजी से बोले- 'पार्वती! यह तो उसी व्यापारी का पुत्र है। मैंने इसे सोलह वर्ष की आयु का वरदान दिया था। इसकी आयु तो पूरी हो गई।' 

पार्वतीजी ने फिर भगवान शिव से निवेदन किया- 'हे प्राणनाथ! आप इस लड़के को जीवित करें। नहीं तो इसके माता-पिता पुत्र की मृत्यु के कारण रो-रोकर अपने प्राणों का त्याग कर देंगे। इस लड़के का पिता तो आपका परम भक्त है। वर्षों से सोमवार का व्रत करते हुए आपको भोग लगा रहा है।' पार्वती के आग्रह करने पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया और कुछ ही पल में वह जीवित होकर उठ बैठा। 

शिक्षा समाप्त करके अमर मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां अमर का विवाह हुआ था। उस नगर में भी अमर ने यज्ञ का आयोजन किया। समीप से गुजरते हुए नगर के राजा ने यज्ञ का आयोजन देखा। 

राजा ने अमर को तुरंत पहचान लिया। यज्ञ समाप्त होने पर राजा अमर और उसके मामा को महल में ले गया और कुछ दिन उन्हें महल में रखकर बहुत-सा धन, वस्त्र देकर राजकुमारी के साथ विदा किया। 

रास्ते में सुरक्षा के लिए राजा ने बहुत से सैनिकों को भी साथ भेजा। दीपचंद ने नगर में पहुंचते ही एक दूत को घर भेजकर अपने आगमन की सूचना भेजी। अपने बेटे अमर के जीवित वापस लौटने की सूचना से व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ। 

व्यापारी ने अपनी पत्नी के साथ स्वयं को एक कमरे में बंद कर रखा था। भूखे-प्यासे रहकर व्यापारी और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो दोनों अपने प्राण त्याग देंगे। 

व्यापारी अपनी पत्नी और मित्रों के साथ नगर के द्वार पर पहुंचा। अपने बेटे के विवाह का समाचार सुनकर, पुत्रवधू राजकुमारी चंद्रिका को देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- 'हे श्रेष्ठी! मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लंबी आयु प्रदान की है।' व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ। 

सोमवार का व्रत करने से व्यापारी के घर में खुशियां लौट आईं। शास्त्रों में लिखा है कि जो स्त्री-पुरुष सोमवार का विधिवत व्रत करते और व्रतकथा सुनते हैं उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

शिव और शंकर में भेद

*शिव और शंकर में भेद*
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आप शिव के उपासक हैं या शंकर के ?
चौंक गए ना ये सवाल सुनकर…

नोट:-यदि लेख पूरा पढ़ सकते हैं तभी आगे बढ़े अन्यथा यह लेख आपके लिए नहीं है।

वैसे भी कौन मानेगा कि शिव और शंकर अलग अलग है. हमें तो बचपन से यही बताया गया है ना कि शिवशंकर एक ही है. यहाँ तक की दोनों नाम हम अक्सर साथ में ही लेते है।

अगर हम आपको ये कहे कि शिव और शंकर ना सिर्फ अलग अलग है बल्कि शंकर की उत्त्पति भी शिव से ही हुई है. शिव ही प्रारंभ है और शिव ही अंत है।

शिव और शंकर में सबसे बड़ा और समझने में आसान अंतर दोनों की प्रतिमा में है।

शंकर की प्रतिमा जहाँ पूर्ण आकार में होती है वही शिव की प्रतिमा लिंगम रूप में होती है या अंडाकार अथवा अंगूठे के आकार की होती है.

*महादेव शंकर*
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शंकर भी ब्रह्मा और विष्णु के तरह देव है और सूक्ष्म शरीरधारी है. ब्रम्हा और विष्णु की तरह शंकर भी सूक्ष्म लोक में रहते है. शंकर भी विष्णु और ब्रम्हा की तरह ही परमात्मा शिव की ही रचना है. शंकर को महादेव भी कहा जाता है परन्तु शंकर को परमात्मा नहीं कहा जाता क्योंकि शंकर का कार्य केवल संहार है. पालन एवं निर्माण शंकर का कर्तव्य नहीं है.

*शिव* 
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शंकर से अलग शिव परमात्मा है. शिव का कोई शरीर नहीं कोई रूप नहीं है. शिव, शंकर, ब्रम्हा और विष्णु की तरह सूक्ष्मलोक में नहीं रहते. उनका निवास तो सूक्ष्म लोक से परे है. शिव ही ब्रम्हा विष्णु शंकर त्रिदेवों के रचियेता है. शिव ही विश्व का निर्माण, कल्याण और विनाश करते है जिसका माध्यम ब्रह्मा, विष्णु और महेश होते है।

देखा आपने की कैसे एक दुसरे से भिन्न है शिव और शंकर. अब आपको आसानी होगी ये जानने की कि किसकी उपासना करते है आप बात को आगे बढ़ाते हुए आपको एक और जानकारी देते है।

सबका जन्मदिन होता है क्या आपने कभी सोचा है कि शिव ही एक मात्र ऐसे है जिनके जन्मदिन को शिवरात्रि कहा जाता है. इसका भी एक कारण है रात्रि का मतलब शाब्दिक नहीं है यहाँ रात्रि का अर्थ कुछ और है।

यहाँ रात्रि से अभिप्राय ये है कि पाप, अन्याय, बुराइयाँ. जब काल के साथ साथ मनुष्य नीचता की और बढ़ता चला गया उस समय की तुलना रात्रि से की गयी है और उस गहरी रात्रि को शिव प्रकट होते है अर्थात जन्म लेते है।

शिव के जन्म की रात्रि के बाद रात्रि अर्थात अन्धकार का अंत हो जाता है और मनुष्यता एक बार फिर उन्नत हो जाती है।

ये था शिव और शंकर में अंतर और शिव जन्म को शिव रात्रि कहने का भेद।

सती और पार्वती के पति भगवान शंकर को सदाशिव के कारण शिव भी कहा जाता है। हम इन्हीं भगवान शंकर की बात करेंगे जिन्हें महादेव भी कहा गया है। भगवान शंकर के बारे में कुछ इस तरह की भ्रंतियां फैली हैं जो कि अपमानजनक है। वे लोग इसके दोषी हैं, जो जाने-अनजाने भगवान शिव का अपमान करते रहते हैं।

यदि आप भगवान शंकर के भक्त हैं तो आपको यह जान और सुन कर धक्का लगना चाहिये, क्योंकि भगवान शंकर हिन्दू धर्म का मूल तना है, रीढ़ है। रामचरित मानस में भगवान राम कहते हैं कि 'शिव का द्रोही मुझे स्वप्न में भी पसंद नहीं।'...

अपराधियों का साथी या उसे नजरअंदाज करने वाला भी अपराधी होता है। शिव के मंदिर में जाने और वहां पूजा, प्रार्थना करने के कुछ नियम होते है। यह सही है कि भगवान शंकर भोलेनाथ है। वे बड़े दयालु हैं, आपको क्षमा कर देंगे। लेकिन आपने उनके मंदिर में जाकर किसी भी तरह से नियम विरूद्ध कार्य किया या अपमान किया है तो आपको माता कालिका देख रही है। भगवान भैरव और शनिदेव भी देख रहे हैं। शैव पंथ पर चलाना या शिव की पूजा करना कठिन है। यह अग्निपथ है।

आईए हम आपको बताते हैं कि भगवान शिव के बारे में समाज में किस तरह की भ्रांतियां फैला रखी और उस भ्रांति को अभी तक बढ़ावा दिया जा रहा है।

क्या शिवलिंग का अर्थ शिव का शिश्न है?
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यह दु:ख की बात है कि बहुत से लोगों ने कालांतर में योनि और शिश्न की तरह शिवलिंग की आकृति को गढ़ा और वे उसके चित्र भी फेसबुक और व्हाट्सऐप पर पोस्ट करते रहते हैं। वे इसके लिए कुतर्क भी देते रहते हैं। उक्त सभी लोगों को मरने के बाद इसका जवाब देना होगा, क्योंकि शिव का अपमान करने वाला किसी भी परिस्थिति में बच नहीं सकता। शिव से ही सभी धर्म है और शिव से ही प्रलय भी।

दरअसल, शिवलिंग का अर्थ है भगवान शिव का आदि-अनादी स्वरूप। शून्य, आकाश, अनंत, ब्रह्मांड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। जिस तरह भगवान विष्णु का प्रतीक चिन्ह शालिग्राम है उसी तरह भगवान शंकर का प्रतीक चिन्ह शिवलिंग है। इस पींड की आकृति हमारी आत्मा की ज्योति की तरह होती है।
 
*वायुपुराण* के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। यही सबका आधार है। बिंदु एवं नाद अर्थात शक्ति और शिव का संयुक्त रूप ही तो शिवलिंग में अवस्थित है। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना की जाती है।
 
*स्कन्दपुराण* में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है। धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनंत शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है। वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनंत ब्रह्मांड (ब्रह्मांड गतिमान है) का अक्स/धुरी ही लिंग है। पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है जैसे- प्रकाश स्तंभ लिंग, अग्नि स्तंभ लिंग, ऊर्जा स्तंभ लिंग, ब्रह्मांडीय स्तंभ लिंग आदि। लेकिन बौद्धकाल में धर्म और धर्मग्रंथों के बिगाड़ के चलते लिंग को गलत अर्थों में लिया जाने लगा जो कि आज तक प्रचलन में है।
 
*ब्रह्मांड का प्रतीक ज्योतिर्लिंग*
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शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही हमारी आकाशगंगा की तरह है। यह शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड में घूम रहे पिंडों का प्रतीक है, कुछ लोग इसे यौनांगों के अर्थ में लेते हैं और उन लोगों ने शिव की इसी रूप में पूजा की और उनके बड़े-बड़े पंथ भी बन गए हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने धर्म को सही अर्थों में नहीं समझा और अपने स्वार्थ के अनुसार धर्म को अपने सांचे में ढाला।
 
शिवलिंग का अर्थ है भगवान शिव का आदि-अनादी स्वरूप। शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कन्दपुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है। धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है। वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनन्त ब्रह्माण्ड (ब्रह्माण्ड गतिमान है) का अक्स/धुरी ही लिंग है। पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है जैसे- प्रकाश स्तंभ लिंग, अग्नि स्तंभ लिंग, उर्जा स्तंभ लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ लिंग आदि। लेकिन बौद्धकाल में धर्म और धर्मग्रंथों के बिगाड़ के चलते लिंग को गलत अर्थों में लिया जाने लगा जो कि आज तक प्रचलन में है।
 
शिव की दो काया है। एक वह, जो स्थूल रूप से व्यक्त किया जाए, दूसरी वह, जो सूक्ष्म रूपी अव्यक्त लिंग के रूप में जानी जाती है। शिव की सबसे ज्यादा पूजा लिंग रूपी पत्थर के रूप में ही की जाती है। लिंग शब्द को लेकर बहुत भ्रम होता है। संस्कृत में लिंग का अर्थ है चिह्न। इसी अर्थ में यह शिवलिंग के लिए इस्तेमाल होता है। शिवलिंग का अर्थ है : शिव यानी परमपुरुष का प्रकृति के साथ समन्वित-चिह्न।
 
*ज्योतिर्लिंग*
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ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में पुराणों में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं। वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के १२ खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।

*क्या भांग और गांजा पीते हैं भगवान शंकर?*
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इसका जवाब है नहीं। शिव पुराण सहित किसी भी ग्रंथ में ऐसा नहीं लिखा है कि भगवान शिव या शंकर भांग, गांजा आदि का सेवन करते थे। बहुत से लोगों ने भगवान शिव के ऐसे ‍भी चित्र बना लिए हैं जिसमें वे चिलम पीते हुए नजर आते हैं। यह दोनों की कृत्य भगवान शंकर का अपमान करने जैसा है। यह भगवान शंकर की छवि खराब किए जाने की साजिश है।
 
यदि आपके घर, मंदिर या अन्य किसी भी स्थान पर भगवान शंकर का ऐसा चित्र या मूर्ति लगा है जिसमें वे चिलम पीते या भांग का सेवन करते हुए नजर आ रहे हैं तो उसे आप तुरंत ही हटा दें तो अच्‍छा है। यह भगवान शंकर का घोर अपमान है।

यह भी कितना दु:ख भरा है कि कई लोगों ने भगवान शंकर पर ऐसे गीत और गाने बनाएं हैं जिसमें उन्हें भांग का सेवन करने का उल्लेख किया गया है। कोई गीतकार या गायक यह जानने का प्रयास नहीं करता है कि इस बारे में सच क्या है। मैं जो गाना गा रहा हूं या गीत लिख रहा हूं उसका आधार क्या है?
 
यह तो छोड़िये बड़े बड़े पंडित भी शिव के मंदिरों में जब भांग का अभिषेक करते हैं तो फिर अन्य किसी पर दोष देने का कोई मतलब नहीं। ये सभी पंडित नर्क की आग में जलने वाले हैं। यह तो अब आम हो चला है कि शिवरात्रि या महाशिवरात्रि के दिन लोग भांग घोटकर पीते हैं। किसी को भांग पीने की मनाही नहीं हैं लेकिन शिव के नाम पर पीना उनका अपमान ही है।

*प्रश्न* 
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क्या भगवान शंकर को नहीं मालूम था कि गणेशजी पार्वती के पुत्र हैं? फिर उन्होंने अनजाने में उनकी गर्दन काट दी और फिर जब उन्हें मालूम पड़ा तो उन्होंने उस पर हाथी की गर्दन जोड़ दी? जब शिव यह नहीं जान सके कि यह मेरा पुत्र है तो फिर वह कैसे भगवान?

*उत्तर*
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भगवान शिव के संपूर्ण चरित्र को पढ़ना जरूरी है। उनके जीवन को लीला क्यों कहा जाता है? लीला उसे कहते हैं जिसमें उन्हें सबकुछ मालूम रहता है फिर भी वे अनजान बनकर जीवन के इस खेल को सामान्य मानव की तरह खेलते हैं। लीला का अर्थ नाटक या कहानी नहीं। एक ऐसा घटनाक्रम जिसकी रचना स्वयं प्रभु ही करते हैं और फिर उसमें इन्वॉल्व होते हैं। वे अपने भविष्य के घटनाक्रमों को खुद ही संचालित करते हैं। दरअसल, भविष्य में होने वाली घटनाओं को अपने तरह से घटाने की कला ही लीला है। यदि भगवान शिव ऐसा नहीं करते तो आज गणेश प्रथम पूज्जनीय देव न होते और न उनकी गणना देवों में होती।
 
विशेष दार्शनिक क्षेत्रों में माना जाता है कि लीला ऐसी वृत्ति है जिसका आनन्द प्राप्ति के सिवा और कोई अभिप्राय नहीं। इसीलिए कहते हैं सृष्टि और प्रलय सब ईश्वर की लीला ही है। अवतार धारण करने पर इस लोक में आकर भगवान् जो कृत्य करते हैं, उन सब की गिनती भी लीलाओं में ही होती है। लोक व्यवहार में वे सब कृत्य जो भगवान् के किसी अवतार के कार्यों के अनुकरण पर अभिनय या नाटक के रूप में लोगों को दिखाए जाते हैं।
 
भगवान राम को सभी कुछ मालूम था कि क्या घटनाक्रम होने वाला है। उन्हें मालूम था कि मृग के रूप में आया यह राक्षस कौन है। लेकिन सीता ने उनकी नहीं मानी और तब उन्होंने लक्ष्मण को सीता के पहरे के लिए छोड़ कर मृग के पीछे चले गए। 
 
इसी तरह भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू किसी को नहीं मार रहा है। यह सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। अब तो यह बस खेल है। बर्बरिक से जब महाभारत का वर्णन पूछा गया तो उसने कहा कि मुझे तो दोनों ही ओर से श्रीकृष्ण ही यौद्धाओं को मारते हुए नजर आ रहे थे। इसी तरह कहा जाता है क सहदेव को महाभारत का परिणाम मालूम था लेकिन श्रीकृष्ण ने उन्हें चुप रहने के लिए कहा था। यही तो लीला है।

*क्या शिव-पार्वती हैं 'आदम और ईव'?*
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भगवान शंकर को आदिदेव भी कहा जाता है। शंकर के दो पुत्र थे, गणेश और कार्तिकेय। जैसा कि कहा गया है कि आदम के दो पुत्र कैन और हाबिल थे। कैन बुरा और हाबिल अच्छा। पार्वती ही क्या ईव है। कुछ विद्वानों का मानना है कि स्वायंभुव मनु और शतरूपा ही आदम और हव्वा थे।

शिव का पहला विवाह राजा दक्ष की पुत्री सती से हुआ था जो आग में कूद कर भस्म हो गई थी। उनका दूसरा विवाह पर्वतराज हिमालय की पुत्री उमा से हुआ जिन्हें पार्वती कहा जाता है। पार्वती से उनको एक पुत्र मिला।
 
प्रमुख रूप से शिव के दो पुत्र थे, गणेश और कार्तिकेय। गणेशजी की उत्पत्ति कैसे हुई यह सभी जानते हैं। यह शिव और पर्वती के मिलन से नहीं जन्में। शिव के दूसरे पुत्र कार्तिकेय का जन्म शिव-पार्वती मिलन से हुआ। शिव का एक तीसरा पुत्र था जिसका नाम विद्युत्केश था। विद्युत्केश अनाथ बालक था जिसे शिव और पार्वती ने पालपोस कर बड़ा किया था। इसका नाम उन्होंने सुकेश रखा था। शिवजी का एक चौथा पुत्र था जिसका नाम था जलंधर। भगवान शिव ने अपना तेज समुद्र में फेंक दिया इससे जलंधर उत्पन्न हुआ। जलंधर शिव का सबसे बड़ा दुश्मन बना। इस तरह शिव के और भी कई पुत्र थे। जैसे अंधक, सास्तव, भूमा और खुजा। शिव की कथा और आदम की कथा में जरा भी मेल नहीं है।
 
शिव और पार्वती को आदम और हव्वा सिद्ध करने वाले मानते हैं कि ईडन गार्डन श्रीलंका में था। श्रीलंका आज जैसा द्वीप नजर आता है यह पहले ऐसा नहीं था। यह इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा और भारत से जुड़ा हुआ था। वे कहते हैं कि शिव और पार्वती भी कैलाश पर्वत से श्रीलंका रहने चले गए थे जबकि कुबेर ने उन्हें सोने की लंका बनवाकर दी थी। हजरत आदम जब आसमान की जन्नत (ईडन उद्यान) से निकाले गए तो सबसे पहले 'हिंदुस्तान की जमीं' पर ही उतारे गए, जहां उन्होंने सबसे पहले कदम रखे उसे आदम चोटी कहते हैं। माना जाता है कि ह. आदम अलै. का 'तनूर' हिंद में था। माना जाता है कि कश्मीर ही उस दौर का स्वर्ग (जन्नत) था। वहां आज भी सेबफल की खेती होती है।
 
शोध से बता चला कि सेब फल को मनुष्य ने ०८ हजार वर्ष पहले ही खाना शुरू किया था। इससे पहले मनुष्य सेबफल के बारे में जानता तक नहीं था। माना जाता है कि सेबफल की उत्पत्ति मध्य एशिया के देश कजाखिस्ता के जंगलों में हुई थी और वहीं से सेब बाकी की दुनिया में पहुंचे।  

*प्रश्न* 
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क्या भगवान शिव ही शंकर, महेश, रुद्र, महाकाल, भैरव आदि हैं?

*उत्तर*  
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पहली बात तो यह कि हिन्दू धर्म का संबंध वेदों से है पुराणों से नहीं। त्रिदेवों में से एक महेश को ही भगवान शिव या शंकर भी कहा जाता है। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। उक्त सभी की कहानियों को पुराणों में विस्तार मिला और सभी को एक ही शिव से जोड़ देने से भ्रांतियों का भी विस्तार हुआ। 

औघड़ या तंत्रिकों के मत में जो शिव या शंकर का वर्णन किया गया है वह दरअसल, शिव के भैरव रूप का वर्णन है। यह भी हो सकता है कि यह उनके मन की व्याख्या हो या यह कि वे तंत्र के घोर मार्ग को अपनाने के लिए शिव की आड़ लेते हों। उक्त मत को रामचरित मानस में कोल मत का कहा गया है जो कि वेद विरुद्ध है। वर्तमान में कुछ लोग साई बाबा को ही शिव का अवतार घोषित करने में लगे हैं तो अब क्या करें ऐसे लोगों का। इसी तरह कालांतर में ऐसे कई लोग, संत या ऋषि हुए हैं जिनको शिव से जोड़ कर देखा गया और उनकी कथाएं लिखकर कर समाज में भ्रम फैलाया गया।

माना जाता है कि प्रत्येक काल में अलग-अलग रुद्र हुए हैं। इस तरह १२ रुद्र हुए। शिव निकारार सत्य है तो शंकर साकार। पुराणों में ऐसी कई बातों का उल्लेख है जिसको शंकर से जोड़ दिया गया है। जैसे भैरव पीते हैं तो इसका यह मतलब नहीं कि शंकर भी पीते हैं।
 
शिव, शंकर, महादेव : शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं– शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है।
 
शिव ने सृष्टि की स्थापना, पालना और विलय के लिए क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु और महेश नामक तीन सूक्ष्म देवताओं की रचना की। इस तरह शिव ब्रह्मांड के रचयिता हुए और शंकर उनकी एक रचना। भगवान शिव को इसीलिए महादेव भी कहा जाता है। इसके अलावा शिव को १०८ दूसरे नामों से भी जाना और पूजा जाता है।
 
*१२ रुद्र* 
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पहले महाकाल, दूसरे तारा, तीसरे बाल भुवनेश, चौथे षोडश श्रीविद्येश, पांचवें भैरव, छठें छिन्नमस्तक, सातवें द्यूमवान, आठवें बगलामुख, नौवें मातंग, दसवें कमल। अन्य जगह पर रुद्रों के नाम:- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शम्भू, चण्ड तथा भव का उल्लेख मिलता है।
 
अन्य रुद्र या शंकर के अंशावतार- इन अवतारों के अतिरिक्त शिव के दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सुनटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात और नतेश्वर आदि अवतारों का उल्लेख भी 'शिव पुराण' में हुआ है। हनुमान ग्यारहवें रुद्रावतार माने जाते हैं।

*भैरव*
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भैरव भी कई हुए हैं जिसमें से काल भैरव और बटुक भैरव दो प्रमुख हैं। माना जाता है कि महेश (नंदी) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शिव की पंचायत के सदस्य हैं। वैदिक काल के रुद्र और उनके अन्य स्वरूप तथा जीवन दर्शन को पुराणों में विस्तार मिला।
 
*शिव के द्वारपाल* 
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नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।

*शिव पंचायत के देवता*
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०१.सूर्य, ०२.गणपति, ०३.देवी, ०४.रुद्र और ०५.विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।

*शिव पार्षद* 
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जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं ‍उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि ‍शिव के पार्षद हैं। यहां देखा गया है कि नंदी और भृंगी गण भी है, द्वारपाल भी है और पार्षद भी।
 
*शिव गण*
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भगवान शिव के गणों में भैरव को सबसे प्रमुख माना जाता है। उसके बाद नंदी का नंबर आता और फिर वीरभ्रद्र। जहां भी शिव मंदिर स्थापित होता है, वहां रक्षक (कोतवाल) के रूप में भैरवजी की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। भैरव दो हैं- काल भैरव और बटुक भैरव। दूसरी ओर वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया। देव संहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने अपनी जटा से ‘वीरभद्र’ नामक गण उत्पन्न किया।
 
*इस तरह उनके ये प्रमुख गण थे-*
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भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। ये सभी गण धरती और ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं और प्रत्येक मनुष्य, आत्मा आदि की खैर-खबर रखते हैं।
 
*सप्तऋषि गण शिव के शिष्य हैं*
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शिव ने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए सात ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7 बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन 7 रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं। अब यदि उक्त ऋषियों या उनके परंपरा के किसी महान ऋषि को हम शिव या उनका अवतार ही मानने लगे और उनका गुणगान करने लगे तो यह उचित नहीं होगा। इस तरह भ्रम का विस्तार ही होता है। अंगिरा ऋषि को शिव का सक्षात् रूप माना जाता है। उसी तरह हम यदि भैरव को भी शिव माने तो यह पुराणिक विस्तार ही है।
 
*देवों के देव महादेव*
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देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं।
संकलित

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Sunday, July 5, 2020

भगवान शिव की पूजन विधि

*भगवान शिव की पूजन विधि*

*भगवान शिवजी की पूजा में गंगाजल के उपयोग को विशिष्ट माना जाता है। शिवजी की पूजा आराधना करते समय उनके पूरे परिवार अर्थात् शिवलिंग, माता पार्वती, कार्तिकेयजी, गणेशजी और उनके वाहन नन्दी की संयुक्त रूप से पूजा की जानी चाहिए। शिवजी के स्नान के लिए गंगाजल का उपयोग किया जाता है। शिवजी की पूजा में लगने वाली सामग्री में जल, दूध, दही, चीनी, घी, शहद, पंचामृत, कलावा, वस्त्र, जनेऊ, चन्दन, रोली, चावल, फूल, बिल्वपत्र, दूर्वा, फल, विजिया, आक, धूतूरा, कमल−गट्टा, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, पंचमेवा, धूप _(अगरबत्ती न लें तो अच्छा रहेगा, क्योंकि अगरबत्ती में बांस की लकड़ी प्रायः लगी रहती है।)_, दीप का उपयोग किया जाता है।*

*सावन के महीने में प्रथम सोमवार से इस व्रत को शुरू किया जाता है। प्रत्येक सोमवार को गणेशजी, शिवजी, पार्वतीजी की पूजा की जाती है। इस सोमवार व्रत से पुत्रहीन पुत्रवान और निर्धन धनवान होते हैं। स्त्री अगर यह व्रत करती है, तो उसके पति की शिवजी रक्षा करते हैं। सोमवार का व्रत साधारण तया दिन के तीसरे पहर तक होता है। इस व्रत में फलाहार या पारण का कोई खास नियम नहीं है, किंतु आवश्यक है कि, दिन−रात में केवल एक ही समय भोजन करें। सोमवार के व्रत में शिव−पार्वती का पूजन करना चाहिए।*

*सावन के महीने में गायत्री मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र, पंचाक्षर मंत्र इत्यादि शिव मंत्रों का जाप शुभ फलों में वृद्धि करने वाला होता है। सावन के पवित्र महीने में भक्त शिवालय में स्थापित, प्राण-प्रतिष्ठित शिवलिंग या धातु से निर्मित लिंग का गंगाजल व दुग्ध से रुद्राभिषेक कराते हैं। शिवलिंग का रुद्राभिषेक भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। इन दिनों शिवलिंग पर गंगा जल द्वारा अभिषेक करने से भगवान शिव अतिप्रसन्न होते हैं। शिवलिंग का पंचामृत से अभिषेक करने पर योग्य संतान की प्राप्ति होती है। ईख (गन्ना) के रस से धन संपदा की प्राप्ति होती है और कुशोदक से समस्त व्याधि शांत होती है। दही से पशु धन की प्राप्ति होती है और शहद से शिवलिंग पर अभिषेक करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।*

*_यदि आप भगवान शिव को प्रसन्न करना चाहते हैं तो इन कुछ बातों पर भी अमल कर सकते हैं-_*

- सावन के महीने में रुद्राक्ष की माला धारण करें व रुद्राक्ष माला से शिव मंत्र का जाप करें।

- पूजन के समय भगवान शिव को भभूती लगायें और अपने मस्तक पर भी भभूती लगायें।

- सावन मास में शिव चालीसा और आरती का पाठ करें।

- महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना चाहिए।

- सावन के महीने में सभी सोमवार को व्रत रखें।

- बेलपत्र, दूध, शहद, पंचामृत और जल से शिवलिंग का अभिषेक करें।

- शिवलिंग पर केसर चढ़ाने से आप सौम्य होंगे।

- चीनी से शिवलिंग का अभिषेक करने से सुख और वैभव की प्राप्ति होगी और दरिद्रता चली जायेगी।

- शिवलिंग पर इत्र चढ़ाने से विचार और मन पवित्र होंगे।

- शिवलिंग का दही से अभिषेक करने से आने वाली परेशानियां दूर चली जाएंगी।

- घी से अभिषेक करने से शक्ति बढ़ेगी और शिवलिंग पर चंदन चढ़ाने से आपका यश बढ़ेगा।

*संक्षिप्त किंतु पर्याप्त शिव पूजन की विधि निम्न प्रकार पूर्ण की जा सकती है।*

*-श्रावण मास की किसी भी तिथि या दिन को विशेषतः सोमवार को प्रातःकाल उठकर शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर त्रिदल वाले सुन्दर, साफ, बिना कटे-फटे कोमल बिल्व पत्र ५, ७ या ९ आदि की संख्या में लें। अक्षत अर्थात बिना टूटे-फूटे कुछ चावल के दाने लें।*
 
*-सुन्दर साफ लोटे या किसी सुंदर पात्र में जल यदि संभव हो सके, तो गंगा जल लें। तत्पश्चात अपनी सामर्थ्य के अनुसार गंध, चंदन, धूप आदि लें।*

*> मंत्र-*
 
*'अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशा।*
*सर्वेषामवरोधेन ब्रह्मकर्म समारभे।*
*अपसर्पन्तु ते भूताः ये भूताः भूमिसंस्थिताः।*
*ये भूता विनकर्तारस्ते नष्टन्तु शिवाज्ञया।'*
 
*तत्पश्चात यदि शिवलिंग हो तो (यदि शिवलिंग उपलब्ध न हो तो पीपल या बिल्व अर्थात बेल के वृक्ष को ही) उसे स्वच्छ जल से धोएं और निम्न मंत्र पढ़ते जाएं-*
 
*मंत्र-*

 'गंगा सिन्धुश्च कावेरी यमुना च सरस्वती। रेवा महानदी गोदा अस्मिन्‌ जले सन्निधौ कुरु।'
 
*तत्पश्चात भगवान (वृक्ष) के ऊपर अक्षत चढ़ाएं और यह मंत्र पढ़ें-*
 
*मंत्र-* 

'ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया ऽअधूड्ढत। अस्तोड्ढत स्वभानवोव्विप्प्रान विष्ट्ठयामती योजान्विन्द्रते हरी।'
 
*इसके बाद यदि पुष्प हो तो भगवान को फूल अर्पित करें और यह मंत्र पढ़ते जाएं-*
 
*मंत्र-* 

''ॐ औषधि प्रतिमोदध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरीः। अष्वाऽइव सजित्वरीर्व्वीरुधः पारयिष्णवः।'
 
*पुनः हल्दी-चंदनादि जो भी उपलब्ध हो, उसका शिवलिंग पर लेप लगाएं और निम्न मंत्र पढ़ते जाएं-*
 
*मंत्र-* 

'ॐ भूः भुर्वः स्वः ॐ त्र्यंम्बकं यजामहे सुगंधिम्‌ पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्‌ मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतम्।'
 
*तत्पश्चात भगवान को धूप अर्पण करें तथा भगवान को बिल्वपत्र अर्पण करें और यह मंत्र पढें-*
 
*मंत्र-* 

'काशीवास निवासिनाम्‌ कालभैरव पूजनम्‌। कोटिकन्या महादानम्‌ एक बिल्वं समर्पणम्‌। दर्षनं बिल्वपत्रस्य स्पर्षनं पापनाशनम्‌। अघोर पाप संहार एकबिल्वं शिवार्पणम। त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रयायुधम्‌। त्रिजन्मपाप संहारं एकबिल्वं शिवार्पणम।'
 
*तत्पश्चात जल या गंगा जल भगवान को चढ़ाएं और यह मंत्र पढ़ें-*
 
*मंत्र-*

'गंगोत्तरी वेग बलात्‌ समुद्धृतं सुवर्ण पात्रेण हिमांषु शीतलं सुनिर्मलाम्भो ह्यमृतोपमं जलं गृहाण काशीपति भक्त वत्सल।'

*> और सबसे अंत में क्षमा-याचना करें। मंत्र इस प्रकार है-*
 
'अपराधो सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निषं मया, दासोऽयमिति माम्‌ मत्वा क्षमस्व परमेश्वर। आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनं पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर। मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर, यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे'
 
*किंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि, जो मंत्र नहीं जानता है, वह पूजा नहीं कर सकता। बिना मंत्र पढ़े भी यह समस्त सामग्री भगवान को अर्पित की जा सकती है। केवल विश्वास एवं श्रद्धा होनी चाहिए।*
 
*भगवान भोलेनाथ ने स्वयं कहा है कि-*
 
'न मे प्रियष्चतुर्वेदी मद्भभक्तः ष्वपचोऽपि यः। तस्मै देयं ततो ग्राह्यं स च पूज्यो यथा ह्यहम्‌।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तस्याहं न प्रणस्यामि स च मे न प्रणस्यति।'
 
_अर्थात:- जो भक्तिभाव से बिना किसी वेद मंत्र के उच्चारण किए मात्र पत्र, पुष्प, फल अथवा जल समर्पित करता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता हूं और वह भी मेरी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होता है।_
 
*श्रावण मास की नवमी तिथि की महत्ता प्रतिपादित करते हुए शिवपुराण की विद्येश्वर संहिता में लिखा है कि, कर्क संक्रांति से युक्त श्रावण मास की नवमी तिथि को मृगशिरा नक्षत्र के योग में अम्बिका का पूजन करें। वे संपूर्ण मनोवांछित भोगों और फलों को देने वाली हैं। ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले पुरुष को उस दिन अवश्य उनकी पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार की विशेष पूजा से जन्म-जन्मांतर के पापों का सर्वनाश हो जाता है।*
 
*इस प्रकार श्रावण मास में औघड़ दानी बाबा भोलेनाथ की पूजा का सद्यः फल प्राप्त किया जा सकता है। विशेष शनिकृत पीड़ा चाहे वह साढ़ेसाती हो या शनि की दशांतर्दशा हो, शनिजन्य चाहे कोई भी पीड़ा क्यों न हो? हर तरह के कष्टों से मुक्ति प्राप्त हो जाती है।*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Friday, July 3, 2020

कैप्टन मनोज कुमार पांडेय

कैप्टन मनोज कुमार पांडेय (अंग्रेज़ी: Captain Manoj Kumar Pandey, जन्म: 25 जून, 1975 - शहादत: 3 जुलाई, 1999) परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय व्यक्ति है। इन्हें यह सम्मान सन 1999 में मरणोपरांत मिला। पाकिस्तान के साथ कारगिल का युद्ध बहुत से कारणों से विशेष कहा जाता है। एक तो यह युद्ध बेहद कठिन और ऊँची चोटियों पर लड़ा गया, जो बर्फ से ढकी और दुर्गम थीं, साथ ही यह युद्ध पाकिस्तान की लम्बी तैयारी का नतीजा था जिसकी योजना उसके मन में बरसों से पल रही थीं। इसी युद्ध के कठिन मोर्चों में एक मोर्चा खालूबार का था जिसको फ़तह करने के लिए कमर कस कर कैप्टन मनोज कुमार पांडे अपनी 1/11 गोरखा राइफल्स की अगुवाई करते हुए दुश्मन से जूझ गई और जीत कर ही माने। भले ही, इस कोशिश में उन्हें अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा।

मनोज कुमार पांडे का जन्म 25 जून 1975 उत्तर प्रदेश राज्य के सीतापुर ज़िले के रुधा गाँव में हुआ था। उनके पिता गोपीचन्द्र पांडे तथा उनकी माँ के नाम मोहिनी था। मनोज की शिक्षा सैनिक स्कूल लखनऊ में हुई और वहीं से उनमें अनुशासन भाव तथा देश प्रेम की भावना संचारित हुई जो उन्हें सम्मान के उत्कर्ष तक ले गई। वह शुरू से ही एक मेधावी छात्र थे और खेल-कूद में भी बड़े उत्साह से भाग लेते थे। दरअसल उसकी इस प्रकृति के मूल में उनकी माँ की प्रेरणा थी। वह इन्हें बचपन से ही वीरता तथा सद्चरित्र की कहानियाँ सुनाया करती थीं और वह मनोज का हौसला बढ़ाती थीं कि वह हमेशा सम्मान तथा यश पाकर लौटें।

भारतीय सेना में प्रवेश
मनोज की माँ का आशीर्वाद और मनोज का सपना सच हुआ और वह बतौर एक कमीशंड ऑफिसर ग्यारहवां गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में पहुँच गए। उनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। ठीक अगले ही दिन उन्होंने अपने एक सीनियर सेकेंड लेफ्टिनेंट पी. एन. दत्ता के साथ एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भरा काम पूरा किया। यही पी.एन दत्ता एक आतंकवाडी गुट से मुठभेड़ में शहीद हो गए, और उन्हें अशोक चक्र प्राप्त हुआ जो भारत का युद्ध के अतिरिक्त बहादुरी भरे कारनामे के लिए दिया जाने वाला सबसे बड़ा इनाम है। एक बार मनोज को एक टुकड़ी लेकर गश्त के लिए भेजा गया। उनके लौटने में बहुत देर हो गई। इससे सबको बहुत चिंता हुई। जब वह अपने कार्यक्रम से दो दिन देर कर के वापस आए तो उनके कमांडिंग ऑफिसर ने उनसे इस देर का कारण पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया, 'हमें अपनी गश्त में उग्रवादी मिले ही नहीं तो हम आगे चलते ही चले गए, जब तक हमने उनका सामना नहीं कर लिया।' इसी तरह, जब इनकी बटालियन को सियाचिन में तैनात होना था, तब मनोज युवा अफसरों की एक ट्रेनिंग पर थे। वह इस बात से परेशान हो गये कि इस ट्रेनिंग की वजह से वह सियाचिन नहीं जा पाएँगे। जब इस टुकड़ी को कठिनाई भरे काम को अंजाम देने का मौका आया, तो मनोज ने अपने कमांडिंग अफसर को लिखा कि अगर उनकी टुकड़ी उत्तरी ग्लेशियर की ओर जा रही हो तो उन्हें 'बाना चौकी' दी जाए और अगर कूच सेंट्रल ग्लोशियर की ओर हो, तो उन्हें 'पहलवान चौकी' मिले। यह दोनों चौकियाँ दरअसल बहुत कठिन प्रकार की हिम्मत की माँग करतीं हैं और यही मनोज चाहते थे। आखिरकार मनोज कुमार पांडेय को लम्बे समय तक 19700 फीट ऊँची 'पहलवान चौकी' पर डटे रहने का मौका मिला, जहाँ इन्होंने पूरी हिम्मत और जोश के साथ काम किया।

अंतिम समय
मनोज कुमार पांडेय ने निर्णायक युद्ध के लिए 2-3 जुलाई 1999 को कूच किया जब उनकी 1/11 गोरखा राइफल्स की 'बी कम्पनी को खालूबार को फ़तह करने का जिम्मा सौंपा गया। मनोज पाँचवें नम्बर के प्लाटून कमाण्डर थे और उन्हें इस कम्पनी की अगुवाई करते हुए मोर्चे की ओर बढ़ना था। जैसे ही यह कम्पनी बढ़ी वैसे ही उनकी टुकड़ी को दोनों तरह की पहाड़ियों की जबरदस्त बौछार का सामना करना पड़ा। वहाँ दुश्मन के बंकर बाकायदा बने हुए थे। अब मनोज का पहला काम उन बंकरों को तबाह करना था। उन्होंने तुरंत हवलदार भीम बहादुर की टुकड़ी को आदेश दिया कि वह दाहिनी तरफ के दो बंकरो पर हमला करके उन्हें नाकाम कर दें और वह खुद बाएँ तरफ के चार बंकरों को नष्ट करने का जिम्मा लेकर चल पड़े। मनोज ने निडर होकर बोलना शुरू किया। और एक के बाद एक चार दुश्मन को मार गिराया। इस कार्यवाही में उनके कँधे और टाँगे तक घायल हो गई अब वह तीसरे बंकर पर धावा बोल रहे थे। अपने घावों की परवाह किए बिना वह चौथे बंकर की ओर बढ़े। उन्होंने जोर से गोरखा पल्टन का हल्ला लगाया और चौथे बंकर की ओर एक हैण्ड ग्रेनेड फेंक दिया। तभी दुश्मन की एक मीडियम मशीन गन से छूटी हुई होली उनके माथे पर लगी। उनके हाथ से फेंके हुए ग्रेनेड का निशाना अचूक रहा और ठीक चौथे बंकर पर लगा उसे तबाह कर गया लेकिन मनोज कुमार पांडे भी उसी समय धराशायी हो गए। मनोज कुमार पांडेय की अगुवाई में की गई इस कार्यवाही में दुश्मन के 11 जवान मारे गए और छह बंकर भारत की इस टुकड़ी के हाथ आ गए। उसके साथ ही हथियारों और गोलियों का बड़ा जखीरा भी मनोज की टुकड़ी के कब्जे में आ गया। उसमें एक एयर डिफैस गन भी थी। 6 बंकर कब्जे में आ जाने के बाद तो फ़तह सामने ही थी और खालूबार भारत की सेना के अधिकार में आ गया था। मनोज पांडे की शहादत ने उसके जवानों को इतना उत्तेजित कर दिया था कि वह पूरी दृढ़ता और बहादुरी से दुश्मन पर टूट पड़े थे और विजयश्री हथिया ली थी। मनोज कुमार पांडे 24 वर्ष की उम्र जी देश को अपनी वीरता और हिम्मत का उदाहरण दे गए। भले ही उनके साथी कहते रहे कि उन्होंने कभी बचपन के आनन्द से मुँह नहीं मोड़ा, लेकिन देश के प्रति वह इतना गम्भीर समर्पण जी गए, जिसको कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...